धर्म और सामाजिक बदलाव |कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर की दृष्टि में धर्म Religion and Social Change in Hindi

 धर्म और सामाजिक बदलाव (Religion and Social Change)

कार्ल मार्क्स की दृष्टि में धर्म
मैक्स वेबर की दृष्टि में धर्म
धर्म और सामाजिक बदलाव |कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर की दृष्टि में धर्म Religion and Social Change in Hindi


 

 धर्म और सामाजिक बदलाव

  • आइए हम यह मान कर चलते हैं कि आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था के तीन पहलू हैं। इस अनुभाग में हम आपको विशिष्ट रूप से यह जानकारी देंगे कि धर्म किस तरह आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था को बदल या स्थिरता प्रदान कर सकता है। 


  • जैसा कि आप जानते हैं, आर्थिक व्यवस्था का संबंध प्रमुख रूप से सामानों के उत्पादन, वितरण और उपभोग के संदर्भ में व्यक्तियों और संस्थाओं के विन्यास से है। राजनीतिक व्यवस्था का संबंध सत्ता और प्राधिकार के प्रयोग से है। सांस्कृतिक व्यवस्था में व्यापक रूप से प्रतीक और उनके अर्थ आते हैं। प्रारंभ में, हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि धार्मिक विचार किस प्रकार आर्थिक व्यवस्था को मोड़ सकते हैं और फलस्वरूप उसे बदल या स्थिरता प्रदान कर सकते हैं।

 

1 धर्म और आर्थिक व्यवस्था (Religion and the Economic Order)

 

  • हम मैक्स वेबर (1864-1920) से आत्मसात होकर यह दिखा सकते हैं कि धार्मिक विचार आर्थिक व्यवस्था को बदल सकते हैं। दूसरी ओर, कार्ल मार्क्स (1864 1883) का सावधानीपूर्वक अध्ययन करके हम यह तर्क रख सकते हैं कि धर्म शोषण, तंगहाल आर्थिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान कर सकता है। अतः यह कहा जा सकता है कि समाज में धर्म जो इसका महत्वपूर्ण उपभाग भी है इसकी भूमिका समाज में मेलमिलाप लाने और इसे एकजुट करने का सामर्थ्य रखती है लेकिन कट्टरपंथियों की तरह द्वंद उत्पन्न करने में यह महत्वपूर्ण कारक भी बन सकती है।

 

A- प्रोटेस्टेंट नीति और पूंजीवाद की भावना धर्म पर मैक्स वेबर के विचार (Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism: Max Weber on Religion)

 

  • मैक्स वेबर की दृष्टि में धार्मिक विचार आर्थिक व्यवस्था का मार्ग तय करने में सशक्त भूमिका निभा सकते हैं। अपनी कृति 'द प्रोटेस्टैंट अॅथिक एंड दि स्प्रिट ऑफ कैपिटीलिज़्म' (1958, 1905) में मैक्स वेबर ने यह अभिधारणा प्रस्तुत की कि यूरोप में 16वीं और 17वीं शताब्दियों में उभरने वाले अनेक प्रोटेस्टैंट मतों ने अपने सिद्धांतों से आधुनिक बौद्धिक (या विवेकशील) पूंजीवाद को उभरने में मदद की। मैक्स वेबर की अभिधारणा ऐतिहासिक विकास में आदर्शवादी और भौतिक कारकों की भूमिका को लेकर विद्वानों में चलने वाली व्यापक बौद्धिक बहस का अंश था।

 

  • प्रोटेस्टैंट मतों के सिद्धांतों, विशेषकर काल्विनवाद ने काम, पूंजी और सुख के प्रति नई अभिवृत्तियों को जन्म दिया। ये नए सिद्धांत अभी तक के कैथोलिफ चर्च के प्रचार से एक दम भिन्न थे । इन सिद्धांतों को यूरोप में सामंती व्यवस्था के ध्वस्त होने के बाद उभरने वाले वर्गों ने स्वीकार किया। उन्होंने मेहनत और तपस्या को मिला दिया। दूसरे शब्दों में, इन प्रोटेस्टैंट सिद्धांतों में आस्था रखने वालों ने कड़ी मेहनत करते हुए अपने आपको भौतिक सुखों और ऐशों आराम से अलग रखा। इसके परिणामस्वरूप पूंजी का जमाव हुआ और उससे विवेकशील औद्योगिक पूंजीवाद को गति मिली।

 

  • 'बुबाहट' और 'प्रारब्ध' वे प्रवर्तनकारी विचार हैं जिन्होंने विश्वासियों पर जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा। काल्विन ने जिस प्रारब्ध के सिद्धांत का प्रचार किया उसके अनुसार परमेश्वर ने अपनी महिमा और अपने हितों के लिए कुछ मनुष्यों और देवदूतों को पहले से ही अनंत जीवन हेतु चुन रखा है। जिन को चुना नहीं गया है उनका प्रारब्ध अनंत मृत्यु है। इस सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि परमेश्वर की इच्छा को मनुष्य नहीं जान सकते। 'क्या मैं चुने हुओं में हूँ ?' और 'क्या मैं परमेश्वर की पूर्वनियत अदृश्य चर्च में से एक हूँ ?' और 'क्या मैं उन में हूँ जिन्हें परमेश्वर ने स्वर्ग के लिए चुना है?' जैसे सवाल विश्वासियों को त्रस्त कर सकते हैं। लेकिन उनका कोई जवाब नहीं है। इसके विपरीत विश्वासियों को परमेश्वर पर भरोसा करना होता है कि उन का नाम 'चुने हुओं की सूची में है। इस भरोसे को हासिल करने के लिए सभी सांसारिक क्रिया की सर्वाधिक उपयुक्त साधन के रूप में सिफारिश की गई।

 

  • काल्विनवाद में आस्था रखने वाले व्यक्ति को अपने विश्वास को सांसारिक क्रियाकलाप के माध्यम से प्रमाणित करना होता है। उसे अपने आप को दैवीय इच्छा का साधन समझना होता है, और परमेश्वर की अधिकतर महिमा के लिए सांसारिक कार्यकलाप में लिप्त रहना होता है। 
  • 'बुलाहट' की अवधारणा ने सांसारिक कार्यकलाप को नैतिक कार्यकलाप के उच्चतम स्तर तक पहुंचा दिया जिस तक कोई भी व्यक्ति पहुंच सकता है।
  • 'समय ही धन है' और 'विश्वास ही धन है ऐसे दो सूत्र हैं जो उस युग की भावना को सटीक अभिव्यक्त करते हैं। 'समय ही धन है का यह अर्थ है कि समय की बरबादी पापमय है और साथ ही धन कमाना परवेश्वर की कृपा का चिह्न है। धन कमाते हुए ऐशो आराम और सुख से परहेज़ करने वाले अतिनैतिक (प्यूरिटम) व्यक्ति के लिए धन कमाना अपने आप में एक लक्ष्य था । 
  • संपन्नता अपने आप में लक्ष्य था और यह परमेश्वर की कृपा का चिह्न था। अब यह स्पष्ट है कि काल्विन के सिद्धांतों ने ऐसी स्थिति सृजित की जहां संयमी मूल्यों और मानकों का अर्थ था कि वहाँ खजाना भारी मात्रा में जोड़ा गया था जिसे दुबारा से उचित कार्यों में लगाया गया। इसमें संबंधित समाज की आर्थिक स्थिति ने तेजी से जोर पकड़ा और जिसने काल्विनवाद को ऐसी व्यवस्था का नाम दिया जो आर्थिक वृद्धि के प्रति काफी सकारात्मक थी।

 

  • इस प्रकार, प्रोटेस्टैंट मतों के कुछ सिद्धांतों ने विश्वासियों की काम, धन और सुख के प्रति अभिवृत्ति को बदल दिया। इसके फलस्वरूप पूंजी का जमाव हुआ जो विवेकशील औद्योगिक पूंजीवाद के उद्भव के लिए अनिवार्य था। जबकि मैक्स वेबर ने जहां प्रोटेस्टैंट मतों की धार्मिक नीति को पूंजीवाद की भावनाओं में सहायक बनने की बात कही, वहीं कार्ल मार्क्स ने धर्म को शासक कुलीन वर्ग की विचारधारा माना।

 

B धर्म भ्रम है : धर्म पर मार्क्स के विचार (Religion is an illusion : Marx on Religion)

 

  • मार्क्स ने धर्म की समझ प्रमुखतया प्रशिया (Prussia) से हासिल की। वहां राज्य ने प्रोटेस्टैंट क्रिश्चियन धर्म को संरक्षण दिया हुआ था। उस संदर्भ में प्रोटेस्टैंट क्रिश्चियन धर्म ने यूरोप में सामंतवाद के ध्वस्त होने के बाद उभरने वाले नए वर्ग की विचारधारा के रूप में काम किया। प्रोटेस्टैंटवाद पूंजीवाद की वृद्धि में सहायक था, इसलिए प्रशिया राज्य ने उसका समर्थन किया. 

 

  • मार्क्स ने यह भी तर्क दिया कि धर्म एक भ्रम है जो समाज में व्याप्त असली शोषणकारी स्थितियों पर परदा डालने का काम करता है। साथ ही साथ धर्म एक विरोध का तरीका है जिसे दलित और शोषित वर्ग अपनाता है भले ही यह विरोध दिग्भ्रमित हैं इसके अतिरिक्तधर्म एक रूप है अलगाव का जो पूंजीवादी समाज की विशेषता है। धर्म, समाज में व्याप्त शोषणकारी स्थितियों का प्रत्यक्ष परिणाम है, और इसलिए धर्म का परित्याग करने के लिए यह आवश्यक है कि धर्म की आवश्यकता को जन्म देने वाली शोषणकारी सामाजिक स्थिति ( अर्थात पूंजीवाद) को बदला जाए।

 

  • इस प्रकार कार्ल मार्क्स की दृष्टि में धर्म एक भ्रम है, अलगाव और दिग्भ्रमित विरोध का एक रूप है। धर्म पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था के शोषण और तंगहाली पर परदा डाल कर सामाजिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है ।

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