अजातशत्रु | वज्जिसंघ का मगध में विलय | Ajaat Shatru GK in Hindi

  अजातशत्रु  | वज्जिसंघ का मगध में विलय

अजातशत्रु  | वज्जिसंघ का मगध में विलय  | Ajaat Shatru GK in Hindi


 अजातशत्रु 

  • अजातशत्रु बिम्बिसार के अनेक पुत्र थेदर्शक एवं अजातशत्रु के अतिरिक्त महावग्ग में अभय तथा थेरागाथा में शीलवन्त एवं विमल कोण्डन्न का विवरण आया है। अजातशत्रु के भय से दर्शक एवं अन्य तीन भाई भिक्षु बन गये थे। संयुक्तनिकाय से विदित होता है कि वह प्रसेनजित की बहिन कोशलदेवी का पुत्र था। परन्तु जैन साहित्य में उसे 'विदेहीपुतोकहा गया हैइस आधार पर उसे वैशाली राजा चेटक की पुत्री चेलना का पुत्र माना गया है। जैसा ज्ञात है कि अजातशत्रु ने अपने पिता का वध कर मगध का सिंहासन हस्तगत किया था। यह घटना बुद्ध महापरिनिर्वाण के आठ वर्ष पूर्व की है अर्थात् जब तक वह (बिम्बिसार) 52 वर्ष शासन कर चुका था। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि बिम्बिसार की पटरानी कोशलदेवी ने अपने पति के शोक में व्यथित होकर प्राण त्याग दिये थे। 
  • कोशल नरेश प्रसेनजित ने अपनी बहिन के विवाह पर उसके निजी शृंगार आदि के व्यय हेतु दिया गया काशीग्राम पर अधिकार कर लियाजिससे एक लाख कार्षापण की वार्षिक आय होती थी। वस्तुतः अजातशत्रु के व्यवहार (पितृहत्या) से क्षुब्ध होकर ही प्रसेनजित ने काशीग्राम मगध से वापस अपने कब्जे में ले लिया था। संयुक्त निकाय में जिक्र आया है कि काशीग्राम पर अधिकार को लेकर प्रसेनजित एवं अजातशत्रु में संघर्ष हुआ और शुरू में प्रसेनजित की हार हुई तथा उसे बाध्य होकर श्रावस्ती में एक माली के घर शरण लेनी पड़ी। उसकी पुत्री मल्लिका के प्रेम से प्रभावित होकर उससे प्रसेनजित ने विवाह भी किया। दूसरे आक्रमण में प्रसेनजित ने अजातशत्रु को बन्दी बना लिया। किन्तु कुछ समय बाद मुक्त कर अपनी पुत्री वाजिरा से उसका विवाह कर दिया एवं काशीग्राम भी मगध को लौटा दिया।


 वज्जिसंघ का मगध में विलय 

मगध के उत्तर में मल्ल एवं लिच्छवि गणराज्य स्थित थे। वैशाली का वज्जिसंघ एक शक्तिशाली गणराज्य था। जैसा विदित है कि 9 मल्ल, 9 लिच्छवि एवं काशी और कोशल के 18 शासकों ने एक संगठन बना लिया था। कुछ समय तक इन राज्यों के संगठन का नेतृत्व राजा चेटक के हाथ में था। राय चौधरी ने लिखा है कि लिच्छवि, मल्ल, काशी तथा कोशल का उपर्युक्त संगठन मगध राज्य का विरोधी था। ऐसा कहा जाता है कि बिम्बिसार के समय में भी वैशाली के शासक इतने ढीठ थे कि वे गंगा के पार वाले अपने पड़ोसी राज्य पर आक्रमण करने की धृष्टता प्रायः करते थे। अजातशत्रु के लिए भी इस संघ के शासक प्रारंभ में परेशानी का कारण रहे होंगे। मगध ने इस संघ के उन्मूलन का निश्चय किया।

 

  • जैन ग्रंथ उवासगदसाव एवं निरयावलीसूत्र से ज्ञात होता है कि बिम्बिसार ने वैशाली राजा चेटक की कन्या अर्थात् उसकी रानी चेलना (छलना) के पुत्रों हल्ल और वेहल्ल को अपना प्रसिद्ध हाथी सेयणग (सेचनक- अभिषेक में उपयोगी) तथा 18 लड़ियों का एक बहुमूल्य हीरे का हार उपहार में दिया था। अजातशत्रु ने राज्य हस्तगत करने के बाद अपनी रानी पद्मावती (पद्मावती) के उकसाये जाने पर अपने भाइयों को पिता द्वारा दिये गये दोनों उपहार लौटाने को कहा। परन्तु दोनों भाइयों ने ऐसा करना स्वीकार नहीं किया एवं वे नाना चेटक के यहाँ भाग गये। अतः अजातशत्रु ने वैशाली के विरुद्ध आक्रमण कर दिया।

 

  • सुमंगलविलासिनी में इस संघर्ष का दूसरा कारण बताया गया है। जिसके अनुसार मगध एवं वज्जिसंघ के मध्य गंगानदी पर एक बन्दरगाह था एवं उसी के समीप खदानें भी थीं, पूर्व सन्धि के अनुसार बन्दरगाह एवं खदानों पर समान रूप से दोनों का अधिकार था। किन्तु पर्याप्त समय से वज्जिसंघ इन पर अधिकार जमाये हुए थे। अजातशत्रु ने इस विवाद का निपटारा शस्त्र बल से करने का निश्चय किया। युद्ध का कारण कुछ मूल्यवान हीरे तथा सुगन्धित द्रव्य को भी माना जाता है। इसके अतिरिक्त दोनों राज्यों के मध्य बहने वाली नदियों के पानी पर अधिकार तथा व्यापार आदि से संबंधित कारण भी संभवतः रहे थे।

 

  • दोनों राज्यों के जीवन दर्शन में भी मतभेद था। जहाँ एक ओर मगध में राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली थी, वहाँ दूसरी और वज्जिसंघ गणराज्य थे। गणराज्यों में सब राज्यों के समान विकास की भावना निहित थी, किन्तु अजातशत्रु साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का समर्थक था। इस दृष्टि से वैशाली पर अजातशत्रु के आक्रमण का वास्तविक कारण मगध साम्राज्य की वृद्धि करना था। वज्जिसंघ के विरुद्ध युद्ध में पड़ोसी राज्यों को सम्मिलित करने का एक योजनाबद्ध प्रयास था।

 

  • युद्ध का विवरण महावग्ग एवं महापरिनिर्वाणसुत्त में मिलता है। वज्जियों के विरोध का सामना करने हेतु गंगा के दक्षिणी किनारे पर पाटलिग्राम में मगध के दो मंत्रियों सुनीथ एवं वस्सकार ने एक किले का निर्माण करवाया जिसे पाटलिपुत्र कहा गया। दोनों राज्यों की सीमाओं को भी सुदृढ़ किया गया। 


  • महापरिनिर्वाणसुत्त में कहा गया कि राजगृह की एक पहाड़ी पर वह परम सौभाग्यशाली (महात्माबुद्ध) रहा करते थे। उस समय मगध का राजा अजातशत्रु वज्जियों पर आक्रमण करने का इच्छुक था। उसने कहा भी मैं वज्जियों का उन्मूलन कर दूंगा, चाहे वे कितने ही बली और ताकतवर क्यों न हों। मैं उन वज्जियों को उजाड़ दूंगा, मैं उन्हें नेस्तनाबूद करके रहूंगा।" मगध नरेश ने इस दृढ़ निश्चय की क्रियान्विति एवं इसमें सफलता प्राप्ति के उपाय जानने हेतु त्रिकूट पर्वत पर निवास कर रहे बुद्ध के पास अपने मंत्री वस्सकार को भेजा, यह जानने के लिए कि वज्जियों का विनाश किस प्रकार हो सकता है। 


  • बुद्ध ने अवगत करवाया था कि जब तक वज्जि लोग सात बातों को पूरा करते रहेंगे वे अजेय रहेंगे अर्थात् गणतंत्र जब तक 'अपरिहानिय धम्म' का पालन करते रहेंगे तब तक उनको नष्ट नहीं किया जा सकता, बल्कि उनकी शक्ति में वृद्धि होती रहेगी। यहाँ पर यह सवाल है कि बुद्ध ने गणतंत्रात्मक व्यवस्था के उन्मूलन का मार्ग क्यों प्रशस्त किया। विद्वानों की मान्यता है कि बुद्ध लिच्छवियों से इतने अधिक प्रभावित थे उन्होंने बौद्ध संघ के नियम वज्जिसंघ का अनुकरण करते हुए बनाये थे। उन्होंने वस्सकार से लिच्छवियों के विषय में जो कुछ भी कहा था उसमें उनकी प्रशंसा ही थी। अजातशत्रु ने उनके कथन से अपने हितार्थ कोई अन्य अर्थ निकाल लिया तो यह उसकी बुद्धिमता थी। यह भी कहा गया है कि गणतंत्र तत्कालीन परिस्थितियों में अशक्त होते जा रहे थे। राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने की दृष्टि से भी ऐसा किया जाना आवश्यक था।


  • अजातशत्रु ने अपने अमात्य वस्सकार को उपलायन (कूटनीति) एवं मिथुभेद (संघभेद) की नीति अपनाने को कहा। वस्सकार वज्जिसंघ में इस आधार पर शरण प्राप्त करने में सफल हुआ कि वह अजातशत्रु के भय से किसी तरह बचकर आया है। इस तरह उसने वज्जिसंघ में शरण प्राप्त करके तीन वर्ष की अल्प अवधि में ही वज्जियों में परस्पर मतभेद उत्पन्न कर दिये। राय चौधरी ने उल्लेख किया है कि वैशाली तथा उनके मित्रों को विघटित व समाप्त करने के लिए मगध के वस्सकार आदि राजनीतिज्ञों ने मैक्यावली की कूटनीति से काम लिया था। जैन ग्रंथ निरयावलिसुत से ज्ञात होता है कि चेतक ने अपनी सहायता हेतु 9 लिच्छवि, 9 मल्ल, काशी एवं कोशल को आमन्त्रित किया। 'उवासगदसाव' से जानकारी मिलती है कि रथमूसल एवं महासिलाकण्टग (फेंकने वाला अस्त्र ) जैसे नवीन अस्त्रों का प्रयोग इस युद्ध में किया गया। युद्ध के परिणामस्वरूप गंगा के उत्तर में स्थित गणराज्यों के संघ की पराजय हुई और वैशाली एवं काशी का कुछ भाग मगध में सम्मिलित कर लिया गया। 


  • युद्ध कब प्रारंभ हुआ और कब तक चला स्पष्ट विवरण नहीं मिलता है किन्तु निरयावली में उल्लेख आया है कि आजीवक आचार्य मंखलिपुत्त गोसाल भी इस युद्ध में मारे गये थे। मंखलिपुत्त महावीर निर्वाण के 16 वर्ष बाद तक थे, अर्थात् महावीर की मृत्यु के 16 वर्ष बाद तक यह युद्ध चलता रहा। रीजडेविड्स ने लिखा है कि अजातशत्रु ने अपने संबंधी लिच्छवियों के साथ वैसी ही क्रूरता की जैसी विरूद्धक ने पूर्व में की थी।

 

  • मगध साम्राज्य उत्तर में मध्य गंगा घाटी तक विस्तृत हो गया। जब अंग, वाराणसी, वैशाली आदि मगध राज्य के भाग बन गये थे। एक मात्र अवन्ति ही ऐसा राज्य था जो मगध का सामना कर सकता थ। वस्तुतः अजातशत्रु को अवन्तिराज से भय अवश्य रहा। प्रद्योत के आक्रमण की आशंका से उसने अपनी राजधानी राजगृह का दुर्गीकरण करवाया था। आर. एस. त्रिपाठी ने लिखा है कि वैशाली पर मगध की विजय ने मगध को उत्तर भारत में शक्तिशाली राज्य बना दिया। इससे स्वाभाविक रूप से ईर्ष्या बढ़ी और प्रद्योत के आक्रमण की आशंका प्रबल हो उठी। यद्यपि हम साहित्य में उसकी आशंका के वशीभूत अजातशत्रु को अपनी राजधानी की रक्षा के अर्थ उसकी प्राचीरों को सशक्त करने की बात तो पढ़ते हैं परन्तु यह आक्रमण सचमुच हुआ यह अत्यन्त संदिग्ध है।

 

  • अजातशत्रु के शासन काल की महत्त्वपूर्ण घटनायें दो युग प्रवर्तक महावीरस्वामी एवं महात्मा बुद्ध का निर्वाण थी। प्रारंभ में अजातशत्रु का झुकाव जैन धर्म की ओर था। वह अपनी रानी के साथ महावीर स्वामी के दर्शन के लिए वैशाली गया एवं वहां उसने जैन शिक्षाओं तथा जैन भिक्षुओं की प्रशंसा की। जैन साहित्य में पितृहन्ता के रूप में उसे निन्दित नहीं किया गया है। दूसरी ओर बौद्ध ग्रंथों से ज्ञात होता है कि देवदत्त के प्रभाव से अजातशत्रु महात्मा बुद्ध से द्वेष रखता था किन्तु बाद में उसे पितृहत्या का पश्चाताप हुआ एवं बुद्ध से अपने अपराधों की क्षमा मांगी थी। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। अजातशत्रु ने इस अधिवेशन के लिए वैभार की पहाड़ी गुहा में सभा भवन निर्मित करवाया था। महापरिनिर्वाणसुत्त में विवरण मिलता है कि बुद्ध निर्वाण के पश्चात् अजातशत्रु ने बुद्ध के अवशेषों को लेकर राजगृह में एक स्तूप बनवाया। द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के भरहुत लेख से ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध एवं अजातशत्रु की भेंट हुई थी, इस लेख में 'अजातशत्रु भगवतो वन्दते' उत्कीर्ण है।

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