चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था | प्रान्तीय शासन ,ग्राम्य शासन | Chandra Gupta Maurya Ki Shasan Vyastha

 चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रान्तीय शासन 

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था |  प्रान्तीय शासन ,ग्राम्य शासन | Chandra Gupta Maurya Ki Shasan Vyastha


विषय सूची 

  • नगरों का प्रबन्ध
  • सेना प्रबन्ध
  • ग्राम्य शासन
  • पाटलिपुत्र
  • पुलिस का प्रबन्ध
  • गुप्तचर विभाग
  • न्याय और दण्ड विधान
  • राजस्व
  • लोकहितकारी कार्य


चन्द्रगुप्त एक विशाल साम्राज्य का शासक था। अतएव शासन की सुविधा के लिए साम्राज्य कई भागों में विभक्त कर दिया गया था। प्रत्येक प्रांत कई आहारों तथा विषयों में विभक्त कर दिया गया था।

  • चन्द्रगुप्त के समय में कितने प्रांत थेयह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। सम्भवतः पांच-छ: मुख्य प्रांत रहे होंगे। पहला प्रांत उत्तरापथ का थाइसकी राजधानी तक्षशिला थी अफगानिस्तानबलूचिस्तानसिन्धपंजाब और काश्मीर का शासन यहीं से होता था। दूसरा प्रांत अवन्तिरूप का था। इसकी राजधानी उज्जैनी थी। मालवा तथा गुजरात का शासन यहीं से होता था। तीसरा प्रांत दक्षिणापथ का था। इसकी राजधानी सुवर्णगिरि थीचौथा प्रांत कलिंग का था. इसकी राजधानी तोषली थी। पाँचवां प्रांत प्राच्य कहलाता थाइसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी


  • चूंकि कलिंग पर अशोक ने  विजय प्राप्त की थी, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चन्द्रगुप्त के शासनकाल में चार ही प्रांत रहे होंगे। सुदूरस्थ प्रांतों के प्रबन्ध के लिए राजकुमारों को नियुक्त किया गया था। प्राच्य तथा मध्य देश के प्रांतों का प्रबन्ध सम्राट् अपने महामात्रों की सहायता से स्वयं करता था। वे महामात्र पाटलिपुत्र, कौशाम्बी आदि जैसे बड़े-बड़े नगरों में रहते थे। सुराष्ट्र का प्रबंध पुष्यगुप्त नामक एक वैश्य करता था। इन प्रांतों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी भू-भाग थे जिन्हें स्थानीय मामलों में पर्याप्त स्वतंत्रता थी। ऐसे क्षेत्र अपने को मौर्य साम्राज्य के अधीन मानते थे और वार्षिक कर दिया करते थे।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के समय नगरों का प्रबन्ध

चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था में सम्राट राज्य की सम्पूर्ण शक्ति का केन्द्र और स्रोत था, फिर भी देश के जीवन में स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं का बहुत महत्त्व था। मेगस्थनीज ने केवल पाटलिपुत्र के म्यूनिसिपल प्रशासन का विवरण दिया है, किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि साम्राज्य के अन्य बड़े-बड़े नगरों में भी इसी प्रकार का प्रबंध रहा होगा। पाटलिपुत्र के लिए तीस अध्यक्षों का एक आयोग था। इस आयोग को पांच-पांच सदस्यों की छः समितियों में बांटा गया था। हर समिति के अलग-अलग काम थे।

 

(i) शिल्पकला समिति

  • पाटलिपुत्र में शिल्पकारों की भीड़ थी। औद्योगिक कला तो काफी उन्नति कर चुकी थी। अतः औद्योगिक कलाओं के निरीक्षण के लिए शिल्पकला समिति का निर्माण किया गया था। यह समिति कलाकारों, मिस्त्रियों और अन्य श्रमिकों का पारिश्रमिक भी निर्धारित करती थी। औद्योगिक कलाकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी इसी पर था। वह उत्पादन की शुद्धता पर भी कठोर दृष्टि रखती थी। 


(ii) वैदेशिक समिति

  • यह समिति राज्य में निवास करने वाले विदेशियों की देख-रेख के लिए बनी थी। उसका कर्त्तव्य यह था कि विदेशियों के आवागमन, उनके निवास स्थान आवश्यकता पड़ने पर औषधि आदि का प्रबन्ध करे। साथ ही समिति के ऊपर उनकी सुरक्षा का भी भार था। विदेशियों की मृत्यु के पश्चात् उनकी अंतिम क्रिया भी यही समिति करती थी तथा उनके धन सम्पत्ति को उचित उत्तराधिकारियों को दे देती थी। 


(iii) जनसंख्या समिति

  • यह समिति जन्म-मरण का लेखा-जोखा रखती थी। इसका अभिप्राय केवल जनसंख्या की गणना करना ही न था या इसके आधार पर केवल राज्य कर ही नहीं लगाना था, अपितु जन्म-मरण की रजिस्ट्री के आधार पर सरकार को नागरिकों की जन्म-मृत्यु, चाहे वह उच्च कुल के हों अथवा निम्न कुल के, कराना भी था जनसंख्या की वृद्धि अथवा कमी का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य स्पष्ट हैं औरव इसका केवल राजकीय कर से सम्बन्ध नहीं है। निश्चय ही इस जनगणना की रजिस्ट्री का राजनीतिक महत्त्व की अपेक्षा आर्थिक महत्त्व अधिक रहा होगा।

 

(iv) वाणिज्य व्यवसाय समिति

  • इस चौथी समिति का महत्त्व विशेष उल्लेखनीय है। यह समिति व्यापारियों एवं वणिकों के कार्यों की देख-रेख के लिए निर्मित की गयी थी। एक ओर तो यह उनकी वस्तुओं को जनता की सूचना द्वारा उचित समय पर बिकवा देने का प्रबंध करती थी, दूसरी ओर जनता के हित के लिए इस बात का ध्यान रखती थी कि व्यापारियों तथा बनियों की झूठी तौल या माप से जनता ठगी न जाये। कोई भी व्यक्ति बिना आज्ञा के एक वस्तु से अधिक का व्यवसाय नहीं कर सकता था और जो व्यक्ति एक वस्तु से अधिक का व्यवसाय करता था, उसे उसी अनुपात में अधिक कर भी देना पड़ता था।

 

(0) वस्तु निरीक्षक समिति

  • पाटलिपुत्र मौर्य साम्राज्य के औद्योगिक स्थानों में से प्रमुख था। अतः वस्तुओं के उत्पादन की देख-रेख के लिए एक पृथक् समिति को आवश्यकता थी। इसी अभिप्राय से उद्योगपतियों के उत्पादन का निरीक्षण करना इस पाँचवीं समिति का मुख्य कर्त्तव्य निश्चित किया गया था। यह समिति इस बात की देख-रेख करती थी कि औद्योगिक उत्पादन में किसी प्रकार की मिलावट करके उद्योगपति अनुचित लाभ न उठायें। नयी तथा पुरानी वस्तुएँ किसी प्रकार भी नहीं मिलायी जा सकती थीं और उक्त समिति इस बात का ध्यान रखती थी कि ये पृथक्-पृथक् बेची जाएँ। नियम भंग करने वाले व्यवसायियों को जुर्माना देना पड़ता था।

 

(vi) कर समिति- 

  • यह समिति बिक्री की वस्तुओं पर कर वसूल करती थी। यह भी काफी महत्त्वपूर्ण समिति थी। जो व्यापारी कर से बचने का प्रयत्न करता था उसे प्राणदण्ड दिया जाता था।


सम्मिलित रूप से ये समितियाँ नगर की सफाई इत्यादि की देखभाल करती थीं, मंदिरों, बंदरगाहों, बाजारों तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की रक्षा करना भी इन्हीं का काम था।

 

पाटलिपुत्र के बारे में जानकारी 

  • मेगस्थनीज ने मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र का वर्णन करते हुए लिखा था कि यह नगर गंगा और सोन के संगम पर बसा हुआ था। नगर की लम्बाई नौ मील और चौड़ाई पौने दो मील थी। इस नगर के चारों ओर एक अति सुदृढ़ ऊंची प्राचीर बनी हुई थी। इस प्राचीर में चौंसठ द्वार और पाँच सौ सत्तर बुर्ज बने थे। प्राचीर निर्माण में सुदृढ़ लकड़ी का बहुत अधिक प्रयोग किया गया था। प्राचीर के चारों ओर छ: सौ फीट चौड़ी और पैंतालीस फीट गहरी खाई थी जो सदैव पानी से भरी रहती थी। नगर की शोभा अद्वितीय थी। उस समय भारत भर में कोई भी नगर पाटलिपुत्र के समान शोभाशाली और रमणीक नहीं था।

 

 चन्द्रगुप्त मौर्य का ग्राम्य शासन

  • प्रत्येक ग्राम में एक पंचायत होती थी जो ग्राम का शासन करती थी। पंचायत में प्राय: बड़े बूढ़े और अनुभवी विद्वज्जन बैठते थे। पंचायत का सरपंच ही ग्राम का प्रमुख होता था और 'ग्रामिक' कहलाता था। वही गांव का शासन तथा झगड़ों का न्याय पंचायत के सदस्यों की सलाह से करता था। उसे ग्रामवासी ही चुनते थे तथा उसका पद अवैतनिक होता था। प्रत्येक ग्राम में सम्राट का एक भृत्य कर तथा लगान आदि वसूल करने के लिए रहता था। वह 'ग्राम भृतक' कहलाता था। लगभग दस ग्रामों के ऊपर एक 'गोप' होता था। वही अपने नियंत्रण में आए हुए ग्रामों के शासन तथा व्यवस्था अवस्था आदि की देखभाल करता था। कई गोप के ऊपर एक 'स्थानिक' होता था जिसके नियंत्रण में एक चौथाई जिला होता था। ग्रामिक, गोप और स्थानिक आदि पदाधिकारियों के कार्यों की देखभाल 'समाहर्ता' किया करता था।

 

 चन्द्रगुप्त मौर्य का सेना प्रबन्ध

  • साम्राज्य सुरक्षा के लिए चन्द्रगुप्त ने एक विशाल सेना का संगठन भी किया था। उसने एक चतुरंगिणी अर्थात् हाथी, घोड़ा, रथ तथा पैदल सेना का संगठन किया और उसके प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की । सम्राट स्वयं सेना का प्रधान सेनापति होता था और युद्ध स्थल में युद्ध का संचालन करता था। चन्द्रगुप्त ने एक जल सेना का भी संगठन किया था। सम्पूर्ण सेना के प्रबन्ध के लिए तीस सदस्यों की समिति होती थी। सेना का प्रबन्ध छः भागों में विभक्त था और प्रत्येक विभाग का प्रबन्ध पांच-पांच सदस्यों के हाथ में रहता था। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था। पहला विभाग जल सेना का प्रबन्ध करता था। दूसरा विभाग सेना को हर प्रकार की सामग्री तथा रसद भेजने का प्रबन्ध करता था। तीसरा विभाग पैदल सेना, चौथा अश्वरोहियों, पाँचवां हाथियों की सेना और छठा रथ सेना का प्रबन्ध करता था। सेना के साथ एक चिकित्सा विभाग होता था, जो घायल तथा रुग्ण सैनिकों की चिकित्सा करता था। चन्द्रगुप्त की सेना स्थायी थी और उसे राज्यों की ओर से वेतन तथा अस्त्र-शस्त्र मिलते थे। अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए सरकारी कारखाने भी थे।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का पुलिस का प्रबन्ध


  • आन्तरिक शासन तथा सुव्यवस्था के लिए पुलिस विभाग की व्यवस्था की गयी थी। इसके दो उप विभाग थे, अर्थात् पुलिस प्रकट तथा गुप्त विभाग प्रकट पुलिस के सिपाहियों को रक्षित कहा जाता था। गुप्तचरों के दो वर्ग थे, एक वर्ग को संस्थान और दूसरे वर्ग को संचारण कहते थे। संस्थान वर्ग के गुप्तचर एक स्थान पर रहते थे और संचारण वर्ग के गुप्तचर भ्रमण किया करते थे। स्त्रियाँ भी गुप्तचर का कार्य करती थीं। गुप्तचर लोग प्रत्येक स्थान तथा समय की सूचना सम्राट को दिया करते थे। ये लोग राज्य के बड़े-बड़े कर्मचारियों के कार्य का भी निरीक्षण करते थे तथा जनता के विचारों और कार्यकलापों की भी सूचना सम्राट को दिया करते थे।

 

 चन्द्रगुप्त मौर्य का गुप्तचर विभाग


  • मौर्य साम्राज्य का आधार केन्द्रीय शासन था। अतः उसमें गुप्तचरों को अति महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसीलिए गुप्तचर विभाग की स्थापना की गयी थी। कुछ गुप्तचर को स्थायी रूप से साम्राज्य के विभिन्न स्थानों में नियुक्त किया गया था। कुछ गुप्तचर भेष बदलकर इधर-उधर घूमते रहते थे। स्त्रियाँ भी गुप्तचर के काम में लगी हुई थीं। गुप्तचरों के अनेक कार्य थे। वे अपराधियों चोरों और शत्रुओं का भेद लगाते लगाते रहते थे। वे सरकारी कर्मचारियों की गतिविधि पर ध्यान रखते और उनके कार्यों तथा चरित्र के सम्बन्ध में सम्राट को सूचना देते रहते थे। जो गुप्तचर कर्त्तव्यपालन से विमुख होते अथवा अपने काम में ढीले होते थे उन्हें सम्राट कठोर दण्ड देता था। गुप्तचर के कामों की देखभाल के लिए उनके ऊपर अन्य गुप्तचर नियुक्त रहते थे। इस प्रकार गुप्तचर विभाग साम्राज्य में व्यवस्था एवं शान्ति बनाये रखने की दिशा में अति महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी था। राज्य के छोटे-बड़े सभी प्रकार के कर्मचारी गुप्तचरों के भय से कार्य उत्तमता एवं सावधानी के साथ करते थे।


 चन्द्रगुप्त मौर्य का न्याय और दण्ड विधान

  • सम्राट ही साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधिकारी था। उसका न्यायालय साम्राज्य का सबसे ऊँचा न्यायालय माना जाता था। नगरों तथा जनपदों (जिलों) के लिए अलग-अलग न्यायालय बने हुए थे। नगरों के न्यायाधीश व्यावहारिक महामात्र कहे जाते थे। न्यायालय दीवानी तथा फौजदारी दो प्रकार के होते थे। दीवानी की अदालतें धर्मस्थ और फौजदारी की अदालतें कण्टक शोधन कहलाती थीं। छोटी अदालतों के निर्णय से असंतुष्ट अभियुक्त अपने मामले की अपील बड़े न्यायालय में कर सकता था। सम्राट का निर्णय अन्तिम माना जाता था। दो जनपदों के मिलने की सीमा पर जनपद सन्धि न्यायालय होता था जो दोनों जनपदों के मामलों का निर्णय करता था। यही सबसे छोटा न्यायालय होता था। उससे बड़ा न्यायालय संग्रहण, संग्रहण से बड़ा द्रोणमुख और द्रोणमुख से बड़ा स्थानीय कहलाता था। स्थानीय न्यायालय की अपील सम्राट के न्यायालय में सुनी जाती थी। इन न्यायालयों में से प्रत्येक में छः न्यायाधीश बैठते थे, जिनमें तीन धर्मस्थ (दीवानी के) तथा अमात्य (फौजदारी के) न्यायाधीश होते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगस्थनीज के विवरण दोनों से ही स्पष्ट है कि दण्ड विधान बहुत कठोर था। छोटे अपराधों के लिए जुर्माने किये जाते थे जो तीन श्रेणियों में विभक्त थे। पहली श्रेणी का जुर्माना सोलह पण तक, दूसरी श्रेणी का पांच सौ पण तक और तृतीय श्रेणी का जुर्माना एक हजार पण तक किया जा सकता था। इससे बड़े अपराधों के लिए अंगभंग और मृत्युदण्ड था। झूठी गवाही देने पर जीभ काट ली जाती थी। शिल्पियों को क्षति पहुंचाने राज्य कर न देने तथा सरकारी कर्मचारियों के अपराध करने पर मृत्युदण्ड दिया जाता था। चोरी, व्यभिचार, धोखाधड़ी आदि के लिए जुर्माना और गम्भीर होने पर अंगभंग का दण्ड दिया जाता था। वैद्यों और हकीमों को इलाज में असावधानी दिखलाने पर जुर्माने का दण्ड भुगतना पड़ता था। दण्ड विधान कठोर होने के कारण चोरी, व्यभिचार, आदि अपराध कमी के साथ होते थे। सम्राट के जन्मदिन, राज्याभिषेक संस्कार, राजकुमार के उत्पन्न होने अथवा किसी नवीन प्रदेश के विजय करने के उपलक्ष्य में पुराने कैदियों को छोड़ देने की रीति भी प्रचलित थी।

 

 चन्द्रगुप्त मौर्य का राजस्व


  • राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था। यूनानी लेखकों का कहना है कि भूमि पर राज्य का स्वामित्व होता था। वह किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं समझी जाती थी। साधारणतया उपज का छठा भाग राज्यकर के रूप में वसूल किया जाता था; उसे 'भाग' कहते थे विशेष परिस्थितियों में चौथाई अथवा आठवां अंश लिया जाता था। राज्यकर वसूल करने के लिए अलग पदाधिकारी थे, जिन्हें यूनानी लेखकों ने 'अग्रोनोमोई' नाम दिया है। भूमि तथा सिंचाई का काम भी इन्हीं अधिकारियों के हाथ में था।

 

  • राजकीय भूमि, चरागाहों तथा वनों से भी सरकार को अच्छी आय हो जाती थी। किसानों को सिंचाईकर भी देना पड़ता था। यह कर भूमि तथा फसल की किस्म को ध्यान में रखकर वसूल किया जाता था। नगरों में जन्म-मरण कर, मकान कर तथा बिक्रीकर लगाये जाते थे। राज्य की सीमाओं पर व्यापारियों को बहीशुल्क देना पड़ता था और नगरों के फाटकों तथा घाटों पर चुंगी वसूल की जाती थी। खानों, नमक, शस्त्रनिर्माण, मादक द्रव्यों, जुआ, वेश्यावृत्ति आदि पर सरकार का एकाधिकार था और इन साधनों से काफी आमदनी होती थी। शिल्पियों, व्यापारियों तथा अन्य अनेक देशों के लोगों को लाइसेंस लेना पड़ता था और उसके लिए शुल्क देना पड़ता था। न्यायालयों द्वारा अपराधियों पर किये गये जुर्माने, भेंट (नजराने) नि:संतानों की सम्पत्ति आदि सरकारी आय के अन्य मुख्य साधन थे।

 

  • राज्य के खर्च की मुख्य मदें थीं राजपरिवार, धार्मिक कार्य, सेना, सरकारी पदाधिकारियों के वेतन, भत्ते इत्यादि, शिक्षा, दान, यातायात तथा अन्य लोकसेवा कार्य राजस्व विभाग का संचालक समाहर्ता था और उसके नीचे अनेक अध्यक्ष कार्य करते थे।

 

 चन्द्रगुप्त मौर्य का लोकहितकारी कार्य-

  • चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रजा को अधिक से अधिक सुविधा तथा सुख प्रदान करने का प्रयत्न किया था। इस दिशा में उसका पहला प्रशंसनीय कार्य यातायात की समुचित व्यवस्था करना था। उसके गमनागमन के मार्गों का निर्माण करवाया और उसकी सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था की। उसने बहुत सी नयी सड़कों का निर्माण करवाया और पुरानी सड़कों की मरम्मत करवायी। सड़कों की देखभाल के लिए एक अलग विभाग था। उसने सड़कों के दोनों और वृक्ष लगवाये और कुछ-कुछ दूरी पर उन पर कुएँ भी खुदवाये। इससे आवागमन के साधन सुलभ हो गये और व्यापार में बड़ी वृद्धि हुई।

 

  • चन्द्रगुप्त ने सिंचाई का उचित प्रबन्ध किया था। बहुत सी नहरों की खुदाई हुई। कृषि की उन्नति की और राज्य की ओर से विशेष ध्यान दिया जाता था और कृषकों को तरह-तरह की सहायताएँ दी जाती थीं। चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र में सुदर्शन नामक एक झील का निर्माण करवाया था, जिससे कृषकों को सिंचाई कार्य में विशेष सहायता प्राप्त होती थी।

 

  • चन्द्रगुप्त ने प्रजा के स्वास्थ्य और सफाई पर भी ध्यान दिया। उसने अनेक चिकित्सालय खुलवाये और उनमें वैद्य रखे। नगरों की स्वच्छता तथा भोजन सामग्री की शुद्धता पर दृष्टि रखने के लिए निरीक्षक रखे थे। आकस्मिक संकटों तथा रोग, महामारी, अकाल, अग्नि, बाढ़ आदि से जनता की रक्षा करने के लिए भी सरकार की ओर से प्रबन्ध किया जाता था।


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