महावीर दर्शन : जैन धर्म के सिद्धान्त और नीतिशास्त्र |Mahaveer Ka Darshan Nitishashtra

 महावीर दर्शन : जैन धर्म के सिद्धान्त और नीतिशास्त्र 

महावीर दर्शन : जैन धर्म के सिद्धान्त और नीतिशास्त्र |Mahaveer Ka Darshan Nitishashtra



 

महावीर स्वामी जीवन परिचय

 

  • महावीर का जन्म 599 ई.पू. में एक क्षत्रिय परिवार में मुजफ्फरपुर जिले (बिहार) के कुण्डग्राम नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ वज्जि राज्य संघ के ज्ञात्रक गण के मुखिया और उनकी माता त्रिशला वैशाली के राजा चेटक की बहन थीं। महावीर का सम्बन्ध मगध के शासक बिम्बिसार से भी था, जिन्होंने चेटक की पुत्री चेल्लना से विवाह किया था। महावीर का विवाह यशोदा से हुआ था और उनकी एक पुत्री थी। जिसका पति जामाली, महावीर का पहला शिष्य बना।

 

  • वर्धमान महावीर को सभी प्रकार के ज्ञान की शिक्षा प्राप्त थी। 30 वर्ष की अवस्था में माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने परिवार का परित्याग कर संन्यास ले लिया और सत्य की खोज में निकल गए। अपनी तपस्या के 13वें वर्ष, वैशाख मास के दसवें दिन उन्हें ऋम्भिकग्राम के बाहर पूर्ण सत्य ज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति हुई।

 

  • महावीर को अव्यवस्थित जनविश्वासों को व्यवस्थित तथा सुदृढ़ धर्म में संहिताबद्ध करने का श्रेय प्राप्त है। जैन तीर्थंकरों के उपदेश बारह अंगों में संकलित हैं। इन्हें महावीर के समय के लगभग एक हजार वर्ष बाद पाँचवीं शती ई. में वल्लभी में लिखा गया था।


महावीर के उपदेश और जैन नीतिशास्त्र 

 

महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के सिद्धान्तों और नीतिशास्त्र (Ehtics) को संक्षेप में निम्नानुसार बताया जा सकता है

 

1. निर्वाण का अर्थ एवं व्याख्या 

आवागमन के बन्धन से मुक्त होना और निर्वाण प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है । निर्वाण ऐसी स्थिति है, जिसमें पहुँचकर आत्मा निष्क्रिय होकर अनन्तकाल तक परमानन्द का उपभोग करती रहती है। महावीर ने कर्म से मुक्ति तथा निर्वाण के निम्नलिखित साधन बताए-


(अ) त्रिरत्न- 

  • त्रिरत्न मनुष्य को निर्वाण की अवस्था तक पहुँचने में मदद दे सकते हैं। कर्म के बन्धनों का अन्त करने के लिए या केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने तीन साधन का अनुकरण करने का उपदेश दिया। जैन धर्म में उनको त्रिरत्न कहा जाता है। इनका विवरण इस प्रकार है-

 जैन धर्म के त्रिरत्न

(i) सम्यक्-ज्ञान- 

  • सम्यक् ज्ञान से तात्पर्य सच्चा और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना है। यह तीर्थंकरों के उपदेशों के अध्ययन से प्राप्त होता है। सम्यक ज्ञान से सत्य और असत्य का भेद स्पष्ट हो जाता है।

 

(ii) सम्यक-दर्शन- 

  • सम्यक् - दर्शन से तात्पर्य है जैन तीर्थंकरों में विश्वास रखना और सत्य के प्रति श्रद्धा रखना। जो ज्ञान यथार्थ होता है, वही सत्य होता है और यथार्थ ज्ञान तीर्थंकरों के उपदेशों से ही प्राप्त होता है, इसलिये उनके उपदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिए।

 

(iii) सम्यक्-चरित्र- 

  • सम्यक् - चरित्र का अर्थ है, इन्द्रियों और कर्मों नियन्त्रण। सब प्रकार के इन्द्रिय विषयों में अनासक्त होना, उदासीन होना, जीवन में सुख-दुःख में समभाव रखना ही सम्यक् चरण है। सम्यक् चरित्र से अभिप्राय है, अनासक्त की भावना से नैतिक सदाचार में जीवन व्यतीत करना। सम्यक् चरित्र के द्वारा जीव अपने कर्मों से मुक्त हो सकता है, क्योंकि कर्म ही बन्धन और दुःख का कारण होते हैं।

 

(ब) जैन धर्म के पंच महाव्रत- 

नैतिक जीवन बिताने के लिए महावीर ने निम्न पाँच महाव्रतों पर बल दिया-

 

(i) अहिंसा- 

  • कर्म से छुटकारा प्राप्त करने के लिए अहिंसा अति आवश्यक है। कर्म के बन्धन में पड़ने का सबसे बड़ा कारण हिंसा है, चाहे वह जानकर की जाए और चाहे बिना जाने। इसलिये उससे बड़ी सावधानी से बचना चाहिए। जैन धर्म के गृहस्थों तथा भिक्षुओं दोनों के लिए ही मांस खाना वर्जित है। कीड़ों-मकोड़ों को मारना भी पाप माना गया है। महावीर के अनुसार अहिंसा का अर्थ केवल यही नहीं था कि किसी जीवधारी को हत्या न की जाय, बल्कि किसी की हत्या करने का विचार करना भी पाप है।

 

(ii) सत्य- 

  • सत्य बोलना और असत्य का त्याग करना जैनियों का दूसरा महाव्रत है। यदि कोई बात सत्य हो, परन्तु कटु हो तो उसे नहीं बोलना चाहिए। किसी भी विषय पर अच्छी प्रकार विचार किये बिना नहीं बोलना चाहिए। क्रोध, अहंकार, लोभ के समय भाषण नहीं करना चाहिए। डर से तथा हँसी-मजाक में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।

 

(iii) अस्तेय- 

  • किसी दूसरे की किसी भी वस्तु को उसकी अनुमति के बिना ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी दूसरे की वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा करना भी पाप है। इसका पालन करने के लिए जैन मुनियों को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

 

  • (a) जैन मुनियों को दूसरों के घरों में आज्ञा लेकर ही प्रवेश करना चाहिए। 
  • (b) भिक्षा में मिले भोजन को गुरु की अनुमति से प्रयोग करना चाहिए। 
  • c) किसी के घर में निवास करने की अनुमति प्राप्त करके ही निवास करना चाहिए। 
  • (d) गृहपति की आज्ञा के बिना घर के किसी भी सामान का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

 

(iv) अपरिग्रह- 

  • किसी भी व्यक्ति व वस्तु के साथ आसक्ति न रखना ही अपरिग्रह कहलाता है। जब तक मनुष्य की आसक्ति सांसारिक वस्तुओं में बनी रहती है, तब तक वह कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकता। सम्पत्ति का संचय न करना भी अपरिग्रह महाव्रत है। इस व्रत के पालन से मनुष्य निर्वाण प्राप्ति के योग्य बनता है।

 

(v) ब्रह्मचर्य- 

  • सभी इन्द्रिय विषय वासनाओं को त्यागकर संयम का जीवन व्यतीत करना ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए जैन मुनियों के लिए निम्न व्यवस्था की गई-

 

  • (a) किसी भी स्त्री से वार्तालाप न किया जाय। 
  • (b) किसी भी स्त्री की ओर दृष्टिपात न किया जाय। 
  • (c) गृहस्थ जीवन के स्त्री-संसर्ग के सुख का चिन्तन न करना। 
  • (d) अधिक तथा स्वादिष्ट भोजन का त्याग । 
  • (e) जिस घर में स्त्री रहती हो वहाँ पर निवास न किया जाय।

 

2. जैन धर्म- व्यक्ति की स्वतंत्रता 

  • जैन धर्म के अनुसार मनुष्य अपना मार्ग चुनने के लिए स्वतन्त्र है। मनुष्य अपने कर्म के अधीन है। वह स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। महावीर स्वामी ने धर्म में स्त्रियों को स्वतन्त्रता दी, उनका विचार था कि स्त्रियाँ भी निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं। उन्होंने स्त्रियों के लिए जैन धर्म के द्वार खोल दिये। इसके परिणामस्वरूप जैन धर्म में कई स्त्रियाँ दीक्षित हुईं और उनमें कई विदुषी भी हुई।

 

3. नैतिकता तथा सदाचारमय जीवन- 

  • महावीर स्वामी ने धार्मिक क्रियाकलापों और कर्मकाण्डों को निरर्थक बताया और विशुद्ध नैतिक आचरण पर अधिक बल दिया। वे सांसारिक विषय- वासनाओं के प्रति राग-भाव का उन्मूलन करने का उपदेश देते हैं। व्यक्ति नैतिक व सदाचारमय जीवन के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


महावीर दर्शन के प्रमुख आयाम 

उपरोक्त महावीर दर्शन के प्रमुख आयाम हैं, जो व्यक्ति को नैतिक जीवन जीने में सहायता तथा मार्गदर्शन उपलब्ध करवाते हैं। इसके अतिरिक्त महावीर दर्शन के अन्य प्रमुख आयाम हैं- 

  • (1) स्यादवाद
  • (2) अनीश्वरवाद 
  • (3) आत्मवाद 
  • (4) कर्मवाद 
  • (5) अनेकान्तवाद 
  • (6) ज्ञान आदि।

 

(1) स्यादवाद का अर्थ एवं व्याख्या 

  • जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण विद्यमान रहते हैं इन सभी गुणों को जानना सांसारिक जीवों के लिए सम्भव नहीं है केवल मुक्त जीव ही किसी वस्तु के सभी गुणों को जान सकता है। यही कारण होता है कि साधारण व्यक्ति के निर्णय आंशिक रूप से ही सत्य होते हैं, न कि पूर्णरूप से, आंशिक ज्ञान विवाद का कारण होता है। इस विवाद के निराकरण के लिए जैन दर्शन में स्यादवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।

 

  • स्यादवाद एक ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जिसके अनुसार व्यक्ति के निर्णय या परामर्श आंशिक रूप से सत्य होते हैं। जैसे कि 6 अंधों और एक हाथी, जिस प्रकार प्रत्येक अंधा अपने अनुसार हाथी के हर हिस्से को स्पर्श कर अनुमान लगाता है वह उसका पूर्ण ज्ञान होता है लेकिन यह ज्ञान पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। विवादों से बचने के लिए जैन दर्शन प्रत्येक निर्णय के आरम्भ में स्याद शब्द जोड़ देने की सलाह देते है इस आंशिक ज्ञान को जैन दर्शन में "नय" कहा जाता है ।

 

  • जैन धर्म में सात प्रकार के नयो" का समावेश किया गया है और इसके लिए सप्तभंगी नय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। 


(2) अनीश्वरवाद का अर्थ एवं व्याख्या 

 

  • भारतीय दर्शन में सामान्यत: ईश्वर के विचार को प्राथमिकता प्रदान की गई है । सनातन धर्म से लेकर वर्तमान तक ईश्वर की महिमा का व्यापक वर्णन किया गया है।लैकिन जैन और बौद्ध धर्म में ईश्वर को नकार के एक नवीन विवाद को जन्म दिया है। ये दोनों धर्म ईश्वर के अस्तित्व को नकारते है। और इनका मानना है कि अगर जगत में ईश्वर हैं तो जगत में नानौ प्रकार का दुःख क्यों है। 
  • जिसके परिणामस्वरूप अनीश्वरवाद विचारधारा का जन्म देखने को मिलता है अनईश्वरवाद से आशय है कि वेदों की सत्ता को नकार देना क्योंकि ईश्वरवादी विचारधारा का मानना है कि वेदों की रचना ईश्वर ने की है। 
  • अनीश्वरवाद का मानना है कि वेदो की रचना अगर ईश्वर ने की है तो वेदों में बलि, कर्मकाण्डो स्वार्थ का समावेश क्यों हैं क्या ईश्वर स्वार्थी है आदि तर्कों के आधार पर अनईश्वरवाद का जन्म देखने को मिलता है। 


(3) आत्मवाद का अर्थ एवं व्याख्या 

 

  • भारतीय दर्शन में चार्वाक एवं बौद्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा की सत्ता में अखंड विश्वास रखता है। यहाँ आत्मा को शरीर भिन्न एक आध्यात्मिक सत्ता कहा गया है। यह नित्य एवं अविनाशी है। 
  • शंकर ने आत्मज्ञान को ही ब्रह्म ज्ञान माना हैं इस प्रकार प्रायः सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा को एक नित्य अविनाशी आध्यात्मिक सत्ता के रूप में स्वीकार करता है जैसे कि उपनिषद एवं वेदो में आत्मा की सत्ता पर अधिक बल दिया है। 
  • आत्मा के स्वरूप को लेकर भारतीय दर्शन में कई विचारधाराओं का समावेश देखने को मिलता है। चावार्क चेतन शरीर को आत्मा बौद्ध आत्मा को चेतना का प्रवाह जब कि शंकर ने आत्मा को सच्चिदानंद कहा है अर्थात सत् + चित + आनंद शंकर के अनुसार आत्मा संख्या में एक है इसका स्वरूप अलग-अलग देखने को मिलता है। अतः भारतीय दर्शन आत्मावादी दर्शन देखने को मिलता है।

 

(4) कर्मवाद का अर्थ एवं व्याख्या 

 

  • भारतीय दर्शन में कर्मवाद का विशेष महत्व है। चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन कर्मवाद पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विशेष जोर देते हैं । कर्म सिद्धान्त के अनुसार हमें अपने कर्मों का फल अनिवार्य रूप से मिलता है।

 

  • शुभ कर्मों के लिए पुरस्कार और अशुभ कर्मों के लिए दंड भोगना पड़ता है। कर्म को भारतीय दर्शन में दो भागों में विभाजित किया गया हैं अनारब्ध कर्म प्रारब्ध कर्म। अनारब्ध कर्म उस कर्म को कहा जाता है जिसका फल अभी मिलना आरम्भ हुआ हो और जिन कर्मों का फल मिलना प्रारम्भ हो चुका हो उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म बोला जाता है। 

  • लैंकिन कर्मवाद सिद्धान्त की आलोचना विभिन्न दार्शनिकों ने की है उनका मानना है कि यह सिद्धान्त भाग्यवाद का समर्थक ईश्वरवाद का खण्डन करता है लेकिन फिर भी गीता में लिखा है कि कर्मवाद समस्त सिद्धान्तों में श्रेष्ठ सिद्धान्त है। 


प्तभंगी नय क्या है ?

 

जैन दर्शन में किसी भी वस्तु के बारे में निर्णय देने के सात दृष्टिकोण बताए गए हैं, इसी को सप्तभंगी नय कहते हैं- 

 

1. एक समय में वस्तु है। 

2. एक समय में वस्तु नहीं है।  

3. एक समय में वस्तु है भी और नहीं भी है। 

4. कुछ कहा नहीं जा सकता 

5. वस्तु है और कुछ कहा नहीं जा सकता 

6. वस्तु नहीं है और कुछ कहा नहीं जा सकता

7. वस्तु है भी, नहीं भी है, और कुछ कहा भी नहीं जा सकता। 


जैन दर्शन की आलोचना यह कहकर की जाती है कि सप्तभंगी नय पागलों का प्रलाप है। किसी भी वस्तु की दो ही स्थिति होती है- वस्तु है या नहीं है । 


जैनों का बंधन व मोक्ष

 

  • जैन धर्म में आत्मा को मुक्त व अनंत चतुष्टय से युक्त माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा कुछ कुप्रवृत्तियों की तरफ आकर्षित होती है, जैसे-काम, क्रोध मान, माया, लोभ आदि। इन्हीं कुप्रवृत्तियों से आत्मा बंध जाती है। यही आत्मा का बंधन है, जिसका कारण अज्ञान है। आत्मा की तरफ कर्मों का प्रवाह शुरू हो जाता है, जिसे आभाव कहते हैं। अज्ञान के कारण आत्मा तरह-तरह के कर्म करती है और विभिन्न प्रकार के दु:खों को भोगती है। अज्ञान का नाश ज्ञान द्वारा होता है। जब आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तब आत्मा की तरफ कर्मों का प्रवाह रुक जाता है, इसे संवद कहते हैं। लेकिन इसके पश्चात् भी आत्मा के दुःखों का अंत नहीं होता, क्योंकि जो पहले से कर्म किए गए हैं उनका फल मिलता रहता है। जब पूर्व कर्मों को भी आत्मा पूरी तरह से भोग लेती है और सभी कर्म समाप्त हो जाते हैं तो इस अवस्था को निर्जरा कहते हैं, यही मोक्ष या केवल्य की अवस्था है। 

 

  • जैन धर्म में मोक्षप्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र। सम्यक चरित्र के अंतर्गत ही पंचमहाव्रत और पंच अणुव्रत आते हैं, जिनका पालन करके व्यक्ति मोक्ष का भागी होता है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा का ऊर्ध्वगमन होता है और सिद्धशिला में जाकर आत्मा परम आनंद में रमण करती है। 

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