चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन | चन्द्रगुप्त की उपलब्धियों का मूल्यांकन | Chandra Gupt Vikram Aditya Ka Mulyankan

 चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन
चन्द्रगुप्त की उपलब्धियों का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन चन्द्रगुप्त की उपलब्धियों का मूल्यांकन | Chandra Gupt Vikram Aditya Ka Mulyankan


क्या चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेताकुशल शासककूटनीति-विशारदसाहित्य कला मर्मज्ञ एवं धर्म सहिष्णु सम्राट था? 


चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का मूल्यांकन 

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की गणना भारत के महान् शासकों में होती है। उसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन निम्नलिखित तथ्य बिन्दुओं में किया जा सकता है

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय महान विजेता 

  • चन्द्रगुप्त एक महान् विजेता था। अपने पिता समुद्रगुप्त की भाँति उसने भी दिग्विजय नीति का अनुसरण किया। उसने शकों को पराजित कर पश्चिम मालवा और गुजरात को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया। उसने वाह्नीकों या उत्तर कुषाणों को पराजित किया। उसे बंग विजय का भी श्रेय प्राप्त है। उसने गणराज्यों को भी गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसने अपनी महान् विजय के उपलक्ष्य में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। उसका साम्राज्य पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में कश्मीर की दक्षिण सीमा से लेकर दक्षिण-पश्चिम में गुजरात और कठियावाड़ तक विस्तृत था।


चन्द्रगुप्त द्वितीय एक कुशल शासक

  • शासक चन्द्रगुप्त एक कुशल शासक था। शासन कार्यों में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् थी। वीरसेन सधिग्रहिक मंत्री था। शिखर स्वामीआम्रकार्दवगोविन्दपुत्रसनकानिक महाराजमहाराज त्रिकमल आदि उच्च पदाधिकारी और सामन्त थे। प्रान्तीय अधिकारी को उपरिक कहा जाता था। प्रान्त कई जिलों में बंटा था। जिले को  विषय कहा जाता था। नगर और ग्राम शासन का उत्तम प्रबन्ध था। चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था पर्याप्त रूप में अभिनव भी थी। साम्राज्य की नयी पद्धति पर संगठन अमात्य मंडल का संगठन, नवीन कर्मचारियों की नियुक्ति, सुरक्षा तथा शान्ति व्यवस्था के उपाय आदि उसकी मौलिक प्रतिभा के परिचायक हैं।

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य- कूटनीतिज्ञ

  • चन्द्रगुप्त कूटनीति में निपुण था। उसने अपनी कूटनीति का परिचय कई अवसरों पर दिया। ज्ञात है कि नारी का वेश धारण कर उसने शकपति की हत्या की थी और पागल बनने का स्वांग रचकर अपने भाई रामगुप्त की हत्या कर राजसिंहासन प्राप्त किया था। उसकी वैवाहिक नीति भी उसकी कूटनीति का परिचायक है। नागवंशीय राजकुमारी कुबेरनागा के साथ अपना अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का वाकाटक- नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ तथा अपने पुत्र कुमारगुप्त का कदम्बवंशीय राजकुमारी के साथ विवाह कर उसने अपनी स्थिति दृढ़ कर ली थी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि वह राजनीति का प्रकांड विद्वान् था और परिस्थित्यनुकूल काम करता था।

 

 चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य साहित्य कला का पोषक

  • चन्द्रगुप्त द्वितीय साहित्य कला का पोषक था। वह स्वयं विद्यानुरागी था। महाकवि कालिदास ने लिखा है, "स्वभाव से परस्पर विरोधी स्थानों में रहने वाली लक्ष्मी और सरस्वती ने इस नरेश में अपना संयुक्त निवास स्थान बना लिया है।" काव्यमीमांसा के रचयिता राजशेखर ने कहा है कि सम्राट ने अपने अन्तःपुर में एकमात्र संस्कृत भाषा के प्रयोग की आज्ञा दे रखी है। सुबंधु ने भी अपने वासवदत्ता नामक ग्रन्थ में विक्रमादित्य के काव्य प्रेम की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसके निधन से काव्य का ह्रास हो गया। वह कवियों और कलाकारों का संरक्षक था। उसके दरबार में नवरत्न धन्वन्तरि क्षपणक, उदयसिंह, शंकु, बेतालभट्ट, घटकर्पर, कालिदास, वराहमिहिर तथा वररुचि रहते थे। इनमें कालिदास का नाम अग्रगण्य हैं जिन्होंने रघुवंश, मेघदूत, कुमारसंभव, ऋतुसंहार, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि की रचना की, जो आज भी संस्कृत साहित्य की अक्षय निधि हैं। विक्रमादित्य का संधिविग्रहिक मंत्री वीरसेन एक उच्च कोटि का व्याकरणाचार्य, नैयायिक, राजनीतिज्ञ तथा कवि था। राजशेखर की काव्यमीमांसा से प्रतीत होता है कि उज्जयिनी और पाटलिपुत्र में विशेषज्ञ परिषदें थीं जो काव्यकारों की परीक्षा लिया करती थीं।

चन्द्रगुप्त कला का मर्मज्ञ

  • चन्द्रगुप्त कला का मर्मज्ञ भी था। मुद्रा निर्माण कला में उसने नवयुग का प्रवर्तन किया। उसके द्वारा निर्मित स्वर्ण, रजत तथा ताम्र सभी प्रकार की मुद्राओं में उच्च कोटि की कलात्मकता दृष्टिगोचर होती है। उसकी सिंहनिहन्ता, अश्वारोही, ध्वजधारी, चक्रविक्रम एवं पर्यक स्थित राजा रानी मुद्राएँ मौलिक तथा नूतन हैं और उसके चरित्र की विभिन्न विशेषताओं पर प्रकाश डालती हैं। उसकी सिंहनिहन्ता मुद्राएँ और उसके शौर्य, वीरत्व तथा साहस की परिचायक हैं। पाटलिपुत्र और उज्जयिनी में जो अनुपम प्रासाद निर्मित थे, उनसे भी उसके कला-प्रेम का परिचय मिलता है। पाटलिपुत्र के राजप्रासाद की कलात्मक बनावट देखकर फाहियान ने इसे देव निर्मित बतलाया था। कथासरितसागर के अनुसार उज्जयिनी नगर पृथ्वी का भूषण था। कालिदास ने भी इसे स्वर्ण का एक कान्तियुक्त खंड कहा था।

 चन्द्रगुप्त द्वितीय-धर्म-सहिष्णु

  • चन्द्रगुप्त द्वितीय धार्मिक मामलों में बड़ा उदार और सहिष्णु था। वह स्वयं वैष्णव था, किन्तु उसके साम्राज्य के अन्य धर्मावलम्बियों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। सांची शिलालेख से ज्ञात होता है कि बौद्ध धर्मावलम्बी आम्रकार्दव उसका सेनापति था। इसी प्रकार उसका संधिविग्रहिक मंत्री वीरसेन शैव था। बौद्ध विहारों और जैन मंदिरों की स्थिति संतोषजनक थी विभिन्न सम्प्रदायों में सद्भाव और सहानुभूति की भावना थी। लोग मिल जुलकर रहते थे। सांप्रदायिक दंगों और कटुता के लिए कोई स्थान नहीं था।

 

इस प्रकार, उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता, कुशल शासक, कूटनीति-विशारद, साहित्य कला मर्मज्ञ एवं धर्म सहिष्णु सम्राट था। उसका राज्य काल अपनी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण गुप्तवंशीय इतिहास के स्वर्णिम परिच्छेद का प्रतिनिधित्व करता है। अरविन्द के शब्दों में, “ भारत ने अपने सर्वांगीण जीवन का प्रस्फुटन इस तरह कभी नहीं देखा है। " इसी तरह स्मिथ ने कहा है, "भारत प्राच्य विधि से इस तरह कभी शासित नहीं था जिस तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय के अधीन यह शासित था। "


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