महाराणा प्रताप की जीवनी । महाराणा प्रताप की जीवनी एवं इतिहास। Maharana Pratap Jeevni

  महाराणा प्रताप की जीवनी एवं इतिहास (Maharana Pratap Jeevni )

महाराणा प्रताप की जीवनी । महाराणा प्रताप की जीवनी एवं इतिहास। Maharana Pratap Jeevni



महाराणा प्रताप की जीवनी


वीरभूमि राजस्थान का एक-एक अंग वीरत्व के अनगिन उदाहरणों का साक्षी है पर उसका मेवाड़ क्षेत्र तो अपनी वीरता, धीरता, मातृभूमि-प्रेम, शरणागत वत्सलता एवं अडिगता में अपना कोई सानी नहीं रखता। बप्पारावल, पद्मिनी, मीराँबाई, महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, महाराणा राजसिंह हाड़ी रानी तथा पन्नाधाय जैसे अनेक महनीय नाम इस पावन धरा से जुड़े हैं, जिनके तेजस्वी जीवन ने समाज को प्रेरणा दी। 


  • महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का विवाह भक्त शिरोमणि मीराँबाई के साथ हुआ था तथा सांगा के महारानी कर्मवती से दो छोटे पुत्र कुँवर विक्रमादित्य एवं उदयसिंह थे।दासी पुत्र बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी। अब वह उदयसिंह को मारने का षड़यंत्र करने लगा। धाय माँ पन्ना ने उदयसिंह को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया तथा उसके पलंग पर अपने पन्द्रह वर्षीय पुत्र चंदन को सुला दिया। बनवीर ने उसे उदयसिंह समझ कर उसकी हत्या कर दी। छाती पर पत्थर रख, उस महिमामयी माँ ने अपने कलेजे के टुकड़े चंदन का दाह संस्कार किया। मातृभूमि के लिए एक माँ ने अपने पुत्र का बलिदान कर उदयसिंह का जीवन बचाते हुए राष्ट्रधर्म का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया।

 

  • उदयसिंह महाराणा सांगा के सबसे छोटे पुत्र थे। कुम्भलगढ़ में उनका विवाह पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री जयवंती देवी के साथ हुआ। इन्हीं की पावन कोख से 9 मई 1540 ई. (ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया वि. स. 1597) को कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ। संयोग से इसी समय उदयसिंह ने बनवीर को हराकर चित्तौड़ प्राप्त किया। वे मेवाड़ के नये महाराणा बने। प्रताप अपनी माँ जयवंती देवी के पास कुम्भलगढ़ में रहकर शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने लगे। माँ ने उसे बचपन में ही स्वतंत्रता की घुट्टी पिला दी थी। 

  • निहत्थे शत्रु पर वार न करने की सलाह देकर दो तलवारें रखने का आग्रह किया। माँ की शिक्षा से प्रताप निरंतर शस्त्र व शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर रहे थे। कुम्भलगढ़ में ही प्रताप भील जाति के बालकों के साथ खेलने लगे थे। वे उनमें कीका के नाम से लोकप्रिय हो गए। जनजाति वर्ग के बाल-गोपालों के साथ प्रताप का यही संबंध आगे चल कर भीलों के स्वतंत्रता युद्ध में शामिल होने का आधार बना। 
  • सन् 1552 ई. में प्रताप माँ के साथ चित्तौड़ आ गए। यहाँ वे चित्तौड़ के झाली महल में रहने लगे। कृष्णदास रावत के देख-रेख में उनकी शस्त्र शिक्षा प्रारम्भ हो गई। वे शीघ्र ही तलवार, भाला तथा घुड़सवारी कला में पारंगत हो गए। इसी समय मेड़ता से चित्तौड़ आए जयमल राठौड़ से प्रताप ने युद्ध संबंधी विशेष ज्ञान प्राप्त किया। व्यूह बनाकर शत्रुदल को परास्त करने की अनेक विधियाँ सीखीं तथा खासतौर पर छापामार युद्ध कला में प्रताप ने निपुणता प्राप्त कर ली। 
  • सोलह-सत्रह वर्ष की अल्पायु में प्रताप सैनिक अभियानों पर जाने लगे। वागड़ के साँवलदास व उनके भाई करमसी चौहान को सोम नदी के किनारे युद्ध में परास्त किया। छप्पन क्षेत्र के राठौड़ों व गौड़वाड़ क्षेत्र को भी परास्त कर अपने अधीन किया। 
  • उनकी वीरता की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। उस समय महाराणा प्रताप का विवाह राव मामरख पंवार की पुत्री अजबदे के साथ हुआ प्रताप ने उस समय देश की राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया। भविष्य को ध्यान में रखते हुए प्रताप ने मित्रों का चयन कर, उन्हें प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया। 16 मार्च 1559 ई. में प्रताप को महारानी अजबदे की कोख से अमरसिंह नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

 

  • भारत में उस समय अकबर अपने साम्राज्य का विस्तार करने में लगा था। सम्पूर्ण राजपूताना उसके समक्ष झुक गया था। केवल मेवाड़ अडिग था। अकबर का मेवाड़ पर आक्रमण प्रतीक्षित था। भविष्य के संघर्ष की योजना बनने लगी। प्रताप विश्वस्त मित्रों भामाशाह, ताराचंद, झाला मानसिंह आदि वीरों के साथ विजय स्तम्भ की तलहटी में सम्पूर्ण स्थितियों पर विचार करते, मेवाड़ की सुरक्षा की योजना बनाते। इसी दौरान आपसी मन मुटाव के कारण प्रताप का छोटा भाई शक्तिसिंह नाराज होकर अकबर के पास चला गया था। अकबर के मेवाड आक्रमण की योजना पर वह चित्तौड़ लौट आया तथा समाचार दिया। 

  • युद्ध परिषद् के निर्णय के कारण महाराणा उदयसिंह सपरिवार उदयपुर चले गए। प्रताप को भी मन मसोस कर साथ में जाना पड़ा। पीछे कमान जयमल राठौड़ एवं पत्ता चूँड़ावत को सौंपी गई। अक्टूबर 1567 ई. में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। चार मास घेरा डाले रखा परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। सर्वशक्तिमान बादशाह का गर्व चित्तौड़ के समक्ष चूर-चूर हो गया। उसने टोडरमल को भेज जयमल को खरीदने का प्रयास किया। किन्तु जयमल ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और युद्ध में मुकाबला करने को कहा। 
  • किले में रसद खत्म हो गई। तब 25 फरवरी 1568 ई. के पावन दिन सतीत्व रक्षार्थ पत्ता चूडावत की पत्नी महारानी फूल कँवर के नेतृत्व में 7000 क्षत्राणियों ने जौहर किया। उधर वीरों ने केसरिया बाना धारण कर हर हर महादेव के गगनचुम्बी उद्घोष के साथ रणभूमि हेतु प्रस्थान किया। जयमल राठौड़ के घुटने पर चोट लगने के कारण वे अपने भतीजे कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठ कर युद्ध करने आए। इनके चतुर्भुज स्वरूप ने मुगल सेना पर कहर बरपा दिया। यह देख अकबर भी हतप्रभ रह गया। इन्हें रोकने का प्रयास किया गया। इनका सामना करने की हिम्मत किसी में नहीं थी अंततः पीछे से वार कर जयमल एवं कल्ला राठौड़ के मस्तक काट दिए। पाडन-पोल के पास जयमल का बलिदान हुआ। साहसी वीर कल्ला का सिर कटने के बाद भी धड़ लड़ता रहा। अनेक मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतारकर वे भी रणखेत रहे।

 

  • अकबर की सेना ने किले में प्रवेश कर वहाँ रह रहे तीस हजार निर्दोष स्त्री पुरुष एवं बच्चों का कत्लेआम कर अपनी जीत का जश्न मनाया। महाराणा उदयसिंह इस हार को सहन नहीं कर सके। इसी दौरान उन्होंने गोगुंदा को राजधानी बनाया। अस्वस्थता के कारण 28 फरवरी 1572 ई. में होली के दिन उनका स्वर्गवास हो गया। शमशान में युवराज प्रताप को देखकर सामंतों में कानाफूसी होने लगी। तब मालूम हुआ कि भटियाणी राणी के पुत्र जगमाल को उदयसिंह ने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। मेवाड़ की परम्परानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही गद्दी का हकदार होता है लेकिन उदयसिंह ने महारानी की बातों में आकर जगमाल को युवराज घोषित कर दिया था। इस विपरीत परिस्थिति में कृष्णदास एवं  रावत सांगा ने सामन्तों से विचार विमर्श कर महाराणा प्रताप को गद्दी पर बैठाने का निर्णय लिया। उन्होंने उदयसिंह का दाहसंस्कार कर शमशान से लौटते समय महादेवजी बावड़ी पर प्रताप का राजतिलक कर दिया। बाद में महलों में जाकर जगमाल को गद्दी से उतार कर 32 वर्षीय प्रताप का विधिवत राज्याभिषेक किया गया। यह काँटों भरा ताज था। 


  • मेवाड़ क्षेत्रफल, धन-धान्य में छोटा हो गया था। प्रताप ने सैन्य पुनर्गठन व राज्य व्यवस्था पर ध्यान दिया। जनशक्ति को जाग्रत करने हेतु प्रताप ने भीषण प्रतिज्ञा की "जब तक मैं शत्रुओं से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र नहीं करा लेता तब तक मैं न तो महलों में रहूँगा, न ही सोने चाँदी के बर्तनों में भोजन करूँगा। घास ही मेरा बिछौना तथा पत्तल - दोने ही मेरे भोजन पात्र होंगे।"

 

  • इस भीषण प्रतिज्ञा का व्यापक प्रभाव हुआ। सारे जनजाति क्षेत्र के भील प्रताप की सेना में शामिल होने लगे। मेरपुर-पानरवा के भीलू राणा पूँजा अपने दल-बल के साथ प्रताप की सेना में शामिल हो गए। इन्हीं वीर सैनिकों ने वनवास काल में प्रताप का साथ दिया था। अफगानों से मेवाड़ का रिश्ता प्राचीन समय से है। बप्पारावल ने गजनी व गोर प्रदेश की राजकुमारियों से विवाह किया था। इनसे उन्हें 140 संताने प्राप्त हुई। वे नौशेरा पठान कहलाए। इन्होंने मेवाड़ के पक्ष में काम किया। अब अफगान हकीम खां सूरी भी अपनी सैन्य शक्ति के साथ प्रताप के साथ मिल गया। अकबर का साम्राज्य पूरे भारतवर्ष में फैल गया था। सारे राज्य उसके समक्ष झुक गए किन्तु मेवाड़ झुका नहीं। अकबर ने कूटनीतिक प्रयास प्रारंभ किए। उसने नवम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ कोरची को संधि वार्ता हेतु भेजा।

 

  • प्रताप को मालूम था कि युद्ध होकर रहेगा किन्तु तैयारी हेतु समय चाहिए, इसलिए कूटनीति का जवाब कूटनीति से दिया। जलाल खां को मीठी बातें कर भेज दिया। अब दूसरे संधिकर्ता के रूप में आमेर का राजकुमार कुँवर मानसिंह जून 1573 ई. में वार्ता करने मेवाड़ आया। प्रताप ने उदयसागर की पाल पर उसका स्वागत किया। किन्तु मानसिंह अपने प्रयासों में सफल नहीं पाया। वह असफल होकर लौट गया। प्रताप व अकबर के बीच हजारों नर-नारियों के बलिदान व जौहर की लपटों की लकीर थी। हजारों ललनाओं के माँग के सिन्दूर को पार कर अकबर से समझौता करना प्रताप जैसे स्वाभिमानी एवं स्वतंत्रता के उपासक के लिए संभव नहीं था। 
  • अकबर ने फिर भी प्रयास जारी रखे। उसकी ओर से तीसरे राजदूत आमेर के राजा भगवंतदास सितम्बर 1573 ई. में महाराणा के पास आए। उन्हें भी प्रताप ने ससम्मान रवाना कर दिया। इसके बाद अकबर ने अपने नौ रत्नों में से एक टोडरमल को वार्ता के लिए भेजा। दिसम्बर 1573 ई. में, प्रताप ने टोडरमल को भी खाली हाथ लौटा दिया।

 

  • चारों संधिवार्ताओं का कूटनीतिक उत्तर देकर प्रताप ने युद्ध की तैयारी का समय प्राप्त कर लिया। इस बीच भावी समर की तैयारी पूर्ण कर ली। प्रताप ने युद्ध परिषद् की बैठक बुलाई। विचार-विमर्श के बाद निर्णय हुआ कि अकबर की विशाल सेना एवं ताकत के सामने छापामार पद्धति से ही युद्ध करना ठीक होगा। उधर अकबर ने अजमेर आकर मानसिंह व आसफ खाँ के नेतृत्व में 5000 सैनिकों को मेवाड़ पर आक्रमण करने हेतु रवाना कर दिया। मानसिंह माण्डलगढ़ होकर बनास नदी के किनारे मोलेला ग्राम पहुँच गया। प्रताप ने भी अपनी सेना का लोसिंग में पड़ाव डाल दिया। पूरे मेवाड़ के मैदानी इलाके खाली करवा कर जनता को सुरक्षित पहाड़ों पर भेज दिया। 


  • प्रताप की सेना में 36 बिरादरी के लोग शामिल थे। प्रताप की तीन हजारी सेना शत्रुओं पर टूट पड़ने को तैयार थी। 400 भील सैनिकों ने मोर्चा बंदी कर ली थी। 18 जून, 1576 ई. का ऐतिहासिक दिन हल्दीघाटी महासंग्राम के रूप में अमर हो गया। इसी दिन प्रताप ने हल्दीघाटी के एक संकरे दर्रे से निकल कर मुगल सेना पर आक्रमण किया। राणा की सेना में झाला मान, हकीम खाँ, ग्वालियर के राजा रामसिंह तंवर आदि वीर थे। इस भीषण आक्रमण को मुगल सेना झेल नहीं पाई। सीकरी के शहजादे शेख मंजूर, गाजी खाँ बख्शी हरावल दस्ते में थे। प्रताप की सेना ने प्रचंड हमला बोला तो मुगल सेना 8-10 कोस तक भागती चली गई और मोलेला स्थित अपने डेरे तक पहुँच गई। इस पहले ही आक्रमण के कारण सारी सेना में भयंकर डर व्याप्त हो गया। ऐसी स्थिति में चंदावल दस्ते के प्रमुख मिहत्तर खाँ ने ढोल बजाकर मुगल सेना को रोका और कहा कि अकबर स्वयं सहायता को आ रहा है। इससे सेना को ढ़ाढ़स बंधा। बिखरी सेना को एकत्रित कर खमनोर ग्राम के मैदान पर लाया गया। यहाँ दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ।

 

  • चिरकाल की क्षुधा के बाद मेवाड़ी सैनिकों की तलवारें भूखे व्याघ्र सी लपलपाने लगीं। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध होने लगा। प्रताप ने मानसिंह पर हमला बोला। चेतक ने अगली दोनों टाँगे हाथी के मस्तक पर दे मारी। प्रताप के सवा मण के भाले की मार से महावत मर गया, हौदा टूट गया। प्रताप ने कटार फेंकी लेकिन मानसिंह छुप कर अपनी जान बचाने में सफल रहा। शत्रु का काम तमाम समझ, प्रताप ने चेतक को हटा लिया। चेतक की टाँग, हाथी की सूँड पर लगी तलवार से कट गई फिर भी वह युद्ध भूमि में विचरण कर रहा था। 
  • महाराणा प्रताप ने तलवार के एक ही वार से जिरह, बख्तर एवं घोड़े सहित बहल्लोल खाँ के दो फाड़ कर दिए। मानसिंह का हाथी बिना महावत के मैदान से भाग गया। मुगल सेना में भगदड़ मच गई तो अतिरिक्त तोपखाना लाया गया। इस बदली हुई परिस्थिति में प्रताप ने पूर्व निर्धारित योजनानुसार अपनी सेना के दोनों भागों को एकत्रित कर पहाड़ों पर मोर्चाबंदी कर ली।

 

  • पीछे सादड़ी के झाला मानसिंह ने वीरतापूर्वक शत्रुसेना को रोकते हुए अपना बलिदान दे दिया। इस युद्ध में रक्त का तालाब बन गया था इसलिए यह क्षेत्र रक्त-तलाई कहलाया। रामदास मेड़तिया, हकीम खाँ सूरी, रामसिंह तँवर एवं उनके तीनों पुत्रों का बलिदान हुआ। प्रताप के लगभग 150 वीर शहीद हुए, मुगल सेना को भारी क्षति पहुँची, लगभग 500 सैनिक मारे गये। मेवाड़ी सेना के पहाड़ों में घात लगाये बैठे होने के कारण मुगल सेना आगे न बढ़कर अपने डेरे में लौट गई।

 

  • युद्ध से लौटते समय घायल चेतक ने प्रताप को लेकर 20 फीट चौड़ा बरसाती नाला एक छलांग में पार कर दिया। लेकिन नाला पार करते ही वह बुरी तरह से घायल हो गया। समीप ही इमली के पेड़ के पास जाकर गिर पड़ा तथा यहीं पर उसका प्राणांत हो गया। इस स्वामिभक्त तुरंग के बलिदान से प्रताप बहुत दुःखी हुए। प्रताप ने महादेव जी के मंदिर के पास उसे समाधि दी। इसी जगह चेतक का स्मारक बना है, जो हमें आज भी प्रेरणा दे रहा है। 
  • दो दिन बाद जब प्रताप गोगुंदा खाली कर कोल्यारी चले गए तो मुगल सेना गोगुंदा पहुँची तथा सुरक्षा के लिए मुगल सेना गोगुंदा के चारों ओर बाड़ एवं खाई खुदवा कर रही। प्रताप ने उनकी रसद सामग्री रोक दी फलस्वरूप मुगल सैनिकों ने विद्रोह कर अजमेर प्रस्थान कर दिया।

 

  • वांछित सफलता प्राप्ति से पूर्व ही मुगल सेना सितम्बर 1576 ई. में अजमेर लौट गई। जून में प्रारंभ हुआ यह युद्ध सितम्बर में मुगल सेना के अजमेर लौटने पर समाप्त हुआ। इस युद्ध ने अकबर के आज तक अपराजित रहने के मिथक को तोड़ दिया। अकबर इस अभियान से अत्यन्त निराश हुआ वहीं महाराणा प्रताप एवं उसके साथियों की ख्याति बढ़ी। महाराणा प्रताप भारत भर में प्रसिद्ध हो गए। हल्दीघाटी युद्ध ने प्रताप के शौर्य एवं प्रताप को चहुँ ओर फैला दिया। 
  • लगभग 4 मास तक हल्दीघाटी युद्ध चला, जिसमें अकबर जैसे भारत विजेता को मेवाड़ जैसे छोटे राज्य के सामने वांछित सफलता नहीं मिल पाई। इससे नाराज अकबर ने सेनापति मानसिंह एवं आसफ खाँ की ड्योढ़ी (दरबार में प्रवेश बंद कर दी। अब वह स्वयं 11 अक्टूबर 1576 ई. में प्रताप को परास्त करने अजमेर से निकल पड़ा। वह खमनोर के बादशाह बाग में ठहरा। किन्तु प्रताप के पहाड़ों में छिपे होने के कारण अकबर को सफलता नहीं मिली। दिसम्बर में वह भी असफल होकर लौट आया। अक्टूबर 1577 से नवम्बर 1579 ई. के मध्य सेनापति शाहबाज खाँ को प्रताप को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने भेजा। वह तीन बार आक्रमण करने आया। किन्तु प्रताप की छापामार युद्ध पद्धति के आगे शाहबाज खाँ असफल होकर लौट गया।

 

  • अब अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को प्रताप पर आक्रमण करने भेजा। यह छठा आक्रमण था। महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने खानखाना के शेरपुर डेरे पर आक्रमण कर सारी सामग्री सहित उनकी बेगम आनीखान एवं पूरे परिवार को उठा कर अपने कब्जे में किया। जब अमरसिंह द्वारा बेगम एवं अन्य औरतों को बंदी बनाने का समाचार प्रताप को मिला तो उन्होंने तत्काल अपने पुत्र को समझाया कि पराई स्त्री हमारे लिए माँ के समान है। तुमने गलती की है, अब तुम्हीं इन्हें ससम्मान लौटा कर आओ। अमरसिंह ने क्षमा माँग कर बेगम सहित अन्य औरतों को उनके डेरे पहुँचा दिया।
  • महाराणा प्रताप के इस मानवीय एवं वीरोचित व्यवहार का अब्दुल रहीम खानखाना पर गहरा प्रभाव हुआ। बेगम ने जब खानखाना को पूरा घटनाक्रम बताया तो प्रताप के चरित्र की महानता से प्रभावित होकर खानखाना बिना युद्ध किए ही मेवाड़ से लौट गया। 1576 ई. से 1584 तक लगभग आठ वर्ष मेवाड़-मुगल संघर्ष चलता रहा। इस दौरान प्रताप जंगलों में रह कर छापामार पद्धति से शत्रुओं को नुकसान पहुँचाते रहे। आबूपर्वतसिरोही, ईडर, मेरपुर-पानरवा, कुम्भलगढ़ और आवरगढ़ उनके प्रमुख केन्द्र थे। आवरगढ़ को संघर्षकालीन राजधानी बनाया गया। झाड़ोल के पास कमलनाथ महादेव के ऊपर की ओर यह दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनाया था।

 

  • हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के अभिन्न मित्र भामाशाह (जन्म 28 जून, 1547 ई.) व उनके भाई ताराचंद मालवा क्षेत्र को लूट कर तथा पूर्वजों का संचित धन लेकर सितम्बर 1578 ई. में आवरगढ़ में महाराणा प्रताप के समक्ष उपस्थित हुए। यह धन 25 लाख रुपये व 20,000 स्वर्ण मुद्राएँ थीं। माना जाता है कि इस धन से 25000 की सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्रताप अपार ध ान प्राप्त कर प्रसन्न हुए। अब तक छापामार युद्ध करते आए महाराणा ने इस धन से सेना का गठन कर दिवेर थाने पर आक्रमण कर दिया। यहाँ अकबर का चाचा सुल्तान खाँ थानेदार था। भामाशाह व कुँवर अमरसिंह के नेतृत्व में यह आक्रमण किया गया। प्रताप स्वयं भी साथ में थे। सुल्तान खाँ के हाथी के पैर काट दिये तो वह घोड़े पर सवार होकर युद्ध करने आया। अमरसिंह ने उससे मुकाबला किया ।

 

  • अमरसिंह के भाले के वार ने सुल्तान खाँ को घोड़े सहित जमीन में गाड़ दिया। भाले की तीव्रता के कारण सुल्तान खाँ तड़फड़ाने लगा। भाला निकलवाने का यत्न किया गया परन्तु कोई भी वीर भाला नहीं निकाल सका। तब अमरसिंह ने एक ही झटके में भाला उसके सीने से निकाल दिया। सुल्तान खाँ ने वीर अमरसिंह को प्रशंसा की दृष्टि से देखा। फिर सुल्तान खाँ के पानी माँगने पर महाराणा प्रताप ने सैनिक सम्मान से स्वर्ण कलश में जल मँगवाकर सुल्तान खाँ को पिलाया। जल पीकर उसने प्राण त्याग दिए।

 

  • अब अकबर ने प्रताप को पकड़ने के लिए सातवाँ आक्रमण जगन्नाथ कच्छवाहा के नेतृत्व में किया। लेकिन प्रताप की रणनीति के आगे वह भी असफल होकर लौट आया। प्रताप ने लगातार मुगल थानों पर आक्रमण कर मुगल सेना को मेवाड़ से खदेड़ दिया। अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए मेवाड़ के सभी ठिकानों को स्वतंत्र करा लिया। चित्तौड़ व माण्डलगढ़ पर प्रताप के छोटे भाई सगर का राज्य होने के कारण उसे छोड़ दिया गया। समय पाकर प्रताप ने अब चावंड को अपनी राजधानी बनाया और 1585 ई. से पुनर्निर्माण का नया अध्याय प्रारंभ किया। कृषि, सिंचाई, सड़क सुरक्षा, सैन्य पुनर्गठन किया गया । 


  • 1585 ई. से 1597 ई. तक 12 वर्षों का कालखंड मेवाड़ में वैभवकाल के रूप में स्मरण किया जाना चाहिए। इस समय अनेक मंदिरों, राजभवनों, किलों आदि का निर्माण करवाया गया। प्रताप युद्धकाल व शांतिकाल दोनों में ही महानायक के रूप में प्रमाणित हुए। अब अपने जीवन के संध्या काल में वे मेवाड़ के भविष्य को लेकर चिंतित थे। सभी सामंतों एवं युवराज अमरसिंह को बुलाकर, एकलिंग जी व दीपज्योति को साक्षी मान, मेवाड़ की रक्षा का संकल्प कराया। इस प्रकार उन्होंने अपना जीवन लक्ष्य पूर्ण किया। अपने जीवन के 57 बसंत पूर्ण कर माघ शुक्ला एकादशी तदनुसार 29 जनवरी 1597 ई. को चावंड में अपनी इहलौकिक लीला पूर्ण की। प्रताप के देहावसान खबर सुनकर सर्वत्र शोक की लहर फैल गई। संपूर्ण मेवाड़ में सामान्य जन से लगाकर प्रमुख लोग चावंड में एकत्रित हो गए। युवराज अमरसिंह ने विधि विधान के साथ चावंड से तीन कि.मी. दूर बंडोली के तालाब पर प्रताप का दाह संस्कार किया। उपस्थित जन मैदिनी की आँखों से अश्रुधार प्रवाहित हो रही थी। समवेत स्वर में एकलिंग नाथ की जय हो के उद्घोष से आकाश गुंजायमान हो उठा। महाराणा प्रताप की मुत्यु का समाचार अकबर तक पहुँचा। 


महाराणा प्रताप की मुत्यु का समाचार और अकबर  के भावों पर कविता -

अकबर के चेहरे की उदासी एवं निश्वास को देखकर वहीं सभा में उपस्थित कवि दुरसा आढ़ा के ने अकबर के भावों को अपनी कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया -


अस लेगो अणदाग, पाग लेगो अणनामी । 

गो आडा गवडाय, जिको बहतो धुर वामी । । 

नवरोजे नहं गयो, न को आतसा नवल्ली। 

न गो झरोखै हेठ, जेठ दुनियाण दहल्ली । 

गहलोत राण जीती गयो, दसण मूंद रसना डसी । 

नीसास मूक भरिया नयण, तो म्रत साह प्रतापसी ।।

 

  • "हे प्रतापसिंह तूने अपने घोड़े पर अकबर की अधीनता का चिह्न नहीं लगवाया और अपने चेतक को बेदाग ले गया; अपनी मेवाड़ी पगड़ी अकबर के सामने कभी तुमने झुकने नहीं दी वरन अनमी पाग लेकर चला गया। हमेशा मुगल सत्ता के विपरीत चलकर तूने अपनी वीरता की कीर्ति के गीत गवाए। जिस मुगलिया झरोखे के नीचे आज सारी दुनिया है तू कभी न तो उस झरोखे के नीचे आया, ना ही अकबर के नवरोज कार्यक्रम में उपस्थित हुआ । हे महान वीर! तू जीत गया । तेरी मृत्यु पर बादशाह ने आँखें मूँद कर, दाँतों के बीच जीभ दबाई, निःश्वासें छोड़ीं और उनकी आँखों में आँसू भर आए। गहलोत राणा ( प्रताप ) तेरी ही विजय हुई।" दुरसा का यह छप्पय सुनकर सभासदों ने सोचा कि बादशाह दुरसा से नाराज होंगे लेकिन अपने मन की व्यथा को कविवाणी में साक्षात हुई देख बादशाह ने दुरसा को सम्मानित किया। ऐसे प्रणवीर प्रताप धन्य हैं। हे स्वातंत्र्य वीर! तेरी यह गाथा हमें युगों-युगों तक प्रेरणा देती रहेगी।

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