गुप्त वंश का उदय Rising of Gupta's Dynasty in Hindi

गुप्त वंश का उदय Rising of Gupta's Dynasty in Hindi

गुप्त वंश का उदय Rising of Gupta's Dynasty in Hindi


 

गुप्त वंश के प्रारम्भिक इतिहास का बहुत कम ज्ञान है। पुराणों के अनुसार गुप्तों का उदय प्रयाग और साकेत के बीच सम्भवतः कौशाम्बी में लगभग तीसरी शताब्दी के अन्त में हुआ था। कहा जाता है कि इस राजवंश का संस्थापक श्रीगुप्त था।

 

श्रीगुप्त 

  • प्रभावती गुप्त के  पूना ताम्रपत्र अभिलेख में श्रीगुप्त को 'गुप्त वंश का आदिराजबताया गया है। 
  • ऋद्धापुर ताम्रपत्र अभिलेख में कहा गया है कि श्रीगुप्त धारण गोत्र का था।
  • डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार हम अस्थायी रूप से गुप्त वंश के श्रीगुप्त को ईत्सिंग द्वारा वर्णित महाराज श्रीगुप्त मान सकते हैं। ईत्सिंग का बताया हुआ मन्दिर मगध में नहीं बल्कि उत्तरी या केन्द्रीय बंगाल की पश्चिमी सीमाओं पर स्थित था। श्रीगुप्त के राज्य में बंगाल का कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। 
  • गुप्त आलेखों में 'महाराजकी उपाधि श्रीगुप्त और घटोत्कच दोनों के लिए प्रयोग की गई है। यह उपाधि आमतौर पर सामन्तों द्वारा प्रयोग की जाती थी। यह सुझाव दिया गया है कि प्रारम्भिक गुप्त राजा मुरुण्डों के अधीन शासक थेकिन्तु इसका कोई दृढ़ प्रमाण नहीं है।

 

घटोत्कच 

  • घटोत्कच को गुप्त आलेखों में श्रीगुप्त का पुत्र तथा उत्तराधिकारी बताया गया है। किन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त के दो अभिलेखों में घटोत्कच को प्रथम गुप्त राजा कहा गया है।
  • घटोत्कच किस प्रकार गुप्त वंश का संस्थापक समझा जाने लगायह बताना सम्भव नहीं है। किन्तु राजवंश के घटोत्कच को वैशाली से प्राप्त कुछ मुहरों में उल्लिखित घटोत्कच गुप्त समझना ठीक नहीं है। 
  • घटोत्कच गुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में उस प्रान्त का प्रमुख था जिसकी राजधानी वैशाली थी। यह उल्लेखनीय है कि उसे 'महाराजन कह कर केवल 'कुमारामात्यही कहा गया है।

 

चन्द्रगुप्त प्रथम

  • चन्द्रगुप्त प्रथम इस वंश का तीसरा राजा चन्द्रगुप्त प्रथम शक्तिशाली शासक हुआ। उसने 'महाराजाधिराजकी उपाधि धारण की। इससे स्पष्ट होता है कि वह अन्य दो राजाओं की तरह अधीनस्थ शासक न होकर एक स्वतंत्र शासक बन बैठा। इससे गुप्तों की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। इससे यह भी आभास मिलता है कि इस राजा ने अपने राज्य का भी विस्तार किया होगा। 


  • कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ने एक सम्वत् भी चलाया थाजो 20 दिसम्बर 318 ई. अथवा 26 फरवरी 320 ई. से प्रारम्भ होता है। किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि यह सम्वत् चन्द्रगुप्त प्रथम ने नहींअपितु समुद्रगुप्त ने चलाया था।

 

चन्द्रगुप्त का लिच्छवि राजकुमारी से विवाह 

  • चन्द्रगुप्त के जीवन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसका लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह करना था। इस वैवाहिक सम्बन्ध का प्रमाण चन्द्रगुप्त कुमारदेवी की मुद्राओं समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति तथा परोक्षता पुराणों से मिलती है। ये सिक्के किसी समय चन्द्रगुप्त के लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह की स्मृति में जारी किये गये थे। इन सिक्कों पर एक तरफ चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी का चित्र अंकित हैतो दूसरी ओर सुख एवं सम्पन्नता की देवी लक्ष्मी की मूर्ति विद्यमान है।


  • प्रयाग प्रशस्ति में भी समुद्रगुप्त को 'लिच्छवि दौहित्रकहा गया है। राजनीतिक दृष्टिकोण से गुप्त इतिहास में इस वैवाहिक सम्बन्ध का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस वैवाहिक सम्बन्ध के पश्चात् ही गुप्त वंश का वैभव बढ़ा था। 


  • डॉ. वी.ए. स्मिथ का मत है कि लिच्छवि-वंशी शासक पाटलिपुत्र में कुषाणों के सामन्त के रूप में राज्य करते थे और चन्द्रगुप्त ने उनसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपने पत्नी के सम्बन्धियों का यह अधिकार प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र का शासक बन गया। अल्तेकर महोदय के विचारानुसार इस विवाह के परिणामस्वरूप लिच्छवि और गुप्त राज्य संयुक्त हो गए थे। इससे लिच्छवियों को गुप्तों के बराबर प्रतिष्ठा मिली और उनकी राजकुमारी कुमारदेवी केवल चन्द्रगुप्त की रानी होने के कारण ही नहीं वरन् राज्याधिकारिणी शासिका होने के कारण 'महादेवीकहलायी। 


  • कुछ विद्वान इस मत को स्वीकार नहीं करते हैं कि कुमारदेवी राज्य की उत्तराधिकारिणी थी। प्रो. गोयल ने यह सुझाव दिया है कि कुमारदेवी लिच्छवि राज्य की उत्तराधिकारिणी नहीं थी। इसलिए वह संयुक्त राज्य की सहशासिका भी नहीं थी। लिच्छवि राज्य का विधि सम्मत अधिकारी उसका पुत्र समुद्रगुप्त था। लेकिन यह अनायास माना जा सकता है कि कुमारीदेवी के पिता जो घटोत्कच का समकालीन थाकी मृत्यु 319 ई.पू. के आस-पास ही हुई होगी। उस समय समुद्रगुप्त के अल्पायु होने के कारण लिच्छवि राज्य का शासन भार कानूनन नहीं तो कम-से-कम व्यावहारिक रूप में चन्द्रगुप्त ने ही सम्भाला होगा। साम्राज्य विस्तार चन्द्रगुप्त प्रथम की विजयों का कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैपरन्तु विद्वानों ने पौराणिक एवं अन्य साक्ष्यों के आधार पर उसके राज्य की सीमा निश्चित करने का प्रयास किया है।


  • इतिहासकार स्मिथ के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम का अधिकार तिरहुत दक्षिण बिहारअवध तथा इसके सभी पर्वतीय प्रदेशों पर था। वायुपुराण से पता चलता है कि गुप्त के वंशज अनुगंगाप्रयागसाकेत तथा मगध पर राज्य करेंगे। इस उक्ति से इन जगहों पर चन्द्रगुप्त के अधिकार का आभास मिलता है। कुछ विद्वानों के अनुसार वैशाली पर भी चन्द्रगुप्त का अधिकार थापरन्तु इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। कुछ विद्वानों का मत है कि चन्द्रगुप्त ने शकों अथवा कुषाणों को हराया और मगध को उनके चंगुल से मुक्त किया किन्तु अन्य लेखक इस मत को स्वीकार नहीं करते। कुछ का कहना है कि पाटलिपुत्र चन्द्रगुप्त का पैतृक राज्य था तथा चन्द्रगुप्त व कुमारदेवी के विवाह से गुप्तों और लिच्छवियों के राज्य एक हो गये।

 

  • आर. डी. बनर्जी का भी कहना है कि चन्द्रगुप्त ने उत्तर भारत में कुषाणों के विरुद्ध स्वतंत्र संग्राम का नेतृत्व किया था। काशी प्रसाद जायसवाल ने कौमुदीमहोत्सव नाटक के आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि चन्द्रगुप्त ने मगध नरेश सुन्दरवर्मा की हत्या कर मगध पर अधिकार कर लिया था। आर. जी. वसाक और एस. के. आयंगर जैसे विद्वान तो उसे महरौली अभिलेख का शासक 'चन्द्रभी प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन इसके लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है। 


  • प्रमाणों के आधार पर यह पता चलता है कि अपने जीवन के अंतिम समय में चन्द्रगुप्त ने समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 


  • प्रयाग प्रशस्ति में हरिषेण कहता है कि चन्द्रगुप्त नेजिसके रोम प्रसन्नता से खड़े हुए थे और नेत्रों में हर्ष के अश्रु थेसमुद्रगुप्त को 'तुम सर्वश्रेष्ठ होकहकर गले लगा लिया और उससे समस्त पृथ्वी पर शासन करने का अनुरोध किया। चन्द्रगुप्त द्वारा समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी मनोनीत करने की बात की पुष्टि एरण अभिलेख एवं रिथपुर दान शासन से भी होती है। 


  • इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रगुप्त प्रथम ही गुप्तों का पहला महत्त्वपूर्ण शासक हुआ। उसके समय से ही गुप्तों का राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ने लगा और वे सम्पूर्ण भारत के स्वामी बन गये। समुद्रगुप्त के गया ताम्रलेख के अनुसार चन्द्रगुप्त की मृत्यु लगभग 328 ई. में हुई।


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