जैनधर्म का पतन | जैनधर्म के पतन के कारण | Jain Dharm Ka Patan Evam Karan

जैनधर्म का पतन | जैनधर्म के पतन के  कारण 

जैनधर्म का पतन | जैनधर्म के पतन के  कारण | Jain Dharm Ka Patan Evam Karan


जैनधर्म का पतन 

यद्यपि जैनधर्म का प्रचार बड़े उत्साह से किया गया था। परन्तु कालान्तर में इसकी प्रगति में अवरोध उत्पन्न हो गया। बाद में इस धर्म की लोकप्रियता घटने लगी और यह पतनोन्मुख हो चला। 

जैनधर्म के पतन के प्रमुख कारण  

राजधर्म पर प्रतिष्ठित न होना

  • यद्यपि महावीर के समय में कुछ राजघरानों ने जैनधर्म को स्वीकार किया था परन्तु कभी भी धर्म को राजधर्म के पद पर प्रतिष्ठित होने का गौरव न प्राप्त हो सका। बहुसंख्यक भारतीय नरेश इस धर्म के प्रति उदार तो अवश्य रहे परन्तु यह उदारता धर्म की देश व्यापकता और अन्तर्देशीयता के लिए पर्याप्त न थी। इस देश में यदि कोई जैन अशोक समुद्रगुप्त अथवा हर्ष उत्पन्न हुआ होता तो जैनधर्म का प्रचार भी सीमित न रहा होता।

 

जातिप्रथा का पुनरागमन

  • प्रारम्भ में जैनियों ने जातिप्रथा का विरोध किया थालेकिन बाद में धर्मव्यवस्था के अन्तर्गत भी जातिप्रथा का प्रवेश हो गया। इस कारण इसकी नवीनता जाती रही और लोगों में विशेषकर निम्न जातियों में यह अलोकप्रिय हो गया।

 

प्रचारकों का अभाव 

  • कालान्तर में जैनधर्म में उत्साही धर्मप्रचारकों का पूरा अभाव हो गया। ऐसे धर्मप्रचारक बहुत ही कम रह गये जो संलग्नता और पूरे उत्साह के साथ इस धर्म का प्रचार करते। उनकी संख्या में भी बहुत कमी हो गयी। जो थोड़े बहुत प्रचारक बच गये उनमें भी कई तरह की बुराइयाँ आ गयीं। वे आत्म संयमी नहीं रहे। उनका झुकाव सांसारिक सुख भोग की ओर हो गया। फलतः जैनधर्म का पतन आरम्भ हुआ।

 

अन्य धर्मों की प्रतिद्वन्द्विता

  • जिन दिनों भारत में जैनधर्म का प्रचार हो रहा था। उन दिनों बौद्धधर्म का भी देश में प्रचार हो रहा था। इस प्रकार बौद्धधर्म एक तरह से जैनधर्म का प्रतिद्वन्द्वी बन गया। बौद्धधर्म अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय हो गया। बौद्धधर्म के उपरान्त भी हिन्दू धर्म में अनेक सम्प्रदायों का विकास हुआ जिनको राजाओं का समर्थन मिला। मथुरा के जैन मन्दिरों को चोल राजाओं ने शिव मन्दिरों में बदल डाला। कुछ चालुक्य शासकों ने भी जैन मन्दिरों जैन प्रतिमाओं को हटावाकर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को प्रतिष्ठित कराया। उड़ीसा में भी शैवमत का प्रचार हुआ। राजपूत काल में अहिंसा धर्म का महत्त्व घट जाने से जैनधर्म का पतनोन्मुख हो जाना अवश्यम्भावी हो गया।

 

आन्तरिक मतभेद

  • शुरू में जैनधर्म एक सशक्त आन्दोलन था। परन्तु कालान्तर में इसमें आन्तरिक मतभेद शुरू हो गया और जैनधर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों-श्वेताम्बर और दिगम्बर में विभाजित हो गया। यह मतभेद तथा विभाजन जैन धर्म के लिए बड़ा घातक साबित हुआ। मतभेद की हालत में सहयोग के साथ कोई कार्य करना असम्भव हो जाता है। 


जनसम्पर्क में कमी

  • जैनधर्म के प्रचारक धर्म प्रचार में भारी उत्साह के साथ लगे रहते थे। वे कठोर व्रत धारण करकेइच्छाओं का दमन करके शरीर को तपस्या द्वारा शुद्ध करके जितेन्द्रिय बनने के प्रयत्न करते रहते थे। उनकी आत्मशुद्धि के वे प्रयास जनता पर गहरा प्रभाव डालते थे। संघ में जनता के साथ सम्पर्क बढ़ाने के महत्त्वपूर्ण साधन थे। अब प्रचारकों में उत्साह का स्रोत बहना बंद हो गया था। संघों की सदस्यता में भी कमी आने लगी थी। अस्तुधर्म प्रचारकों का साधारण जनता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध न रहा और जनता में जैनधर्म के प्रति कोई आकर्षण अथवा रुचि न रहीं।

 

तपस्या की कठोरता

  • जैनधर्म तपस्या पर बड़ा बल देता था। इस धर्म में नग्न रहनाआमरण अनशन करनाकेशलुंचन आदि शारीरिक कष्ट वांछनीय बतलाये गये थे। जनसाधारण के लिये ये सारे कार्य दुष्कर थे और इस प्रकार के धर्म का लोकप्रिय बनना असम्भव था। शुरू में जोश में तो बहुतों ने तपस्याव्रत को ग्रहण कियालेकिन बाद में यह उत्साह मन्द पड़ गया।

 

भाषा की दुर्बोधता

  • शुरू में जैन धर्म का प्रचार साधारण बोलचाल की भाषा में हुआ था लेकिन बाद में जैन साहित्य का सृजन संस्कृत भाषा में होने लगा। फलतः जनता से इस धर्म का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रहा। साधारण जनता जैन साहित्य से अपरिचित रहने लगी।

 

ब्राह्मण धर्म में सालग्न्य

शुरू में जैनधर्म ब्राह्मण धर्म के विरूद्ध एक क्रांति के रूप में प्रकट हुआ थापरन्तु बाद में यह अपने को उससे अलग नहीं कर सका। कालान्तर में वह उसके निकट आता गया और ब्राह्मण धर्म के अनेक दोष उसमें घुस गये। ब्राह्मण धर्म की तरह भक्तिवाद और देवी-देवताओं की बहुलता घुस गयी। फलत: जैनधर्म की नवीनता समाप्त हो गयी। इस कारण भी इस धर्म का पतन हुआ।

 

जैनधर्म भारत के सभी भागों में फैलाकिन्तु समय के साथ-साथ इसकी अवनति होनी आरम्भ हो गयी। जैनियों के अनुसार उनके मन्दिर की तबाही पहली बार ब्राह्मणों के विरोध के कारण और विशेषकर 1774-76 ईसवी पश्चात् अजयपाल के काल में हुई थी; किन्तु मुसलमानों ने जितनी हानि इस धर्म को पहुँचाईउतनी हानि इस धर्म को अजयपाल से नही पहुंची। अलाउद्दीन खिलजीजिसने गुजरात को 1297-98 में विजय किया थाजैनियों द्वारा खूनी" कहा गया। उसने जैनियों के अनेक मन्दिरों को बुरी तरह गिराया था। उसने जैनधर्मियों को अधिकाधिक संख्या में मौत के घाट उतारा और उनके पुस्तकालयों को नष्ट कर दिया। जैनियों के मन्दिरों द्वारा प्राप्त सामग्री से भारत में मुसलमानों ने अत्यन्त सुन्दर मस्जिदें बनवाई।

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