गुप्त कालीन प्रान्तीय शासन | Gupt Kalin Prantiya Prashashan

गुप्त कालीन प्रान्तीय शासन 

गुप्त कालीन प्रान्तीय शासन | Gupt Kalin Prantiya Prashashan


शासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त किया गया था। गुप्तकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि उस काल में प्रान्त को 'भुक्तिकहा जाता था एवं राज्य को देशराष्ट्रपृथ्वीआदि। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य निम्न भुक्तियों में विभाजित था-


1. 
पुण्ड्रवर्धन भुक्ति इसमें उत्तरी बंगाल और पूर्णिया का कुछ भाग सम्मिलित थे। यहाँ कर्ण कायस्थ वंशीय उपरिक महाराज जयदत्त और ब्रह्मदत्त का जिक्र मिलता है।

2. 
वर्धमान भुक्ति (बंगाल का ही एक भाग) - यह महाराज विजयसेन के अधीन था।

3. 
तीर भुक्ति ( तिरहुत या उत्तरी बिहार ) यहाँ का राज्यपाल गोविन्द गुप्त था।

4. 
मालवा भुक्ति (मन्दसौरमध्य प्रदेश)।

5. 
कोशाम्बी भुक्ति (उत्तर प्रदेश ) ।

6. 
सौराष्ट्र भुक्ति (कठियावाड़) यहाँ का राज्यपाल पर्णदत्त था ।

7. 
मगध या श्रीनगर भुक्ति ।

8. 
नव्याव काशिक भुक्ति- यहाँ नागदेव राज्यपाल था।

  • भुक्ति का प्रधान प्रांतपतिउपरिक महाराजराष्ट्रीयभोगपतिगोप्ता आदि नाम से भी जाने जाते थे। ये सभी राज्यपाल केन्द्रीय शासन के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे। इनकी सहायता के लिए भी क्षेत्रीय मन्त्रिमण्डल था। दामोदरपुर ताम्रपत्र पर अंकित लेखों का अनुशीलन यह बतलाता है कि भुक्ति की कार्याविधि पाँच वर्षों की होती थी।


  • महादण्डनायकमहाप्रतिहाररणभांडागारिक आदि कर्मचारी भुक्ति शासन में सहायता प्रदान करते थे।

विषय या जिले

  • भुक्ति के अन्तर्गत कई विषय या जिले हुआ करते थे। इसका शासक विषयपति कहलाता था। वह तन्नियुक्तक भी कहलाता था। प्रांतपति ही इसकी नियुक्ति करता था। केन्द्रीय शासक से इसका कोई सम्बन्ध नहीं था। वह प्रमुख नगर में रहता था जो अधिष्ठान कहलाता था। उसके कार्यालय को अधिकरण कहते थे। 
  • वैशाली से प्राप्त मुहरों पर इससे काफी प्रकाश पड़ता है। विषयपति की सहायता के लिए भी एक स्थानीय समिति रहती थी जिसकी मदद से वह शासन चलाता था। 

  • विषय की क्षेत्रीय कार्यसमिति का उल्लेख दामोदरपुर ताम्रपत्र में किया गया है। इसके अनुसार इस समिति में निम्नलिखित चार सदस्य होते थे-नगर श्रेष्ठीसार्थवाह प्रथम कुलिक तथा प्रथम कायस्थ इनमें से नगर श्रेणी प्रमुख होता था। सार्थवाह व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करता था। प्रथम कुलिक प्रधान शिल्पी अथवा शिल्प संघ का प्रमुख था। प्रथम कायस्थ प्रधान लिपिक था। अभिलेखों में एक अन्य अधिकारी साधनिक का भी उल्लेख मिलता है जो संभवतः प्रशासकीय साधनों का उपाय करता था। विषयपति जिले के महत्तरों की भी नियुक्ति करता था। (प्रमुख व्यक्ति) जो शासकीय मामलों में उसकी सहायता करते थे। जिले की शान्ति व्यवस्थासुरक्षा एवं कर उगाही का कार्य जिलाधिकारियों पर ही था। इन कार्यों में वह युक्त आयुक्त नियुक्त दण्डपाशिकचौरोद्धरणिकदण्डनायकपुस्तपाल आदि की मद्द लेता था।

  • विषयपति के कार्यकारिणी की अवधि का ज्ञान दामोदरपुर ताम्र अभिलेख से मिलता है। राज्यपाल की तरह इनकी भी नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए होती थी। इस अभिलेख में (गु. स. 124 और 129) एक समान पदाधिकारियों का उल्लेख हैजिसके आधार पर इनके कार्यकाल की अवधि पाँच वर्ष की मानी गयी है। ये पदाधिकारी थे विषयपति कुमारामात्य वेत्रमर्वननगर श्रेष्ठी- धृतिपालसार्थवाह बंधुमित्रप्रथम कुलिक धृतिमित्रप्रथम कायस्थ शांबपाल तथा पुस्तपाल रिसिदत्तजयनन्दि एवं विभुदत्त ।

विषयपति की उपाधियाँ

  • विषयपति की विभिन्न उपाधियाँ थीं। निम्नलिखित उपाधियों का जिक्र अभिलेखों में किया गया है-कुमारामात्याधिकरणयुवराज पादीय कुमारामात्ययुवराज भट्टारक पादीय कुमारामात्य एवं परमभट्टारक पादीय कुमारामात्य ।
  • इनमें कुमारामात्य शब्द विवादास्पद है। इसका अर्थ कुछ विद्वान राजकुमार के सभासद से लगाते हैं। प्रयाग प्रशस्ति में हरिषेण को भी कुमारामात्य कहा गया है। संभवतः यह अमात्य राजकुमार के सदृश सम्मान प्राप्त करता था। 'युवराज पादीयशब्दों का भी अर्थ स्पष्ट नहीं है। यह अधिकारी संभवतः राजकुमार के कार्यालय से सम्बन्धित था। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त सम्राटों ने प्रांतीय शासन व्यवस्था पर काफी बल दिया। उनकी प्रांतीय व्यवस्था मौर्यो से अधिक सुदृढ़ थी।

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