जैनधर्म का प्रचार |जैनधर्म के तीव्र प्रचार के प्रमुख कारण | Jain Dharm Ke Prachar Ke Karan

जैनधर्म का प्रचार | जैनधर्म के तीव्र प्रचार के प्रमुख कारण

जैनधर्म का प्रचार |जैनधर्म के तीव्र प्रचार के प्रमुख कारण | Jain Dharm Ke Prachar Ke Karan


जैनधर्म का प्रचार

 

  • महावीर द्वारा प्रदिपादित जैनधर्म का प्रचार भारत में तीव्रता से हुआ। यद्यपि यह बौद्धधर्म की तरह भारत से बाहर विदेशों में नहीं फैलालेकिन भारत के अन्दर चारों ओर इसका व्यापक प्रचार हुआ। आरम्भ में इस धर्म का प्रचार बिहारतिरहुत और अवध के प्रान्तों तक ही सीमित था। मगध में भीषण अकाल पड़ने पर जो बारह वर्ष की लम्बी अवधि तक रहा। सहस्रों जैनी सपरिवार प्रसिद्ध जैन साधु भद्रबाहु के साथ मगध से दक्षिण भारत की ओर चल दिये। इन्होंने मैसूर राज्य में श्रवण बेलगोला नामक स्थान को अपना निवास स्थान बनाया प्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी जैन मत अंगीकार करके उसी स्थान पर निराहार व्रत करके मोक्ष प्राप्त किया था। यहीं से जैनधर्म का प्रसार दक्षिण भारत में हुआ और व्यापारियों तथा व्यवसायियों ने भारी संख्या में इस मत को अपनाया। कुषाण काल में मथुरा जैनधर्म का केन्द्र बना हुआ था और यहीं से यह मत धीरे-धीरे गुजरातकठियावाड़ आदि जगहों में प्रसारित हुआ। उड़ीसा के राजा खारवेल जैनधर्म के अनुयायी थे। इन्होंने जैनधर्म की उन्नति के लिए भरसक प्रयत्न किया और जैनधर्म का अद्भुत उत्थान हुआ।

 

  • महावीर ने ज्ञान प्राप्ति के तुरंत बाद अपने धर्म का प्रचार करना शुरू किया। वे वर्ष में आठ महीना घूम-घूम करके अपने मत का प्रचार करते थे और वर्षा ऋतु किसी बड़े नगर में व्यतीत करते थे। ज्यों-ज्यों महावीर की ख्याति बढ़ती गयी त्यों-त्यों जनता द्वारा उनका स्वागत भी बढ़ता गया और बड़े-बड़े सम्राट उनके उपदेश को सुनने के लिए आने लगे। उनके जीवन काल में ही जैन धर्म कोशलविदेहमगध तथा अंग राज्यों में फैल गया। कुछ जैन साधु पश्चिम की ओर बढ़े और मथुरा को अपना प्रचार केन्द्र बनाया। इस क्षेत्र में भी जैनधर्म की अच्छी उन्नति हुई। पहली और दूसरी शताब्दी ई.पू. में मालवा और उज्जयिनी जैन मतावलम्बियों के मुख्य केन्द्र हो गये। दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय के जैनियों ने जैन धर्म का प्रचार किया।

 

जैनधर्म के तीव्र प्रचार के प्रमुख कारण 

राजकीय संरक्षण

  • जैनधर्म के उत्थान के मूल में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस धर्म को तत्कालीन राजाओं का समर्थन और संरक्षण मिला। अनेक राजा महाराजासामन्तउच्च राजकीय पदाधिकारी तथा प्रभावशाली व्यक्ति महावीर के उपदेशों से प्रभावित होकर उनके धर्म को स्वीकार कर जैन मतावलम्बी हो गये। राजकीय संरक्षण के मिल जाने से जैन धर्म का प्रचार तेजी से हुआ। जिन राजाओं ने इस धर्म को स्वीकार किया उनकी प्रजा भी इस धर्म की अनुयायी हो गयी। फलतः जैन धर्म का काफी प्रचार हुआ।

 

बोलचाल की भाषा का प्रयोग

  • वैदिक धर्म की सभी पुस्तकें संस्कृत भाषा में रची गयी थीं। इसका केवल ब्राह्मण वर्ग के लोग ही अध्ययन कर सकते थे। ये ग्रन्थ साधारण जनता की पहुँच के परे थे। इस कारण वैदिक धर्म के प्रति लोगों की रूचि घटती गयी। लेकिन जैनधर्म के सिद्धांत जनसाधारण की बोलचाल की भाषा में लिखे गये थे और महावीर तथा उनके शिष्य जनता की भाषा में ही उन्हें उपदेश देते तथा धर्म प्रचार का कार्य करते थे। जनता के लिए इस धर्म के सिद्धांत को समझना आसान था। इस कारण जैनधर्म में उनकी रूचि बढ़ी और वे उस नवीन धर्म की ओर आकर्षित होने लगे।

 

समानता का सिद्धांत जैनधर्म 

  • मुख्यतः समानता के सिद्धांत पर आधारित था। महावीर ने जातिप्रथा का विरोध किया था और धर्म का द्वार सभी जातियों के लिए खोल दिया था। उनका कहना था कि संसार की सभी चीजों की आत्मा एक-सी है। मोक्षप्राप्ति के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। उस समय समाज के निम्न श्रेणियों के लिए धर्म के सारे दरवाजे बन्द थे और वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते थे। जब जैनधर्म ने सभी तरह के नियंत्रणों से समाज को मुक्त करने का निश्चय बतलाया तो पददलित मानवता स्वाभाविक रूप से इसकी ओर आकृष्ट हुई। जन साधारण ने इस नवीन धर्म को अपना समर्थन दिया।


जैन धर्म का व्यावहारिक होना

  • जैन धर्म आडम्बरों से रहित एक साधारण धर्म था तथा उसके सिद्धांत सरलसुबोध व्यवहार में आने योग्य और सब की पहुँच के भीतर थे। गृहस्थों के लिए महावीर ने अत्यन्त सरल धार्मिक नियम बनाये ताकि उन्हें किसी विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़े। कोई भी व्यक्ति बिना किसी विशेष कठिनाई के इन नियमों का पालन कर सकता था। इसमें हिन्दू धर्म जैसी कर्मकांड की क्लिष्ट विधियाँ न थीं। अहिंसा का पालनसत्य बोलनाचोरी न करनासबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार रखना आदि कुछ ऐसे नियम थे जो सभी के लिए प्रिय हो सकते थे और इसका पालन करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हो सकती थी। हिंसा और बलिदान का इस धर्म में कोई स्थान नहीं था। जैन साधुओं के लिए नियम तो अवश्य कड़े थे पर साधारण व्यवहार में आने योग्य नियमों के कारण यह धर्म काफी उन्नति करने लगा और पर्याप्त सफलता मिली। 


संघ की स्थापना

  • जैन धर्म अपने जन्म के साथ ही एक संगठित आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ। महावीर ने अपने अनुयायियों को संघ में संगठित किया। संघ के सदस्यों को संयमपूर्ण तथा सरल जीवन व्यतीत करना पड़ता था। उन्हें अध्ययन और गोष्ठी में अपना समय बिताना पड़ता था और सारा जीवन धर्म के प्रचार में लगाना पड़ता था। महावीर की मृत्यु के बाद भी जैनियों की गतिविधि ज्यों की त्यों बनी रही। 
  • जैन संघ के अध्यक्ष सुधर्मन ने बाईस वर्षों तक लगातार जैन धर्म की सेवा की। उनके बाद प्रसिद्ध जैन मुनि जम्बको संघ का प्रधान हुआ। इसके समय में भी जैन धर्म का खूब प्रचार हुआ।

 

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