मुगल-मराठा संबंध: एक विश्लेषण |मुगल-मराठा संबंधों को चार चरण | Mugal Maratha Relation in Hindi

मुगल-मराठा संबंध: एक विश्लेषण 

मुगल-मराठा संबंध: एक विश्लेषण |मुगल-मराठा संबंधों को चार चरण | Mugal Maratha Relation in Hindi


मुगल-मराठा संबंध: एक विश्लेषण

मुगल-मराठा संबंधों को चार चरणों में विभक्त किया जा सकता है: 

  1. 1615-1664 ई.
  2. 1664-1667 ई.
  3. 1667-1680 ई.और 
  4. 1680-1707 ई.।

 

 

मुगल-मराठा संबंध प्रथम चरण 1615-1664 ई.

 

  • जहांगीर के समय से ही मुगलों ने दक्खन की राजनीति में मराठा सरदारों के महत्व को समझ लिया था। 1615 ई. में जहांगीर कुछ मराठा सरदारों को अपनी ओर मिलाने में सफल रहा था। इसके परिणामस्वरूप मुगल संयुक्त दक्खनी सेना को हरा सके (1616 ई.)। 

  • शाहजहां ने भी 1629 ई. में ही मराठा सरदारों को अपनी ओर मिलाने की कोशिश की थी। शिवाजी के पिता शाहजी इस समय मुगलों से मिल गये परंतु बाद में उनसे अलग हो गये। उन्होंने मुरारी पंडित और बीजापुर दरबार के मुगल-विरोधी पक्ष के साथ मिलकर मुगलों के खिलाफ षड्यंत्र रचा।


  • मराठों की ओर से आने वाली गंभीर चुनौती को देखते हुए शाहजहां ने मराठों के खिलाफ मुगल-बीजापुर संधि का विकल्प चुना। उसने वीजापुर के शासक को शाहजी की सेवा लेने से मना नहीं कियापरंतु उसे कर्नाटक में मुगल क्षेत्र से दूर रखने की मांग की (1636 ई. की संधि)। यहां तक कि औरंगजेब ने भी यही नीति अपनाई। 

  • उत्तराधिकार के युद्ध के समय उत्तर की ओर कूच करने से पहले उसने अपने निशान में आदिल शाह को ऐसा ही करने की सलाह दी। लेकिन शिवाजी के खिलाफ बीजापुर-मुगल संधि औरंगजेब के लिए एक दुखद स्वप्न साबित हुआ जब 1636 ई. में शाहजहां ने ऐसी संधि की थी तो उसके पास बदले में उसे देने के लिए दो-तिहाई हिस्सा निजाम शाही क्षेत्र थापरंतु औरंगजेब के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। सतीश चन्द्र के अनुसार 1687 ई. में औरंगजेब द्वारा बीजापुर हासिल करने के पूर्व तक अंतर्विरोध की यही स्थिति बनी रही।

 

  • 1657 ई. में औरंगजेब ने शिवाजी के साथ संधि करने की कोशिश कीपरंतु उसे सफलता नहीं मिली क्योंकि बदले में शिवाजी दाभोल और आदिल शाही कोंकण चाहता थाजो एक उपजाऊ और समुद्र क्षेत्र होने के साथ-साथ विदेशी व्यापार की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। जल्द ही शिवाजी बीजापुर के पक्ष में चले गये और मुगल दक्खन (अहमदनगर और जुन्नार सब डिवीजन) पर धावा बोल दिया।


  • उत्तराधिकार के युद्ध और औरंगजेब के दक्खन से चले जाने के कारण शिवाजी को रोकने वाला कोई नहीं था। जल्द ही उसने कल्याण और भिवण्डी (अक्तूबर 1657 ई.) और माहूली (जनवरी 1658 ई.) पर कब्जा जमा लिया। इस प्रकार शिवाजी ने कोलाबा जिले के समस्त पूर्वी भाग पर आधिपत्य स्थापित कर लिया जो जंजीरा के हन्शियों (सिद्दियों) के अधीन था।

 

  • औरंगजेन के उत्तर भारत की तरफ कूच कर जाने के बाद बीजापुर ने मराठों की ओर ध्यान दिया। आदिल शाही शासक ने अब्दुल्ला भटारी अफजल खां को इसका भार सौंपा परंतु शिवाजी के सामने अफजल खां की सेना टिक न सकी। इस स्थिति में कूटनीति और समझ-बूझ का ही सहारा लिया जा सकता था। समझौते के लिए दोनों के बीच मेल-मिलाप का आयोजन किया गया परंतु शिवाजी ने उसकी हत्या कर दी (10 नवंबर, 1659 ई.)। अफजल खां की हत्या के बाद मराठों के लिए बीजापुर की सेना को हराने में जरा भी समय नहीं लगा। जल्द ही पनहाला और दक्षिण कोंकण पर मराठों का आधिपत्य हो गया। परंतु मराठा पनहाला पर ज्यादा समय तक आधिपत्य नहीं रख सके और यह पुनः बीजापुर के अधिकार में चला गया (2 मार्च, 1660 ई.) ।

 

  • इस स्थिति में औरंगजेब ने युवराज मुअज्जम के स्थान पर शाइस्ता खां को दक्खन का वायसराय नियुक्त किया (जुलाई, 1659 ई.) । शाइस्ता खां ने चाकन (15 अगस्त, 1660 ई.) और उत्तरी कोंकण (1661 ई.) पर अधिकार कर लिया। 1662-63 ई. तक उसने मराठों पर काफी दबाव डाला परंतु उनसे दक्षिण कोंकण (रत्नगिरि) हासिल करने में असफल रहा। 


  • 5 अप्रैल, 1663 ई. को पूना में आधी रात को मुगल खेमे पर शिवाजी ने अचानक हमला बोल दिया और मुगल वायसराय को बुरी तरह घायल कर दिया। इससे मुगल प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। इसके बाद मराठों ने सूरत पर आक्रमण किया और उसे खूब लूटा (सूरत की प्रथम लूट 6-10 जनवरी, 1664 ई.) ।

 

मुगल-मराठा संबंध द्वितीय चरण: 1664-1667 ई.

 

  • शिवाजी की बढ़ती शक्तिअफजल खां की हत्यापनहाला और कोंकण पर शिवाजी का कब्जाशिवाजी को संभालने में बीजापुर की सेना की असमर्थता और अंततः शाइस्ता खां की असफलता (1600-1664 ई.) ने मुगलों को स्थिति पर पुनः विचार करने के लिए मजबूर किया। 
  • इसके बाद औरंगजेब ने मिर्जा राजा जय सिंह को दक्खन का नया वायसराय नियुक्त किया। सावधानी से आगे बढ़ने की मुगल नीति से अलग हटकर जय सिंह ने दक्खन पर पूरा नियंत्रण स्थापित करने की बृहद् योजना बनाई। इस बृहद् योजना के तहत सबसे पहले शिवाजी को कुछ रियायतें देकर और उसके साथ संधि करके बीजापुर को धमकाया जाना था और शिवाजी की जागीर को मुगल दक्खन से दूर अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण इलाके में स्थानांतरित करना था। जय सिंह का विचार था कि एक बार बीजापुर के पतन के बाद शिवाजी को दबाना बहुत मुश्किल कार्य नहीं होगा।

 

  • दक्खन में मुगल वायसराय का पदभार संभालने के साथ हो उसने शिवाजी पर लगातार दबाव डालना शुरू किया। उसने पुरन्दर (1665 ई.) में शिवाजी को पराजित कर दिया। इसके बाद जय सिंह ने मुगल-मराठा संधि की बात चलाई। 

  • पुरन्दर की संधि (1665 ई.) के तहत शिवाजी ने 35 में से 23 किले समर्पित कर दिए। ये किले निजाम शाही राज्यक्षेत्र में पड़ते थे और इनकी वार्षिक आमदनी 4 लाख हून थी। इसके अतिरिक्त उसे 1 लाख हून प्रति वर्ष आमदनी वाले रायगढ़ सहित 12 अन्य किले भी समर्पित करने पड़े। इस घाटे की भरपाई बीजापुरी तालकोंकण और बालाघाट से की जानी थी। इसके अतिरिक्त शिवाजी के पुत्र को मुगल सेना में 5000 ज़ात का ओहदा प्रदान किया गया। यह जय सिंह की योजना के बिल्कुल अनुकूल था क्योंकि वह शिवाजी को मुगल सीमा से सटे महत्वपूर्ण इलाकों से हटाना चाहता था। इसी के साथ-साथ इससे शिवाजी और बीजापुर के शासकों के बीच संघर्ष के बीज भी बो गये क्योंकि शिवाजी को तालकोंकण और बालघाट के लिए बीजापुर से सीधे भिड़ना पड़ता।

 

  • हालांकि औरंगजेब इस प्रकार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से थोड़ा हिचक रहा था। उसके लिए बीजापुर और मराठा दो अलग-अलग समस्याएं थीं और वह प्रत्येक के साथ अलग से निपटना चाहता था। औरंगजेब सैद्धांतिक तौर पर बीजापुर पर आक्रमण करने के लिए तो सहमत हो गया परन्तु उसने इसके लिए मुगल फौज को अतिरिक्त सहायता देने से इंकार कर दिया। इसके अलावा उसने शिवाजी को केवल बीजापुरी बालाघाट देने की बात सामने रखी उसकी प्राप्ति भी बीजापुर अभियान की सफलता पर निर्भर थी। अतः इस स्थिति में जबकि बीजापुर और गोलकुंडा ने संधि कर ली थी और औरंगजेब किसी भी प्रकार की अतिरिक्त सहायता के लिए तैयार न था तथा दक्खन में मुगल खेमे में दिलेर खां के नेतृत्व में शिवाजी विरोधी तत्वों की उपस्थिति के कारण जय सिंह के लिए सफलता की उम्मीद करना असंभव था।

 

  • बीजापुर-गोलकुंडा संधि (1666 ई.) को देखते हुए और मराठों का विश्वास जीतने के लिए उसने शिवाजी को औरंगजेब के पास आगरा जाने का निमंत्रण दिया। परन्तु मुगल दरबार में शिवाजी के तथाकथित अपमान (उसे 5000 ज़ात के ओहदे वाले अधिकारियों के समकक्ष रखा गया और उसका स्वागत एक निचले दर्जे के अधिकारी ने किया) के कारण शिवाजी का मुगल दरबार में भड़क उठने के फलस्वरूप उन्हें आगरा में बंदी बना लिया गया।

 

  • औरंगजेब की अनिच्छा और आगरा में शिवाजी की कैद ने जय सिंह की योजना को गहरा धक्का पहुंचाया। इस स्थिति में जय सिंह ने सम्राट से आग्रह किया कि दक्खन में मुगल सरदारों के आपसी मतभेद को मिटाने के लिए वे खुद दक्खन आएं। परंतु उत्तर-पश्चिमफारस तथा यूसुफजइयों के विद्रोहों में उलझे रहने के कारण औरंगजेब इस सुझाव को कार्यात्मक परिणति न प्रदान कर सका। 


  • अंततः आगरा के जेलखाने से शिवाजी के पलायन (1666 ई.) ने जय सिंह की रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। जय सिंह को काबुल जाने का आदेश मिला और उसके स्थान पर युवराज मुअज्जम को दक्खन का मुगल वायसराय (मई, 1667 ई.) नियुक्त किया गया।

 

  • जय सिंह की योजना की असफलता दुर्भाग्यपूर्ण थी क्योंकि मुगल शिवाजी को समाप्त करने के लिए न तो बीजापुर को सहायता ले सकने में सफल हुए (1672-76 ई.) और न ही मराठों की सहायता से दक्खनी राज्यों पर ही कब्जा जमा सके (1676-79 ई.) ।

 

 

मुगल-मराठा संबंध तृतीय चरण: 1667-1680 ई.

 

  • आगरा से भागने के पश्चात् शिवाजी तुरंत मुगलों से मुठभेड़ करने के पक्ष में नहीं थे। इसके विपरीत वह उनसे मैत्रीपूर्ण संबंध (अप्रैल और नवम्बर, 1667 ई.) रखना चाहते थे।
  • युवराज मुअज्जम ने खुशी-खुशी शिवाजी के पुत्र शम्भानी को 5000 ज़ात का मनसब और बरार में जागीर दे दी (अगस्त, 1668 ई.)। औरंगजेब शिवाजी के साथ अपने बेटे की दोस्ती से सतर्क हो गया और उसे इसमें विद्रोह की गंध आने लगी। 
  • औरंगजेब ने औरंगाबाद स्थित मराठा प्रतिनिधियों प्रताप राव और नीराजी पंत को बंदी बनाने का आदेश दिया। इसी समय मुगलों ने शिवाजी को आगरा यात्रा के लिए दिए गये 2 लाख रुपये वसूलने के लिए बरार स्थित शिवाजी की जागीर पर हमला बोल दिया। इन घटनाओं से शिवाजी सतर्क हो गये और उसने अपने प्रतिनिधियों नीराजी पंत और प्रताप राव को औरंगाबाद छोड़ देने का हुक्म दिया। 
  • शिवाजी ने पुरन्दर की संधि (1665 ई.) के तहत मुगलों को दिए गये कई किलों पर आक्रमण किया। उसने 1670 ई. में कान्डनापुरन्दरमाहुली और नानदेर पर कब्जा जमा लिया। इसी समय युवराज मुअज्जम और दिलेर खां के बीच संघर्ष आरंभ हो गया।
  • दिलेर खां ने युवराज पर शिवाजी से मिले होने का आरोप लगाया। आंतरिक कलह से मुगल सेना कमजोर हो गयी। औरंगजेब ने युवराज मुअज्जम के विश्वस्त आदमी जसवंत सिंह को वापस बुलाकर उसे बुरहानपुर भेज दिया। इस स्थिति का फायदा उठाकर शिवाजी ने दूसरी बार (30 अक्तूबर, 1670 ई.) सूरत को लूटा। इसके बाद मराठों को बरार और बगलाना में सफलता मिली (1670-71 ई.)। बगलाना में अहिवंतमारकंडरावल और जावल तथा कारिजऔसानंदुरबारसलहिरमुलहिरचौरागढ़ और हुलगढ़ के किले मराठों के कब्जे में आ गये।

 

  • मराठों की सफलता से मुगल सतर्क हो उठे। महाबत खां को दक्खन का सर्वेसर्वा बनाकर भेजा गया (नवंबर, 1670 ई.) । परन्तु उसे भी कोई खास सफलता नहीं मिलीपरिणामस्वरूप उसे और युवराज मुअज्जम को 1672 ई. में वहां से हटा लिया गया। इस बार दक्खन की बागडोर बहादुर खां को सौंपी गयी (1673 ई.)।

 

  • इस बीच मराठों का सफलता अभियान जारी रहा। उन्होंने कोइल (जून, 1672 ई.) पर अधिकार जमा लिया। परंतु खानदेश और बरार (दिसंबर, 1672 ई.) में मुगलों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया। 1673 ई. में बहादुर खां ने शिवनेर पर कब्जा जमा लिया। परंतु मुगलों की ये सफलताएं शिवाजी का रास्ता न रोक पायीं। 


  • आदिल शाह की मृत्यु (24 नवंबर, 1672 ई.) के बाद बीजापुर में फैली अव्यवस्था का उसने पूरा फायदा उठाया। उसका बेटा बहुत छोटा था (चार वर्ष का) और स्थायित्व कायम करना उसके वश की बात नहीं थी। शिवाजी ने बीजापुर से पनहाला (6 मार्च, 1673 ई.०)पारली (1 अप्रैल, 1673 ई.) और सतारा (27 जुलाई, 1673 ई.) के किलों पर अधिकार कर लिया। बीजापुर दरबार में कई गुट थे। बहलोल खां के नेतृत्व वाले गुट ने बीजापुर के पतन की सारी जिम्मेदारी खवास खां के गुट पर डाल दी। 1674 ई. में बहलोल खां ने सफलतापूर्वक मराठों को कनारा से पीछे धकेल दिया।

 

  • इसी समय उत्तर-पश्चिम में होनेवाली गड़बड़ियों के कारण दक्खन से फौज वापस बुलानी पड़ी और बहादुर खां के पास एक कमजोर सेना रह गयी। शिवाजी ने इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाया। उसने 6 जून, 1674 ई. को अपने को राजा घोषित किया और इसके बाद तत्काल मई, 1674 ई. में बहादुर खां के खेमे को लूट लिया। 1675 ई. के आरंभ मे मुगल-मराठा शांति वार्ता असफल रही।

 

  • बहादुर खां ने शिवाजी के खिलाफ बीजापुर से संधि करनी चाही (अक्टूबर, 1675 ई.) परन्तु इसी समय खवास खां ने बहलोल खां को उखाड़ फेंका (11 नवंबर, 1675 ई.)। इस प्रकार बहादुर खां की योजना फलीभूत न हो सकी।

 

  • इसी बीच औरंगजेब ने बहादुर खां पर कड़े प्रतिबंध लगा दिये। दूसरी तरफ मराठों का सितारा दिन पर दिन बुलंद होता जा रहा था। दिलेर खां गोलकुंडा और शिवाजी के खिलाफ मुगल-बीजापुर गठबंधन करना चाहता था। परन्तु गोलकुंडा के वजीर मदन्ना और अकन्ना की कूटनीति (1677 ई.) के कारण उसे इसमें सफलता नहीं मिली। 
  • इसके बदले मदन्ना ने शिवाजी से संधि कर ली और मुगलों से सुरक्षा के बदले शिवाजी को 1 लाख हुन देने को राजी हो गया। उसने कोल्हापुर जिले सहित कृष्णा नदी के पूर्व में शिवाजी के आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। शिवाजी के कर्नाटक अभियान (1677-78 ई.) को गोलकुंडा का भी समर्थन प्राप्त हुआ।

 

  • परंतु बाद में गोलकुंडा शासक को जिंजी और अन्य क्षेत्र देने के अपने वादे से शिवाजी मुकर गये। अतः दोनों के बीच मतभेद पैदा हो गये और गोलकुंडा शासक ने शिवाजी को वार्षिक भुगतान देना बंद कर दिया। शिवाजी ने घूस का सहारा लेकर बीजापुर के किले पर कब्जा करना चाहा। शिवाजी के इस व्यवहार ने बीजापुर शासक को और भी नाराज कर दिया।

 

  • इसी समय मराठा दरबार में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर कुछ मतभेद पैदा हो गये। शिवाजी ने अपने छोटे बेटे राजाराम को देस और कोंकण प्रदान कियाजबकि बड़े लड़के शम्भाजी को नये क्षेत्र कर्नाटक का भार सौंपा। 


  • शिवाजी ने राजाराम की नाबालिग उम्र को देखते हुए ऐसा कदम उठया था क्योंकि नये हासिल किए गये क्षेत्र कर्नाटक को संभालना उसके वश की बात नहीं थी। परंतु शम्भाजी देस जैसे लाभप्रद इलाके को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। दिलेर खां (1678 ई.) ने इस स्थिति का फायदा उठाकर शम्भाजी की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और वचन दिया कि वह देस और कोंकण हासिल करने में उसकी मदद करेगा। शम्भाजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मुगलों द्वारा उसे 7000 ज्ञात का मनसब प्रदान किया गया (दिसम्बर, 1678 ई.)।

 

  • इसी समय (1678 ई.) गोलकुंडाबीजापुर और मुगलों के गठबंधन का विचार सामने आया ताकि मराठों की शक्ति को नष्ट किया जा सकेपरंतु सिद्दी मसूद (बीजापुर दरबार में दक्खनी दल का नेता) और शिवाजी की संधि ने इस योजना पर पानी फेर दिया। दिलेर खां बीजापुर पर कब्जा जमाने के लिए आगे बढ़ापरंतु ठीक समय पर मराठों के हस्तक्षेप से उसकी यह योजना भी असफल रही (अगस्त, 1679 ई.)।

 

  • अतः जय सिंह की वापसी (1666 ई.) से लेकर औरंगजेब द्वारा आक्रामक नीति अपनाए जाने तक (1680 ई.) इस तृतीय चरण में पूरी तरह अव्यवस्था और गड़बड़ी का माहौल बना रहा। मुगल किसी एक नीति पर टिक न सके और इसके बदले वे दिशाहीन और लक्ष्यहीन ढंग से काम करते रहे। न उन्हें मराठों को दोस्त बनाने में सफलता मिली नही दक्खनी राज्यों को ही वे अपने विश्वास में ले सके तथा न ही इन दक्खनी राज्यों और शिवाजी का दमन कर सके।

 

मुगल-मराठा संबंध चौथा चरण: 1680-1707 ई.

 

  • दक्खनी इतिहास की दृष्टि से 1680 ई. का वर्ष बहुत महत्वपूर्ण है। इसी वर्ष शिवाजी की मृत्यु हुई ( 23 मार्च) और इसी वर्ष औरंगजेब ने खुद दक्खनी मसले को हल करने का निश्चय किया। अब मुगलों ने पूर्ण आधिपत्य की आक्रामक नीति अपनाई।

 

  • आगे आने वाला समय मराठों के लिए सुगम नहीं था। शिवाजी के राज्य के बंटवारे को लेकर उसके बेटों में मतभेद पैदा हो गये और परिणामस्वरूप मराठा सरदारों को अपनी शक्ति दिखाने का मौका मिल गया। पश्चिमी प्रांत के सचिव और वायसराय अन्नाजी दात्तो तथा पेशवा मोरोपंत के बीच की आपसी ईर्ष्या से स्थिति और भी बिगड़ गयी। मराठा सरदारों ने शम्भाजी के स्थान पर राजाराम को राजा घोषित कर दिया। 


  • शम्भाजी ने तेजी से साथ कार्यवाई की और राजाराम तथा अन्नाजी दात्तो को कैद कर लिया (जुलाई, 1680 ई.)। अन्नाजी दात्तो ने विद्रोही मुगल युवराज अकबर की सहायता से एक बार फिर सफलता प्राप्त करने की कोशिश की। जैसे ही शम्भाजी को इस तथ्य का पता चला उसने दमनात्मक नीति का सहारा लेना शुरू कर दिया। शिवा शासन के वफादार व्यक्तियों को इस दमन का सामना करना पड़ा। इस दमन से घबराकर बहुत से शिर्के परिवार के सदस्यों ने मुगलों की शरण ली। इससे मराठा राज्य में पूर्ण अव्यवस्था और अराजकता फैल गयी। स्थिति को ठीक करने के बजाय शम्भाजी शराब और वैभव की गहरी खाई में गिरता चला गया। जल्द ही शिवाजी की सेना का अनुशासन समाप्त हो गया। पहले सेना के साथ स्त्रियों को ले जाना वर्जित था परंतु अब यह नियम टूट गया। इसका एक निश्चित प्रभाव पड़ा। इसके कारण अभी-अभी जन्मा मराठा राज्य कमजोर हो गया जिसमें शक्तिशाली मुगलों का सामना करने की शक्ति नहीं थी।

 

  • दूसरी तरफ दक्खन में अपने प्रवास के पहले चार वर्षों में औरंगजेब ने दक्खनी राज्यों की सहायता से मराठों को दबाने का काम किया जिन्होंने विद्रोही युवराज अकबर को शरण दे रखी थी। लगातार दबाव बनाए रखने के बावजूद 1680-84 ई. तक मुगलों को ज्यादा सफलता हासिल नहीं हो सकी। 1684 ई. में औरंगजेब ने यह महसूस किया कि उसे पहले गोलकुंडा और बीजापुर से निपटना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप मुगलों ने बीजापुर (1686 ई.) और गोलकुंडा (1687 ई.) पर कब्जा कर लिया। लेकिन इस निर्णय (ऐसी ही योजना जय सिंह ने 1665 ई. में मराठों के साथ मिलकर बनाई थी) में शायद देर हो चुकी थी। इस समय तक मराठा न केवल मजबूत हो गये थे बल्कि उन्होंने कर्नाटक में प्रतिरक्षा की दूसरी पंक्ति भी निर्मित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। अब वे भी एक छोटे-मोटे सरदार नहीं थे बल्कि अब यहां एक राजा था जो दक्खनी शासकों के समकक्ष था।

 

  • जब औरंगजेब बीजापुर और गोलकुंडा (1686-87 ई.) का मामला हल करने में व्यस्त था तब मराठा औरंगाबाद से लेकर बुरहानपुर तक के मुगल इलाके को रौंद रहे थे। परंतु इस समय बीजापुर और गोलकुंडा पर मुगल विजय से  मुगल सेना की शक्ति और स्रोत में अपार वृद्धि हुई थी। युवराज अकबर भी ईरान भाग गया था (1688 ई.)


  • शम्भाजी के व्यवहार से बहुत से मराठा सरदार नाराज होकर मुगलों से जा मिले थे। इन परिस्थितियों में मुगलों ने शम्भाजी को कैद कर (फरवरी, 1689 ई.) अंततः मृत्यु दंड ( 11 मार्च, 1689 ई.) दे दिया।

 

  • शम्भाजी की मृत्यु (1689 ई.) के बाद मराठा राजनीति में कई नये आयाम उभरे। बीजापुर और गोलकुंडा को हराने के बाद मुगलों को कई स्थानीय तत्वों जैसे नायकोंवेलमोंदेशमुखों आदि के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। मुगल प्रशासन व्यवस्था लागू किये जाने से दक्खन में कृषीय तनाव पैदा हुए। स्थानीय भूमिपति कुलीन वर्ग के स्थान पर नया वर्ग सामने आया-मुगल जागीरदार और राजस्व के ठेकेदार जागीरदार राजस्व वसूल न कर पाने की स्थिति में अपनी जागीर को एक मोटी आमदनी के रूप में भुगतान लेकर ठेकेदारों को राजस्व वसूल करने की छूट देने लगे। इससे जिन लोगों का भू-राजस्व एकत्रित करने का अधिकार छीना गया वे विद्रोही हो गये। किसानों को दोनों तरफ से दमन का सामना करना पड़ा। इसके अलावा इसी बीच ज्यादातर मनसबदार दक्षिण से भर्ती किये गये। केवल 1000 ज्ञात के ऊपर के मराठा मनसबदारों की संख्या ही 13 (शाहजहां) से बढ़कर 96 (औरंगजेब) हो गयीजबकि औरंगजेब के समय में दक्खनी मनसबदारों की संख्या 575 तक पहुंच गयी। इससे जागीरों पर दबाव पड़ा और जागीर व्यवस्था संकटग्रस्त हो गयी। दक्खनी और खानजाद कुलीनों के बीच संघर्ष आरंभ हो गये। इसके अलावा लगातार होने वाले युद्धों का भी मुगल खजाने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था। मुगल सीमा के विस्तार से नई समस्याएं सामने आयीं। यह नया क्षेत्र मराठों के हमले का लगातार शिकार होता रहता था। इसके अलावा शम्भाजी की मृत्यु के बाद मराठा तेजी से उभरे जिसके फलस्वरूप 1693 ई. के बाद मुगलों को कई बार हार का सामना करना पड़ा।

 

  • मराठा तेजी से राजारामजो कि प्रतापगढ़ भाग गया था (5 अप्रैल, 1689 ई.) के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे। परन्तु मुगलों के दबाव में आकर राजाराम को पनहाला में शरण लेनी पड़ी जहां वह मुगलों से अपनी रक्षा कर सका। लेकिन मुगलों ने जल्द ही रायगढ़ और पनहाला पर कब्जा जमा लिया (नवंबर, 1689 ई.) और (सितम्बर, 1689 ई.) । राजाराम को भागकर जिंजी जाना पड़ा। 


  • 1700 ई में सतारा और सिंहगढ़ मुगलों के कब्जे में चला गया। परन्तु इन सबके बावजूद मुगल न तो राजाराम को पकड़ सके न ही मराठों की शक्ति को कुचल सके। मराठों ने लगातार अपना संघर्ष जारी रखा। उन्होंने जल्द ही अपने खोये हुए इलाके वापस ले लिए। मुगलों को न केवल जीते हुए इलाकों से हाथ धोना पड़ा बल्कि इसे पाने के लिए उन्हें अत्यधिक कष्टों और परेशानियों का सामना करना पड़ा। इससे मुगल सेना का नैतिक बल टूट गयाउसमें एक प्रकार का बिखराव और शिथिलता आ गयी। अब जाकर औरंगजेब को इस प्रकार के लंबे अभियान की असार्थकता महसूस हुई और वह अहमदाबाद की ओर लौट पड़ा। किन्तु इससे पहले कि वह मैत्रीपूर्ण नीति अपनाता 1707 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

 

  • संक्षेप में सतीश चंद्र ने सही ही लिखा है कि औरंगजेब की असफलता का मुख्य कारण यह था कि वह मराठा आंदोलन के स्वरूप को ठीक से पहचान न सका। शिवाजी को मात्र एक भूमिया समझना उसकी भूल थी। मराठों के पास एक लोकप्रिय आधार था और उन्हें स्थानीय भूमिपतियों (वतनदारों) का समर्थन प्राप्त था। मुगल प्रशासनिक व् जान के उसके प्रयत्न के कारण स्थानीय तत्वों के बीच अव्यवस्था की स्थिति पैदा हो गयी और किसानों का शोषण हुआ। मुगल मनसबदारों के लिए उनके दक्खनी जागीरों से कुछ भी वसूल करनालगभग असंभव हो गया। शम्भाजी को मृत्यु-दंड दिया जाना एक और भारी भूल थी। औरंगजेब मराठों के बीच आतंक फैलाना चाहता थापरन्तु उसे इसमें सफलता नहीं मिली। वह न तो मराठों को दबा सका न ही शाहू को अपने पास रखकर कोई शर्त मनवा सका।
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