नगरीकरण के विकास की पृष्ठभूमि | प्राचीन काल में नगरों का विकास | Prachin Kaal Me Nagrikaran

 नगरीकरण के विकास की पृष्ठभूमि

नगरीकरण के विकास की पृष्ठभूमि | प्राचीन काल में नगरों का विकास | Prachin Kaal Me Nagrikaran

प्राचीन काल में नगरीकरण की पृष्ठभूमि (Context of Urbanization)

 

  • नगर योजना की चर्चा करने से पूर्व नगरीकरण के विकास की पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि पूर्व दिशा में मगध, कलिंग, बंग आदि के राजाओं का साम्राज्य के लिए अभिषेक होता है और वे सम्राट कहलाते हैं। इस ब्राह्मण ग्रन्थ में अलग-अलग श्रेणी के राज्यों का उल्लेख आया है और साम्राज्य को श्रेष्ठ बताया गया है। साम्राज्य के शासक को सम्राट कहकर संबोधित किया जाता था और उनकी राज्य विस्तार की नीति से साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला। इस प्रक्रिया में एक राजा द्वारा दूसरे राज्य पर अधिकार, सेनाओं के विस्तार, एक स्थान से दूसरे स्थान हेतु सेनाओं का प्रस्थान पड़ाव आदि के कारण नये व्यवसाय एवं व्यापारिक गतिविधियों में तेजी आई। अनेक नगरों का दुर्गीकरण हुआ। प्राचीन ग्रंथ दुर्गीकरण के आख्यानों से भरे पड़े हैं। दृढ़ किले सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण आधार माने जाने लगे। दुर्गीकरण की इस दौड़ में शहरों में शिल्पियों को काम के अधिक अच्छे अवसर उपलब्ध थे। राज्य द्वारा किलेबंदी का प्रभाव शहरी लोगों पर भी हुआ और इस तरह नगरवासियों ने भी अपने भवनों के निर्माण में ईंटों का प्रयोग करना शुरू किया। स्मरणीय है कि प्रारंभिक दौर के कुछ ही नगरों का विकास राजधानियों के कारण संभव हुआ लेकिन जो बस्तियाँ व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र थीं अथवा जो नदियों के किनारे बसीं और जहाँ संचार के साधन उपलब्ध थे अथवा व्यापारिक मार्गों पर स्थित थीं उनका शहरीकरण अधिक संख्या में हुआ।

 

  • नदियों की उपजाऊ घाटियों का नगरों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। कृषि भूमि का विकास एवं विस्तार पहाड़ी क्षेत्रों की अपेक्षा मैदानों में सरलता से होता है। भारत के प्रमुख गंगाघाटी के मैदानों के जंगलों को कृषि भूमि के विस्तार हेतु साफ किया गया और इस तरह भारत के प्रमुख नगर गंगा घाटी में विकसित हुए। गांगेय प्रदेश में स्थित इन नगरों को गंगा एवं उसकी सहायक नदियों के किनारे स्थित बन्दरगाहों (तटों) की सुविधा मिल जाती थी। इस क्षेत्र का बहुत बड़ा व्यापार नदी मार्ग द्वारा सम्पन्न होता था। नदियों के किनारे स्थित नगरों में अनेक बन्दरगाहों के स्थित होने के उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं। सरयू के किनारे अयोध्या, राप्ती के श्रावस्ती (सावत्थी), गंगा के काशी (वाराणसी), यमुना के कौशाम्बी एवं मथुरा, गोदावरी के पातेन (अटराका प्रदेश की राजधानी) आदि उल्लेखनीय हैं। बौद्ध साहित्य में छः प्रधान नगरों में चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत (अयोध्या), कौशाम्बी तथा वाराणसी की गणना की गई। अन्य प्रमुख नगरों में लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली, शाक्यों की राजधानी पिलवस्तु, वैदेहों की राजधानी मिथिला, मद्र देश की सागल एवं अवन्ति में उज्जयिनी का जिक्र बौद्ध ग्रंथों में आया है। कहा जा सकता है कि गांगेय प्रदेश के नगरों के विकास में गंगा एवं उसकी सहायक नदियों की विशेष भूमिका रही थी। गंगा नदी द्वारा समुद्र तक पहुंचा जा सकता था, दूसरे यह बिहार के लौह उत्पादक क्षेत्रों से गुजरती थी। राज्यों की विस्तार नीति तथा परस्पर युद्धों ने लौह को प्रारंभ से ही एक महत्त्वपूर्ण धातु बना दिया था। लोहे के कृषि उपकरणों के रूप में प्रयोग से कृषि उत्पादन में तेजी आई। उत्तर प्रदेश में अतरंजीखेड़ा तथा अन्य स्थानों पर किये गये उत्खननों से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर विद्वानों की मान्यता है कि भारत में लोहे का उपयोग ईसा पूर्व 1000 के लगभग हुआ। गंगा के मैदानों में कई स्थानों से तांबे से निर्मित वस्तुओं के ढेर मिले हैं। इनसे अस्त्र-शस्त्र का निर्माण निश्चित रूप से समृद्ध जनपदों द्वारा करवाया जाता होगा। कृषि क्षेत्र में लोहे के उपयोग ने कृषि उत्पादन को अधिशेष (सरप्लस) की स्थिति में पहुँचा दिया था। सामरिक रूप से शक्तिशाली जनपदों की सेना विस्तार की नीति के लिए इस प्रचार के अधिशेष की आवश्यकता थी। डॉ. डी. डी. कौशाम्बी ने इस ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है कि लोहे के प्रयोग व धान की रोपाई की तकनीक की जानकारी से नगरों के विकास को बल मिला। लोहे के फालवाले हल के प्रयोग से खेतों की जुताई अधिक अच्छी तरह संभव हो गई और इससे कृषि व्यवसाय में तेजी आई। अब गंगा घाटी में लोग पशुचारण के स्थान पर खेती पर अधिक निर्भर थे। पशुपालन के स्थान पर कृषि को मौलिक व्यवसाय के रूप में अपनाये जाने से भी अधिशेष का सृजन होने लगा था और अधिशेष ने नगरों के विकास को गतिशील बनाया। यह भी उल्लेखनीय है कि अधिशेष के सृजन से माल का क्रय-विक्रय पनपने लगा।

 

  • ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मुद्राओं का प्रचलन एवं व्यापार में प्रगति भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण पहलू थे। धातु मुद्रा के प्रयोग से वाणिज्य एवं व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। मुद्रा प्रणाली के आविर्भाव से व्यापार में विनिमय प्रथा धीरे-धीरे कम होने लगी। अब क्रय-विक्रय का माध्यम सामान्यतः एक प्रकार के सिक्के थे जिन्हें कार्षापण कहते थे। कार्षापण 146 ग्रेन के तांबे से निर्मित सिक्के थे। इनके अतिरिक्त निक्ख (निष्क) और सुवण्ण (सुवर्ण) नामक सोने के सिक्कों का उल्लेख भी पालि साहित्य में मिलता है। 'मासक' 'काकनिका' कम मूल्य की छोटी ताम्र मुद्रायें भी प्रचलन में थीं। सहस्त्रों की संख्या में चाँदी की आहत मुद्राओं की उत्खननों से प्राप्ति व्यापार की व्यापकता की द्योतक है। इतिहासकारों ने इस युग की तीन आर्थिक विशेषताओं को स्वीकार किया है-व्यापारिक बन्दरगाह, नगरों का विकास तथा समुद्रपारीय व्यापार। यह वह समय था जब देश का रोम के साथ व्यापार बढ़ने लगा और कुषाणों के काल तक पहुँचते-पहुँचते यह व्यापार अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। कुषाणों ने मध्य एशिया एवं भारतीय उपमहाद्वीप को एक सूत्र में बांधे रखा जिससे रोम के साथ व्यापार को बढ़ावा मिला। चीन से शुरू होकर पश्चिम और यूरोप को जाने वाला सिल्क रूट कुषाण साम्राज्य से गुजरता था। यह मार्ग रेशम के व्यापार के लिए विख्यात था। सिल्क मार्ग से कुछ माल भारत आता था और भृगुकच्छ बन्दरगाह से दूसरे देशों को निर्यात किया जाता था। ईसा की प्रथम दो शताब्दियों तक रोम के साथ व्यापार चलता रहा। आर. एस. शर्मा के अनुसार, "मध्य एशिया के साथ व्यापार होने के कारण उत्तरी भारत के नगरों का विकास हुआ और रोम तथा दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार के कारण दक्षिण भारत के शहार विकसित हुए।" इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मुद्रा प्रणाली का आविर्भाव और रोमन मुद्राओं के भारत में आगमन से व्यापार विनिमय को प्रोत्साहन मिला जिसके फलस्वरूप व्यापारिक केन्द्रों का नगरीयकरण हुआ। व्यापारिक मार्गों पर स्थित नगरों की विशेष महत्ता थी। उत्तर पश्चिम में स्थित काम्बोज और गंगा घाटी के कौशाम्बी, कोशल, वाराणसी आदि का व्यापारिक मार्गों पर स्थित होने का विशेष महत्त्व था। इन नगरों में घोड़े के सौदागरों के उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं। व्यापारियों द्वारा उत्तरापथ से आकर बनारस में घोड़े बेचे जाने के उल्लेख आये हैं।

 

  • स्मरणीय है कि कुछ नगर शिक्षा के प्रमुख केन्द्रों के रूप में विकसित हुए। बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण साहित्य से इस बात का बोध होता है कि तक्षशिला, बनारस एवं उज्जैन शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। पाटलिपुत्र के निवासी जीवक तक्षशिला जाकर अध्ययन किया था जो आगे जाकर आयुर्वेद का महान् विद्वान बना। कोशल नरेश प्रसेनजित सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, कौटिल्य पाणिनी (व्याकरणाचार्य) एवं पतंजलि आदि ने यहीं से शिक्षा प्राप्त की थी। इस युग में शिक्षा के प्रसार ने नये विकसित हो रहे वर्गों की ओर लोगों को आकर्षित किया। सेना में भर्ती एवं राज्य की नौकरी पाने की इच्छा से भी लोग राजधानी में बसने लगे थे।

 

  • समुद्रतट के निकट विकसित होने वाले नगरों के लिए कच्छ शब्द का प्रयोग किया जाता था जैसे भृगुकच्छ, आधुनिक काठियावाड़ को दारूकच्छ कहा जाता था। इसी प्रकार महीरेवा का पिप्पलीकच्छ नाम था। इस प्रकार नगरों के विकास में कई कारक अपना योगदान कर रहे थे। किसी एकमात्र कारण को नगरों के विकास में उत्तरदायी नहीं माना जा सकता, प्रत्युत्त ये विविध परिस्थितियों एवं तथ्यों के सम्मुचय के परिणाम थे। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि किसी एक शहर में किसी एक तत्व का अधिक प्रभाव रहता जबकि दूसरे में किसी अन्य तत्व का। 


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