गुप्त कालीन इतिहास के साधन | Gupt Kalin Itihaas Ke Sadhan

 

गुप्त कालीन इतिहास के साधन | Gupt Kalin Itihaas Ke Sadhan

गुप्त कालीन इतिहास के साधन | Gupt Kalin Itihaas Ke Sadhan
 


प्रस्तावना (Introduction)

 

गुप्त वंश का शासन भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण काल है। राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टिकोण से यह भारतीय पुनरुत्थान का काल था। अतः इस काल की जानकारी के साधन भी पहले की अपेक्षा अधिक उपलब्ध हैं। गुप्तकालीन स्रोतों में साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों प्रकार की सामग्रियों की बाहुल्यता है।

 

गुप्त काल के इतिहास के साधन (Means of Gupta's History)

 

गुप्तकालीन इतिहास के साहित्यिक साधन

  • साहित्यिक साधनों के अन्तर्गत पुराण, काव्य, नाटक, स्मृति आदि हैं। यों तो सभी पुराणों से, जिनकी संख्या 18 है गुप्त राजाओं के विषय में जानकारी मिलती है, परन्तु गुप्त काल के लिए विशेष उल्लेखनीय पुराणों में विष्णुपुराण, वायुपुराण तथा ब्रह्मांडपुराण महत्त्वपूर्ण हैं। इनके द्वारा गुप्तों के प्रारम्भिक इतिहास एवं उनकी आदि-राज्य-सीमा के बारे में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरणस्वरूप पुराणों में वर्णित है कि चन्द्रगुप्त प्रथम का शासन प्रयाग, साकेत एवं मगध के ऊपर था। पुराणों में समुद्रगुप्त के समकालीन नागों, वाकाटकों एवं शकों के सम्बन्ध में भी जानकारी मिलती है।

 

  • पुराणों के अतिरिक्त धर्मशास्त्र एवं नीतिशास्त्र की पुस्तकों से भी गुप्तकालीन विषयों की जानकारी प्राप्त होती है। गुप्तकाल में अनेक स्मृति ग्रन्थ लिखे गये। इन स्मृतिकारों ने प्राक् गुप्तकालीन अवस्था को ध्यान में रखते हुए नये नियमों एवं विधानों का प्रावधान किया, जिसने प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को फिर से अच्छी तरह स्थापित करने में मदद पहुँचायी। बृहस्पति, नारद आदि की स्मृतियाँ सम्भवतः इसी काल की हैं। 


  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में 'कामन्दकीय' नीतिशास्त्र की रचना हुई। इस ग्रन्थ का उद्देश्य एवं विषय वस्तु बहुत कुछ कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मिलता-जुलता है। इसमें राजा को सुचारू रूप से शासन चलाने की सीख गयी है। इससे गुप्तकालीन प्रशासन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

 

गुप्तकालीन काव्य-नाटक

  • साहित्य से भी गुप्तकालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति की अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। इस श्रेणी में हम विशाखदत्त विरचित देवीचन्द्रगुप्तम्, मुद्राराक्षस, मंजूश्रीमूलकल्प, वात्स्यायन का कामसूत्र, वसुबन्ध का जीवन वृतान्त कौमुदीमहोत्सव, शूद्रक की मृच्छकटिकम एवं कालिदास की रचनाओं इत्यादि को रख सकते हैं। 


  • विशाखदत्त ने देवीचन्द्रगुप्तम् एवं मुद्राराक्षस नामक ऐतिहासिक नाटकों की रचना की। देवीचन्द्रगुप्तम् में चन्द्रगुप्त द्वितीय एवं शकों के साथ सम्बन्धों की समीक्षा की गयी है। मुद्राराक्षस में कूटनीति का अच्छा वर्णन है।


  • कौमुदीमहोत्सव की लेखिका किशोरिका नामक एक विदुषी थी। इस नाटक में मगध के शासक सुन्दरवर्मन एवं चन्द्रसेन (चन्द्रगुप्त प्रथम) के सम्बन्धों की चर्चा की गयी है। इस नाटक से गुप्तों की उत्पत्ति एवं उनके उत्कर्ष पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। 


  • मंजुश्रीमूलकल्प से राजनीतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। शूद्रक की मृच्छकटिक तत्कालीन सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रकाश डालती है। कामसूत्र से नागरिक जीवन की जानकारी मिलती है। 


  • कालिदास की रचनाएँ तो गुप्त काल के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि इससे राजनीतिक इतिहास की जानकारी कम ही मिलती है, फिर भी सांस्कृतिक अध्ययन के लिए इनका विशेष महत्त्व है। कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' के नौ रत्नों में से एक थे। अपनी रचनाओं में उन्होंने तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का सजीव वर्णन किया है। उनके नाटकों में प्रमुख ऋतुसंहार, रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र एवं अभिज्ञान शाकुन्तलम् हैं। उपरोक्त वर्णित साहित्यिक ग्रन्थों से गुप्तकालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति की अच्छी जानकारी मिलती है।

 

गुप्तकालीन इतिहास के संबंध में विदेशी यात्रियों के वृतान्त 


  • गुप्तकालीन इतिहास की संरचना में विदेशी यात्रियों के वृतान्त भी बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं। इनमें प्रसिद्ध चीनी पर्यटक फाहियान का विवरण बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसने पश्चिम में पुष्कलावती से लेकर पूर्व में ताम्रलिप्ति तक विभिन्न ऐतिहासिक केन्द्रों में रुककर स्थानीय प्रथाओं, धार्मिक विश्वास, जलवायु एवं वनस्पतियों का सुन्दर वर्णन किया है।


  • ह्वेनसांग, हर्ष के समय सातवीं सदी में भारत आया था। उसने भी गुप्तकाल के बारे में प्रसंगवश कहीं-कहीं उल्लेख किया है। उसके अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय का संस्थापक कुमारगुप्त था। उसने बुद्धगुप्त, तथा बालादित्य तथा वज्र आदि गुप्त नरेशों का भी उल्लेख किया है। 


  • एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग जलमार्ग के द्वारा श्रीविजय होता हुआ ताम्रलिप्ति पहुँचा। उसने भी नालन्दा विश्वविद्यालय का वर्णन किया है। अल्बेरूनी का यात्रा वृतान्त 'तहकीके हिन्द' बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसके अनुसार हिन्दू कुशल दार्शनिक, ज्योतिष एवं खगोलशास्त्र के मर्मज्ञ एवं महान् गणितज्ञ थे। उसने काशी को हिन्दुओं का मक्का कहा है। 


गुप्तकालीन इतिहास के स्त्रोत पुरातात्विक साधन

इसके अन्तर्गत अभिलेख, सिक्के, स्मारक मुहर आदि आते हैं। अभिलेखों के अन्तर्गत स्तम्भलेख, शिलालेख तथा ताम्रलेख आते हैं।

 

  • अभिलेख पुरातात्विक साधनों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान अभिलेखों का है। गुप्त कालीन अभिलेख शिला स्तम्भ एवं ताम्रपत्रों पर खुदे हुए हैं।
  • मुहरों (Seals) एवं मुद्राओं पर उत्कीर्ण अभिलेख भी हमारी सहायता करते हैं। इन अभिलेखों से गुप्त शासकों की वंशावली, उनके कृत्यों, उनकी दानशीलता एवं राजनीतिक निपुणता का पता चलता है। 
  • सरकारी अधिकारियों एवं प्रशासनिक व्यवस्था की भी जानकारी अभिलेखों से मिलती है।
  • गुप्तकालीन अभिलेख सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था की भी जानकारी देते हैं। 


प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख 

  • गुप्त अभिलेखों में सबसे महत्त्वपूर्ण समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति है। यह लेख कौशाम्बी में स्थित मौर्य सम्राट अशोक के शिलास्तम्भ के निचले भाग में खुदा है। वर्तमान समय में वह स्तम्भ इलाहाबाद के किले में स्थित है। इस प्रशस्ति के लेखक हरिषेण थे। इसमें समुद्रगुप्त के जीवन की घटनाओं का वर्णन है। इसी अभिलेख से उसके 'दिग्विजय' की भी जानकारी प्राप्त होती है। इसी लेख में प्रथम गुप्त शासक श्रीगुप्त से लेकर समुद्रगुप्त तक के गुप्त राजाओं का भी नाम दिया गया है- श्री गुप्त प्रपौत्रस्य महाराज श्री घटोत्कच पौत्रस्य महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त पुत्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य कुमारदेव्यां उत्पन्नस्य महाराजाधिराजस्य श्री समुद्रगुप्तस्य।" इस अभिलेख से स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार श्री गुप्त से लेकर समुद्रगुप्त तक राजा की उपाधि बढ़ती गयी। इस अभिलेख से शासन व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है।

 

  • अन्य महत्त्वपूर्ण गुप्त कालीन अभिलेखों में समुद्रगुप्त की एरण प्रशस्ति नालन्दा एवं गया अभिलेख, रामगुप्त का पूर्वी मालवा का अभिलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख, मथुरा शिलालेख प्रथम कुमारगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख, मंदसौर शिला लेख स्कंदगुप्त का भितरी स्तम्भ लेख, इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। इन अभिलेखों से गुप्त-नरेशों की राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है।

 

  • गुप्त अभिलेखों के अतिरिक्त समसामयिक नरेशों की प्रशस्तियों, उत्तर- गुप्तवंशी अभिलेखों तथा सामंतों के अभिलेख भी गुप्त वंश के इतिहास की जानकारी के साधन हैं। ऐसे अभिलेखों में यशोधर्मन, तोरमाण एवं मिहिरकुल के अभिलेखों का नाम लिया जा सकता है। इनसे गुप्तों हूणों के सम्बन्ध की जानकारी मिलती है।

 

  • राजनीतिक इतिहास के अतिरिक्त अभिलेखों से प्रशासनिक व्यवस्था का भी ज्ञान प्राप्त होता है। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को लोकधामनोदेवस्य, अर्थात् पृथ्वी पर देवता कहा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस युग में भी राजा की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त लोकप्रिय था।

  • अभिलेखों से विभिन्न मंत्रियों, उनके विभागों, विभागाध्यक्षों, राजकीय पदाधिकारियों, करों के स्वरूप प्रशासकीय इकाइयों इत्यादि की भी जानकारी मिलती है। 
  • सामाजिक-आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था की जानकारी के लिए भी ये अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं। 'वर्ण व्यवस्था' की चर्चा इन अभिलेखों में की गयी है। 'द्विजों' के अतिरिक्त कायस्थों का भी उल्लेख हुआ है। 
  • 'आश्रम व्यवस्था' की भी जानकारी इनसे मिलती है। कृषि एवं व्यापार आर्थिक अवस्था के आधार स्तम्भ थे। 
  • 'श्रेणी' एवं 'निगमों' तथा भूमि-माप के आँकड़ों का जिक्र अभिलेखों में किया गया है। जमीन दान देने की चर्चा भी इनमें हुई है। 
  • शिव पूजा, विष्णु पूजा, अवतार की कल्पना, बौद्ध एवं जैन धर्म आदि के विषय में इन अभिलेखों से जानकारी मिलती है।

 

गुप्तकालीन इतिहास के स्त्रोत के रूप में मुहर


  • मुहर भी गुप्तकालीन इतिहास की जानकारी के साधन हैं। गुप्तकालीन मुहरों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि तत्कालीन मुहरें प्रायः मिट्टी की बनायी जाती थीं। सिर्फ कुमारगुप्त द्वितीय की भीतरी राजमुद्रा अपवाद है। वह चाँदी की बनी हुई है। 
  • गुप्तकालीन अधिकांश मुहरें संस्कृत में लिखी गयी थीं। अधिकांश मुहरें वैशाली एवं नालन्दा से प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ मुहरें धार्मिक हैं तो कुछ पदाधिकारियों के तो कुछ व्यक्तिगत वैशाली की मुहरों में ध्रुवस्वामिनी की मुहर काफी प्रसिद्ध है।
  • ध्रुवस्वामिनी (ध्रुवदेवी) चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी थीं। अधिकारियों की मुहरों में कुमारामात्यधिकरण शब्द का बार-बार प्रयोग किया गया है। 
  • मुहरों में अन्य पदाधिकारियों तथा रणभाण्डागारिक, महादण्ड नायक, विनतस्थितिस्थापक आदि उल्लेख हुआ है। 
  • धार्मिक मुहरों से ब्राह्मण धर्म के प्रभुत्व का आभास मिलता है। श्रेष्ठी, कुलिक एवं सार्थवाहक का भी वर्णन मुहरों में किया गया है। वैशाली से दान पात्र सम्बन्धी एक मुहर प्राप्त हुई है जिसे कुमारामात्य ने अंकित कराया था। 
  • नालन्दा से प्राप्त गुप्तका मुहरें राजकीय वंशावली की भी चर्चा करती हैं। प्रथम कुमारगुप्त के बाद सिंहासन सम्बन्धी विवाद का वर्णन भी इनमें मिलता है। साथ ही कुमारगुप्त द्वितीय की नालन्दा मुहर में श्रीगुप्त से लेकर कुमारगुप्त तक की वंशावली का उल्लेख है। 
  • नालन्दा मुहर की विशेषता यह है कि इस प्रमाण के आधार पर ही विष्णुगुप्त का गुप्त वंशावली में स्थान स्थिर हो सका है।

 

गुप्तकालीन इतिहास के स्त्रोत के रूप में सिक्के 

  • सिक्के गुप्तकालीन इतिहास की संरचना में सिक्के बड़े सहायक सिद्ध हुए हैं। गुप्त नरेशों के सिक्के सोने, चाँदी व ताम्र के बने हुए हैं तथा पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक विभिन्न स्थानों में मिले हैं। इससे उनके साम्राज्य विस्तार का पता चलता है।
  • कुछ सिक्कों में विशेष घटनाएँ उत्कीर्ण हैं। उदाहरणस्वरूप एक स्वर्णमुद्रा के एक भाग पर चन्द्रगुप्त प्रथम और उसकी पत्नी कुमारदेवी का चित्र तथा दूसरे भाग में 'लिच्छवयः' शब्द उत्कीर्ण है। इससे ज्ञात होता है कि इस काल में गुप्तों तथा लिच्छवियों में वैवाहिक सम्बन्ध कायम हुआ था। 
  • समुद्रगुप्त के एक सिक्के में अश्वमेध के घोड़े का चित्र अंकित है जो इस बात का प्रमाण है कि उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। 
  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के रजत सिक्के शक सिक्कों के आदर्श पर ढाले गए थे, जिससे यह पता चलता है कि उसने शकों को पराजित किया था और शकारि की विरुद धारण की थी। 
  • समुद्रगुप्त को एक सिक्के में वीणा बजाते हुए दिखाया गया है जिससे उसके संगीत प्रेमी होने का परिचय मिलता है। कुछ सिक्कों द्वारा गुप्त सम्राट व्याघ्र तथा सिंह का आखेट करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं। सिक्कों द्वारा गुप्त सम्राटों की शक्ति, समृद्धि तथा उनके विशाल साम्राज्य का परिचय मिल जाता है।

 

गुप्तकालीन इतिहास के स्त्रोत के रूप में स्मारक 

  • गुप्तकालीन स्मारकों में मन्दिर, स्तम्भ, मूर्तियाँ तथा गुफाएँ उल्लेखनीय हैं। 
  • गुप्तकालीन मन्दिरों में नागोद राज्य स्थित भूमरा का शिव मंदिर, जबलपुर के निकट तिगवा का विष्णु मंदिर, अजयगढ़ राज्य के नचनाकुठार का पार्वती मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर, भीतरगाँव का ईंट निर्मित मंदिर तथा लाड़खान मन्दिर उल्लेखनीय हैं। ये तत्कालीन वास्तुकला, उत्कीर्ण-भास्कर, धार्मिक विश्वास एवं प्रचलन के भव्य परिचायक हैं।
  • मंदिरों में शिखर निर्माण की परम्परा गुप्तकाल से प्रारम्भ होती है। देवगढ़ का दशावतार मंदिर इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
  • कुमारगुप्त द्वितीय कालीन मंदसौर के लेख (मालव संवत् 529 372-72 ई.) से ज्ञात होता है कि मालवा के दशपुर का सूर्यमंदिर अपने उत्तुंग शिखर के लिए प्रसिद्ध था। 
  • मौर्यकालीन स्तम्भों की भाँति गुप्तकालीन स्तम्भ भी प्राय: एक ही विशाल प्रस्तर खंड को तराश कर बनाए गए हैं। 
  • स्कन्दगुप्त कालीन भीतरी-स्तम्भ और बुद्ध-कालीन एरण का गरुड़-स्तम्भ इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। 
  • महरौली का लौह स्तम्भ सदियों की धूप वर्षा के बावजूद भी जंगमुक्त है। यह उस समय के उन्नत लौह-व्यवसाय का एक ज्वलन्त उदाहरण है। अनेक वैष्णव, शैव, जैन तथा बौद्ध प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, जो समकालीन तक्षण कला उज्ज्वल पक्ष पर प्रकाश डालती हैं। इनसे गुप्त सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता का पता चलता है। 
  • कुमारगुप्त द्वितीय कालीन सारनाथ की बौद्ध प्रतिमा के अधोभाग में एक लेख उत्कीर्ण है। जिसके अनुसार गुप्त संवत् 154 (423 ई.) में अभयमित्र नामक भिक्षु ने माता-पिता तथा गुरुओं के पुण्यार्जन के निमित्त इस मूर्ति की स्थापना की थी।

 

गुप्तकालीन गुहा मन्दिर (चैत्य-गृह) 

  • गुहा मन्दिर (चैत्य-गृह) प्रथम वर्गीय हैं। अत्यन्त निपुणता और धैर्य के साथ शिलाखण्ड तराश कर निर्मित ये गुफाएँ तत्कालीन तक्षण कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें कुछ ब्राह्मण गुहा और कुछ बौद्ध गुहा हैं। 
  • उदयगिरि की गुफा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कालीन है। इसकी भीतरी दीवार के ऊपर एक लेख मिलता है जिसके अनुसार इसका निर्माण उसके संधिविग्रहिक सचिव वीरसेन ने शिव के प्रति भक्ति के कारण किया था। यह गुफा विशाल चट्टान को काट कर निर्मित की गई थी। इसके भीतर एक देवालय है जो ब्राह्मण गुहा मन्दिर का प्राचीनतम उदाहरण है। 
  • बौद्ध गुफाओं के उदाहरण बाघ और अजन्ता नामक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। बाघ की गुफाएँ चट्टान खंड को काटकर बनाई गई हैं। वे मठ के रूप में हैं जिनमें बौद्ध भिक्षुक रहते थे। उनके पूजा के लिए स्तूप (चैत्य) भी उनमें बने हुए थे। इसकी भीतरी दीवारों पर चित्रकारी भी हुई है।
  • अजन्ता की गुफाएँ (संख्या 16. 17 एवं 19 ) गुप्तकालीन हैं। वे महायान सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं। यही कारण है कि इनमें गौतम बुद्ध एवं बोधिसत्व प्रतिमाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। प्रधानतः ये अपनी चित्रकला के लिए विख्यात हैं।

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फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण

फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक  दशा 

कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक ) 

 स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग ) 

पुरुगुप्त |  कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण

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