धार्मिक समूहों को समझना |Understanding Religious Groups

 

धार्मिक समूहों को समझना |Understanding Religious Groups


धार्मिक समूहों को समझना (Understanding Religious Groups)

 

  • धर्म केवल विश्वास का प्रत्यक्ष रूप ही नहीं है वरन इसका पालन भी किया जाता है। विश्व के लगभग सभी प्रमुख धर्म व्यवस्थित रूप में पाए जाते हैं। कुछ धर्म किसी एक चामत्कारिक व्यक्तित्व (उदाहरण के लिए - ईसा मसीह, मोहम्मद व गौतम बुद्ध) के धार्मिक अनुभव से उत्पन्न होते हैं। 
  • चमत्कारी व्यक्तित्व का यह धार्मिक अनुभव कालान्तर में संगठित एवं संस्थागत रूप धारण कर लेता है। इसके विकास के तीन चरण हैं। (1) पूजा उपासना की पद्धति का निर्धारण (2) विचारों एवं परिभाषाओं की स्थापना - मिथक एवं आध्यात्मिक विद्या विकास ; तथा (3) संघ व संगठन की स्थापना । मूल धार्मिक अनुभव की विवेचना भी इससे जोड़ी जा सकती है।

 

धार्मिक समूहों के प्रकार 

  • समाजशास्त्री चार प्रकार के धार्मिक समूहों की चर्चा करते हैं धर्म संस्था (चर्च), मत, संप्रदाय व पंथ । धर्म संस्था या मत वर्गीकरण के रूप में धार्मिक समूहों के इस विभाजन का आधार मैक्स वेबर और ईरनेस्ट ट्रोल्श के कार्य व पश्चिम में ईसाई मत का विकास है ।

 

  • क्या यह ईसाई धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों व धार्मिक, सामाजिक समूहों की व्याख्या करने में मदद करता है? इस संबंध में प्रचलित सामाजिक निर्णय कमोबेश जाति केन्द्रित, भ्रमवाचक व परस्पर विरोध लिए हुए हैं। कुछ की धारणा के अनुसार कुछ निश्चित परिवर्तनों के बाद यह वर्गीकरण सर्वमान्य हो सकता है। (मोबर्ग : 1961) जबकि कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता ( भट्ट : 1969 ) । 
  • जॉनसन के अनुसार इस वर्गीकरण का समालोचना के उद्देश्य से सरलता से उपयोग किया जा सकता है। यद्यपि पूर्वी धर्मों की व्याख्या के लिए वे भी इसे कुछ हद तक अटपटा मानते हैं। भारत में हम धार्मिक समूहों को मत, मार्ग, संप्रदाय, पंथ, समाज आश्रम तथा अखाड़ा के रूप में पहचानते हैं। यहाँ हमारे सामने एक समस्या आती है कि क्या हम भारत के धार्मिक समूहों की व्याख्या चर्च मत वर्गीकरण के आधार पर कर सकते हैं।

 

  • इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें धार्मिक समूहों को सामाजिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। साथ ही हमें धार्मिक समूहों की उत्पत्ति का भी विश्लेषण करना होगा । भारत की विशिष्टता पर बहुत बल न देते हुए भी हमें दो धार्मिक अनुभवों की परम्पराओं के अंतर को ध्यान में रखना है - मध्यपूर्व केंद्रित, जिससे ईसाई धर्म तथा इस्लाम का विकास हुआ तथा नैतिवाद अनेकतावाद ( धार्मिक अनेकवाद की परम्परा) का विकास हुआ; जिसमें से भारत में धार्मिक समूहों का विकास हुआ। आइए हम इसकी थोड़ी और व्याख्या करें। जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है, अब आप ईसाई परम्परा से जुड़ी धार्मिक धारणाओं को पहले से ही पहचान सकते हैं। जहाँ तक संगठनों का संबंध है, ऐसी धारणाएं असल में हर संगठन में एक दूसरे से बिल्कुल अलग होती हैं ।

 

  • मध्यपूर्वी परम्परा के अनुसार धार्मिक अनुभव भगवान के आदेश तथा रहस्य की खोज के रूप में जाने जाते हैं। दैवीय शक्ति द्वारा चुने मध्यस्थ मानव (पैगम्बर) के द्वारा आम मनुष्यों को धर्म का प्रकाश भेजने की धारणा के कारण मध्यपूर्व परंपरा में एकवाद परिलक्षित होता है। यह इस प्रकार के धर्म के संगठन व फैलाव में मदद करता है। पर कभी कभी इसका राजनीतिक शक्ति व अन्य धर्मों से टकराव भी हो जाता है।

 

  • दूसरी परम्परा के अनुसार कोई भी धार्मिक अनुभव अंतिम नहीं है। ईश्वर तक पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं तथा हैं भी। भारत में ये दोनों परम्पराएं समानान्तर रूप से तथा एक दूसरे से टकराते हुए विकसित हुई हैं। हाँ एक ओर एकवादी तथा अनेकवादी धर्मों के बीच सामाजिक-ऐतिहासिक अंतर है वहीं समाजशास्त्रियों के अनुसार धार्मिक संगठनों की अपनी कुछ चारित्रिक विशेषताएं हैं जिन्हें तुलना के लिए आधार बनाया जा सकता है।

 

जॉनसन (1868 419-20 )  का धार्मिक समूहों की तुलना के लिए सात-सूत्रीय मानदंड

  • जॉनसन (1868 419-20 ) धार्मिक समूहों की तुलना के लिए सात-सूत्रीय मानदंड का सुझाव देते हैं। आपकी जानकारी के लिए संक्षेप में हम इन्हें नीचे दे रहे हैं, क्योंकि आपके लिए धार्मिक समूहों की व्याख्या करने में इनका उपयोग किया गया है।

 

i) समूह की सदस्यता अनिवार्य अथवा स्वैच्छिक 

ii) यदि स्वैच्छिक नए सदस्यों के लिए पूर्णतया या आंशिक रूप से उपलब्ध; 

iii) समूह का अन्य धार्मिक समूहों के प्रति रवैया; 

iv) समूह धर्म परिवर्तन की अनुमति देता है अथवा नहीं,

 v) आंतरिक संगठनः प्रजातांत्रिक तथा एकाधिकारवादी; 

vi) पादरी / पुरोहितः क्या पुरोहित सामान्य सदस्यों के उद्धार के लिए आवश्यक माना जाता है

vi) समूह का रवैया पूरे समाज के धर्मनिरपेक्ष कृत्यों के प्रति क्या है ? धार्मिक समूहों के

 

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