रवीन्द्रनाथ टैगोर का आत्म-शिक्षा का सिद्धान्त | RNT Aatm Shisha Ka Sidhant

 रवीन्द्रनाथ टैगोर का आत्म-शिक्षा के सिद्धान्त

रवीन्द्रनाथ टैगोर का आत्म-शिक्षा के सिद्धान्त | RNT Aatm Shisha Ka Sidhant


 

आत्म-शिक्षा के सिद्धान्त क्या है 

  • आत्म-शिक्षा आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है। आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया शिक्षा की प्रक्रिया के समान आजीवन चलती रहती है। इसमें सबसे अधिक आवश्यक यह है कि शिक्षार्थी को स्वयं अपने में विश्वास हो और अपनी बाह्य आत्मा के मूल में अधिक व्यापक वास्तविक आत्मा के अस्तित्व में विश्वास हो । 
  • शिक्षा की प्रक्रिया में वे सब क्रियायें सहायक हो सकती हैं जिनमें आनन्द की स्वाभाविक अनुभूति मिलती है। यह आनन्द आत्मा की प्रतिक्रिया है और इसलिए सुख अथवा संतोष मात्र से भिन्न है। 


रवीन्द्र की आत्म-शिक्षा का कार्यात्मक सिद्धान्त

रवीन्द्र की आत्म-शिक्षा व्यवस्था में शिक्षार्थी को निम्नलिखित तीन कार्यात्मक सिद्धान्तों को सीखकर उनका प्रयोग करना होता है।

 

1. स्वतंत्रता 

  • रवीन्द्र ने अपनी शिक्षा प्रणाली में शिक्षार्थियों को सब प्रकार की स्वतंत्रता दी है। - उन्होंने बुद्धिहृदयऔर संकल्प अथवा ज्ञानभक्ति और कर्म की स्वतंत्रता पर विशेष जोर दिया है। इस स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए शिक्षार्थी को निष्कामभावसमानतासमन्वय और संतुलन का अभ्यास करना आवश्यक है। इससे वह सत्य और असत्यस्वाभाविक और कृत्रिमप्रासंगिक और अप्रासंगिकस्थायी और अस्थायीसार्वभौम और व्यक्तिगत तथा विशाल और संकुचित में अंतर कर सकता है तथा सत्य और स्वाभाविकप्रासंगिकशाश्वतसमन्वित और विश्वगत तत्वों को ग्रहण कर सकता है। 


  • एक बार यह सामर्थय उत्पन्न होने के बाद शिक्षार्थी स्वयं अपना निर्देशन कर सकता है। वह स्वयं यह जान सकता है कि कौन-कौन से अनुभव और क्रियायें उसके मार्ग में बाधक हैं और कौन से साधक हैं। रवीन्द्र के अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ स्वाभाविकता है। दूसरे शब्दों मेंजब बुद्धिभावना और संकल्प स्वाभाविक रूप से विस्तृत हों तो उसे स्वतंत्रता की स्थिति कहा जा सकता है। इस प्रकार स्वतंत्रता अनियंत्रण से भिन्न है। वह आत्म नियंत्रण है। वह 'स्वके अनुसार आचरण करना है। इस प्रकार की स्वतंत्रता एक बार प्राप्त हो जाने पर फिर मार्ग-भ्रष्ट होने का खतरा नहीं रहताक्योंकि उसकी इंद्रियांबुद्धिसंवेगअनुभूतियां और सभी शक्तियां उसके अपने 'स्वके आदेश पर चलती हैं।

 

2. पूर्णता - 

  • आत्म-शिक्षा का दूसरा कार्यात्मक सिद्धान्त पूर्णता है। इसके अनुसार प्रत्येक शिक्षार्थी को अपने व्यक्तित्व के सभी पहलुओं और अपनी सभी शक्तियों का पूर्ण विकास करना चाहिए। इस दृष्टि से शिक्षा का लक्ष्य व्यावसायिक निपुणता प्राप्त करनापरीक्षा में सफल होना अथवा डिग्रियां लेकर सामाजिक सम्मान प्राप्त करना नहीं है। शिक्षा का एक मात्र लक्ष्य बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है। यह पूर्ण विकास तभी संभव हो सकता हैजबकि व्यक्तित्व के सभी पहलुओं पर समुचित जोर दिया जाएन किसी पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाए।

 

3. सार्वभौमिकता - 

  • व्यक्ति का विकास तब तक पूर्ण नहीं हो सकताजब तक कि वह अपने अंदर उपस्थित विश्वात्मा को प्राप्त न कर ले। इसके लिए व्यक्तिगत आत्मा का विश्वात्मा से तादाम्य करना पड़ता है। इस विश्वात्मा के अस्तित्व में आस्था शिक्षा की पहली शर्त है। शिक्षा का उद्देश्य कोरा विकास मात्र न होकर एक नया जन्म हैजिससे व्यक्ति अपने सीमित व्यक्तित्व से ऊपर उठकर विश्वात्मा से एक हो जाता है। इस विश्वात्मा को न केवल व्यक्तिगत जीवन मेंबल्कि अपने चारों ओर के प्राकृतिक जीवन में भी खोजा जाता है। यह खोज ज्ञानभक्ति और कर्म तीनों के ही माध्यम से होती है। एक बार इस विश्वात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर फिर इसके निर्देशन में आगे बढ़ना सरल हो जाता है।

 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि रवीन्द्र नाथ टैगोर की शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का लक्ष्य स्वतंत्रतापूर्णता और व्यापकता प्राप्त करना है। शिक्षा की प्रक्रिया के द्वारा शिक्षा एक ऐसे परिवेश का निर्माण करती है , जिसमे बालक के व्यक्तित्व का उन्मुक्त पूर्ण और अत्यधिक व्यापक विकास संभव होता है।


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