बादशाह अकबर की धार्मिक नीति Religious policy of Emperor Akbar

 बादशाह अकबर की धार्मिक नीति Religious policy of Emperor Akbar

 

बादशाह अकबर की धार्मिक नीति Religious policy of Emperor Akbar

भारत में अकबर से पूर्व धार्मिक सहिष्णुता तथा धार्मिक-सांस्कृतिक समन्वय

 

  • प्राचीन भारत में सामान्यतः धार्मिक सहिष्णुता का वातावरण रहता था और विभिन्न मतावलम्बी बिना किसी कठिनाई के अपने-अपने धर्म व अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप अपना जीवन व्यतीत कर सकते थे। 
  • इस काल में सांस्कृतिक आदान-प्रदान एक सामान्य प्रक्रिया थी। हज़ारों वर्षों तक भारत में विदेशी जातियों का आगमन होता रहा और उनमें से अनेक ने अपनी सत्ता स्थापित कर भारत में अपना स्थायी ठिकाना बना लिया किन्तु उन्होंने अपने जातीय संस्कारों और मूल सांस्कृतिक मूल्यों तथा आस्थाओं का भारतीय संस्कृति और धर्म में समाहित कर दिया। 
  • आठवीं शताब्दी में पहली बार मुस्लिम अरब आक्रमणकारियों से भारत में विधिवत धार्मिक उत्पीड़न की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। दसवीं शताब्दी के अन्त से महमूद गज़नवी के आक्रमणों ने मन्दिरों व मूर्तियों के विनाश तथा विधर्मियों के संहार का एक नया युग प्रारम्भ किया जिसे 12 वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में उत्तर भारत में तुर्क शासन की स्थापना ने गैर-मुस्लिमों के लिए और भी अधिक कष्टकारी बना दिया। 
  • एक ओर जहां धार्मिक उत्पीड़न, राजनीतिक पराभव, आर्थिक हानि और सामाजिक अपमान ने पराजित जाति में विजेताओं के प्रति गहरा आक्रोश और घृणा का भाव भर दिया तो दूसरी ओर विजेताओं के धार्मिक, जातीय व सांस्कृतिक अहंकार ने उन्हें पराजित जातियों दूर रखा।
  • पारस्परिक अविश्वास, और द्वेष ने एक अनवरत टकराव की स्थिति उत्पन्न कर दी। किन्तु दो महान संस्कृतियों का मिलन दो तलवारों का टकराव न होकर दो नदियों के संगम के समान होता है जिसमें दोनों का जल एक-दूसरे में घुलमिल जाता है। भारतीय संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के मिलन से भी एक समन्वयात्मक संस्कृति का उद्भव तथा विकास हुआ। 
  • इस्लाम के अन्तर्गत सूफ़ी सिलसिलों की विचारधारा पर भारतीय दर्शन का व्यापक प्रभाव पड़ा था। सूफ़ी विचारधारा ने भक्त संतों को भी प्रभावित किया था। सूफ़ी सन्तों की सर्वेश्वरवादी विचारधारा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना की पोषक थी।
  • कबीर, गुरुनानक, चैतन्य महाप्रभु और नर सिंह मेहता जैसे सन्तों ने सूफ़ियों के प्रेममार्ग को अपने जीवन में उतारा था। भवानी के भक्तों जहां एक ओर मुसलमान सम्मिलित थे वहां दूसरी ओर सूफ़ी सन्तों की मज़ारों पर मन्नत मांगने वालों में हज़ारों गैर मुस्लिम होते थे।
  • मुस्लिम शासकों में अनेक ने व्यावहारिक उदारता की नीति अपनाई थी। कश्मीर का ज़ैनुल आब्दीन पहला मुस्लिम शासक था जिसने कि जज़िया समाप्त किया था। 
  • शेर शाह के राजस्व प्रशासन तथा न्याय वितरण में सभी धर्मावलम्बियों को समान दृष्टि से देखा जाता था। बंगाल के शासक अलाउद्दीन हुसेन शाह तथा नुसरत शाह ने अपनी गैर-मुस्लिम प्रजा के साथ सहिष्णुता की नीति अपनाई थी। अनेक मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं को अपने राज्य में उच्च पदों पर नियुक्त किया था और हिन्दू शासकों ने भी मुसलमानों को अपने राज्य में महत्वपूर्ण पद प्रदान किए थे। 
  • हिन्दू-मुस्लिम वैवाहिक सम्बन्ध भी अब दुर्लभ नहीं थे। भाषा, वेशभूषा, खान-पान, रीतिरिवाज, रहन-सहन, तीज-त्यौहार, आचार-विचार, स्थापत्य कला, शिष्टाचार आदि में समन्वय की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी। इस सांस्कृतिक समन्वय के दो सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों के रूप में अमीर खुसरो और कबीर को देखा जा सकता है।

 

अकबर का उदार धार्मिक परिवेश 

  • समकालीन परिवेश की तुलना में अकबर को विरासत में उदार धार्मिक वातावरण मिला था। उसके पितामह बाबर और पिता हुमायूं सुन्नी थे पर दोनों ही सामान्यतः धार्मिक संकीर्णता से ग्रस्त नहीं थे। अकबर की माँ हमीदा बानो शिया थी और हुमायूं अपने ईरान प्रवास के दौरान थोड़ी अवधि के लिए शिया मतावलम्बी हो गया था। 
  • अकबर का जन्म अमरकोट में एक राजपूत शरणदाता के घर में हुआ था। अकबर का संरक्षक बैरम खाँ शिया था। उसका शिक्षक अब्दुल लतीफ़ एक उदार विचारक था। 
  • अपने बचपन से ही अकबर का सूफ़ियों से सम्पर्क रहा। किन्तु इन सबसे ऊपर उसकी जिज्ञासु प्रकृति, उसका बौद्धिक दृष्टिकोण, उसकी सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति, उसकी आदर्शवादिता और उसकी व्यावहारिकता ने उसे उदार धार्मिक नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया था।

 

उलेमा वर्गं के राजनीतिक प्रभाव पर नियन्त्रण 

  • सामान्यतः मुस्लिम शासकों में अपने राज्य को मुस्लिम राज्यघोषित करने की प्रथा थी और इन परिस्थितियों में इस्लाम के संरक्षण तथा उलेमा वर्ग को संतुष्ट रखने हेतु उन्हें राज्य की ओर से विशेष प्रयास भी करने पड़ते थे। दिल्ली सल्तनत काल में अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्म्द तुगलक के अतिरिक्त सभी सुल्तान उलेमा वर्ग को राजनीतिक महत्व देते थे। अकबर की बौद्धिकता उसे अपने बहुसंख्यक गैर मुस्लिम प्रजा वाले साम्राज्य को 'मुस्लिम राज्य' स्वीकार करने से रोकती थी । 
  • वह मुसलमानों का यह दावा भी स्वीकार नहीं करता था कि पृथ्वी पर विद्यमान सभी धर्मों में से केवल इस्लाम में ही सत्य का वास है। अकबर ने स्वयं को सदैव एक आस्तिक मुसलमान के रूप में प्रस्तुत किया परन्तु उसको यह स्वीकार्य नहीं था कि धर्म, राजनीति पर हावी हो । उसने राज्य सत्ता पर अपना वास्तविक अधिकार होने के कुछ समय बाद ही उलेमा वर्ग के राजनीतिक हस्तक्षेप और राज्य की ओर से उन्हें मिलने वाले आर्थिक अनुदानों पर नियन्त्रण स्थापित किया।
  • सन् 1579 में महज़र की घोषणा द्वारा उसने मुसलमानों के धार्मिक विवादों में सर्वोच्च निर्णायक की भूमिका ग्रहण कर उलेमा वर्ग की शक्ति को सीमित किया। अकबर की नीतयों से असन्तुष्ट उलेमा वर्ग ने जब उसको अपदस्थ करने के षडयन्त्र में भाग लिया तब उसने उनके प्रभाव और प्रतिष्ठा को और भी क्षीण कर दिया।

 

 बादशाह अकबर धार्मिक उदारता की नीति

 

धार्मिक उत्पीड़न की नीति का परित्याग

 

  •  सन् 1562 में अकबर ने आमेर के राजपूत शासक भारमल की पुत्री से विवाह किया और बाद में उसने न केवल स्वयं, अपितु अपने परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों के भी राजपूतों में विवाह किए भारत में मुस्लिम शासकों ने इससे पहले भी हिन्दू कन्याओं से विवाह किए थे और उन सभी का धर्म-परिवर्तन कर उन्हें मुसलमान बनाया गया था किन्तु अकबर ने न केवल विवाह के समय हिन्दू रीति-रिवाजों का पालन किया अपितु उसने अपनी हिन्दू रानियों को हिन्दू बने रहकर ही अपने धर्म का पालन करने का पूर्ण अधिकार भी प्रदान किया। 
  • राज्य सत्ता पर अपना वास्तविक नियन्त्रण स्थापित होते ही अकबर ने हिन्दुओं से लिया वाला तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया और गैर-मुस्लिम युद्ध-बन्दियों की इस्लाम में बलात् धर्म परिवर्तन की प्रथा को भंग कर दिया। सन् 1564 में उसने धार्मिक उत्पीड़न के प्रतीक गैर-मुसलमानों से लिए जाने वाले धार्मिक कर जज़िया को समाप्त कर दिया। अकबर ने अपने साम्राज्य में सभी धर्मावलम्बियों को अपना धर्म पालन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की।


अकबर की विचारधारा पर सूफ़ी प्रभाव

 

  • अपनी बाल्यावस्था में अकबर ने सूफ़ी अब्दुल लतीफ़ से वहदुतुल वुंजूद तथा सुलेह कुल का पाठ पढ़ा था। बदायूंनी के अनुसार अकबर स्वयं एक सूफ़ी साधक था। वह अजमेर वाले ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सजदा करने नियमित रूप से जाता था और शेख सलीम चिश्ती का वह मुरीद था। सूफ़ियों की सहिष्णुता, उनके समन्वयवाद और उनके प्रेम मार्ग ने अकबर की विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला था। शेख मुबारक और उनके पुत्रों फ़ैज़ी तथा अबुल फ़ज़ल के सम्पर्क में आने के बाद अकबर उदार समन्वयात्मक सूफ़ी विचारों की ओर और अधिक झुकने लगा था।

 

अकबर की विचारधारा पर हिन्दू प्रभाव

 

  • राजपूतों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के बाद अकबर हिन्दुओं के घनिष्ठ सम्पर्क में आया था। हिन्दुओं के आत्मा के अमरत्व, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त ने उसे प्रभावित किया था किन्तु वह सती प्रथा तथा विधवा विवाह निषेध का विरोधी था। वह रक्षा बन्धन, जन्माष्टमी और वसन्त के त्यौहार मनाता था। उसने महाभारत और रामायण का न केवल फ़ारसी भाषा में अनुवाद कराया अपितु उनके कथानकों पर आधारित चित्रों के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया। उसने गो-हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दुओं के प्रभाव में उसने उनकी सी वेशभूषा अपनाली तथा माथे पर तिलक लगाना भी प्रारम्भ कर दिया।

 

अकबर की विचारधारा पर जैनों, पारसियों, ईसाइयों तथा अन्य धर्मावलम्बियों का प्रभाव

 

  • जैनों के अहिंसा के सिद्धान्त ने अकबर को अत्यधिक प्रभावित किया था। जगद्गुरु हीर विजय सूरी तथा भानुचन्द्र के प्रभाव में उसने पशु हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। वह अपने निजी जीवन में लगभग शाकाहारी हो गया था।

 

  • नवसारी के दस्तूर मेहरजी राना से सम्पर्क के बाद अकबर पारसियों की सूर्य-पूजा व अग्नि-पूजा में विश्वास करने लगा था।

 

  • अकबर ईसाई धर्म के मानवतावाद तथा सेवा भाव से प्रभावित था। उसने जेसुइट धर्म प्रचारकों को धार्मिक विचार-विमर्श के लिए अपने राज्य में आमन्त्रित किया। अकबर के अनुरोध पर पुर्तगाली ठिकाने गोआ से तीन जेसुइट मिशन अकबर के दरबार में भेजे गए। अंग्रेज़ मिशनरियों ने भी अकबर से सम्पर्क किया किन्तु किसी भी ईसाई मिशन ने अकबर पर विशेष प्रभाव नहीं छोड़ा।

 

  • गुरुनानक देव के सिक्ख मत की समन्वयवादी विचारधारा से भी अकबर प्रभावित हुआ था। उसने सिक्ख गुरु रामदास को अमृतसर में ज़मीन दी जहां पर कि स्वर्ण मन्दिर का निर्माण करवाया गया।

 

  • अकबर ने धार्मिक विचार-विमर्श के उद्देश्य से सन् 1575 में फ़तेहपुर सीकरी में इबादतखाना बनवाया। यहां पर पहले केवल सुन्नी मत के विद्वानों को आमन्त्रित किया गया किन्तु सन् 1578 में सभी मतावलम्बियों को धार्मिक एवं दार्शनिक वाद-विवाद में सम्मिलित होने की अनुमति प्रदान कर दी गई

 

तौहीद- द-ए-इलाही अथवा दीन-ए-इलाही

 

  • सन् 1582 में दीन-ए-इलाही की योजना को प्रस्तुत किया गया था। अकबर इस नवीन मत का प्रणेता, आध्यात्मिक गुरु पुरोहित तथा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि था। इसके मतावलम्बी अकबर से रविवार को दीक्षा लेते थे और अपने अहंकार तथा स्वार्थ को त्याग कर उसके प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति व्यक्त करते थे।
 
  • तौहीद-ए-इलाही (दैविक एकेश्वरवाद) अथवा दीन-ए-इलाही को बदायूंनी ने अकबर द्वारा धर्म प्रवर्तक के रूप में अपने साम्राज्य की समस्त प्रजा स्वनिर्मित एक राष्ट्रीय धर्म के अन्तर्गत लाने की महत्वाकांक्षी योजना कहा है। 
  • कुछ अन्य विद्वानों ने उसके द्वारा स्वयं को एक पैगम्बर या खलीफ़ा के रूप में प्रस्तुत करने का षडयन्त्र कहा है किन्तु ये आरोप तथ्यों पर आधारित नहीं है। 
  • वास्तव में यह एक नया धर्म न होकर एक मत था जिसमें अनेक धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों यथा इस्लाम के एकेश्वरवाद, ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना, विश्व बंधुत्व की भावना, इस्लाम के ही अन्तर्गत सूफ़ियों की रहस्यानुभूति एवं उनका समन्वयवाद, हिन्दुओं के आत्मा के अमरत्व तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त, जैनों की अहिंसा, बौद्धों के मध्यम मार्ग, पारसियों की सूर्य एवं अग्नि पूजा तथा ईसाइयों के मानवतावाद का समावेश किया गया था। 
  • दीन-ए-इलाही के अन्तर्गत 10 सद्गुणों में विनम्रता, मृदु एवं सत्य-भाषण, क्रोध पर नियन्त्रण, भौतिक सुखों के प्रति विरक्ति, आत्मा के परमात्मा में लीन होने हेतु आत्म-शोधन बाद ईश्वर का ध्यान आदि का समावेश किया गया था। 
  • विन्सेन्ट स्मिथ दीन-ए इलाही को अकबर की मूर्खता का स्मारक मानते हैं। अकबर ने अपने मतावलम्बी बनाने के लिए कभी बल का प्रयोग नहीं किया लेकिन इस मत में केवल उसके प्रशंसक और अवसरवादी चाटुकार ही सम्मिलित हुए। 
  • अकबर के जीवनकाल में ही दीन-ए-इलाही का प्रयोग असफल हो गया। निश्चित रूप से यह एक अहंकारी बादशाह की महत्वाकांक्षी, अव्यावहारिक, निराधार एवं हवाई योजना थी किन्तु सर्व धर्म सम्भाव एवं राष्ट्र को भावनात्मक रूप से एकसूत्र में बांधने के प्रयास के कारण इसे अपने समय से बहुत आगे की योजना कहा जा सकता है।
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