कुमारगुप्त के बारे में जानकारी | कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक ) | Kumar Gupt Ke Baare Me Jaankari

 कुमारगुप्त  के बारे में जानकारी 
 कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
कुमारगुप्त  के बारे में जानकारी | कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक ) | Kumar Gupt Ke Baare Me Jaankari



कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )

 

  • सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र कुमारगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। उसके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य की शक्ति स्थिर रही किन्तु अन्तिम वर्षों में पुष्यमित्र शुंग के वंशजों ने गुप्त साम्राज्य पर भीषण आक्रमण आरम्भ कर दिये।
  • कुमारगुप्त ने वृद्धावस्था एवं अस्वस्थता के कारण स्वयं आक्रमणकारियों का सामना नहीं किया। उसने इस कार्य का भार अपने सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त को सौंप दिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुमारगुप्त स्वयं आक्रमणकारियों का सामना करते हुए युद्ध भूमि में काम आया। 
  • उसके पश्चात् स्कन्दगुप्त ने शत्रुओं का दमन करने के लिए युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान किया। स्कन्दगुप्त के शत्रु बड़े विकरालसाधन सम्पन्न और अत्यधिक शक्तिशाली थे। उनका आवास नर्वदा तट पर नर्मदा से उद्गम के समीप था। स्कन्दगुप्त ने अतुलित पराक्रम का प्रदर्शन करके अन्त में अपने शत्रुओं को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की।

 

  • कुमारगुप्त के शासन काल के अनेक अभिलेख उपलब्ध हो चुके हैंइतने अभिलेख और किसी गुप्त शासक के नहीं मिलते। उनसे उनके राज्यकाल की घटनाओं पर अधिक प्रकाश नहीं पड़ताकिन्तु इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जो साम्राज्य उसे अपने पिता से मिला था उसे उसने अक्षुण्ण रखा। पश्चिमी भारत में दूर-दूर तक उसके सिक्के मिले हैंजिनसे उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है। 
  • कुमारगुप्त के सिक्कों से सिद्ध होता है कि अपने दादा समुद्रगुप्त की भाँति उसने भी अश्वमेध यज्ञ किया था। यह यज्ञ किन्हीं नयी विजयों के उपलक्ष्य में किया गया था अथवा अन्य किसी कारण से यह कहना कठिन है।
  • कुमारगुप्त ने सोने के अनेक नये प्रकार के सिक्के चलाये। एक सिक्के में एक ओर कार्तिकेय को मोर पर सवार दिखाया गया है और दूसरी ओर राजा मोर का अभिवादन कर रहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि वह कार्तिकेय का परम भक्त और उपासक था।
  • कुमारगुप्त की लगभग 445 या 446 ई. में मृत्यु हो गयी। 


कुमारगुप्त के सम्बन्ध में डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है 

  •  “ कुमारगुप्त के राज्य को प्रायः रुचिहीन और महत्वशून्य समझा जाता है। लेकिन उसके चरित्र और कार्यों का ठीक मूल्यांकन करते समय हमें उन महत्त्वपूर्ण विवरणों को उपयुक्त महत्ता देनी चाहिए जिन्हें आमतौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। इस समय के अनेक अभिलेखों में केवल एक सैनिक अभियान का उल्लेख है जो उसके राज्यकाल के अन्त में भेजा गया। इसके अतिरिक्त अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक उसकी अपनी देख-रेख में एक शान्तिमय और सुस्थिर प्रशासन का आभास होता है। इतने बड़े साम्राज्य को केवल एक सशक्त और उपकारी शासन ही इस प्रकार नियंत्रण में रख सकता था। उसकी मृत्यु के शीघ्र पश्चात् ही हूणों तथा अन्य शत्रुओं की पराजय से राजसेना की कुशलता का प्रमाण मिलता है। कुमारगुप्त के लिए यह श्रेय की बात थी कि लगभग 40 वर्ष तक शान्तिपूर्ण समय में भी राज-सेना को सुरक्षित रखा गया। यह असम्भव नहीं कि आधुनिक इतिहासज्ञ कुमारगुप्त के प्रशासन और व्यक्तित्व को कितना श्रेय प्रदान करते हैं उससे अधिक श्रेय उसे देना चाहिए। उसके राज्य को एक अन्धकारमयी पृष्ठभूमि समझा जाता हैजिसके सामने उसके उत्तराधिकारी और दो पूर्वाधिकारियों के राज्य चमकते दिखाई देते हैं। हमें ज्ञात है कि यह सम्भवतः उचित नहीं है और वास्तविक ऐतिहासिक तथ्य से संगत नहीं है।"

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