ध्वनि के वागवयव और उनके कार्य। ध्वनि उच्चारण प्रक्रिया में वाग्यंत्र । Dhwani unccharan Evam Vagyantra

ध्वनि के वागवयव और उनके कार्य ( Dhwani unccharan Evam Vagyantra)

ध्वनि की उच्चारण प्रक्रिया में वाग्यंत्र


 

  • ध्वनि-प्रक्रिया का सम्बंध मनुष्य के शरीर से होता है. उच्चारणगत और श्रवणगत प्रक्रिया शरीर के विविध अंगों से सम्पन्न होती है जिसके द्वारा ध्वनि उत्पन्न होती है और जिसे हम सुन सकते हैं। 
  • ध्वनि विज्ञान में जिस विभाग में ध्वनि उच्चारण करने एवं सुनने में सहायक अंगों पर प्रकाश डाला जाता है, उसे 'शारीरिक ध्वनि विज्ञान' कहा गया है। इसे 'औच्चारणिक ध्वनि विज्ञान' (Articulatory Phonitics) भी कहते हैं। 
  • ध्वनि प्रक्रिया में उच्चारण एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। जिन अंगों या अवयवों से भाषा ध्वनियों का उच्चारण किया जाता है, उन्हें ध्वनि यंत्र’, ‘वाग्वयव' या 'वाग्यंत्र' कहते हैं। उसका मात्रात्मक (दीर्घ, हर्स्क) ठहराव आदि अनेक बातें वागवयव ये ही सम्बद्ध है। 


वाग्यंत्र के अवयव

भाषा ध्वनि की उच्चारण प्रक्रिया में वाग्यंत्र के निम्नलिखित अवयव कार्य करते हैं -

 

  • 1. गलबिल, कंठ या कंठमार्ग (Pharynx) 
  • 2. भोजन नलिका (Gullet) 
  • 3. स्वर-यंत्र या ध्वनि-यंत्र (Larynx) 
  • 4. स्वर - यंत्र मुख या काकल (Glottis) 
  • 5. स्वर-तंत्री या ध्वनि-तंत्री (Vocal Chord) 
  • 6. स्वर यंत्र मुख आवरण (Epiglotis) 
  • 7. नासिका-विवर (Nazal Cavity) 
  • 8. मुख-विवर (Mouth Cavity) 
  • 9. कौवा, घंटी (Uvula) 
  • 10. कंठ (Guttur) 
  • 11. कोमल तालु (Soft Palate) 
  • 12. मूर्द्धा (Cerebrum) 
  • 13. कठोर तालु (Hard Palate) 
  • 14. वर्ल्स (Alveola) 
  • 15. दाँत (Teeth) 
  • 16. ओष्ठ (Lip) 
  • 17. जिह्वा मध्य (Middle of the Tongue) 
  • 18. जिह्वा नोक (Tip of the Tongue) 
  • 19. जिह्वा अग्र (Front of the Tongue) 
  • 20. जिह्वा (Tongue) 
  • 21. जिह्वा पश्च (Back of the Tongue) 
  • 22. जिह्वा मूल (Root of the Tongue) 


वागवयवों की कार्यप्रक्रिया और उनसे उच्चारित ध्वनियों का विवरण इस प्रकार है -

श्वासनली, भोजननली - 

  • ध्वनि उच्चारण में वायु आवश्यक तत्व है। हमारे द्वारा श्वास प्रश्वास लेना ही हवा को नाक के रास्ते फेफड़े तक पहुँचाना है और उसी रास्ते नाक से बाहर कर देना है। साँस के द्वारा हवा फेफड़े तक पहुँचती है और उसे स्वच्छ कर उसी रास्ते बाहर निकल जाती है। श्वास नली के पीछे भोजन नली है जो नीचे आमाशय तक जाती है। श्वास नली और भोजन नली के बीच दोनों नलियों को अलग करने वाली एक दीवार है।

 

  • अभिकाकल भोजन नली के विवर के साथ श्वास नली की ओर झुकी हुई एक छोटी-सी जीभ की तरह अंग है जिसे अभिकाकल (Epiglottis) कहते हैं। ध्वनि उच्चारण में अभिकाकल का सीधा सम्बंध नहीं है किन्तु यह स्वरयंत्र की रक्षा अवश्य करता है। कुछ विद्वानों के अनुसार आ, आ के उच्चारण में यह अभिकाकल पीछे खिंचकर स्वर-यंत्र मुख के पास चला जाता है और ई, ए के उच्चारण में यह बहुत आगे खिंच जाता है।

 

स्वरयंत्र और स्वरतंत्री 

  • स्वरयंत्र ध्वनि उच्चारण का प्रधान अवयव है। यह श्वास नलिका के ऊपरी भाग में अभिकाकल से नीचे स्थित होता है। इसे बोलचाल की भाषा में टेंटुआया घंटीभी कहते हैं। स्वरयंत्र में पतली झिल्ली के बने परदे होते हैं। इन परदों के बीच खुले भाग को स्वरयंत्र मुख या काकल (Glottis) कहते हैं। साँस लेते समय या बोलते समय हवा इसी से होकर अन्दर-बाहर जाती है। इन स्वर तंत्रियों के द्वारा कई प्रकार की ध्वनियाँ जैसे (फुसफुसाहट, भनभनाहट) उत्पन्न की जाती है। इसके लिए स्वरतंत्रियों को कभी एक दूसरे के निकट लाना पड़ता है और कभी दर रखना पड़ता है।

 

अलिजिह्वा अर्थात कौवा - 

  • जहाँ से नासिका विवर और मुख विवर के रास्ते अलग होते हैं, उसी स्थान पर छोटी सी जीभ के आकार का मांसपिड होता है जिसे अलिजिह्व या कौवा कहते हैं। यह कोमल तालु के साथ नासिका का मार्ग खोलने व बंद करने का कार्य करता है जो प्रायः तीन स्थितियों में होता है। 
  • पहली स्थिति में यह ढीला होकर नीचे की ओर लटका रहता है, मुँह बंद रहता है और हवा बिना रोक-टोक के नासिका विवर से आती जाती रहती है। यह स्वाभाविक स्थिति है। दूसरी स्थिति में कौवा तन कर नासिका विवर को बंद करके हवा को उसमें नहीं जाने देता। फलतः हवा मुख विवर से आती-जाती है। 
  • स्वर व्यंजन का उच्चारण इसी स्थिति में होता है। तीसरी स्थिति में कौवा न तो ऊपर नासिका विवर को रोकता है और न ही नीचे मुख विवर को। वह मध्य में रहता है जिससे हवा नासिका और मुख दोनों से निकलती है। अनुनासिक स्वरों का उच्चारण इसी स्थिति में होता है। इसके अतिरिक्त क़, ख़, ग़ जैसी फारसी ध्वनियों के उच्चारण में भी यह सहायक होता है।

 

तालु - 

  • मुख विवर में कंठस्थान या कौवा और दाँतों के बीच में कोमल तालु होते हैं। कोमल और कठोर तालु एक चल अवयव है।, इ स्वर तथा क, , ग स्पर्श व्यंजनों के उच्चारण में कोमल तालु सहायक होता है। साथ ही नासिक्य ध्वनि उच्चारण में भी मदद करता है। कठोर तालु कोमल तालु से आगे कठोर अस्थि संरचना के रूप में होता है जो स्थिर और निश्चेष्ट रहता है। इसकी सहायता से स्वरों में इ, ई और व्यंजनों में चवर्गीय ध्वनियाँ उच्चारित होती है।

 

मूर्धा 

  • कठोर - तालु के पीछे के अंतिम भाग को मूर्धा कहते हैं। इसमें उच्चारण में जिह्वा उलटकर मूर्धा तक जाती है। अतः इस स्थान से उच्चारित होने वाली ट वर्गीय ध्वनियाँ 'मूर्धन्य' कहलाती हैं।

 

वर्त्स्य - 

  • यह दाँतों के मूल स्थान से कठोर तालु के पहले तक फैला होता है। यह एक खुरदरा सा निष्क्रिय वागवयव है। जिह्वा के विविध भागों के स्पर्श से यह ध्वनियों को विविध रूप में उच्चारण करने में सहायक होता है। स, , , , न जैसी ध्वनियाँ 'वर्त्स्य' ही हैं।

 

दाँत 

  • ध्वनि उच्चारण के प्रमुख अवयव हैं दाँत। प्रायः उच्चारण में ऊपर के दाँतों का - ही अधिक महत्व माना गया है। दाँत, नीचे के ओष्ठ या जीभ से मिलकर ध्वनि उच्चारण में सहायक होते हैं। तवर्गीय और से ध्वनि का उच्चारण दाँतों की सहायता से होता है।


जिह्वा ध्वनि उच्चारण प्रक्रिया

  • जीभ की सहायता से सभी भाषाओं की अधिकांश ध्वनियों का उच्चारण - होता है। इसी से ध्वनि उच्चारण में इसके महत्व का पता चलता है। इसकी स्थिति मुख के निचले भाग में है। यह दाँत और तालु के विभिन्न भागों का स्पर्श कर विविध प्रकार की ध्वनियों में सहायक होती हैं। जीभ के पाँच भाग हैं। ध्वनि उच्चारण में सभी का महत्व है। 

 

जिह्वा ध्वनि उच्चारण प्रक्रिया

जिह्वा नोक - 

  • जीभ के सबसे आगे का नुकीला भाग 'जिह्वानोककहलाता है। इससे आ, , , , स ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। 

जिह्वा फलक - 

  • जिह्वाग्र बिंदु से संयुक्त यह भाग मुख से बाहर भी निकाला जा सकता है। इससे '' का उच्चारण सम्भव होता है। 

जिह्वाग्र - 

  • यह कठोर तालु के नीचे पड़ता है। इसकी विविध स्थितियों से च, , जैसी ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं।

 

जिह्वामध्य -

  • यह जिह्वा के बीच का भाग है। इसे कोमल तालु या कठोर तालु के बीच का सेतु भी कहा जाता है। जिह्वा के मध्य भाग की सहायता से मध्य स्वर या केन्द्रीय स्वरों का उच्चारण होता है।

 

जिह्वा पश्च -

  • मध्य जिह्वा के बाद यह जीभ के पीछे का भाग है। यह उ, , , , ग और फारसी ध्वनि क, , ग के उच्चारण में सहायक होता है। 

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि वागयंत्र के विविध अवयव ध्वनि उच्चारण में किस प्रकार कार्य करते हैं। 

श्रवणयंत्र

  • अब हम यह भी देखेगें कि वागयंत्र और उसके विभिन्न अवयवों द्वारा उत्पन्न ध्वनि को हम कैसे सुनते हैं। सुनने का सम्बंध मुख्य रूप से कान से है। इसलिए कान (कर्ण) को हम श्रवणयंत्र कह सकते हैं। जिसकी संरचना और श्रवण प्रक्रिया को जान लेना भी प्रासंगिक होगा।

 

वाह्य कर्ण श्रवण यंत्र - 

  • श्रवण यंत्र अर्थात कान के तीन भाग होते हैं - वाह्य कर्ण, मध्यवर्ती कर्ण और अभ्यंतर कर्ण । 
  • वाह्य कर्ण के भी दो भाग होते हैं, पहना कान का सबसे ऊपरी हिस्सा जिसे हम कान की बाहरी बनावट के रूप में देखते हैं। श्रवण प्रक्रिया में इसकी कोई विशेष भूमिका नहीं होती। 
  • दूसरा भाग कान का वह छेद या नली जो कान के अन्दर तक जाती है। कान की नली लगभग एक या डेढ़ इंच लम्बी होती है। इसके भीतरी छेद पर एक झिल्ली होती है जो बाहरी कान को मध्यवर्ती कान से सम्बद्ध करती है। 
  • मध्यवर्ती कर्ण एक छोटी सी गहरी कोठरी के समान है जिसमें तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ (हड्डी) होती हैं। इन अस्थियों का एक सिरा बाहरी कान (बाह्य कर्ण) की झिल्ली से जुड़ा रहता है और दूसरा सिरा आभ्यंतर कर्ण ( भीतरी कान) बाहरी छिद्र से। मध्यवर्ती कर्ण के बाद आभ्यंतर कर्ण शुरू होता है। इसके खोखले भाग में उसी आकार की झिल्लियाँ होती हैं। इन दोनों के बीच में एक विशेष प्रकार का द्रव पदार्थ होता है।
  • आभ्यंतर कर्ण के भीतरी सिरे की झिल्ली से श्रावणी शिरा के तंतु आरम्भ होते हैं जो मस्तिष्क से सम्बद्ध रहते हैं।

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