क्या है सत्य अहिंसा सत्याग्रह उपवास हिजरत गांधी जी के अनुसार । गाँधीजी का विचार दर्शन। Gandhi ka Vichar Darhsan

गाँधीजी का विचार दर्शन (गांधी दर्शन की जानकारी)

क्या है सत्य अहिंसा सत्याग्रह  उपवास  हिजरत गांधी जी के अनुसार । गाँधीजी का विचार दर्शन। Gandhi ka Vichar Darhsan

  


गाँधीजी का विचार दर्शन

 

महात्मा गाँधी का सिद्धान्त सत्य

  • महात्मा गाँधी का सिद्धान्त सत्य और अहिंसा पर आधारित है। उनके अनुसार वास्तविकता में केवल सत्य का अस्तित्व है। उनके सत्य की अवधारणा सैद्धांतिक स्तर पर प्लेटो के नजदीक मानी जा सकती है लेकिन यथार्थ में अस्तित्ववाद के नजदीक है।
  • यूनानी विचारकों ने सत्य को सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा माना है और जिसकी परछाई इस दुनिया में यथार्थ के रूप में नजर आती है। इस निरपेक्ष सत्य के आधार पर ही सिद्धान्त का निर्माण किया जाता है और व्यक्ति को उसके जीवन में सत्य तक पहुँचने का प्रयास किया जाना चाहिए। 
  • महात्मा गाँधी इस निरपेक्ष सत्य को स्वीकार करते हैंक्योंकि अस्तित्व निरपेक्ष है। लेकिन उस निरपेक्ष सत्य को व्यक्ति के सत्य में मिलने का आधार व्यक्ति की चेतना का सर्वोच्च स्तर को प्राप्त करना है। जब तक ऐसा न हो व्यक्ति के सत्य को सापेक्षवादी सत्य माना जायेगा और हर व्यक्ति का सत्य ही उसका अंतिम सत्य होगा। यह धारणा अस्तित्ववादी धारणा से मिलती-जुलती है। 
  • निरपेक्ष सत्य को आत्मसात करने के लिए महात्मा गाँधी ने अपने स्व को निरन्तर प्रयोगों के द्वारा तथा तप के माध्यम से उच्च चेतना युक्त बनाया। इसलिए गाँधीजी ने व्रतउपवासअहिंसाब्रह्मचर्यअस्तेयअपरिग्रह आदि को अपनाने पर बल दिया। है। जिससे व्यक्ति की आवाज बन सके। इस प्रकार वे निरपेक्ष सत्य के पराभौतिक विचार और सापेक्ष सत्य के यथार्थवादी विचार का सम्मिश्रण प्रस्तुत करते हैं। 
  • वे सत्य को केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही महत्व नहीं देते हैं बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में भी इसे बनाये रखते थे। उनके अनुसार राजनीति और समाज में किये जाने वाले कार्यों में सत्य परिभाषित होना चाहिए। सत्य के अभाव में मनुष्य उद्देश्यहीन हो जाता है और अपने कार्यों से समाज का हित नहीं कर पाता है। 


गाँधीवादी प्रविधि

 

(1) अच्छे साध्य के लिए साधनों की पवित्रता आवश्यक- 

  • अच्छे परिणामों की प्राप्ति के लिए अच्छे व नैतिक साधनों का प्रयोग गाँधीजी आवश्यक मानते थे। उनके मतानुसार अच्छे उद्देश्यों की प्राप्तिअच्छे साधनों से ही सम्भव है। इस रूप में उनके मतानुसार साधन व साध्य अभिन्न होते हैं। उनका कहना है कि "साधन एक बीज की तरह है तथा उद्देश्य पेड़ की तरह। अतः जिस प्रकार बीज के अनुसार पेड़ होता है। उसी प्रकार साधन के अनुसार ही उद्देश्य की सिद्धि होती है।

 

  • साधनों की पवित्रता में इतना अटूट विश्वास रखने वाले व्यक्ति के लिए यह स्वाभाविक था कि अपने द्वारा निर्धारित उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह ऐसे साधन चुने जिनकी पवित्रता अग्नि जैसी हो और यही कारण था कि उन्होंने अपने प्रत्येक उद्देश्य की सिद्धि के लिए सत्य व अहिंसा के साधनों का प्रयोग किया। आलंकारिक भाषा में हम कह सकते हैं कि साधनों की पवित्रता को आधार बना कर अपने गन्तव्य की प्राप्ति के लिए गाँधीजी ने एक ऐसे रथ का निर्माण कियाजिसके पहिए अहिंसा तथा सत्याग्रह (सत्य के प्रति आग्रह) रहे और जिसका वाहक सत्य रहा।

 

  • सत्यगाँधीजी के जीवन तथा दर्शन का ध्रुवतारा या सर्वोच्च लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति के लिए वे सर्वदा प्राणोत्सर्ग करने के लिए तत्पर थे। गाँधीजी के अनुसार सत्य के दो रूप होते हैं। सत्य का पहला रूप सापेक्ष या स्थूल सत्य का हैजिसका साक्षात्कार मनुष्य को देश काल व परिस्थितियों के अनुसार होता है। सत्य का दूसरा रूप निरपेक्ष सत्य या सूक्ष्म सत्य का होता है। जो पूर्णसर्वव्यापकअसीमित व काल तथा दिशा से परे है। पूर्ण सत्य का अर्थ गाँधीजी ईश्वर के रूप में ग्रहण करते थे। उनका मत था कि वास्तविक अस्तित्व (अर्थात ईश्वर ही सत्य है तथा इसीलिए वे यह कहा करते थे कि सत्य ही ईश्वर है। उनके अनुसार पूर्ण सत्य में पूर्ण ऐश्वर्य व पूर्ण आनन्द होता है। इसीलिये ईश्वर को सत् चित् आनन्द कहा जाता है। गाँधीजी का सत्याग्रह का दर्शन इसी मान्यता पर आधारित है।

 

महात्मा गाँधी का सिद्धान्त अहिंसा

  • महात्मा गाँधी की पहचान उनकी अहिंसा की प्रतिबद्धता के कारण है। उन्होंने मानव इतिहास में पहली बार अहिंसा का उपयोग राजनीतिक क्षेत्र में सफलतापूर्वक किया और अहिंसा को एक आधुनिक शस्त्र बनाकर राजनीति व सामाजिक क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। स्वयं के और समाज के संघर्ष निवारण के लिए अहिंसा का प्रयोग किया गयाजिसे विश्व संघर्ष निवारण के लिए स्वीकार्य और सफल तकनीकी माना जाता है।


  • साधारणतया अहिंसा का अर्थ चोट न पहुँचाना और हत्या न करना माना जाता है और विस्तृत स्वरूप देने पर इसका अर्थ है किसी जीव को मनवचन और कर्म से दुःख नहीं पहुँचाना है। अहिंसा हिन्दूबौद्ध धर्म और जैन धर्म में किसी न किसी रूप में आवश्यक तत्व है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए पंतजलि जैसे योगशास्त्रियों ने इसे आवश्यक माना है। जैन धर्म में इसको अत्यधिक महत्व दिया है और हिंसा को कई श्रेणियों में जैसे आरम्भ भज और अनारंभ भज यानि जान बूझकर या अनजाने में की जाने वाली हिंसा के रूप में देखा जाता है। जैन धर्म में व्यवहार में भी इसे लागू करने पर बल दिया जाता है। 


  • बौद्ध धर्म में प्रत्येक साधु के लिए अहिंसा का पालन करना आवश्यक है। महाभारत में अहिंसा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है और क्षमा को वीरों का आभूषण माना है। महात्मा गाँधी ने टॉल्सटॉय की पुस्तक से अहिंसा के महत्व को जाना और बाद में भारतीय परम्परा में अहिंसा के कई उदाहरणों इसका महत्व समझा। जैसे पौराणिक कथा में भक्त प्रहलाद के उदाहरण में उन्होंने गीता की व्याख्या करते हुए इसे अहिंसक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया। 
  • महात्मा गाँध ने अहिंसा में नकारात्मक और सकारात्मक भेद प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार अहिंसा का अर्थ है किसी भी जीव को शारीरिक या मानसिक रूप में पीड़ा न पहुँचाना। इसके सकारात्मक रूप में है- प्रेम और दान। सकारात्मक रूप में अहिंसा की पालना करने पर व्यक्ति को अपने शत्रु से प्रेम करना आवश्यक है तथा ऐसी अहिंसा सत्य और अभय को सम्मिलित करती है। 
  • इस प्रकार महात्मा गाँधी की अहिंसा का अर्थ नकारात्मक पक्ष तक सीमित नहीं थावे अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को अधिक महत्व देते हैंजिसमें अपने विरोधी को प्रेम करना सम्मिलित है और इसी कारण वे यह मानते थे कि पाप से घृणा करो पापी से नही। उनका दृढ़ विश्वास था कि अहिंसा न केवल सार्वभौमिक रूप से लागू की जा सकती हैअपितु यह अंतिम रूप से सही सिद्ध होती है तथा इसका उपयोग करने वाला ही अंतिम विजय प्राप्त करता है। उनकी यह मान्यता थी कि मनुष्य मूलतः दैवीय स्वरूप होता हैपर उसमें पशुता के अंश मौजूद हैं और इसलिए हिंसा करना बहुधा मनुष्य का स्वभाव बन जाता है लेकिन वे यह भी मानते थे कि निरन्तर प्रयास से मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ हद तक अहिंसक बना रह सकता है। 
  • सत्य और असत्यहिंसा और अहिंसा की लड़ाई मनुष्य तथा समाज में निरन्तर चलती रहती है। 


महात्मा गाँधी के अनुसार अहिंसा तीन तरह की हो सकती है-

 

  1. कायरों की अहिंसा जो दुर्बलता के कारण हिंसा का सहारा नहीं ले सकता। 
  2. राजनीतिक तरीके के रूप में अहिंसा का प्रयोग।
  3. अहिंसा के प्रति आत्म प्रतिबद्धता जो आत्मानुशासन व आंतरिक आत्मानुभक्ति से आती है।

 

  • गाँधीजी कायर की अहिंसा को अहिंसा नहीं मानते हैं। राजनीति या सामाजिक क्षेत्र में सफलता के लिए की जाने वाली सर्वश्रेष्ठ अहिंसा नहीं है। जब तक मनुष्य आंतरिक रूप से अहिंसा के प्रति प्रतिबद्ध न होसर्वश्रेष्ठ अहिंसा नहीं हो सकती। 


गाँधी व्यावहारिक अहिंसा को चार क्षेत्रों में इंगित किये हैं-

 

  1. सत्ता के विरुद्ध अहिंसा का प्रयोग 
  2. आंतरिक उपद्रवों के मध्य अहिंसा का प्रयोग। 
  3. बाह्य आक्रमण में अहिंसा का प्रयोग। 
  4.  घरेलू क्षेत्र में अहिंसा का प्रयोग।

 

सत्य व अहिंसा का अन्तर्सम्बन्ध

 

  • गाँधीजी की सम्पूर्ण विचारधारा की आधारशिला सत्य व अहिंसा है। गाँधीवाद इस रूप में सत्य की साधनाविज्ञान व अहिंसा एवं सत्य के साक्षात्कार के साधन के रूप में करते हैं। किन्तु इन दोनों में से गाँधीजी सत्य को अहिंसा से उच्चतर स्थान देते हैं। उनके अनुसार सत्य के लिए अहिंसा का त्याग किया जा सकता है। किन्तु अहिंसा के लिए सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता है।

 

महात्मा गाँधी के अनुसार सत्याग्रह 

  • राजनीतिक दर्शन में महात्मा गाँधी की प्रमुख देन थी सत्याग्रह सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह ।  सत्य के प्रति आग्रह व्यक्ति को शक्तिशाली बनाता है। इस आग्रह को बनाये रखने के लिए एकमात्र साधन हैअहिंसा। 
  • दक्षिण अफ्रीका में सरकार का प्रतिरोध करते समय महात्मा गाँधी ने अपने आन्दोलन को निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया था। धीरे-धीरे महात्मा गाँधी को यह एहसास हुआ कि उनके द्वारा चलाया गया आन्दोलन निष्क्रिय शब्द से पूर्णतया नहीं समझा जा सकता क्योंकि उनके आन्दोलन में कुछ विशेषताएँ ऐसी थी जो उसे निष्क्रिय प्रतिरोध से अलग करती थी। महात्मा गाँधी का सविनय अवज्ञा आन्दोलन उनके सच्चे भाव और उनके ठोस सिद्धान्त पर आधारित था जिसमें तिरस्कार नहीं था। निष्क्रियप्रतिरोध कमजोरों का हथियार माना जाता था। 
  • महात्मा गाँधी के जीवन में हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं थी। अपने आन्दोलन को अवधारणात्मक पहचान देने के लिए गाँधीजी ने अपने पत्र ‘‘इण्डियन ओपिनियन’’ में पाठकों से इस बारे में सुझाव माँगे । मगनलाल गाँधी ने सदाग्रह” शब्द सुझाया। गाँधीजी ने इसको व्यापक बनाते हुए अपने आन्दोलन का नाम सत्याग्रह" दिया। यह दो शब्दों से मिलकर बना है- सत् + आग्रह। यानि सत्य के प्रति आग्रह। यह आग्रह अहिंसा के बिना संभव नहीं। आज सारी दुनिया में अहिंसक प्रतिरोध को सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में किये गये आन्दोलनों के इतिहास को 'सत्याग्रह का इतिहासनामक पुस्तक में वर्णित किया है। 
  • गाँधीजी सत्याग्रह को एक क्रमिक विकास के रूप में देखते थे। उनके अनुसार व्यक्ति स्वयं को तप के द्वारा उत्कृष्ट बनाने के लिए निरन्तर कोशिश करता है तथा चेतना के उच्च स्तर को प्राप्त करता है। वह निष्क्रय प्रतिरोध को गरीबों का हथियार मानते थे और सत्याग्रह को बलवानों का अस्त्र मानते थे। इसमें अहिंसा आवश्यक तत्व था। 
  • सत्याग्रह का उद्देश्य सत्य को प्राप्त करना है और उसे किसी भी कीमत पर त्यागा नहीं जा सकता। सत्याग्रह का प्रयोग करने वाला और कानून का विरोध करने वाला हर व्यक्ति परेशानी झेलने को तैयार रहता है। वास्तव में सत्याग्रही कानून की पालना करने वाला होता है और वे उसी कानून के विरोध की बात करते हैं जो नैतिकता का विरोधी होता है। गाँधीजी के लिए नैतिकता सर्वोच्च थी। सत्याग्रह के व्यावहारिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए गाँधीजी मानते थे कि सत्याग्रह करने वाले को अपनी मूल माँगों से आगे नहीं बढ़ना चाहिए। उनका विचार था कि सत्याग्रह से प्राप्त सफलता को बनाये रखने के लिए निरन्तर सत्याग्रही बने रहना आवश्यक है। 
  • हेनरी डेविड थोरो के विचारों से प्रभावित होते हुए गाँधीजी मानते थे कि व्यक्ति सबसे पहले है और उसको नैतिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए हमेशा संघर्षरत रहना चाहिए। अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रयोग करना चाहिए और इसके परिणाम को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। 
  • गाँधीजी के अनुसार व्यक्तिगत हितों के लिए सत्याग्रह नहीं करना चाहिए। सत्याग्रह का प्रयोग हमेशा जन हितायजन सुखाय होना चाहिए। सत्याग्रह का प्रयोग करते समय भी महात्मा गाँधी विरोधी पक्ष से निरन्तर बातचीत करने पर बल देते थे और सभी प्रयासों में विफल होने पर ही सत्याग्रह प्रयुक्त करने की सलाह देते थे। सत्याग्रह आरम्भ करने से पूर्व सत्याग्रही को लोकमत अपने पक्ष में करना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिन बुराइयों के विरुद्ध वह संघर्ष करता है वे बुराइयाँ स्वयं में विद्यमान न हो। वह आत्म शुद्धि और सत्याग्रह से अपनी लड़ाई जीत सकता है। 


गाँधीजी  के सत्याग्रह की प्रविधियाँ (Mathods) 

 

1. असहयोग 

  • प्रतिपक्षी/विरोधी से अपना निजी या सार्वजनिक सहयोग हटा लेना ही असहयोग है। यह सत्याग्रह का एक स्थूल साधन हैजिसका प्रयोग वहीं सम्भव हैजहाँ पहले सहयोग की स्थिति रही होजब हमें अनुभव होता है कि परपक्ष जो अन्याय कर रहा है या कर सकता हैउसके मूल में हमारी शक्ति हैतब हमें चाहिए कि हम अपना सहयोग उस पक्ष से हटा लें।

 

  • गाँधीजी का विचार था कि अत्याचार एवं शोषण केवल तभी पनपता हैजब अज्ञानभय अथवा निर्बलता के कारण लोग अपने पर किए जाने वाले अत्याचार या शोषण के प्रति इच्छा या अनिच्छा से सहयोग करते हैं। अतः उनका विश्वास था कि ऐसी स्थिति में यदि सब लोग अत्याचारी या अत्याचारपूर्ण प्रणाली से पूर्णतया सहयोग करना बन्द कर देतो अन्त में वह प्रणाली स्वतः समाप्त हो जाएगी। यह बात मनमानी करने वाले किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियोंशोषक समुदायों या समूहों तथा सरकारों के सम्बन्ध में भी लागू की जा सकती है। 


असहयोग के कई सहयोगी उपाय है यथा 

(a) बहिष्कार 

  • जिस प्रकार कलंकित या भ्रष्ट व्यक्तियों का समाज द्वारा बहिष्कार किया जाता हैउसी प्रकार अवांछनीय शासनसरकारी सेवाओंउत्सवोंवस्तुओं आदि के प्रयोग का बहिष्कार करना असहयोग का एक साधन है। बहिष्कारात्मक असहयोग का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों अथवा ऐसी संस्थाओं के विरुद्ध अधिक प्रभावी सिद्ध होता है। जो जनमत की अवहेलना करते हुए मनमानी करते हैंस्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सन् 1920 में गाँधीजी ने स्कूलोंकॉलेजोंसरकारी नौकरियोंअदालतोंचिकित्सालयोंशासकीय उत्सवों तथा वाहनों आदि के बहिष्कार करने का कार्यक्रम चलाया था।

 

(b) धरना- 

  • धरना असहयोग किसी व्यवसायीसरकार या व्यक्ति के विरुद्ध प्रयोग में लाया जा सकता तथा उसका उद्देश्य अनैतिक व्यापार तथा अनुचित सरकारी आदेश को रोकना हो सकता है। गाँधीजी ने असहयोग के दौरान विदेशी वस्त्रोंशराब आदि के व्यापार को रोकने हेतु धरना असहयोग का प्रयोग किया था। 

  • इसमें यह स्मरणीय है कि धरना किसी पर दबाव डालने के लिए नहीं करना चाहिए। वरन उसे प्रभावित करने के लिए किया जाना चाहिए। धरना केवल समझाने बुझाने के रूप में होना चाहिए। किसी एक स्थान पर बैठकर आने-जाने वालों को रोककर या घेराव के रूप में धरने को गाँधीजी निन्दनीय समझते थे। धमकीविपक्षी के पुतले जलाना जैसे कार्य गाँधीवादी धरने के अन्तर्गत नहीं आते। धरना आत्मबल व अहिंसा पर आधारित होना चाहिए।

 

(c) हड़ताल 

  • काम बन्द करने को साधारणतः हड़ताल कहते हैं पर इसका उद्देश्य काम कराने वाले को किसी प्रकार की हानि पहुँचाना नहीं होताबल्कि इसका उद्देश्य उसके मस्तिष्क को इस प्रकार प्रभावित करना होता है कि अपनी नीति व कार्यों का अनौचित्य समझा सकें। गाँधीजी के अनुसार (i) हड़ताल जल्दी-जल्दी नहीं की जानी चाहिए अन्यथा यह निष्प्रभावी हो जाती है। (ii) हड़ताल पूर्णत: स्वेच्छापूर्ण तथा सौहार्दपूर्ण वातावरण में होनी चाहिए और वह पूर्णतः अहिंसात्मक होनी चाहिए। हड़ताल असहयोग की अन्तिम एवं तीव्रतम स्थिति है। अतः इसका प्रयोग तभी किया जाना चाहिएजब अन्य सभी असहयोग के ढंग निष्फल सिद्ध हो जाएँ।

 

2. सविनय अवज्ञा 

  • सविनय अवज्ञासत्याग्रह की उच्चतर सीढ़ी है। गाँधीजी ने इसे सबसे अधिक प्रभावशाली एवं अशक्त क्रान्ति का रक्तहीन रूप कहा है। अनैतिक कानूनों एवं आदेशों को समाप्त करने का यह सबसे अधिक उत्कृष्ट ढंग है। इस सम्बन्ध में गाँधीजी ने सविनय शब्द पर अधिक जोर दिया है और कहा है कि अवज्ञा किसी भी दशा में हिंसात्मक नहीं होनी चाहिए। गाँधीजी के अनुसारसविनय में अवज्ञा विपक्षी के प्रति हृदय से आदर रखते हुए संयत ढंग से की जानी चाहिए। इसका प्रयोग उच्च उद्देश्यों की सिद्धि होनी चाहिए। वह ठोस सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए तथा उसके पीछे घृणाशत्रुता या स्वार्थ की भावना नहीं होनी चाहिए।

 

3. गाँधीजी  के अनुसार हिजरत 

  • स्थायी निवास स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाना हिजरत कहलाता है। गाँधीजी ने घर छोड़ने की सम्मति उन लोगों को दी थीजो अपने स्थान पर आत्म सम्मान से न रह सकने के कारण दुःख अनुभव करते हों तथा जिनमें अन्य प्रकार के सत्याग्रह करने की शक्ति साहस व आत्मबल की कमी हो। गाँधीजी का विचार था कि उन लोगों को जो अहिंसापूर्ण ढंग से अपनी रक्षा नहीं कर सकतेहिजरत के उपाय का सहारा लेना चाहिए और उन्हें अन्यत्र चले जाना चाहिए। 
  • गाँधीजी का हिजरत सम्बन्धी विचार पैगम्बर मोहम्मद साहब द्वारा मक्का से हिजरत कर मदीना चले जाने की घटना से प्रेरित है।

 

  • गाँधीजी ने 1928 में बारदोली के सत्याग्रहियों को 1939 में लम्बड़ीजूनागढ़ विट्ठलगढ़ के सत्याग्रहियों को तथा 1935 में कैथा के हरिजनों को भी अपना घर छोड़कर अन्यत्र चले जाने की सम्मति दी थी। 

 

4 गाँधीजी के अनुसार  उपवास

  • सत्याग्रह का सबसे शक्तिशाली रूप जिसे गाँधीजी ने 'अग्निबाणकहा था. अनशन या उपवास है। उपवास उनके अनुसार सत्याग्रह का एक अमोघ अस्त्र हैंजो कभी असफल नहीं होता। गाँधीजी के अनुसार अनशन को भूख हड़ताल नही  समझा जाना चाहिए क्योंकि उसका उद्देश्य विपक्षी पर एक प्रकार का दबाव डालना होता हैजबकि अनशन का उद्देश्य आत्म शुद्धि होता है। 
  • गाँधीजी का दावा है कि शुद्ध अनशनमस्तिष्क एवं आत्मा को शुद्ध करता है। यह शरीर को कष्ट देकर आत्मा के बन्धनमुक्त करता है। गाँधीजी लिखते हैं कि अनशन प्रार्थना होती है या प्रार्थना की तैयारीबशर्ते कि अनशन आध्यात्मिक हो। अनशन टूटे हृदय की प्रार्थना होती है।गाँधीजी के प्रत्येक उपवास में तीव्र हृदय मंथनईश्वरारोपण तथा दूसरों पर दबाव डालने के स्थान पर आत्म प्रायश्चित का भाव रहता था।

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