पानीपत का तीसरा युद्ध एवं युद्ध के कारण |मराठा हार के कारण |पानीपत के युद्ध का राजनैतिक महत्व |Battle of panipat 3
मराठा हार के कारण पानीपत के युद्ध का राजनैतिक महत्व
पानीपत का तीसरा युद्ध के कारण (Reason The Third Battle of Panipat)
- पानीपत के तौसरे युद्ध के कारण युद्ध से पहले के दशकों में मिलते हैं। मुग़ल साम्राज्य के पतन ने उत्तरी भारत में शक्ति शून्य (power vacuum) उत्पन्न कर दिया था। नादिरशाह का उत्तराधिकारी अहमदशाह अबदाली भी अपने पूर्वज की नाई भारत को लूटना चाहता था।
- दूसरी ओर हिन्दू पद पादशाही की भावना से प्रेरित दिल्ली पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। वे अपने आपको मुग़ल राज्य का आन्तरिक तथा बाह्य मानते थे।1752 में नवाब वजजीर सफदर जंग ने मराठों से एक सन्धि की थी जिसमें अन्य शर्तों के अतिरिक्त उन्हे पंजाब, सिन्ध तथा दोआब से चौध प्राप्त करने का अधिकार दे दिया था। उसके बदले मराठों को मुगल साम्राज्य के को आन्तरिक तथा बाह्य खतरों से रक्षा करनी थी। यद्यपि यह सन्धि सम्राट द्वारा स्वीकृत नहीं हुई थी परन्तु फिर भी इससे उनकी उत्तर में राज्य प्राप्त करने की पिपासा जाग उठी थी अतएव मराठों तथा अहमदशाह के बीच टक्कर निश्चित थी।
- 1757 में अब्दाली नजोबुद्दौला को दिल्ली के मीर बख़्शी के रूप में छोड़ गया और उसे वज़ीर इमादुलमुल्क की महत्वाकांक्षाओं के विरुद्ध चेतावनी दे गया। परन्तु आलमगीर द्वितीय ने यह अनुभव किया कि नजीब तो वजीर से बुरा था क्योंकि वज़ीर उच्चकुल से होने के कारण इतना अशिष्ट नहीं था। इस पर वज़ीर ने मराठों से नजीर के विरुद्ध सहायता मांगी। मई 1757 में मराठा सरदार रघुनाथ राव दिल्ली आए। वज़ीर गाज़िउद्दीन को अपनी ओर मिला लिया तथा नजीब को नजीबाबाद लौटने पर बाध्य कर दिया।
- मार्च 1758 में रघुनाथ राव पंजाब की ओर बढ़ा और अब्दाली के पुत्र राजकुमार तैमूर को पंजाब से निकाल दिया। अगले कुछ महीनों में मराठे अटक तक पहुंच गए। उन्होंने अदीनाबेग खां को 75 लाख रुपया वार्षिक का के बदले पंजाब का गर्वनर नियुक्त कर दिया। अदीनाबेग की मृत्यु के पश्चात साबाजी सिन्धिया ने ये पद सम्भाल लिया।
- मराठों की पंजाब विजय पठानों को सीधी चुनौती थी तथा अब्दाली ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। दूसरी ओर नजीब और बंगश पठानों ने अब्दाली को प्रेरणा दी कि वह दिल्ली से काफिरों को निकाल दे। अब्दाली ने पूर्ण सहायता का वचन दिया।
- नजीव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा रुहेला सरदार हाफिज रहमत व सादुल्लाखां तथा दुन्दी ख़ां का समर्थन भी दिलवाया, दूसरी ओर गाज़ीउद्दीन ने 30 नवम्बर 1759 को सम्र आलमगीर द्वितीय का वध कर दिया जिससे अहमदशाह अब्दाली के प्रबन्ध अस्तव्यस्त हो गए। वह दिल्ली आ अपराधी को दण्ड देना चाहता था। सिडनी ओवन के अनुसार अहमदशाह सम्राट तथा विजेता ही नहीं अपितु अफ़ग़ान था। अतएव वह रुहेलों से सहानुभूति रखता था और एक कट्टर मुस्लिम होने के कारण वह मराठों के अपने सहधर्मियों के विरुद्ध अभियानों का विरोधी था। अतएव उसने युद्ध की ठान ली।
पानीपत का युद्ध
- 14 जनवरी, 1761-1759 के अन्तिम दिनों में अब्दाली ने सिन्ध नदी पार की तथा पंजाब को रौंद डाला। साबाजी तथा दत्ताजी सिन्धिया उसे रोकने में असमर्थ रहे और दिल्ली की ओर लौट गए. दिल्ली के उत्तर में लगभग 10 मील दूर बराड़ी घाट के छोटे से युद्ध में दत्ता जी मारे गए। जनकोजी सिंधिया तथा मल्हार राव होल्कर भी अब्दाली को रोकने में असमर्थ रहे।
- उत्तर में मराठा शक्ति की पुनः स्थापना के लिए पेशवा ने सदाशिव भाऊ को दिल्ली भेजा। भाऊ ने 22 अगस्त 1760 को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। 7 अक्तूबर को उसने कुंजपुरा जान लिया ताकि आक्रान्ता को उत्सर की ओर खदेड़ दे तथा दिल्ली पर दबाव कम हो जाए। नवम्बर 1700 से दोनों सेनाएं पानीपत के मैदान में आमने सामने खड़ी हो गई। दोनों और आपूर्ति की कठिनाइयां भी और ये शान्ति के लिए बातचीत कर रहे थे। चूंकि कुछ निर्णय नहीं हो सके अतएव 14 जूनवरी, 1761 को युद्ध हुआ। मैदान पठानों के हाथ रहा। लगभग 75000 मराठा' मारे गए। प्रसिद्ध इतिहासकार एन सरकार के अनुसार महाराष्ट्र में ही कोई परिवार ऐसा होगा जिसने कोई न कोई सम्बन्धी न खोया हो तथा कुछ परिवारों का तो सर्वनाश ही हो गया।
मराठा हार के कारण
अहमदशाह की विजय तथा मराठों की हार के बहुत से कारण थे :
- 1. अहमदशाह अब्दाली के पास भाऊ से अधिक सेना थी। सर आदूनाथ सरकार ने समकालीन सूत्रों के आधार पर अनुमान लगाया है कि अब्दाली के पास 60,000 सेना थी और भाऊ के पास 45,000 से अधिक नहीं।
- 2. मराठा पड़ाव में लगभग अकाल पड़ा हुआ था। दिल्ली जाने वाला मार्ग कट गया था। मनुष्यों के लिए रोटी और घोड़ों के लिए चारा नहीं था। मराठा पड़ाव मरे हुए घोड़ों तथा सैनिकों के शर्यो की सदन के कारण नरक बना हुआ था। खाने की परिस्थिति इतनी बिगड़ गई थी कि 13 जनवरी को अधिकारी तथा सैनिक भाऊ के पास पहुंचे और कहा कि "दो दिन से हमें अन्न का एक दाना भी नहीं मिला। दो रुपए मे में भी अन्न नहीं मिलता है। हमें भूख से तो न मरने दो। हमें शत्रु के विरुद्ध एक प्रयत्न कर लेने दो और फिर जो भाग्य में है होने दो।" भाऊ की सेना वायु पर जी रही थी। अफ़गानों की सेना की आपूर्ति के मार्ग पूर्णतया खुले थे अकाल के हो कारण भाऊ को यह आक्रमण करना पड़ा।
- 3. उत्तरी भारत की समस्त मुस्लिम शक्तियां अब्दाली से मिल गई थीं। उधर मराठों को अकेले लड़ना पड़ा। मराठों की विवेकहीन लूटमार के कारण न केवल मुस्लिम ही उनसे दुःखी थे अपितु हिन्दू जाट तथा राजपूत भी उनसे दुःखो थे तथा सिक्खों ने उनकी सहायता नहीं की।
- 4 मराठा सरदारों के परस्पर द्वेष ने भी उनकी शक्ति को कम कर दिया। भाऊ मल्हार राव होल्कर को एक व्यर्थ वृद्ध पुरुष समझता था तथा उसने उसके सैनिकों की नज़रों में उसे अपमानित कर दिया था। मल्हार राव ने हो यह कहा कि यदि शत्रु इस पूने के ब्राह्मण को नीचा नहीं दिखाएगा तो हम से तथा अन्य मराठा सरदारों से ये लोग कपड़े धुलवाएंगे। इस प्रकार आपसी वैमनस्य तथा द्वेष की भावनाओं के कारण मराठों की शक्ति समाप्त हो चुकी थी। दूसरी ओर अब्दाली का सैनिक संगठन तथा अनुशासन अत्यधिक उत्तम था और अफ़ग़ान सेना ने एक योजनाबद्ध रूप से युद्ध किया।
- 5. सैनिक संगठन के अतिरिक्त अब्दाली की साज-सज्जा (equipment) भी अधिक उत्तम थी। अब्दाली ने बन्दूकों का प्रयोग किया जब कि मराठे अभी भी तलवारों तथा भालों से लड़े। इब्राहीम खां गार्दी का भारी तोपख़ाना इस युद्ध में उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ उधर अब्दाली की ऊंटों पर रखी घूमने वाली तोपों ने मराठों का सर्वनाश कर दिया।
- 6. काशी राज पंडित ने साक्षी होने तथा शान्ति वार्ता में भाग लेने के नाते इस के लिए भाऊ को दोषी ठहराया है। भाऊ एक दम्भी तथा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने वाला व्यक्ति था। उसने अपनी परिषद की बैठकों में मल्हार राव जैसे अनुभवी तथा प्रभावशाली लोगों को सम्मिलित करना बन्द कर दिया था तथा स्वेच्छा से ही कार्य करना आरम्भ कर दिया था। राजा सूरजमल जाट ने भाऊ को परमर्श दिया था कि वह स्त्रियां तथा बच्चे जो सैनिकों के साथ थे तथा भारी तोपें तथा अन्य ऐश्वर्य की सामग्री झांसी अथवा ग्वालियर में ही छोड़ जाए। उसने कहा "आपकी सेना शेष भारतीय सेना से अधिक हलकी तथा तीव्रगामी (light and expeditious) है परन्तु दुर्रानियों की आपसे भी अधिक।" मल्हार राव की राय भी इसी प्रकार की थी कि तोपखाने की गाड़ियां तो शाही सेना के अनुरूप थीं परन्तु मराठा युद्ध प्रणाली तो लूटमार की थी। उन्हें वही पद्धति अपनानी चाहिए थी जिससे वे अधिक परिचित थे। भाऊ को यह भी परामर्श दिया गया था कि वह युद्ध को वर्षा तक लटकाए रखे जब अब्दाली लौटने पर बाध्य हो जाएगा। भाऊ ने किसी की नहीं मानी जाट सरदार इसका साथ छोड़ गए। इस प्रकार एक ब्राह्मण सेनापति का दर्प तथा अहंकार तथा अत्यधिक आत्मविश्वास मराठों की हार का मुख्य कारण था।
- दूसरी ओर अहमदशाह अब्दाली अपने समय का एशिया का सर्वोत्तम सेनापति था जो नादिरशाह का वास्तविक उत्तराधिकारी था अब्दाली का अनुभव तथा प्रौढ़ता उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति थी। वास्तव में अब्दाली की उत्तम युद्ध नीति (war tactics) तथा दांव पेच (strategy) ने मराठा जीत के अवसर कम कर दिए थे।
पानीपत के युद्ध का राजनैतिक महत्व
- मराठों के भाग्य पर इस युद्ध के प्रभाव के विषय में इतिहासकारो के भिन्न-भिन्न मत हैं। मराठा इतिहासकारों का विश्वास है कि मराठों ने 75,000 व्यक्तियों के अतिरिक्त राजनैतिक महत्व का कुछ नहीं खोया। अब्दाली को भी इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।
- जी.एस. सरदेसाई लिखते हैं "युद्धस्थल में मराठों के सैन्य बल की इतनी अधिक क्षति हुई, इसके अतिरिक्त इस युद्ध ने कुछ भी निर्णय नहीं किया। इस जाति के दो प्रमुख व्यक्तियों नानाजी फड़नवीस तथा महादजी सिंधिया ने जो भाग्य से इस घातक दिन मृत्यु के हाथों बच गए, मराठों की शक्ति को पुनर्जीवित कर दिया तथा पुनः इनके भाग्य को पूर्णरूपेण चमकाया।
- पानीपत के युद्ध के पश्चात शीघ्र ही मराठा शक्ति पहले की भांति पुनः उभरने लगी तथा आपने वाले 40 वर्षों तक वह फिर एक प्रमुख शक्ति रहे। लगभग महादजी सिंधिया की मृत्यु पर्यन्त अथवा जब तक अंग्रेज़ों ने दूसरे मराठा युद्ध में अपनी सर्वोच्चता स्थापित नहीं कर ली, मराठे एक प्रमुख शक्ति बने रहे।
- पानीपत की दुर्घटना एक प्राकृतिक दुर्घटना की नाई थी। जिसमें जान हानि अवश्य हुई परन्तु राजनैतिक महत्व कुछ नहीं था। यह कहना कि पानीपत को दुर्घटना ने मराठों की सर्वोच्चता के स्वप्न को समाप्त कर दिया, तात्कालिक स्रोतों की अशुद्ध व्याख्या करना है।"
- दूसरी ओर सर जादूनाथ सरकार का मत इस प्रकार है, "मराठा इतिहासकारों की एक परम्परा बन गई है कि पानीपत के युद्ध के राजनैतिक परिणामों को घटा कर दिखाने का प्रयत्न किया जाए परन्तु भारतीय इतिहास का वास्तविक सर्वेक्षण स्पष्ट बतलाता है कि यह दावा केवल उग्र राष्ट्रवाद (chauvinistic) ही है। यह ठीक है कि मराठा सेना ने 1772 में निर्वासित मुग़ल सम्राट को पुनः सिंहासन पर बैठा दिया परन्तु सम्राट निर्माता अथवा मुगल साम्राज्य के नाम मात्र मंत्रियों तथा सेनापतियों के वास्तविक स्वामी के रूप में नहीं। यह गौरवमय पद तो महादजी सिंधिया को 1789 में प्राप्त हुआ तथा अंग्रेजों को 1803 में।"
- सरकार साहिब का मत अधिक निरपेक्ष है। मराठों की अत्यधिक सैनिक हानि हुई लगभग एक लाख लोगों में से कुछ ही बच पाए थे। यह हानि इतनी अधिक थी कि तीन मास तक तो पेशवा को हानि का ठीक अनुमान ही नहीं लगा कि उसके सरदारों का क्या बना पेशवा इस महान शोक के कारण चल बसे।
- सर जादूनाथ सरकार आगे लिखते हैं, "इस युद्ध के फलस्वरूप बालाजी बाजीराव सहित लगभग सभी प्रमुख मराठा नेता समाप्त हो गए तथा रघुनाथ दादा जो मराठा इतिहास का सबसे निकृष्ट व्यक्ति था, की स्वार्थलिप्सा के लिए द्वार खुल गए। दूसरी हानियां तो समय के साथ-साथ पूरी हो सकती थीं। परन्तु पानीपत की पराजय का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यही था।" इस युक्ति को जी. एस. सरदेसाई यों काटते हैं, "पानीपत ने स्वयं मराठों को राजनीति तथा युद्धक्षेत्र में एक नया अनुभव दिया। इस से इनका राष्ट्रीय गर्व ऊंचा उठा जैसा कि और अन्य अनुभव नहीं कर सकता था। इस महाविपत्ति से उनके संकल्प कम नहीं हो गए अपितु और चमके क्योंकि उन्नत होते हुए राष्ट्रों के पथ पर उतार-चढ़ाव आते ही हैं। दत्ताजी, जकोजी, इब्राहीम ख़ां तथा सदाशिव जैसे महान सैनिकों की मृत्यु निष्फल नहीं हुई। वे अपने राष्ट्र के माथे पर अपने चिन्ह छोड़ गए हैं और उन्हें उन प्रयत्नों के लिए तैयार किया जो तरुण पेशवा माधव राव ने वास्तव में किए। मृत्यु से ही जन्म होता है। यह कथन पूर्णतया सत्य है। यद्यपि एक पीढ़ी समाप्त हो गई परन्तु एक नवीन पीढ़ी उनका स्थान लेने के लिए आगे आई तथा देश की सेवा पहले की नाई होने लगी। महाराष्ट्र के प्रत्येक परिवार ने इस विपत्ति को अपनी विपत्ति समझा तथा सभी लोग राष्ट्र के आह्वान पर उठ खड़े हुए।"
- पानीपत के युद्ध ने निश्चय ही भारतीय राजनैतिक क्षेत्रों में मराठा प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई। वे मराठे जो अपने आश्रितों तथा अपने आप की रक्षा नहीं कर सके एक खोखले बांस की भांति निःशक्त समझे जाने लगे। उनका समस्त भारत पर राज्य बनाने का स्वप्न टूट गया। यह सत्य है कि उन्होंने 1772 में और 1789 में मुगल सम्राट को पुनः संरक्षण दिया परन्तु उन्होंने पंजाब तथा मुलतान को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया तथा न ही सीमा रक्षकों की भूमिका निभाने की सोची।
सिडनी ओवन इस युद्ध के विषय में यों लिखते हैं,
- "इससे मराठा शक्ति, कुछ काल के लिए चूर-चूर हो गई। यद्यपि यह बहुमुखी दैत्य मरा तो नहीं परन्तु इतनी भली-भांति कुचला गया कि यह लगभग सोया रहा तथा जब यह जागा तो अंग्रेज इससे निबटने के लिए तैयार थे तथा अन्त में इसे जीतने तथा समाप्त करने में सफल हुए।" निश्चय ही इस युद्ध ने भारत में अंग्रेजों के उत्थान के लिए मार्ग खोल दिया। श्री जी. एस. सरदेसाई लिखते हैं कि "यह एक विशेष बात है कि जिस समय मराठा तथा मुसलमान, दो योद्धा कुरुक्षेत्र के प्राचीन युद्धक्षेत्र में जीवन जीवन-मृत्यु के संघर्ष में लगे थे, क्लाईव जो अंग्रेज़ी साम्राज्य का प्रथम संस्थापक था, महान कामनर, प्रधान मन्त्री लार्ड चैदम से भारत में अंग्रेजी राज्य की संभावनाओं के विषय में बातचीत करने के उद्देश्य से वापिस इंग्लैण्ड जा रहा था। अप्रत्यक्ष रूप से पानीपत के युद्ध ने भारत में सर्वोच्चता के संघर्ष के लिए एक अन्य प्रतिद्वन्द्वी ला खड़ा किया । वास्तव में यह इस युद्ध का सीधा परिणाम था अतएव इसने भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ दे दिया।"
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