धार्मिक समूहों की उत्पत्ति |The Genesis of Religious Groups in Hindi

धार्मिक समूहों की उत्पत्ति (The Genesis of Religious Groups)

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धार्मिक समूहों की उत्पत्ति |The Genesis of Religious Groups in Hindi

 

मोटे तौर पर हम धर्म को विश्वास तथा रीतियों की पद्धति के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। यह लोगों में सामान्य रूप से स्वीकार्य होती है तथा बीतते समय के साथ जीवित भी रहती है। सामान्य रूप से स्वीकार्य तथा समान रीति के रूप में धर्म अपने आप को संगत व व्यवस्थित रूप में संगठित करता है। आगे के अनुभागों में हम उस स्थिति को समझने का प्रयास करेंगे जिसमें से निर्धारित समयावधि में धार्मिक समूहों की उत्पत्ति होती है तथा जिसके कारण वे बने रहते हैं।

 

1 धार्मिक संगठनों की उत्पत्ति का सामाजिक कारक (Social Factors)

 

  • धार्मिक संगठनों की उत्पत्ति का कारण सामाजिक समूहों में निहित है जो कि समाज का एक अंग है। इसकी उत्पत्ति चमत्कार के संस्थागत व नियमगत होने में तथा समाज के ढांचागत विभाजन में भी निहित है। किसी धार्मिक संगठन का ठोस आधार अक्सर संस्थापक द्वारा नहीं वरन शिष्यों द्वारा रखा जाता है। उसके धार्मिक अनुभव मार्गदर्शन का कार्य करते हैं।

 

  • धार्मिक संगठन के प्रवर्तक की मृत्यु निरंतरता तथा उतराधिकार की समस्या खड़ी कर देती है। जिस तरह से इस समस्या को सुलझाया जाता है उससे संगठन की आगे की व्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इस समूह की पृष्ठभूमि जिसमें प्रवर्तक ने कार्य किया इसके सदस्य व राजनीतिक ढ़ांचा तथा अनुयायियों की आदर्शवादी तथा भौतिकवादी अभिरुचियां विशेषकर उसके नेता तथा प्रवर्तक की शिक्षाएं धार्मिक समूह की संरचना को प्रभावित करते हैं।

 

  • निरंतरता की समस्या को सामान्यतः संस्थापक के कथनोंउपदेशोंशिक्षाओं तथा कृत्यों को एकत्रित अभिलेखित व संप्रेषित कर सुलझाया जाता है। बाइबिलईसा मसीह व मोहम्मद के मृत्यु के बहुत बाद सामने आया पर सामाजिक तौर पर अधिक महत्वपूर्ण है पूजा-उपासना की पद्धति की उत्पत्ति पंथागत दर्शन जो कि उस धार्मिक समूह विशेष से जुड़े लोगो को प्रेरित करते हैं व आपस में बांधते हैं ।

 

  • उत्तराधिकार की समस्या कई प्रकार से सुलझाई जा सकती हैं - विरासत के प्रचलित नियम के द्वारा (प्रायः ज्येष्ठ संतान) अथवा शिष्यों में आम सहमति द्वारा अथवा नियुक्ति . द्वारा अथवा शिष्यों / सहचरों / समूह के सदस्यों में गद्दी के लिए संघर्ष के द्वारा यह बहुत कुछ स्थिति की गंभीरता पर निर्भर करता है। यहाँ हम कह सकते हैं कि धार्मिक समूह में गद्दी सौंपना या उत्तराधिकारी बनना आमतौर पर इतना आसान और समुचित नहीं होता। इससे पहले की उत्तराधिकारी का फैसला हो या नेतृत्व या सत्ता हासिल करने वाले गुटों द्वारा यह तय किया जाएसमूह के भीतर ही अंतःद्वंद उत्पन्न हो सकते हैं।

 

  • इस्लाम के प्रवर्तक का कोई उत्तराधिकारी नहीं थाइसलिए इस्लामी संगठन में खिलाफत का एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया। ईसा मसीह का भी कोई उत्तराधिकारी नहीं थान ही उन्होंने किसी का नामकरण किया था। पर ईसाई धर्म एक धर्मसंस्था - शिष्य की व्यवस्था के रूप में विकसित हुआ। भगवान बुद्ध ने यह निर्देश दिया कि उनके द्वारा स्थापित संघ उनके बाद 'धम्म' (धर्म) तथा 'विनयद्वारा संचालित किया जाए। यह कहा जाता है कि संघ की विशिष्ट समूहगत प्रजातांत्रिक परम्परा का विकास उन जातियों की गणतांत्रिक परम्पराओं के बीच से हुआ जिनमें बुद्ध लोकप्रिय थे।

 

2 विकास प्रक्रिया (Development Process )

 

  • पंथ की संरचना इस प्रक्रिया का एक चरण है। दूसरा चरण है मिथकों तथा आध्यात्मिक ज्ञान संबंधी दृष्टिकोण की संरचना समूह की संरचना तीसरा चरण है। ये तीनों चरण साथ-साथ तथा पारस्परिक संबंध रखते हुए कार्य करते हैं। मिथक एक नाटकीय कहानी है जिसमें दैवीय शक्ति सांसारिक व्यक्तियों से सांसारिक व्यक्ति के रूप में ही संबंध स्थापित करती है। मिथक पंथ पद्धति में विश्वास को अधिक दृढ़ करता है। आध्यात्मिक ज्ञान विकास की प्रक्रिया को अधिक तर्कसंगत बनाता है। दोनों ही धर्म की तर्कसंगतता को बौद्धिक परिवेश प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान का विकास व्यावसायिक पुजारी वर्ग-धर्म विशेषज्ञ के विकास के साथ चलता है। आध्यात्मिक ज्ञान के साथ ही नैतिक संहिता का विकास होता है। 

 

  • आध्यात्मिक ज्ञान धार्मिक अंधविश्वास के रूप में विकसित हो सकता है। परिणामस्वरूप यह बहुधा वर्ग परिवर्तन तथा शक्ति तंत्र की क्रियाओं से टकराव की स्थिति में आ जाता है। यह विरोध तथा विभिन्न व्याख्याओं को जन्म देने की विशेषता रखता है। अतः यह धर्मभेद तथा खंडनों को जन्म देता है जिनका संबंध अक्सर सामान्य लोगों अथवा जनसाधारण तथा विद्वानों दोनों के स्वार्थों से होता है।

 

  • जब किसी पंथ का विकास होता है तथा पूजारीति के नियमों दीक्षा तथा सदस्यता के नियमों का प्रमाणीकरण होता है तथा निरंतरता व उत्तराधिकार और सिद्धांत संबंधी विषयों की समस्याओं के निवारण के लिए व इसके प्रसार संबंधी नियमों का निर्धारण होता हैतब यह कहा जा सकता है कि इसने धार्मिक संगठन का रूप ले लिया है। पूजा की पद्वति तथा विश्वास की तर्कसंगतता इसकी सीमा का निर्धारण करती है।

 

  • कोई धार्मिक समूह एक प्राथमिक समूह के रूप में उत्पन्न होता है तथा मानव जाति को धर्म को मानने वालों तथा न मानने वालों के बीच विभाजित कर देता है। परंतु यह सम्पूर्ण समाज तथा समूह विशेष की आंतरिक विसंगतियों के कारण व धार्मिक अनुभव संबंधी ज्ञान में वृद्धि के कारण भी विकसित होता है तथा अनेक रूप से बढ़ता है। धार्मिक विशेषज्ञों तथा पुरोहित आदि के उभरने से जनसाधारण तथा पुरोहित के बीच संस्थागत अलगाव उत्पन्न होता है। पुरोहित की उपस्थिति प्रबंधकीय कार्यालयों की सत्ता की देन हैजिसमें नौकरशाही के गुण निहित होते हैं। कार्यालय अथवा गद्दी न कि इसका धारक दैवीय शक्ति का प्रभाव लिए होता है।

 

सार्वभौमिक विशेषताएं (Universal Features)

 

  • अपनी रीतियों के कारण विशिष्ट पहचान लिए धार्मिक समूह बंधुत्व व एकता की नयी भावना का प्रदर्शन करता है। फिर भीयह स्थिति व कार्यप्रणाली पर आधारित भेदों से साम्य स्थापित करता है तथा वांछित अवस्थाओं की क्रिया पद्धति को सहन करता है।

 

  • क्रांतिकारी चरित्र लिए हुए धार्मिक समूह प्रतिष्ठित समाज को स्वीकार भी कर सकता है और यह इसका वैचारिक धरातल पर तिरस्कार भी कर सकता है ताकि समूह के अंदर समानता का रूख विकसित किया जा सके जैसा बौद्ध धर्म में हुआ। इसने रूढ़िवादी व परम्परागत समाज का विरोध किया तथा समानता को एक आदर्श रूप में अपनाया। धार्मिक समूह का आंतरिक ढ़ांचा एक सक्रिय प्रक्रिया है। यह दो स्तरों पर कार्य करता है। एक तरफ तो यह आंतरिक भिन्नताओं को समाप्त करता है तथा दूसरी तरफ अपने को संगठित व संस्थागत रूप प्रदान करता है ।

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