भारत में मास मीडिया के स्वामित्व की पृष्ठभूमि |Background of Mass Media Ownership in India

भारत में मास मीडिया के स्वामित्व की पृष्ठभूमि

भारत में मास मीडिया के स्वामित्व की पृष्ठभूमि



भारत में मास मीडिया के स्वामित्व की पृष्ठभूमि 

विश्व भर में मास मीडिया के स्वामित्व की शुरूआत एकल स्वामित्व या व्यक्तिगत स्वामित्व से हुई। भारत में भी मास मीडिया के प्रारम्भिक रूप में जिन समाचार पत्रों का प्रकाशन हुआ, वह सभी निजी या एकल स्वामित्व वाले अखबार थे। प्रारम्भिक समाचार पत्रों में मालिक, प्रकाशक और संपादक एक ही व्यक्ति होता था और एकदम शुरूआती अखबारों में तो संपादक शब्द का प्रयोग भी नहीं होता था । अखबार के प्रकाशक या व्यवस्थापक ही संपादक होते थे और वे ही मालिक थे।

 

भारत का पहला प्रकाशित समाचार पत्र एक अंग्रेज के स्वामित्व में निकला था। 29 जनवरी 1780 को कोलकाता से जेम्स आगस्टस हिकी ने हिकीज बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर का प्रकाशन शुरू किया था। इसी दौरान प्रकाशित होने वाले इण्डिया गजट और बंगाल जनरल आदि अखबार भी एकल स्वामित्व वाले अखबार ही थे। हालांकि शुरूआती दौर में ही धार्मिक संस्थाओं के स्वामित्व वाले अखबारों का भी चलन शुरू हो गया था। किश्चियन मिशनरी संस्थाओं द्वारा चलाए जाने वाले अखबार इसी श्रेणी में आते हैं। यद्यपि इन अखबारों को ब्रिटिश सामाज्य की मदद भी मिलती थी लेकिन इनमें से कोई भी अखबार दीर्घजीवी या लोकप्रिय नहीं हो सका।

 

1818 में भारत में पहले भारतीय भाषी समाचार पत्र दिग्दर्शन का प्रकाशन कोलकाता से शुरू हुआ। यह बांग्ला भाषा का अखबार था । इसका स्वामित्व भी एकल स्वामित्व ही था। 1826 में कोलकाता से ही हिन्दी का पहला अखबार 'उदन्त मार्तण्ड' प्रकाशित होना शुरू हुआ। इसके तीन वर्ष बाद 1829 में प्रकाशित बंनदूत हिन्दी का दूसरा अखबार था। बंगदूत बांग्ला में भी छपता था । बंगदूत और उदन्त मार्तण्ड दोनों ही अखबार एकल स्वामित्व वाले थे। उदन्त मार्तण्ड साप्ताहिक अखबार था और इसके स्वामी - संपादक पण्डित जुगल किशोर शुक्ल थे। 79 अंक निकालने के बाद आर्थिक संकट के कारण यह अखबार बन्द हो गया। हिन्दी का पहला दैनिक समाचार सुधा वर्षण बड़ा बाजार कोलकाता से 1854 में प्रकाशित हुआ था। इसके संपादक श्याम सुन्दर सेन व इसको प्रकाशित करने वाले छापेखाने के मालिक महेन्द्रनाथ सेन भाई-भाई थे और दोनों ही अखबार के स्वामित्व में साझेदार भी इस दौर के प्रायः सभी अंग्रेजी के अखबार भी साझेदार अथवा एकल स्वामित्व वाले ही थे।

 

हिन्दी पत्रकारिता के दूसरे दौर यानी भारतेन्दु युग में भी ज्यादातर अखबारों का स्वामित्व एकल या साझेदारी के आधार पर ही था । कविवचन सुधा (1867) हरिश्चन्द मैगजीन (1874) से लेकर भारत मित्र (1878), उचित वक्ता ( 1880) सारसुधा निधि (1878), आदि सब इसी तरह के समाचार पत्र थे । सार सुधानिधि निजी स्वामित्व वाला अखबार था और चार लोगों, पण्डित सदानन्द मिश्र, पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र पण्डित गोविन्द नारायण और पण्डित शम्भूनाथ ने मिलकर इसे शुरू किया था। लेकिन एक ही वर्ष के अन्दर भारी घाटे के कारण 8 फरवरी 1880 के अंक में इसे बन्द करने का नोटिस छापना पड़ गया था। चारों साझीदार भी अलग हो गए। लेकिन इस नोटिस को पढ़ कर उदयपुर के महाराजा सज्जन सिंह ने इसे पर्याप्त आर्थिक सहायता दी और फिर यह पण्डित सदानन्द मिश्र के प्रयासों से 9 वर्ष तक प्रकाशित होते रहा। प्रारम्भिक दौर के भारतीय समाचार पत्रों के अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि उस दौर में राजा-महाराजा इन पत्रों से जुड़ने में गर्व महसूस करते थे और इन समाचार पत्रों को हर प्रकार से आर्थिक संरक्षण भी देते थे। सार सुधानिधि के 13 जनवरी 1879 के अंक में प्रकाशित मूल्य सम्बन्धी विवरण के बारे में प्रकाशित पंक्तियों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है, " ............राजा-महाराजाओं के सम्मान रक्षा के निमित्त साधारण मनुष्यों की अपेक्षा उन लोगों से ( राजा-महाराजाओं से) दूना दाम लिया जाएगा। इसी प्रकार 1833 में शुरू हुए फारसी अखबार 'जुब्बत-उल-अखबार के मालिक - संपादक मुंशी वाजिद अली खान को भरतपुर के राजा से 30 अलवर के राजा से 20 इज्झर के नवाब से 15, जोरा के नवाब से 10 और हैदराबाद के नवाब से 15 रूपये मासिक की नियमित सहायता मिलती थी।

 

इस दौर का तीसरा महत्वपूर्ण अखबार उचित वक्ता था। 7 अगस्त 1880 को कोलकाता से प्रकाशित इस समाचार पत्र का स्वामित्व भी एकल स्वामित्व था और पण्डित दुर्गा प्रसाद मिश्र ही इसमें सब कुछ थे। एक पैसा मूल्य के इस अखबार के दो हजार ग्राहक हो गए थे जो उस दौर में एक उल्लेखनीय सफलता थी ।

 

लेकिन 1857 के प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के बाद बदलते घटनाक्रम और फिर 1878 के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट ने भारतीय पत्रकारिता को एक बड़े बदलाव की ओर धकेल दिया । मीडिया के लिए दमनकारी वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट तत्कालीन मद्रास प्रान्त को छोड़ सारे भारत पर लागू किया गया था। इसी कारण उस दौर में मद्रास से पूर्णतः भारतीयों के स्वामित्व वाले 'द हिन्दू' अखबार का जन्म हुआ। बीसवीं सदी में हिन्दी पत्रकारिता में गाँधी युग के प्रादुर्भाव ने पत्रकारिता का मकसद ही बदल दिया। अब अखबार वैचारिक कान्ति और आजादी की छटपटाहट को तेज करने का औजार बनने लगे थे। इस दौर में निजी स्वामित्व के अखबारों का तेजी से विकास हुआ और उनका उद्देश्य था आजादी 5 सितम्बर 1920 को बनारस से शिव प्रसाद गुप्त ने 'आज' का प्रकाशन शुरू किया तो इसके पहले ही अंक में इसके सम्पादक बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लिखा, " हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सब प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। इसी दौर का एक अन्य अखबार 'स्वतंत्र' था जो 4 अगस्त 1920 को कोलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। यह पहला ऐसा हिन्दी अखबार था जिसके संचालन / स्वामित्व के लिए अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने एक कम्पनी की स्थापना की थी ।

 

इस दौर में अंग्रेजी पत्रकारिता पर अंग्रेजों का ही प्रभुत्व था । द सिविल एण्ड मिलिट्री गजट स्टेट्समैन, टाइम्स ऑफ इण्डिया और द पायनियर उस दौर के चार प्रमुख ब्रिटिश स्वामित्व वाले एंग्लो इण्डियन समाचार पत्र थे। हालांकि इसी दौर में इनके मुकाबले के लिए ट्रस्ट के आधार पर संचालित होने वोले देश के पहले अखबार 'द ट्रिब्यून' को सरदार दयाल सिंह मजीठिया लाहौर से पहले साप्ताहिक और फिर 1906 में दैनिक के रूप में प्रकाशित कर चुके थे। लेकिन उस दौर में अंग्रेजी भाषा वाले देशी अखबारों के स्थिति बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी ।

 

आजादी के आस पास तक भारत में अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के स्वामित्व के दो वर्ग साफ साफ दिखाई देते थे। इनमें एक वर्ग था, अंग्रेजों द्वारा संचालित और उन्ही के स्वामित्व वाले मीडिया का और दूसरा था देशी मीडिया अंग्रेजों की सरपरस्ती वाले मीडिया का लक्ष्य था ब्रिटिश साम्राज्य, उनके अधिकारियों, व्यापार और नीतियों का समर्थन जिसके एवज में उन्हें विज्ञापन भी मिलते थे, सरकारी संरक्षण भी और उनकी प्रतियाँ भी थोक के हिसाब से सरकारी संस्थाओं द्वारा खरीद ली जाती थीं। साथ ही साथ उनके बेहतर प्रबन्धतंत्र की वजह से भी वे मुनाफा कमा रहे थे। इसके विपरीत देशी प्रबन्ध और स्वामित्व वाले मीडिया की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी । चाहे बात एक परिवार के स्वामित्व वाले 'द हिन्दू' की हो या कांग्रेस नेताओं के स्वामित्व वाले नेशनल हेरेल्ड समूह की या फिर बनारस के एकल स्वामित्व वाले 'आज' की, सबकी हालत खस्ता थी । बिड़ला घराने के हिन्दुस्तान टाइम्स और गोयनका के इण्डियन एक्सप्रेस की आर्थिक स्थिति भी ठीक-ठाक पाठक संख्या के बावजूद संतोषजनक नहीं थी । द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के कारण भी देशी अखबारों का संकट बढ़ गया था। इससे अखबारी कागज का संकट पैदा हो गया था। सरकारपरस्त अखबारों ने तो बढ़ी विज्ञापन दरों का लाभ उठाकर इस संकट का सामना कर लिया, मगर देशी अखबारों के सामने इस समस्या से निपटना कठिन होता जा रहा था। लेकिन आजादी के साथ-साथ स्थितियाँ बदलीं और देश में मीडिया के स्वामित्व की स्थितियों में भी रातों रात बदलाव आने लगा। ब्रिटिश स्वामित्व वाले टाइम्स ऑफ इण्डिया व स्टेट्समैन अखबारों के मालिकों ने कारोबार बेच कर इंग्लैण्ड जाना पसन्द किया और ये दोनों बड़े अखबार समूह भारतीयों के हाथ में आ गए। टाइम्स ऑफ इण्डिया की स्वामी बैनेट कोलमैन एण्ड कंपनी 1946 में डालमिया जैन घराने के और स्टेट्समैन टाटा समूह के स्वामित्व में आ गया। द पायनियर का स्वामित्व भी एक देशी व्यापार घराने के हाथों में पहुँच गया। आजादी के बाद के वर्षो में जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ती गई, अखबारों-पत्रिकाओं, रेडियो और टीवी के प्रति लोगों का रूझान भी बढ़ता गया। आज देश में मीडिया व्यवसाय एक बहुत बड़ा उद्योग बन चुका है और इसी के साथ-साथ इसके स्वामित्व की व्यवस्थाएं भी अनेक रूप धारण कर चुकी हैं।

 

अभ्यास प्रश्न :

 

प्रश्न-1 भारत में मास मीडिया के प्रारम्भिक दिनों में किस तरह के स्वामित्व की प्रणाली थी? 

प्रश्न - 2 भारत में धार्मिक संस्थाओं के स्वामित्व वाले प्रारम्भिक समाचार पत्र कौन से थे

प्रश्न - 3 पहले भारतीय भाषी समाचार पत्र दिग्दर्शन का स्वामित्व कैसा था ?

प्रश्न- 4 हिन्दी के पहले दैनिक समाचार पत्र के स्वामी कौन थे? 

प्रश्न-5 उन्नीसवीं सदी में राजा-महाराजा अखबारों को किस तरह सहायता देते थे? 

प्रश्न-6 बीसवीं सदी में गाँधी युग की भारतीय पत्रकारिता का उद्देश्य क्या था ?

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