गढ़ा के शासक कौन थे? | आम्हणदास उर्फ संग्रामशाह | Who was King Sangram Shah

गढ़ा के शासक कौन थे?  आम्हणदास उर्फ संग्रामशाह

गढ़ा के शासक कौन थे? | आम्हणदास उर्फ संग्रामशाह  | Who was King Sangram Shah


 

गढ़ा के शासक कौन थे? 

गढ़ा के शासक कौन थे, इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य हमारे सम्मुख यह है कि सोलहवीं शती में हुए गढ़ा राज्य के महानतम शासक संग्रामशाह के सिक्कों में उसे "पुलत्स्यवंशी" कहा गया है। संग्रामशाह को पुलत्स्यवंशी कहा जाना एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है क्योंकि पुलत्स्य ऋषि का पुत्र रावण था और  गौंड स्वयं को रावणवंशी भी कहते हैं । ऐसी स्थिति में गढ़ा के शासकों को गौंड मूल का माना जा सकता है। इस निष्कर्ष को एक समकालीन स्रोत अकबरनामा से भी परोक्ष रूप से समर्थन मिलता है, जिसमें अबुलफजल कहता है कि संग्रामशाह का पुत्र दलपतिशाह यद्यपि अच्छे कुल का नहीं था; तथापि महोबा के चन्देल शासक सालवाहन ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह इसलिए कर दिया क्योंकि सालवाहन की परिस्थिति अच्छी नहीं थी । 

 

संग्रामशाह के पूर्वजों का उल्लेखखरजी से अर्जुनदास तक

 

संग्रामशाह के पूर्वजों का उल्लेख करते हुए वह अकबरनामा' में कहता है कि संग्रामशाह खरजी के पुत्र संगिनदास या सुखनदास के पुत्र अर्जुनदास का पुत्र था। अबुलफज़ल के द्वारा उल्लिखित इन शासकों को क्रम इस प्रकार रखा जा सकता है खरजी, गोरक्षदास, सुखनदास, अर्जुनदास और संग्रामशाह 1667 ई. में उत्कीर्ण रामनगर शिलालेख में संग्रामशाह को अर्जुनदास का, अर्जुनदास को गोरक्षदास का और गोरक्षदास को दादीराय का पुत्र बताया गया है। यह संभव है कि गोरक्षदास और सुखनदास एक ही व्यक्ति हों।

 

खरजी, गोरक्षदास, सुखनदास और अर्जुनदास में से किसी के राज्यारोहण की तिथियों का उल्लेख अबुलफज़ल नहीं करता। जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है, संग्रामशाह का राज्यारोहण 1510 और 1513 ई. के मध्य हुआ था। अर्जुनदास 40 वर्ष की आयु में सिंहासन पर बैठा और उसकी मृत्यु असमय में उसके पुत्र के हाथों हुई। अतः उसे शासन के केवल 10 वर्ष देकर उसके पहले के तीन शासकों खरजी, गोरक्षदास और सुखनदास में से प्रत्येक को औसतन 20 वर्ष की शासनावधि देने पर खरजी के राज्यारोहण की तिथि लगभग 1440 ई. (1510-70 वर्ष 1440) मानी जा सकती है।

 

अकबरनामा के अनुसार खरजी अपनी योग्यता और चालाकी से प्रदेश के अन्य शासकों से पेशकश वसूल किया करता था। इस प्रकार उसने एक सौ घुड़सवार और दस हजार पैदल सेना एकत्र कर ली। सम्भवतः 1460 ई. में उसका उत्तराधिकारी गोरक्षदास हुआ जो करीब 1486 ई. तक रहा। गोरक्षदास के उपरान्त उसका पुत्र सुखनदास या संगिनदास 1480 ई. के लगभग सत्तारूढ़ हुआ। उसने अपने पिता की योजनाओं को आगे बढ़ाया और पाँच सौ घुड़सवार तथा साठ हजार पैदल सेना एकत्र करके अपनी शक्ति में वृद्धि की। सुखनदास के शासन का अंत लगभग 1500 ई. में हुआ। इसके बाद की कहानी गढ़ा राज्य के उत्कर्ष की कहानी है, ऐसा उत्कर्ष जिसने भारत के मध्य भाग के एक बड़े भूभाग के इतिहास का नया अध्याय लिखा। संगिनदास या सुखनदास का उत्तराधिकारी अर्जुनदास हुआ, जो हमारे तिथिक्रम के अनुसार 1500 ई. के लगभग सिंहासन पर बैठा। अबुलफज़ल के अनुसार राज्यारोहण के समय अर्जुनदास की आयु 40 वर्ष की थी। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम अमानदास और छोटे पुत्र का नाम जोगीदास था। युवावस्था में आम्हणदास बड़ा शैतान एवं दुष्कर्मी था और कभी वह हमेशा अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध काम करता था। एक बार आम्हणदास गढ़ से भाग निकला और पड़ोस में स्थित भाठ अर्थात् रीवा के बघेल शासक वीरसिंह के यहाँ जाकर उसने शरण ली। राजा ने उसे अपनाकर पुत्र के समान रखा। यह घटना 1500 ई. के बाद की होगी, क्योंकि वीरसिंह 1500 ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ था ।

 

अर्जुनदास ने अपने ज्येष्ठ पुत्र आम्हणदास से रुष्ट होकर अपने दूसरे पुत्र जोगीदास को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जब आम्हणदास ने इसके बारे में सुना तो वह तेजी से पिता की राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहाँ पहुँचकर उसने अपने पिता अर्जुनदास की हत्या कर डाली। अर्जुनदास की हत्या का समाचार सुनकर वीरसिंहदेव एक बड़ी सेना लेकर गढ़ा की ओर बढ़ा। अब म्हणदास ने भागकर पर्वतों में शरण ली। आम्हणदास ने अपने कुछ अनुचरों के साथ उससे भेंट की। अपने किए पर उसने बहुत पश्चाताप किया। वीरसिंहदेव ने उसे क्षमा कर दिया और गढ़ा राज्य उसे सौंप दिया।"

 

आम्हणदास उर्फ संग्रामशाह 

अब प्रश्न यह है कि आम्हणदासदेव कब सिंहासन पर बैठा ठर्रका (दमोह) के संवत 1570 अर्थात 1513 ईस्वी के सती लेख के आधार पर यह निश्चित है कि आम्हणदास 1513 ई. में सत्तारूढ़ था अतः उसके पहले ही वह सिंहासन पर बैठा होगा। यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि वह 1510 ई. और 1513 ई. के मध्य किसी समय सिंहासन पर बैठा आम्हणदास ने कुछ समय उपरांत संग्रामशाह की पदवी धारण की ऐसा उसके सिक्कों से ज्ञात होता है। संग्रामशाह के अंकन वाला सबसे पुराना सिक्का संवत् 1573 याने 1516 ईस्वी का है इससे प्रतीत होता है कि आम्हणदास 1516 ईस्वी में संग्रामशाह की पदवी धारण कर चुका था। संग्रामशाह की पदवी धारण करने के बारे में अबुलफज़ल लिखता है कि आम्हणदास ने 1531 में गुजरात के सुल्तान बहादुर को रायसेन विजय के समय सहायता दी। इसके फलस्वरूप उसने आम्हणनदास को संग्रामशाह की पदवी देकर सम्मानित किया। 12 लेकिन ऊपर के सिक्के के साक्ष्य के सम्मुख अबुलफज़ल के कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

एक घटना यह उल्लेखनीय है कि 1518 ईस्वी में इब्राहीम लोदी के सिंहासनारोहण के उपरान्त इब्राहीम का भाई जलाल भागकर गढ़ा कटंगा की ओर गया। वहाँ गौंडों ने उसे कैद कर लिया और सुल्तान की कृपा प्राप्त करने हेतु उसे सुल्तान इब्राहीम लोदी को सौंप दिया ऐसा लगता है कि यह घटना आहम्णदास के समय की होगी।

 

दलपतिशाह का दुर्गावती से विवाह 

संग्रामशाह के दो बेटे थे दलपतिशाह और चन्द्रशाह बड़े बेटे दलपतिशाह का विवाह संग्रामशाह के जीवनकाल में ही लगभग 1542 ई. में दुर्गावती से हुआ। विवाह के समय दपलतिशाह की आयु 25 वर्ष की मानी जा सकती है। इस विवाह सम्बन्ध के बारे में अबुलफज़ल सीधे तौर पर कहता है कि "वह (दुर्गावती) राठ और महोबा के चन्देल राजा सालवाहन की पुत्री थी। उस राजा ने अमानदास के पुत्र दलपति के साथ उसका विवाह कर दिया। यद्यपि वह (दलपति) अच्छे कुल का नहीं था, तथापि वह सम्पन्न था और राजा सालवाहन की परिस्थिति अच्छी नहीं थीं, अतः सालवाहन को यह विवाह करना पड़ा। स्मिथ और कनिंघम शेरशाह के समकालीन कालिंजर के राजा कीरतसिंह को दुर्गावती का पिता बताते हैं जो गलत है। यह कीरतसिंह प्रसिद्ध चंदेलवंश की प्रमुख शाखा का अंतिम शासक था।

 

संग्रामशाह का राज्य-विस्तार 

संग्रामशाह के राज्य का विस्तार कहाँ तक था. इसका कोई निश्चित समकालीन साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। रामनगर शिलालेख और "गढ़ेशनृपवर्णनम्" मात्र यह कहते हैं कि संग्रामशाह के अन्तर्गत 52 गढ़ थे। स्लीमेन ने गढ़ा मण्डला का जो इतिहास लिखा है कि उसमें वे संग्रामशाह के 52 गढ़ों की सूची देते हैं और यह भी बताने का प्रयास करते हैं कि ये गढ़ कहाँ-कहाँ स्थित है। संग्रामशाह के उपर्युक्त 52 गढ़ों के नक्शा देखें तो एक नजर में ही यह दिख जाता है कि इनमें से ज्यादातर याने करीब दो तिहाई गढ़ नर्मदा नदी के उत्तर के उपजाऊ भाग में स्थित हैं और काफी पास-पास हैं। उधर नर्मदा के दक्षिण के वन्य प्रदेश में गढ़ा राज्य का आधे से ज्यादा हिस्सा होने पर भी वहाँ करीब एक तिहाई गढ़ ही हैं और वे काफी दूर दूर स्थित हैं। ऐसा होना अस्वाभाविक इसलिये नहीं है कि नर्मदा नदी के उत्तर का इलाका उपजाऊ होने के कारण वहाँ ज्यादा आबादी थी और दक्षिण में वन्य प्रदेश होने के कारण खेती योग्य जमीन कम थी और वहाँ आबादी कम थी संग्रामशाह की पुत्रवधू दुर्गावती के समय गढ़ा कटंगा का विस्तार बताते हुए अबुलफज़ल कहता है कि इसका पूर्वी हिस्सा रतनपुर से और पश्चिमी हिस्सा रायसेन से मिला हुआ है। इसके उत्तर में पन्ना तथा दक्षिण में दक्खिन है। इसकी पूर्व-पश्चिम लम्बाई 150 कोस (480 कि.मी.) और उत्तर - दक्षिण चौड़ाई 80 कोस (256 कि.मी.) है। 14 दुर्गावती के समय जो विस्तार गढ़ा राज्य का था वहीं संग्रामशाह के समय रहा होगा क्योंकि संग्रामशाह के उपरांत दलपतिशाह और दुर्गावती के समय कुछ और प्रदेश गढ़ा राज्य में सम्मिलित किए जाने का उल्लेख नहीं मिलता।

 

अबुलफज़ल के वर्णन और 52 गढ़ों के परीक्षण से निष्कर्ष निकलता है कि संग्रामशाह के समय अनुमानतः निम्नलिखित क्षेत्र गढ़ा राज्य के अन्तर्गत थे। वर्तमान रायसेन, हरदा होशंगाबाद, नरसिंहपुर, जबलपुर, कटनी, सागर, दमोह, सिवनी, छिंदवाड़ा, बालाघाट, मण्डला, डिण्डोरी और कवर्धा के पूरे जिले, भोपाल और सीहोर जिले का कुछ भाग, विदिशा जिले का पूर्वी भाग, पन्ना जिले का दक्षिणी भाग, बिलासपुर जिले के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित परताबगढ़-पंडरिया से लेकर लाफा तक की जमींदारी तक का क्षेत्र, नागपुर जिले का कन्हान और पेंच नदियों के पूर्व का भाग और राजनांदगाँव जिले का वह भाग जिसमें खैरागढ़ रियासत और खलौटी जमीदारियाँ थीं। इसके अतिरिक्त भण्डारा जिले का उत्तरी अर्द्धांश भी संग्रामशाह के अधीन रहा होगा क्योंकि निजामशाह के समय यह क्षेत्र गढ़ा राज्य के अधीन था, इसके प्रमाण हैं। चूँकि संग्रामशाह के बाद गढ़ा राज्य का विस्तार नहीं हुआ, अतः यह संग्रामशाह के समय से ही गढ़ा राज्य के अधीन रहा होगा।

 

संग्रामशाह के सिक्के 

संग्रामशाह के समय के सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के मिले हैं। उसके समय के सोने के तीन सिक्कों का उल्लेख मिलता है। सोने का एक गोल सिक्का प्राप्त हुआ है जो संवत् 1600 (1543 ईस्वी) का बताया गया है। इसमें संग्रामशाह को पुलत्स्यवंशी कहा गया है। 15 संग्रामशाह का सोने का जो दूसरा सिक्का प्राप्त हुआ है वह वर्गाकार है और डॉ. वा. वि. मिराशी इस सिक्के की तिथि को संवत् 1588 (1531 ईस्वी) पढ़ते हैं। सोने का तीसरा सिक्का इसी प्रकार का याने वर्तुलाकार प्राप्त हुआ है जो संवत् 1600 (1543 ईस्वी) का है।

 

संग्रामशाह के तीन चाँदी के सिक्के सतपुड़ा के पठार में स्थित तामिया में मिले थे सोने और चाँदी के सिक्कों के अलावा संग्रामशाह के पीतल और ताँबे के सिक्के भी मिले हैं। आर. आर. भार्गव ने संग्रामशाह के छः चौकोर सिक्के प्रकाशित किये हैं जो उनके अनुसार पीतल के प्रतीत होते हैं । भार्गव ने संग्रामशाह के दो तांबे के सिक्के भी प्रकाशित किए हैं।17 ये दोनों सिक्के देवगढ़ टकसाल से जारी किये गए थे।

 

संग्रामशाह की मृत्यु और मूल्यांकन 

अबुलफज़ल दुर्गावती के शासन के 18 वर्ष और दलपतिशाह के शासन के सात वर्ष बताया है, दुर्गावती की मृत्यु 1564 ई. में हुई। इस आधार पर संग्रामशाह की मृत्यु 1541 ई. हुई। लेकिन महामहोपाध्याय मिरांशी ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित संग्रामशाह के एक सिक्के की तिथि के आधार पर संग्रामशाह का शासन संवत् 1600 (1543 ई.) तक बताते हैं, जिस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। संग्रामशाह ने लगभग 33 वर्ष तक राज्य किया और इस अवधि में उसने निश्चित रूप से गढ़ा राज्य को दृढ़ता दी। संग्रामशाह ने चौरागढ़ (जिला नरसिंहपुर म. प्र. ) का दुर्ग बनवाया और सिंगौरगढ़ किले के निकट उसने संग्रामपुर (जिला दमोह म. प्र.) नामक ग्राम बसाया। संग्रामशाह ने सम्भवतः गढ़ा के निकट मदनमहल नामक एक भवन का निर्माण कराया। गढ़ा के निकट संग्राम सागर नामक एक सरोवर और उसके तट पर बाजनामठ भी इसी शासक ने निर्मित कराए।

 

संग्रामशाह मात्र एक विजेता नहीं था बल्कि उसने साहित्य को भी प्रश्रय दिया। उसने संस्कृत काव्य-ग्रंथ 'रसरत्नमाला' की रचना की। उसने हिन्दू दर्शन, विद्या और संस्कृति के तत्कालीन गढ़ मिथिला से भी विद्वान आमंत्रित किए। ऐसे एक विद्वान दामोदर ठाकुर थे जो प्रसिद्ध महेश ठाकुर के अग्रज थे। दामोदर ठाकुर ने "संग्रामसाहीयविवेकदीपिका" और "दिव्य निर्णय" नामक दो निबन्ध लिखे ।


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