महात्मा गांधी और स्वराज ।स्वराज पर गांधी जी के विचार । Mahatma Gandhi on Swaraj in Hindi

महात्मा गांधी और स्वराज ,स्वराज पर गांधी जी के विचार 

महात्मा गांधी और स्वराज ।स्वराज पर गांधी जी के विचार । Mahatma Gandhi on Swaraj in Hindi


महात्मा गांधी स्वराज (Mahatma Gandhi: Swaraj)

 

महात्मा गांधी एक ऐसा नाम है जिसे सुनते सत्य और अहिंसा का स्मरण होता है। एक ऐसा व्यक्ति जिन्होने किसी दूसरे को सलाह देने से पहले उनका प्रयोग स्वयं पर किया जिन्होंने बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा। महात्मा गांधी महान् राजनैतिक नेता थे। इन्होंने भारत की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। गांधी जी सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे और इसे वे पूरी तरह अपने जीवन में लागू भी करते थे। उनके सम्पूर्ण जीवन में उनके इसी विचार की छवि प्रतिबिम्बित होती है। यही कारण है कि उन्हें 1944 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया था। 


महात्मा गांधी की जीवनी (जीवन परिचय ) जन्म


महात्मा गांधी का जन्मस्थान व प्रारम्भिक जीवन

 

  • महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 को पोरबन्दर, गुजरात में करमचंद गांधी के घर पर हुआ था। इन का जन्म स्थान ( पोरबंदर) पश्चिमी भारत में गुजरात राज्य का एक तटीय शहर है। ये अपनी माता पुतलीबाई की अन्तिम संतान थे, जो कर्मचंद गांधी की चौथी पत्नी थी। ब्रिटिश शासन के दौरान इसके पिता पहले पोरबंदर और बाद में क्रमशः राजकोट व बांकानेर के दीवान रहे। 


  • महात्मा गांधी जी का असली नाम मोहनदास था और इनके पिता का नाम करमचंद गांधी। इसी कारण इनका पूरा नाम मोहन दास करमचंद गांधी पड़ा। ये अपने तीन भाईयों में सबसे छोटे थे। इनकी माता पुतलीबाई, बहुत ही धार्मिक महिला थी, जिसका गांधी जी के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा जिसे उन्होने स्वयं पुणे की यरवदा जेल में अपने मित्र और सचिव महादेव देसाई को कहा था, "तुम्हे मेरे अंदर जो भी शुद्धता दिखाई देती हो वह मैने अपने पिता से नहीं, अपनी माता से पाई है.... उन्होंने मेरे मन पर जो एकमात्र प्रभाव छोड़ा वह साध ता का प्रभाव था।"

 

  • गांधी जी का पालन-पोषण वैष्णव मत को मानने वाले परिवार में हुआ और उनके जीवन पर भारतीय जैन धर्म काभी गहरा प्रभाव पड़ा। यही कारण है कि वे सत्य और अहिंसा में बहुत विश्वास करते थे और उनका अनुसरण अपने पूरे जीवन काल में किया। 

  • गांधी जी का विवाह कस्तूरबा नामक लड़की से 13 वर्ष की आयु में हुआ।

 

महात्मा गांधी की प्रारम्भिक शिक्षा

 

  • गांधी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पोरबंदर में हुई। पोरबंदर से उन्होने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। इनके पिता की बदली राजकोट होने के कारण गांधी जी की आगे की शिक्षा राजकोट में हुई। 
  • 1887 में जैसे-तैसे उन्होंने राजकोट हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की और आगे की पढ़ाई के लिए भावनगर के सामलदास कॉलेज में प्रवेश लिया 19 वर्ष की आयु में अपनी विश्वविद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् वह वकालत की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड गए। 
  • उन्होंने 1892 में वकालत की परीक्षा पास और भारत वापिस आ गए। भारत वापिस आने के पश्चात् उन्होने राजकोट में वकालत करनी आरम्भ कर दी। जब वह राजकोट में वकालत कर रहे थे तो उनके जीवन में एक महान् घटना घटित हुई दक्षिण अफ्रिका में अब्दुल्ला शेख नामक व्यापारी का एक बड़ा पेचीदा मुकदमा चल रहा था। उस मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए उस व्यापारी ने गांधी जी को पेशकश की और गांधी जी ने उस पेशकश को स्वीकार कर लिया। 

महात्मा गांधी और दक्षिण अफ्रीका

  • वह अप्रैल, 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंच गए। वह उस देश में केवल एक वर्ष के लिए गए थे, परन्तु गांधी जी को वहां 20 वर्ष तक रहना पड़ा। 
  • दक्षिण अफ्रीका की सरकार रंगभेद की नीति पर अमल करती थी। उस देश में भारतीयों से घृणा और भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता था। भारतीयों को रेलगाड़ियों की प्रथम श्रेणी में यात्रा करने की आज्ञा नही थी। उस देश में भारतीय को कुली समझा जाता था और वहां के गोरे वकील गांधी जी को 'कुली वकील' कहा करते थे।
  • रंगभेद की नीति के कारण गांधी जी को कई बार हिंसक गतिविधियों का शिकार होना पड़ा। वहां पर भारतीयों के साथ घृणात्मक व्यवहार किया जाता था। गांधी जी इस स्थिति को सहन नही कर सके। उन्होंने वहां रहने वाले भारतीयों को उनके अधिकारों से उन्हें सुचेत करने के लिए संगठित करने का मन बनाया। 
  • उन्होंने कई आन्दोलन किये और कई बार जेल भी गए। परन्तु वह दक्षिण अफ्रीका की सरकार की रंगभेद की नीति के विरूद्ध समय 2 पर आन्दोलन करते रहे। यहां रहने वाले भारतीयों के फलस्वरूप दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की कई समस्याएं हल हो गई थी और भारतीयों को महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हो गए थे। 


महात्मा गांधी की भारत वापसी और राजनीति में प्रवेश 

  • 18 जुलाई 1914 को वे भारत वापिस आ गए। महात्मा गांधी गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। 1919 तक गांधी जी ने राजनीति में प्रवेश नहीं किया था। 6 अप्रैल 1919 के गांधी जी ने पुरी तरह से राजनीति में भाग लिया। 
  • 1919 से 1947 तक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के काल को गांध गीवादी काल कहा जाता है, क्योंकि इस समय के दौरान राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व गांधी ने किया था। गांधी जी के नेतृत्व में 1920 में असहयोग आन्दोलन (non-co-operation movement1920 ) 1930 में और 1932 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन (civil disobedience movement 1930) और 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन (Ouit India Movement) चलाया गया 5 मार्च, 1931 को गांधी जी ने भारत के गर्वनर जनरल लाई इर्विन के साथ एक समझौता किया। सितम्बर, 1931 में लन्दन में हुए द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (Second Relend Table Conference) में गांधी जी ने कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
  • 1947 में भारत का विभाजन गांधी जी की अन्तरात्मा के विरूद्ध हुआ । 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था। परन्तु आजाद भारत का नेतृत्व गांधीजी के नसीब में नहीं लिखा था 30 जनवरी 1948 को नाथू राम गोडसे नामक एक व्यक्ति ने तीन गोलियां मार कर गांधी जी हत्या कर दी

 

स्वराज का शाब्दिक अर्थ - और गांधी जी 

 

  • स्वराज का शाब्दिक अर्थ है 'स्वशासन' या "अपना राज्य (self-governance" or "home rule") भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के समय प्रचलित यह शब्द आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता की मांग पर बल देता था। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों (उदारवादियों) ने स्वाधीनता को दूरगामी लक्ष्य मानते हुए स्वशासन के स्थान पर अच्छी सरकार (ब्रिटिश सरकार) के लक्ष्य को वरीयता दी। उसके बाद उग्रवादी काल में यह शब्द लोकप्रिय हुआ, जब बाल गंगाधर तिलक ने यह उद्दघोषणा की कि "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है मैं इसे लेकर रहूंगा।"

 

  • गांधी ने सर्वप्रथम 1920 में कहा कि "मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो व्यस्क मताधि कार पर आधारित होगा। गांधी जी के स्वराज का अर्थ है जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो आवश्यकताओं तथा जन- अंकाक्षाओं के अनुरूप हो ।" वास्तव में गांधी जी का स्वराज का विचार ब्रिटेन के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यूरोक्रेटिक, कासी, सैनिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार करने का आन्दोलन था।

 

  • गांधी जी के अनुसार, स्वराज का पौधा उस देश में पनपता है जिसकी जड़े अपनी परंपराओं से जुड़ी हो, परन्तु वह इन परंपराओं की ॠटियों के प्रति भी सजग हो और दूसरों से अच्छी बाते सीखने को तैयार हो जिस राष्ट्र की बुनियाद अपनी परंपराओं पर नहीं टिकी होगी, वह हवा के हर झोके के साथ हिल जाएगा। स्वराज यह मांग करता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से हमारा अपना एक घर होना चाहिए जो हमे सुरक्षा प्रदान करे ताकि उसमें सब ओर से उतम् विचारों की ताजा हवा आती रहे। अन्यथा उसमें घुटन पैदा हो जाएगी और दुर्गंध आने लगेगी।

 

  • 'स्वराज' ऐसी व्यवस्था है जिसमें सब लोग कधे-से-कधे मिला कर राष्ट्र के निर्माण में योगदान देते हैं, उसके साथ गहरा लगाव और अपनापन अनुभव करते है। जैसा कि गांधी जी ने कहा था "मै ऐसे भारत के निर्माण का प्रयत्न करूगां जिसमें निर्धन-से निर्धन मनुष्य भी यह अनुभव करेगा कि यह मेरा अपना देश है और इसके निर्माण में मेरा पूरा हाथ है"। 


  • शासन के स्तर पर गांधी की दृष्टि में स्वराज सच्चे लोकतन्त्र व जनमत पर आधारित हो। उन्होंने तर्क दिया कि जिस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्तियों को अपना निर्णय बहुमत के हाथों में सौंपना पड़े उसे 'स्वराज' कहना निरर्थक होगा। उनका विश्वास था कि इने-गिने लोगो को सता प्राप्त हो जाने से सच्चा स्वराज नहीं आ जाएगा। 
  • सच्चा स्वराज तब आएगा जब कहीं भी सता का दुरूपयोग होने पर सब लोग उसका विरोध करना सीख जाएगे।


स्वराज पर गांधी के विचार Swaraj par Gandhi Ji Ke Vichar

 

  • गांधी के स्वराज की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी शासन से स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसमें सांस्कृति व नैतिक स्वाधीनता का विचार भी निहित है। यह राष्ट्र निर्माण में परस्पर सहयोग व मेल-मिलाप पर बल देता है। शासन के स्तर पर सच्चे लोकतंत्र का पर्याप्त है। गांधी का स्वराज 'निर्धन का स्वराज, जो दीन-दुखियों के उद्धार के लिए प्रेरित करता है। 
  • यह आत्म-सयंम ग्राम-राज्य व सता के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है। गांधी ने सर्वोदय अर्थात् सर्व कल्याण का समर्थन किया। अहिसांत्मक समाज गांधी की दृष्टि में आदर्श समाज व्यवस्था वही हो सकती है, जो पूर्णतः अहिंसात्मक हो। जहां हिंसा का विचार ही लुप्त हो जाएगा, वहां 'दण्ड' या 'बल प्रयोग शक्ति या राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी। गांधी हिंसा तथा शोषण पर  आधारित वर्तमान राजनीतिक ढ़ांचे को समाप्त करके उसके स्थान पर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जो व्यक्ति की सहमति पर आधारित हो।

 

राज्य विहीन समाज-गांधी के अनुसार

 

गांधी के अनुसार अहिंसात्मक समाज राज्यविहीन होगा। वह राज्य का विरोध इस आधार पर करते है, कि न तो यह स्वाभाविक संस्था है और न ही आवश्यक है। उन्होंने दार्शनिक अराजकतावादी की भांति इस आधार पर राज्य को अस्वीकार किया-

 

1. राज्य हिंसा पर आधारित है। यह संगठित रूप में हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है, 

2. राज्य की बल शक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्तित्व हेतु विनाशकारी है। 

3. एक अहिंसात्मक समाज में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है।

 

  • गांधी के अनुसार राजनीतिक शक्ति साध्य नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में लोगों के विकास में सहयोग देने का साध कान है। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना परिपूर्ण हो जाए कि आत्मनियमित हो जाये तो किसी भी प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति अपना शासक स्वयं है। वह स्वयं पर इस प्रकार शासन करता है कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा नहीं बनता। ऐसी आदर्श स्थिति में राजनीतिक शक्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नही होता। गांधी ने उसे "प्रबुद्ध अराजकता की स्थिति" कहा है। यही राम राज्य है। टॉलस्टॉय ने इसे पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य कहा है।

 

ग्राम: गणराज्यों का संघ-गांधी के अनुसार

 

  • गांधी का राज्यविहीन, वर्गविहीन समाज अनेक स्व-शासित तथा आत्मनिर्भर ग्राम समुदायों में विभक्त होगा। प्रत्येक ग्राम समुदाय का प्रशासन पांच व्यक्तियों की पंचायत चलाएगी, जो ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होगी। ग्राम पंचायतों को विधायी कार्यकारी न्यायिक शक्तियां प्राप्त होगी। ग्राम पंचायतों के ऊपर मण्डलों की, उनके ऊपर जिलों की तथा जिले के ऊपर प्रांतो की पंचायते होगी। सबसे ऊपर सारे राष्ट्र के लिए केन्द्रीय (संघीय) पंचायत होगी। 


  • प्रत्येक गांव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलम्बी होगा। सैनिक-शक्ति व पुलिस नहीं होगी। बड़े नगर कानूनी अदालतें कारागार तथा भारी उद्योग नहीं होंगे। सता का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रत्येक गांव स्वयंसेवी रूप से संघ से सम्बंधित होगा। गांधी ने इसे 'वास्तविक स्वराज्य' कहा है।

 

  • गांधी का मानना था कि इस प्रकार के संघ के प्रबन्ध व संपोषण के लिए सरकार के लिए सरकार आवश्यक होगी। अतः एक आधुनिक आलोचक का मत है कि गांधी का आर्दश समाज से तात्पर्य मुख्यतः अहिंसक राज्य था, न कि अहिसात्मक, राज्यविहीन समाज गांधी के अनुसार सत्याग्रह व्यक्तियों, वर्गों तथा राष्ट्रों के मध्य शोषण तथा दमन का प्रतिरोध करने का प्रभावपूर्ण यंत्र है।


  • गांधी जी का मत था कि राज्यविहीन तथा वर्गविहीन अहिंसक समाज की स्थापना का लक्ष्य सहज रूप से प्राप्त नही होगा। अतः राज्य को तत्काल समाप्त करना ठीक है। उनका उदेश्य राज्य को अहिंसा के सिद्धांतों के अनुरूप ढालना है। अहिंसक राज्य में सामाजिक व्यवहार को नियमित करने हेतू एक प्रकार की सरकार तथा राजनीतिक सता होगी, किन्तु वह कम से कम शासन करेगी। व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होगी। अधिकांश कार्य स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा सम्पन होगें। गांधी के ये विचार रसेल जी०डी०एच० कोल जैसे गिल्ड समाजवादियों से मिलते जुलते हैं।

 

आर्थिक विकेन्द्रीकारण-गांधी के अनुसार

 

  • गांधी का जनतांत्रिक समाज एक सामाजवादी राज्य होगा। गांधी जी निजि सम्पति के समापन के पक्ष में नहीं थे किन्तु वे आर्थिक समानता लाना चाहते थे। आर्थिक समानता से तात्पर्य है- सभी के लिए पर्याप्त व सन्तुलित भोजन, आवास तथा तन ढकने के लिए खादी। वह स्वदेशी का पक्ष लेते हुए कुटीर व लघु उद्योगों तथा खादी उद्योगों के विकास पर बल देते हैं। 
  • गांधी जी प्रोद्योगिकी प्रधान उद्योगों या मशीनों द्वारा उत्पादन का विरोध किया करते थे तथा इसके स्थान पर श्रम प्रधान उद्योगो को मान्यता देते थे। उनके अनुसार उत्पादन लोगों द्वारा किया जाए, फैक्ट्रियों द्वारा नही। गांधी जी ने श्रम सिद्धांत के अन्तर्गत यह शिक्षा दी कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं में योगदान देना चाहिए। चूंकि इसमें प्रत्येक प्रकार की सेवा (चाहे नाई हो या वकील) या श्रम को एक जैसा सम्मान दिया जाएगा, इसलिए श्रम की गरिमा स्थापित होगी तथा वर्गीय भेद मिट जाने से वर्गविहीन' समाज की स्थापना होगी।

 

  • गांधी ने भूस्वामियों तथा पूंजीपतियों की सम्पति अधिग्रहण का समर्थन नहीं किया है। ईसाई समाजवादियों की तरह वह पूंजीपतियों की मनोवृति में प्रेम व अनुनय द्वारा परिवर्तन लाकर अपना आर्थिक समानता का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। पूंजीपति स्वयं को सम्पति का स्वामी न समझकर ट्रस्टी या न्यासी समझे। जो सम्पति उनके पास है, उसे वे समाज की धरोहर समझे। उसमें से वे अपने लिए उतना व्यय करे, जितना उनकी सेवाओं के लिए उपयुक्त है, शेष समाज में निर्धनों को बांट दे।

 

  • उत्पादन का लक्ष्य मुनाफा न होकर सम्पूर्ण समाज का हित होना चाहिए। श्रमिकों की प्रबन्ध में भागीदारिता होनी चाहिए। यदि पूंजीपति ट्रस्टी बनना स्वीकार न करे, तो कानून द्वारा राज्य को भूमि तथा उत्पादन के अन्य सा नों पर नियंत्रण कर लेना चाहिए। 


सर्वोदय-गांधी के अनुसार

 

  • सामान्य हित या सर्व कल्याण की दृष्टि से गांधी ने सर्वोदय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। यह सिद्धांत ऐसी नीति का समर्थन करता है, जिसका उद्देश्य जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, स्त्री-पुरुष ऊंच-नीच आदि मिटाकर समाज के सभी स्तरों पर कल्याण कार्य को बढ़ावा देना है। वह परस्पर सहयोग व सद्भावना का विकास करेगा।

 

  • गांधी के सर्वोदय का सिद्धांत राज्य के लक्ष्य का सिद्धान्त है। उपयोगिवादी चिंतक बैथम तथा जे०एस० मिल जहां अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण के पक्ष में थे वही जॉन रस्किन ने सबसे उपेक्षित का पक्ष लिया। गांध ने एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे सर्वोदय या "समाज के सभी लोगों के उत्थान या कल्याण का सिद्धान्त कहा जाता है।

 

  • गांधी जी ने भारत की पराधीनता के दिनों में भारतवासियों को जिस स्वराज की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया, उसे उन्होने 'हरेक आंसू पोछने (Wiping Every Tear From Every Eye) के अवसर के रूप में देखा। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे कर्तव्यों के पालन का संदेश दिया जो उसे सामान्य हित के प्रति अत्यंत संवदेनशील बनाते है। गांधी जी स्वराज की ऐसी अवधारणा के समर्थक जो व्यक्ति को समाज के दीन दुःखी लोगों के उद्धार के लिए प्रेरित करती हैं।

 

  • व्यक्ति के स्तर पर स्वराज का अर्थ यह था कि व्यक्ति को अपने उपर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। इस तरह यह आत्मसंयम का पर्याय हैं जो व्यक्ति को सच्चरित्र और महान् बनाता है और उसे समाज की उन्नति एवं कल्याण में महत्वपूर्ण योगदान देने का सामर्थ्य प्रदान करता है।


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