मध्यप्रदेश में तोमर कालीन सांस्कृतिक जीवन की व्याख्या कीजिये ? | MP Tomar Kalin Culture Details in HIndi

 मध्यप्रदेश में तोमर कालीन सांस्कृतिक जीवन की व्याख्या कीजिये ?

 

मध्यप्रदेश में तोमर कालीन सांस्कृतिक जीवन की व्याख्या कीजिये ? | MP Tomar Kalin Culture Details in HIndi

मध्यप्रदेश में तोमर कालीन सांस्कृतिक जीवन की व्याख्या कीजिये ?


  • तोमर राजवंश उत्तरी मध्यप्रदेश का एक यशस्वी राजवंश रहा है। अपने उद्भव काल से लेकर रामसिंह तोमर के समय तक इस राजवंश के प्रोत्साहन में अनेक सृजनात्मक कार्य किये गये। यद्यपि तोमरों का शासन काल राजनीतिक रूप से अनेक संघर्षों और व्यवधानों का काल रहा है, परन्तु उन्होंने सांस्कृतिक सृजन के कार्य को प्रभावित नहीं होने दिया। 
  • वीरसिंहदेव, डूंगरेन्द्रसिंह, कीर्तिसिंह, कल्याणमल्ल, मानसिंह और विक्रमादित्य के शासन काल में वास्तु एवं मूर्तिशिल्प, चित्रकला, संगीत, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति हुई। कालानुक्रम में तोमर शासकों ने अपने वंशजों की स्मृति स्वरूप दुर्ग के प्रमुख द्वारों का निर्माण कराया, जिनमें बादलगढ़, ढोढापौर, गणेशपौर आदि प्रमुख हैं। इन द्वारों के निर्माण में दक्षिण भारत के पूर्व मध्यकालीन मन्दिर स्थापत्य से सम्बद्ध 'गोपुरम्म' की प्रतिकृति की रचना के प्रयास किये गये। 
  • मानसिंह तोमर ने अपने प्रासाद का अत्यन्त वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय पद्धति से निर्माण कराया जिसका नाम 'मानमन्दिर' रखा गया। मानसिंह ने अपनी प्रेयसी रानी गूजरी, जिसे एक काल्पनिक नाम 'मृगनयनी' से प्रसिद्धि मिली, का अत्यन्त सुन्दर प्रासाद निर्मित कराया, जिसमें संगीत की स्वर-साधना, बैजू, और तानसेन की संगीत-धारा के साथ अनवरत चलती रही। संस्कृत, मध्यदेशीय हिन्दी और अपभ्रंश भाषा में साहित्य का विकास हुआ। अनेक जैन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। गोपगिरि की पहाड़ियों को काटकर गुफा मन्दिर और जिन मूर्तियों की सर्जना हुई, जिसमें अनेक अभिलेख उत्कीर्ण किये गये। 
  • तोमर कालीन सांस्कृतिक जीवन का वर्णन करते हुए जैन कवि रइधू ने अपने 'पार्श्वपुराण' नामक ग्रन्थ में अंकित किया है कि 15 वीं शती. ई. के प्रथमार्द्ध में ग्वालियर नगर की बाजारों में व्यापारीगण निर्भय होकर व्यापार करते थे। नगर में चोरों या अराजक तत्वों का अस्तित्व नहीं था। यहाँ के नागरिक सुसंस्कृत थे। वातावरण शान्त था। प्रातः काल महिलाएँ मन्दिरों के द्वार पर सफेद वस्त्र धारण कर दर्शनार्थ आती थीं तथा इष्ट की आराधना में मंगल-गीत गुनगुनाती थीं। गृहिणियाँ तब तक भोजन नहीं करती थीं जब तक वे निर्धन एवं अनार्थों को कुछ दान नहीं करती थीं तथा उपयुक्त अतिथि को भोजन नहीं करा देती थीं।

 

  • व्यापारीगण धार्मिक क्रिया-कलापों में पूरी तन्मयता से भाग लेते थे क्योंकि जैन तीर्थंकर महावीर ने गृहस्थ और व्यापारियों को भी जैन-संघ एवं धर्म में दीक्षित होने का निर्देश दिया था, परन्तु उन्हें पंच अणुव्रतों का पालन करना अनिवार्य था। 'नेमिचरित' और 'पार्श्वनाथ चरित' नामक ग्रंथों में पं. रइधू ने 'साधु खेमशाह' का ग्वालियर का नगरसेठ बनने के उद्देश्य से दिल्ली से प्रव्रजित होने का विवरण दिया है। डूंगरेन्द्रसिंह के समय मारवाड़ से साधु टोडरमल कासलीवाल ग्वालियर आकर बसे थे। ऐसे ही अनेक व्यापारी परिवार देश के अन्यान्य क्षेत्रों से आकर ग्वालियर में निवसित हुए। उन्हों जैन संघ की स्थापना की और जैन धर्म के अन्तर्गत अनेक संस्थाओं का विकास किया। जैन व्यापारियों ने अपनी आय का उपयुक्त हिस्सा जैन मूर्तियों, गुफाओं ओर मन्दिरों के निर्माण में अनिवार्यतः लगाया। इसी आय से कूप, बावड़ी, उपवन तथा जिनालयों का निर्माण किया गया ताकि लोक मानस लाभान्वित हो सके। उक्त निर्माण कार्य डूंगरेन्द्रसिंह और कीर्तिसिंह के शासन काल में लगभग 1440 ई. से 1529 ई. तक अधिक हुए।

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