आधुनिक आर्यभाषा : आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ वर्गीकरण। Aadhunik Aarya Bhasha

आधुनिक आर्यभाषा : आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ वर्गीकरण

आधुनिक आर्यभाषा : आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ वर्गीकरण। Aadhunik Aarya Bhasha

आधुनिक आर्यभाषा विशेषताएँ वर्गीकरण 

 

अपभ्रंश के विभिन्न स्थानीय रूप 1000 ई. के आसपास अवहट्ठ रूपों से होते आधुनिक भाषाओं के रूप में विकसित हो गए। 


आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं

 

(1) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में प्रमुखतः वही ध्वनियाँ हैं जो प्राकृत, अपभ्रंश आदि में थीं। किंतु कुछ विशेषताएँ भी हैं

  • (क) पंजाबी आदि में उदासीन स्वर '' भी प्रयुक्त होने लगा है। अवधी आदि में जपित या अघोष स्वरों का प्रयोग होता है। गुजराती में मंर्मर स्वर का विकास हो गया है। प्राकृत-अपभ्रंश में केवल मूल स्वर थे, किंतु अवहट्ठ में ऐ, औ विकसित हो गए थे। कई आधुनिक भाषाओं में इनका प्रयोग होता है, यद्यपि कुछ बोलियों में केवल मूल स्वरों का प्रयोग हो रहा है, संयुक्त स्वरों का नहीं। 
  • (ख) '' का प्रयोग तत्सम शब्दों में लिखने में चल रहा है, किंतु बोलने में यह स्वर न रहकर '' के साथ इ या उ स्वर का योग रह गया है। उत्तरी भारत में इसका उच्चारण 'रि' है और गुजराती आदि में 'रु'। 


  • (ग) व्यंजनों में जहाँ तक ऊष्मों का प्रश्न है, लिखने में तो प्रयोग स, , श तीनों का हो रहा है, किंतु उच्चारण में स, श दो ही हैं। '' भी '' रूप में उच्चरित होता है। चवर्ग के उच्चारण में आधुनिक काल में एकरूपता नहीं है। हिंदी में ये ध्वनियाँ स्पर्श-संघर्षी हैं, किंतु मराठी में इनका एक उच्चारण त्स  (च), दूज (ज) जैसा भी है। सच पूछा जाए तो मराठी में दो चवर्ग हो गया है। संयुक्त व्यंजन 'ज्ञ' के शुद्ध उच्चारण (ज्ञ) का लोप हो चुका है, उसके स्थान परज्यँ, ग्यँ और हाँ, दनँ आदि कई उच्चारण चल रहे हैं।


  • (घ) विदेशी भाषाओं के प्रभावस्वरूप आधुनिक भाषाओं में कई नवीन ध्वनियाँ आ गईं हैं, , , , ज़, फ़, ऑ आदि। इन ध्वनियों का लोकभाषाओं में तो क, , , , , आ के रूप उच्चारण हो रहा है, किंतु पढ़े-लिखे लोग इन्हें प्रायः मूल रूप में बोलने का प्रयास करते हैं। संगम (Juncture ) तथा अनुनासिकता प्रायः सभी में स्वनिमिक है।

 

(2) जिन शब्दों के उपधा (Penultimate) स्वर या अंतिम को छोड़कर किसी और पर बलात्मक स्वराघात था

  • (क) उनके अंतिम दीर्घ स्वर प्रायः ह्रस्व हो गए हैं तथा 
  • (ख) अंतिम '' स्वर कुछ अपवादों (संयुक्त व्यंजनादि) को छोड़कर प्रायः लुप्त हो गया है (राम्, अब् आदि) ।


(3) प्राकृत आदि में जहाँ समीकरण के कारण व्यंजनद्वित्त या दीर्घ व्यंजन (कर्म-कम्म) हो गए थे, आधुनिक काल में 'द्वित्व' में केवल एक रह गया और पूर्ववर्ती स्वर में क्षतिपूरक दीर्घता आ गई (कम्म-काम, अट्ठ-आठ)। पंजाबी, सिन्धी अपवाद हैं, उनमें प्रायः प्राकृत से मिलते-जुलते रूप ही चलते हैं (अट्ठ, कम्म) 


(4) बलात्मक स्वराघात है। वाक्य के स्तर पर संगीतात्मक भी है।

 

(5) अपभ्रंश के प्रसंग में कहा जा चुका है कि संस्कृत, पालि आदि की तुलना में रूप कम हो गए थे। आधुनिक भाषाओं में अपभ्रंश की तुलना में भी रूप कम हो गए हैं, इस प्रकार भाषा सरल हो गई है। संस्कृत आदि में कारक के तीनों वचनों में लगभग 24 रूप बनते थे। प्राकृत में लगभग 12 हो गए थे, अपभ्रंश में 6 और आधुनिक भाषाओं में केवल दो, तीन या चार रूप हैं। क्रिया के रूपों में पर्याप्त कमी हो गई है। क्रियार्थ या काल आदि तो सभी, बल्कि संस्कृत आदि से अधिक व्यक्त कर लिये जाते हैं, किंतु सबके रूप अलग नहीं हैं। सहायक शब्दों से काम चल जाता है। मूल रूप थोड़े हैं।

 

(6) रचना की दृष्टि से संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि की भाषा योगात्मक थी अयोगात्मकता अपभ्रंशों से आरंभ हुई और अब, आधुनिक भाषाएँ (नाम और धातु दोनों दृष्टियों से) पूर्णतः अयोगात्मक या वियोगात्मक हो गई हैं। कुछ रूप योगात्मक हैं भी तो अपवादस्वरूप। नाम-रूपों के लिए परसर्गों का प्रयोग होता है और धातु रूपों के लिए कृदंत और सहायक क्रिया के आधार पर संयुक्त क्रिया का।

 

(7) संस्कृत में वचन 3 थे। मध्यकालीन आर्य भाषाओं में ही द्विवचन समाप्त हो गया था और आधुनिक काल में भी केवल दो वचन हैं। अब प्रवृत्ति एकवचन की है। लगता है कि आगे चलकर रूप केवल एकवचन के रह जायेंगे और दो, तीन या अधिक का भाव सहायक शब्दों से प्रकट किया जाएगा। उदाहरणार्थ, हिंदी में 'मैं' के प्रयोग की प्रवृत्ति कम हो रही है। उसके स्थान पर 'हम' चल रहा है, जिसके बहुवचन का कोई अलग रूप नहीं होता, केवल 'लोग' 'सब' जोड़कर काम चला लेते हैं।

 

(8) संस्कृत में लिंग 3 थे। मध्ययुगीन भाषाओं में भी स्थिति यही थी। आधुनिक काल में सिन्धी, पंजाबी, राजस्थानी तथा हिंदी में 2 लिंग हैं (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग) संभवतः तिब्बत- बर्मी मुंडा आदि भाषाओं के प्रभाव के कारण बंगाली, उड़िया, असमी में लिंगभेद कम-सा है। बिहारी, नेपाली में भी समाप्त होता-सा दिखाई दे रहा है। तीन लिंग केवल गुजराती, मराठी और (कुछ) सिंहली में हैं।

 

(9) आधुनिक भाषाओं में प्राचीन तथा मध्ययुगीन से शब्द भण्डार की दृष्टि से सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पश्तो, तुर्की, अरबी, फारसी, पुर्तगाली तथा अंग्रेजी आदि से लगभग 8-9 हजार नये विदेशी शब्द आ गए हैं। इनके पूर्व भाषाओं का प्रमुख शब्द-भंडार तत्सम, तद्भव और देशज का ही था। मध्ययुगीन भाषाओं की तुलना में आज तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक हो रहा है और तद्भव का अपेक्षाकृत कम। इधर पारिभाषिक शब्दावली की कमी दूर करने के लिए नए शब्द बनाए और अपनाए जा रहे हैं। अनुकरणात्मक एवं प्रतिध्वन्यात्मक शब्द बहुत प्रयुक्त होने लगे हैं।

 

  • आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में सिन्धी, गुजराती, लहँदा, पंजाबी, मराठी, उड़िया, बंगाली, असमिया, हिंदी (पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी) प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त कश्मीरी भी भारत की एक महत्त्वपूर्ण भाषा है, वह भारत-ईरानी की दरद शाखा में आती है। उर्दू, वस्तुतः भाषा वैज्ञानिक स्तर पर हिंदी की ही अरबी-फारसी से प्रभावित एक शैली है। इसीलिए हिंदी के अंतर्गत ही उसका विवरण दिया गया है। राजस्थानी पहाड़ी तथा बिहारी को लोगों ने अलग रखा है, किंतु ये हिंदी प्रदेश में आती हैं, अतः इन पर भी हिंदी प्रदेश के अंतर्गत ही प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः अब भाषा के आकृतिमूलक या पारिवारिक वर्गीकरण से सांस्कृतिक वर्गीकरण को कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता और इस दृष्टि से ये सभी राजस्थ पहाड़ी, बिहारी हिंदी के सांस्कृतिक वर्ग में आती हैं।

 

  • भारत के बाहर बोली जाने वाली आधुनिक आर्य भाषाओं में नेपाली सिंहली तथा जिप्सी भी उल्लेख्य हैं। 

 

आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण 

वर्गीकरण-आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के वर्गीकरण पर विभिन्न विद्वानों (हार्नले, वेबर, ग्रियर्सन, चटर्जी, धीरेन्द्र वर्मा आदि) द्वारा विभिन्न रूपों में विचार किया गया है। यहाँ कुछ प्रमुख का उल्लेख किया जा रहा है।

 

(अ) इस प्रसंग में प्रथम नाम हार्नले का लिया जा सकता है। उन्होंने (Comparative Grammar of the Gaudian Lgs में) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को 4 वर्गों में रखा है: 

(क) पूर्वी गौडियन-पूर्वी हिंदी (इसीमें बिहारी भी है), बंगला, असमी, उड़िया 

(ख) पश्चिमी गौडियन-पश्चिमी हिंदी (राजस्थानी भी), गुजराती, सिन्धी, पंजाबी। 

(ग) उत्तरी गौडियन-गढ़वाली नेपाली आदि (पहाड़ी)। (

घ) दक्षिणी गौडियन मराठी |

 

  • (ब) हार्नले ने (उपर्युक्त पुस्तक में) भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन के आधार पर पिछली सदी में यह सिद्धांत रखा था कि भारत में आर्य कम-से-कम दो बार आये। आर्य आधुनिक पंजाब में आकर बसे थे। कुछ दिन बाद दूसरे आर्यों का हमला हुआ। जैसे कहीं कील ठोकने पर कील छेद बनाकर बैठ जाती है और उस बने छेद के स्थान पर जो चीज रहती है, चारों ओर चली जाती है, उसी प्रकार नवागत आर्य उत्तर से आकर प्राचीन आय के स्थान पर जम गए और पूर्वागत पूरब, दक्षिण पश्चिम में फैल गये। इस प्रकार नवागत आर्य भीतरी कहे जा सकते हैं और पूर्वागत बाहरी । 


इस भीतरी और बाहरी को लेकर यद्यपि दो बार आक्रमण न मानते हुए ग्रियर्सन ने (Linguistic Survery of India, भाग 1; तथा Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institution, Vol. I. Pt. III. 1920 में) अपना पहला वर्गीकरण प्रस्तुत किया। इसमें 3 वर्ग हैं

 

1. बाहरी उपशाखा - 

(क) पश्चिमोत्तरी समुदाय (लहँदा, सिन्धी),

(ख) दक्षिणी समुदाय (मराठी)

(ग) पूर्वी समुदाय (उड़िया, बंगाली, असमी बिहारी ) ।

 

2. मध्यवर्गी उपशाखा - ( क ) मध्यवर्ती समुदाय ( पूर्वी हिंदी)

 

3. भीतरी उपशाखा – 

(क) केन्द्रीय समुदाय (पश्चिमी हिंदी, पंजाबी, गुजराती, भीली खानदेशी); 

(ख) पहाड़ी समुदाय (पूर्वी मध्यवर्ती, पश्चिमी) ।

 

बाद में ग्रियर्सन ने (Indian Antiquary, Supplement of Feb. 1931) एक नया वर्गीकरण सामने रखा जो इस प्रकार है: 

(क) मध्यदेशी-पश्चिमी हिंदी 

(ख) अंतर्वर्ती

  • (I) पश्चिमी हिंदी से विशेष घनिष्ठता वाली (पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, पहाड़ी (पूर्वी, पश्चिमी मध्य),
  •  (II) बहिरंग से संबद्ध (पूर्वी हिंदी) । 

(ग) बहिरंग भाषाएँ

  • (I) पश्चिमोत्तरी (लहँदा, सिन्धी)
  • (II) दक्षिणी (मराठी)
  • (III) पूर्वी (बिहारी, उड़िया, बंगाली, असमी) । 

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