महावीर स्वामी का जीवन परिचय | महावीर स्वामी पर निबंध |Mahavir Swami Ke Baare Me Jankari

महावीर स्वामी का जीवन परिचय | महावीर स्वामी पर निबंध |Mahavir Swami Ke Baare Me Jankari

 

महावीर स्वामी का जीवन परिचय | महावीर स्वामी पर निबंध |Mahavir Swami Ke Baare Me Jankari

महावीर स्वामी की जीवनी

 

  • जैनियों के सबसे अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। उनका जन्म ईसा के लगभग छ: सौ वर्ष पूर्व वैशाली के पास कुण्डग्राम में हुआ था जो आधुनिक बिहार राज्य के वैशाली जिला में स्थित है।
  • कुण्डग्राम में जान्त्रिक नामक क्षत्रियों का गणराज्य था। महावीर के पिता सिद्धार्थ उसी के गणमुख्य थे। उनकी माता त्रिशुला देवी वैशाली गणराज्य के अधीन छोटे से राज्य लिच्छवी के अधिपति राजा चेतक की बहन थी। बड़े होने पर यशोदा नामक एक युवती से महावीर का विवाह कर दिया गया। उनसे उनको एक पुत्री पैदा हुई थी। अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् तीस वर्ष की आयु में उन्होंने वन में जाकर ज्ञान प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक कठोर तपस्या की। लोगों ने उन्हें लाठियों से मारा, उन पर ईंट, पत्थर तथा गन्दी वस्तुएँ फेंकीं, उनकी खिल्ली उड़ायी गयी और अन्य तरीकों से उनकी तपस्या भंग करने का यत्न किया गया। लेकिन वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। इस कठोर तपस्या के प्रभाव से उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और उनका हृदय ज्ञान लोक से जगमगा उठा। अब उन्होंने सांसारिक बन्धनों को तोड़कर मायामोह से छुटकारा पा लिया। अतः वे निग्रन्थ कहलाये जिसका अर्थ होता है बन्धनहीन।
  • उन्होंने अपने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी अतएव वे जिन कहलाये। 
  • उन्हें बारह वर्ष तक तपस्या के पश्चात जूम्मिक ग्राम के बाहर ऋजुपालिका नदी के तट पर कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तभी से वे अर्हत (पूजनीय) कहलाने लगे। 
  • वे महीनों बिना नहाये धोये और बिना खाये-पीये तपस्या में लीन रहे। न उन्होंने कभी अपने घावों को भरने का यत्न किया और न दवा प्राप्त करने की कोशिश की। अपार धीरज के साथ उन्होंने सभी मुसीबतों का सामना किया, अतएव वे महावीर कहलाये। 
  • पार्श्वनाथ के अनुयायी उन्हें चौबीसवां तीर्थंकर मानने लगे। पार्श्वनाथ के अनुयायी निर्ग्रन्थ कहलाते थे, परन्तु महावीर के जिन अथवा जितेन्द्रिय बन जाने से वे जैनकहलाने लगे। 
  • ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत महावीर ने एकान्त में बैठकर अपना जीवन नहीं बिताया, बल्कि तीस वर्षों तक उन्होंने घूम-घूमकर मगध, कोशल, अंग, मिथिला, काशी आदि प्रदेशों में अपनी शिक्षा का प्रचार किया। प्रारम्भ में तो वे अकेले ही घूमा करते थे, पर कुछ काल पश्चात् उन्हें घोषाल नामक एक सहयोगी भी मिल गया। महावीर तथा घोषाल की पहली भेंट नालन्दा में हुई थी। कोल्लाग नामक स्थान पर वे दोनों लगभग छः वर्षों तक साथ रहे। पर तत्पश्चात इन दोनों के उपदेशों में कुछ मतान्तर हो गया और वे पृथक हो गये। 
  • घोषाल महावीर की तथा महावीर घोषाल की आलोचना करते थे घोषाल को ही आजीवक सम्प्रदाय का निर्माता कहते हैं। 
  • महावीर को धर्मप्रचार करने में साधारण कठिनाइयों का ही सामना नहीं करना पड़ा। इस समय भारत में प्राचीन वैदिक धर्म के अनेक सम्प्रदाय तथा कुछ नवीन धार्मिक दल विद्यमान थे। इनमें बुद्ध बार्हस्पत्य, नास्तिक या चार्वाक, वेदान्तीय सांख्य, अपृष्ठनादीय, आजीविक, त्रैराशिक तथा शैव्य मत प्रधान हैं।
  • महावीर के सयम में अनेक धर्मप्रचारक और उनके मत प्रचलित थे। क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद आदि अनेक वादों का प्रचलन काफी जोर पर था। इस समस्त वादों की प्रतिस्पर्धा में महावीर को अपना मत स्थापित करना था। 
  • महावीर ने बड़े लगन के साथ अपना काम जारी रखा। धीरे-धीरे अनेकानेक राजा-महाराजा धनी व्यापारी, वैश्य, जनसाधारण के लोग आदि उनमें श्रद्धा व्यक्त करके उनके अनुयायी बन गये। महावीर को अपने समकालीन कई राजाओं का सहयोग प्राप्त हुआ। 
  • कुछ गणराज्यों में प्रसिद्ध व्यक्ति महाराज बिम्बसार, अजातशत्रु और आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक घोषाल थे।
  • महावीर ने पार्श्वनाथ द्वारा स्थापित चार मुख्य सिद्धान्तों अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह का प्रतिपादन किया। पाँचवां सिद्धांत अपनी ओर से जोड़ दिया जिसको ब्रह्मचर्य कहते हैं। ये पाँचों नियम मिलकर 'पंचयम' कहलाते हैं। 
  • महावीर अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य पर विशेष बल देते थे और कहते थे कि केवल वही व्यक्ति कैवल्य प्राप्त कर सकता है जो इन तीनों व्रतों का पालन भली भांति करेगा। 
  • ईसा से 527 वर्ष पूर्व सत्तर वर्ष की अवस्था में आधुनिक पटना के पास पावापुरी नामक स्थान पर उनको निर्वाण प्राप्त हुआ।


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