MP KA ITIHAS { मध्य प्रदेश के राजवंश भाग 01 }

madhya pradesh ke rajvansh

मध्य प्रदेश का इतिहास 

MADHYA PRADESH KA ITIHAS


महाकाव्य काल Mahakayva Kal MP


रामायण काल में प्राचीन म.प्र. के अंतर्गत दण्डकारण्य व महाकान्तार के घने वन थे। यदुवंशी नरेश मधु इस क्षेत्र के शासक थे ।जो अयोध्या के राजा दशरथ के समकालीन थे। राम ने अपने वनवास का कुछ समय दण्डकारण्य (अब छत्तीसगढ़) में बिताया था। शुत्रध्न के पुत्र शुत्रघाती ने दशार्ण (वर्तमान विदिशा) पर शासन किया था, जिनकी राजधानी कुशावती थी पुराणों में वर्णन है कि विंध्य प्रदेश व सतपुड़ा के वनों में कभी निषाद जाति के लोग निवास करते थे, जिनका आर्यों से अच्छा संबंध था।
महाभारत के युद्ध में इस क्षेत्र के राजाओं का भी अच्छा योगदान रहा। इस युद्ध मे वत्स, काशी, चेदि, दशार्ण व मत्स्य जनपदों के राजाओं ने पाण्डवों का साथ दिया, वहीं महिष्मति के नील, अवन्ति के बिन्द, भोज, अंधक, विदर्भ व निषाद के राजाओं ने कौरवों की तरफ से लड़ा। पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय यहॉ के वनों में भी व्यतीत किया था। कुन्तलपुर (कौंडि़या), विराटपुरी (सोहागपुर), महिष्मती (महेश्वर) व उच्चयिनी (उच्चैन) महाकाव्य काल के प्रमुख नगर थे।


 प्राचीन जनपद-नवीन नाम MP Ke Prachin Janpad ka Vartman Nam

  • अवन्ती-उज्जैन
  • वत्स-ग्वालियर
  • चेदि-खजुराहो
  • अनूप-निमाड़ (खण्डवा)
  • दशार्ण -विदिशा
  • तुंडीकोर-दमोह
  • नलपुर-नरवर(शिवपुरी)

    महाजनपद काल MP Mahajanpd Kal

    •  600 ईसा पूर्व के 16 महाजनपदों में इस राज्य के चेदि व अवन्ती जनपद थे। अवन्तीमहाजनपद अत्यन्त विशाल था। यह पश्चिमी और मध्य मालवा के क्षेत्र में बसा हुआ था जिनके दो भाग थे। उत्तरी अवन्ती जिसकी राजधानी उच्चयिनी थी तथा दक्षिणी अवन्ती जिसकी राजधानी महिष्मती थीं। इन दोनों क्षेत्रों के बीच वैत्रवती नदी (वर्तमान बेतवा नदी) बहती थी। विष्णु पुराण से यह पता चलता है कि पुलिक बार्हद्रथ वंश के अंतिम राजा रिपुंजय का अमात्य था, जिसने अपने स्वामी को हटाकर अपने पुत्र प्रद्योत को वहाँ का राजा बनाया। प्रद्योत के बाद उसका पुत्र पालक अवन्ती का राजा हुआ। परिशिष्टपर्वत् से पता चलता है कि, पालक ने वत्स राज्य पर आक्रमण कर उसकी राजधानी कौशाम्बी पर अधिकार कर लिया था, उसके बाद विशाखयूप, अजक व नन्दिवर्मन ने बारी-बारी से राज्य किया।
    • कालान्तर में मगध के हर्यक कुल के अंतिम शासक नागदशक (दर्शक) के काल में उनके अमात्य शिशुनाग द्वारा अवन्ति राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के प्रद्योत वंश के अंतिम शासक नन्दिवर्धन को पराजित किया गया और अवन्ति राज्य के पूरे क्षेत्र को मगध में मिला लिया गया। इस प्रकार मगध में शिशुनाग वंश का अभ्युदय हुआ। नन्द वंश का पहला शासक महापद्मनंद शिशुनाग वंश के बाद बना। इसने ही राज्य में नन्द वंश की स्थापना की।
    • पुरात्वविदों द्वारा बड़वानी से की गई खुदाई में मिली नंदों की मुद्राएँ इस तथ्य को स्पष्ट रूप से उजागर करती है कि यहाँ इनका शासन अवश्य था।


     मौर्यकाल (323-187 ई.पू.) MP maurya Kal 

    • चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिन्दुसार के समय अवन्ती प्रदेश का कुमारामात्य अशोक था जो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् मगध का शासक बना, जिसने देवानाम् पियकी उपाधि धारण की थी। सिंहली परम्पराओं से पता चलता है कि उज्जयिनी  जाते हुए अशोक विदिशा में रूका, जहाँ उसने एक श्रेष्ठी की पुत्री देवी के साथ विवाह कर लिया। महाबोधिवंश में उसका नाम वेदिशमहादेवी मिलता है तथा उसे शाक्य जाति का बताया गया है। उसी से अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का जन्म हुआ था। 
    मौर्ययुगीन सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित लघु शिलालेखों में निम्न का संबंध वर्तमान म.प्र. राज्य से था
    • (1) रूपनाथ जबलपुर जिले के सिहोरा तहसील का एक गाँव
    • (2) गुर्जरा (दतिया)
    • (3) सारो मारो (शहडोल) 
    • (4) पानगुड़ारिया (सीहोर )
    • (5) साँची (रायसेन)।
    लघु शिलालेख व लघु स्तंभ लेख इस बात के प्रमाण है कि इस राज्य (म.प्र) मौर्ययुगीन शासन व्यवस्था अवश्य कायम थी।

    शुंग वंश (148-72 ई.पू.) MP Shung Vansh

    पुष्यमित्र ने 184 ईसा पूर्व में अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या कर शुग वंश की स्थापना की थी। मालविकाग्निमित्रम्, जो महाकवि कालीदास द्वारा रचित एक नाट्य ग्रन्थ है, से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल था तथा उसने विदर्भ राज्य के राज्यपाल का कार्यभार अपने मित्र माध्वसेन को सौंपा।
    सांची (रायसेन) व भरहुत (सतना) से प्राप्त कलाकृतियों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि, पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म का संहारक कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इस काल में इन स्थलों के स्तूप न केवल सुरक्षित ही रहे बल्कि इन्हें राजकीय व व्यक्तिगत सहायता भी मिलती रही इस वंश का नवाँ शासक भागभद्र था। इसके शासन काल के 14वें वर्ष में तक्षशिला के यवन नरेश ऐण्टियालकीड्स का राजदूत हेलियोडोरस उसके विदिशा स्थित दरबार में उपस्थित हुआ। उसने भागवत धर्म ग्रहण कर लिया तथा विदिशा के पास बेसनगर (भिलसा) में गरूड़-स्तंभ की स्थापना की थी।

     मध्य प्रदेशः शुंग कालीन कलाकृतियाँ MP me Sungkalin Kalakratiya

     भरहुत Bharhut

    सतना जिले में एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था। इसके अवशेष आज अपने मूल स्थान पर नहीं हैं, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तथा तोरण भारतीय संग्रहालय कोलकाता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित है। 1875 ई0 में कनिंघम द्वारा जिस समय इसकी खोज की गई उस समय तक इसका केवल 10 फुट लम्बा और 6 फुट चौड़ा भाग ही शेष रह गया था।

    साँची (काकनादबोट) 

    सांची 1818 ई0 में सर्वप्रथम जनरल टेलराने यहाँ के स्मारकों की खोज की थी। 1818 ई. में मेजर कोल ने स्तूप संख्या 1 को भरवाने के साथ उसके द.प. तोरण द्वारों तथा स्तूप के तीन गिरे हुए तोरणों को पुनः खड़ा करवाया। यहाँ पर इस काल में तीन स्तूपों का निर्माण हुआ है जिसमें एक विशाल तथा दो लघु स्तूप हैं। महास्तूप में भागवान बुद्ध के, द्वितीय में अशोककालीन धर्म प्रचारकों के तथा तृतीय में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र तथा महामोदग्लायन के दन्त अवशेष सुरक्षित हैं। इस महास्तूप का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के समय में ईंटों की सहायता से किया गया था। उनके चारों ओर काष्ठ की वेदिका बनी थी। अशोक का संघभेद रोकने की आज्ञा वाला अभिलेख यहीं से मिला हैं।

    कुषाण काल (प्रथम शताब्दी ई.पू.) MP Kushan Kal

    साँची व भेड़ाघाट से कनिष्क संवत् 78 का एक लेख मिला है। यह वासिष्क का है, तथा बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है।
    कनिष्क के राज दरबार में निम्न विद्वानों की उपस्थिति थी-1. अश्वघोष (राजकवि) (रचनाएं-बुद्धचरित्र, सौन्दर्यानन्द व सारिपुत्र प्रकरण),2. आचार्य नागार्जुन, 3. पार्श्व,4. वसुमित्र, 5. मातृचेट, 6. संघरक्ष, 7. चरक (चरक संहिताग्रन्थ)।
    कुषाणों का स्थान भारशिव नाग वंश ने लिया, जिनकी राजधानी पद्मावती थी।

    मालव  गणराज्य Malav Ganrajya

    सिंकन्दर के आक्रमण (326 ई.पू.) के समय मालव गणराज्य के लोग पंजाब में निवास कर रहे थे। कालान्तर में ये पूर्वी राजपूताना आकर बस गये। पाणिनि ने उनका उल्लेख आयुधजीवी संघ के रूप में किया है। राज्य से प्राप्त सिक्कों के आधार पर इसका काल ईसा की दूसरी से तीसरी शताब्दी के मध्य निर्धिरित किया है। सिक्कों से प्राप्त लेख के आधार पर यह स्पष्ट किया जा सकता है कि यहाँ गणतंत्र शासन पद्धति कायम थी।

    गुप्त काल (280-550 ईस्वी) राजधानी पाटलिपुत्र MP ka Gupt kal

    संस्थापक श्री गुप्त के बाद उनका पुत्र घटोत्कच इस वंश का राजा हुआ।
    • चन्द्रगुप्त प्रथम महाराजधिराजकी उपाधि धारण की। गुप्त संवत् का प्रवर्तन इन्होंने ही 319-20 में किया था।
    • प्रयाग प्रशस्ति के अतिरिक्त म.प्र. के सागर जिले में स्थित ऐरणनामक स्थान से भी समुद्रगुप्त का लेख प्राप्त हुआ है, जो खण्डित अवस्था में हैं। इसमें समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से भी बढकर दानी कहा गया हैं इस लेख से यह भी पता चलता है कि ऐरिकिण प्रदेश (ऐरण) उसका भोगनगरथा।
    • हरिरषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति के तेरहवीं व चौदहवीं पंक्तियो यह स्पष्ट जानकारी मिलती है कि समुद्रगुप्त अपनी दिग्विजय प्रक्रिया के प्रारंभ में सर्वप्रथम उत्तर भारत के तीन शक्तिशाली राजाओं यथा-अच्युत, नागसेन व कोतकुलज के साथ आर्यावर्त का प्रथम युद्ध किया और इसमें उसने सभी को पराजित कर दिया। इन पराजित राजाओं में नागसेन (नागवंशी शासक) पवाया (ग्वालियर जिले में स्थित पद्मपवैया) में शासन करता था।
    • गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का समकालीन शक शासक रूद्रसिंह तृतीय (348-378 ई.) था जो पश्चिमी मालवा, गुजरात व काठियावाड़ का शासक था।
    • दुर्जनपुर (विदिशा जिला) के लेख से यह जानकारी मिलती है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त शासक बना। यह जानकारी मालवा क्षेत्र के दो स्थानों एरण व भिलसा से प्राप्त ताम्र मुद्राओं से होती है।
    • भिलसा से ताम्र सिक्के प्रसिद्ध प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री परमेश्वरी लाल गुप्त को प्राप्त हुए थे, जबकि एरण से सागर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष कृष्णदत्त वाजपेजी को प्राप्त हुए थे, जिनमें ऐरण के सिक्कों पर सिंह व गरूड़ का चित्र था। गरूड़ गुप्त वंश का राजकीय चिन्ह था।
    • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने नागवंश की कन्या कुबेरनाग से विवाह कर नागवंशीय शासकों से मैत्री की। इसी कुबेरनाग से प्रभावती गुप्त नामक कन्या का जन्म हुआ।
    •  उसने वाकाटकों से सहयोग लेने के लिए अपने राज्यारोहण  के उपरान्त अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय से कर दिया। वाकाटक उस समय आधुनिक महाराष्ट्र प्रान्त में शासन करते थे। कुछ समय बाद रूद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और प्रभावती गुप्त वाकाटक राज्य की संरक्षिका बन गयी क्योंकि उसके दोनों पुत्र दिवाकरसेन व दामोदरसेन अवयस्क थें। इसी के शासन काल में चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने शकों को हराकर उनके राज्य गुजरात व कठियावाड़ को अपने साम्राज्य में मिला व शकारि कहलाया।
    • चन्द्रगुप्त द्वितीय के तीन अभिलेख पूर्वी मालवा से प्राप्त हुए हैं, जिसने शक विजय की सूचना मिलती है। इनमें प्रथम अभिलेख भिलसा के समीप उदयगिरि पहाड़ी से मिला है जो उसके संधि विग्राहक वीरसेन साव का है। दूसरा अभिलेख भी उदयगिरि से मिला है, जो कि उसके सामन्त सनकानीक महाराजा का है, जबकि तीसरे में पदाधिकारी का उल्लेख है जो सैकड़ों युद्धों का विजेता था इसके शासन काल में इस प्रदेश का भूभाग उज्जयिनी  विद्या का प्रमुख केन्द्र था।
    • यहाँ चन्द्र्रगुप्त से तात्पर्य चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) से था। अनुश्रुति के अनुसार उसके दरबार में नव विद्वानों की एक मंडली निवास करती थीं, जिसे, ‘नवरत्ननाम दिया गया है। इसका नेतृत्व कालिदास कर रहे थे। इसी के शासन काल में उज्जयिनीको मगध की दूसरी राजधानी के रूप में विशेष रूप से विकसित किया गया था, जिसने शीघ्र ही वैभव तथा समृद्धि में पाटलिपुत्र का स्थान ले लिया। मृच्छकटिकम् से ज्ञात है कि यहाँ अनेक धनाढ्य श्रेष्ठि व सौदागर निवास करते थे। इस काल में उज्जैन व विदिशा का प्रमुख व्यापारिक नगरों में  स्थान था।

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