दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद |दीनदयाल उपाध्याय का बचपन और प्रारम्भिक जीवन |Deen dayal Upadhyaya

दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद
दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद |दीनदयाल उपाध्याय का बचपन और प्रारम्भिक जीवन |Deen dayal Upadhyaya

 

दीनदयाल उपाध्याय कौन थे 

  • दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार और पत्रकार थे, उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय जनसंघ (वर्तमान भारतीय जनता पार्टी) के अध्यक्ष भी रहे। इन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत द्वारा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी लोकतन्त्र का आँख बंद कर समर्थन का विरोध किया। यद्यपि उन्होंने लोकतन्त्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार किया, लेकिन पश्चिमी कुलीनतन्त्र, शोषण और पूंजीवादी मानने से साफ इन्कार कर दिया। उन्होंने अपना जीवन लोकतन्त्र को शक्तिशाली बनाने और जनता की बातों को आगे रखने में लगा दिया।

 

दीनदयाल उपाध्याय का बचपन और प्रारम्भिक जीवन

 

  • दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को राजस्थान के धन्किया में एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित हिन्दू परिवार में हुआ। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। 
  • दीनदयाल उपाध्याय के पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माँ का नाम रामप्यारी था। 
  • दीनदयाल उपाध्याय के पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे और उनकी माँ बहुत ही धार्मिक विचारों वाली महिला थी।
  • दीनदयाल उपाध्याय के छोटे भाई का नाम शिवदयाल उपाध्याय था जब उनकी उम्र मात्र ढाई वर्ष की थी तो उनके पिता का अचानक निधन हो गया। इसके बाद उनका परिवार उनके नाना के साथ रहने लगा। लेकिन कुछ समय बाद उनकी माता की भी मृत्यु हो गई। फिर उनका पालन-पोषण उनके मामा ने किया। 
  • दीनदयाल ने कम उम्र में ही अनेक उतार-चढ़ाव देखे। परन्तु वह अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े। वे जन्म से ही बुद्धिमान और उज्ज्वल प्रतिभा के धनी थे।
  • दीनदयाल को स्कूल और कॉलेज में अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। 
  • दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी स्कूल की शिक्षा जी० डी० बिडला कॉलेज, पिलानी और स्नातक की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कॉलेज से पूरी की। इसके पश्चात् उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की लेकिन आम जनता की सेवा की खातिर उन्होंने इसका परित्याग कर दिया।

 

दीनदयाल उपाध्याय और आर० एस० एस० RSS

 

दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से ही समाज सेवा के प्रति अत्यधिक समर्पित थे। 

1937 में अपने कॉलेज के दिनों में वे कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर० एस० एस० ) के साथ जुड़े। वर्ष 1942 में कॉलेज की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने न तो नौकरी के लिए प्रयास किया और न ही विवाह किया, बल्कि वे संघ की शिला का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आर० एस० एस० के 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने नागपुर चले गए। 


दीनदयाल उपाध्याय का जनसंघ के साथ सम्बन्ध

 

  • भारतीय जनसंघ की स्थापना डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में की गई। दीनदयाल उपाध्याय को इसका प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। वे लगातार दिसम्बर 1967 तक जनसंघ के महासचिव रहे। उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। 


  • भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को दिसम्बर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। 


दीनदयाल उपाध्याय एक लेखक के रूप में

 

  • दीनदयाल उपाध्याय के अन्दर की पत्रकारिता तब प्रकट हुई जब उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म में वर्ष 1940 के दशक में कार्य किया।
  • अपने आर० एस० एस० के कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य और एक दैनिक समाचार पत्र 'स्वदेश' शुरू किया। 
  • दीनदयाल उपाध्याय ने नाटक चन्द्रगुप्त मोर्य और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उनके प्रसिद्ध साहित्यक कृतियों में सम्राट चंद्रगुप्त जगतगुरु शंकराचार्य, अखंड भारत क्यों है, राष्ट्र जीवन की समस्याएँ, 'राष्ट्र जीवन की दिशा आदि हैं।

 

 दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मक मानव दर्शन का अर्थ


  • एकात्मक मानव दर्शन का अर्थ है मानव जीवन तथा सम्पूर्ण प्रकृति के एकात्मक सम्बन्धों का दर्शन। यद्यपि मानव जीवन के विविध अंगोपांगों तथा मानव प्रकृति की विभिन्न शक्तियों में विविधता होती है, किन्तु यह विविधता आन्तरिक एकता के ही विभिन्न रूपों की अभिव्यक्ति हुआ करती है। इसीलिए इन सब में पारम्परिक अनुकूलता और पूरकता होती है। इस सभी शक्ति रूपों की आपस में समन्वयता होती हैं पश्चिम सभ्यता और धारणाओं के प्रतिकूल पूर्ण व्यवस्था सद्भाव पर आधारित होती है।

 

  • एकात्मक मानव दर्शन, व्यक्ति जीवन का भी उसके सभी अंगों को ध्यान में रखते हुए संकलित विचार करता है। प्राणी शरीर, मन बुद्धि और आत्मा का संकलिक रूप है। इसीलिए मानव का सर्वांगीण विचार उसके शरीर, मन बुद्धि और आत्मा, सबका संकलित विचार है। 


  • व्यक्तित्व के इन चार पक्षों की समुचित आवश्यकताओं को पूरा करने, उनकी विधि मांगों और इच्छाओं को पूर्ण करने तथा उनका सर्वांगीण विकास करने के लिए भारतीय संस्कृति ने व्यक्ति के सामने कर्त्तव्य के रूप में चार पुरुषार्थों का आदर्श रखा है।


  • व्यक्ति के चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये चारों पुरुषार्थ व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करता है। व्यक्ति की आवश्यकताओं और चार पुरुषार्थों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह चारों पुरुषार्थ व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिये आवश्यक है। 


  • धर्म व्यक्ति का नैतिक रूप से निर्देशन का कार्य करता है। धर्म के आधार पर अर्थ और काम पुरुषार्थ से व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करने में भी समर्थ होता हैं इन पुरुषार्थों की उपासना से उसे सुख भी प्राप्त होता है। इनमें से कोई पुरुषार्थ स्वतन्त्र नहीं है और यह सभी पुरुषार्थ एक-दूसरे के पूरक हैं। 


  • भारतीय संस्कृति ने इन चारों को एकत्रित माना है। इनमें धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है। अर्थ और काम पुरुषार्थों की साधना धर्म के आध र पर करने से उनकी प्राप्ति सुखदायक होती है और व्यक्ति के विकास में सहायक होकर अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष का अर्थात जीवन की लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।

 

  • दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव को केवल मात्र इकाई व अन्तिम उद्देश्य नहीं मानता। उनके अनुसार व्यक्ति से समष्टि तक पूर्ण व्यवस्था में जैविक घनिष्टता है। व्यक्ति का संकलन है। विश्व की अन्य विचारधाराओं के प्रतिकूल उपाध्याय राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रवाद में किसी प्रकार अन्तर्विरोध नहीं मानते। उनके अनुसार व्यक्ति से लेकर समष्टि तक का तभी विकास हो सकता है यदि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र अपने पुरुषार्थों को संतुलित रूप से करते हैं।

 

  • समाज अनेक व्यक्तियों से बनता है। फिर भी समाज का अपना एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व भी होता है। समाज का भी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा हैं और उसे भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों की साधना करनी पड़ती है। क्योंकि व्यक्ति और समाज एकात्मता के बन्धन में आपस में जुड़े होते हैं। व्यक्ति और समाज की पुरुषार्थ साधना एक-दूसरे से बेमेल या विरोधी न होकर परस्पर पूरक और पोषक होती है। इस व्यवस्था की समग्रता और सुचारू चलन के लिए अनेक संस्थाओं का निर्माण हुआ है। 


  • व्यक्ति इन अनेक संस्थाओं का अंग होता है। इन संस्थाओं में वह विभिन्न पुरुषार्थ करता है जिनके द्वारा वह अपने व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं का विकास करता है और समाज का भी विकास करता है। इसी कारण कहा जाता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व एकांगी न होकर विविधांगी होता है। इन विविध सम्बन्ध गों में एकता और एकात्मता का ध्यान रखकर व्यक्ति विचार और व्यवहार करता है तो उसका समन्वित विकास होकर वह सुखी होता और साथ ही समाज भी सुखी होता है।

 

दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद का महत्त्व

  • दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद का महत्त्व जिस व्यवस्था में व्यक्ति का विचार पुरुषार्थी मानव के बजाय किसी विशा यंत्र के पुर्जे के रूप में किया जाता है, या समष्टि की और दुर्लक्ष्य करने वाले आत्म केन्द्रित मानव के रूप में किया जाता है, वह व्यवस्था अधुरी है। 
  • उसी प्रकार जिस व्यवस्था में मानव का विचार शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की भूख को यान में रखकर करने के बजाय इनमें से कुछ ही अंगों के लिए किया जाता है, वह व्यवस्था भी अधूरी है। 
  • व्यक्ति जीवन का सर्वांगीण तथा चारों पुरुषार्थों के अनुसार विचार करने वाला, उसके लिए प्रयत्नशील रहने वाला और साथ ही व्यक्ति से लेकर विश्व मानव तक परिवार, राष्ट्र आदि विविध एकात्म समूहों और उनसे परे जाकर परमेष्ठी से वारवम्य स्थापित करने की क्षमता रखने वाला एकात्म मानव ही इस दर्शन का आदर्श है। 
  • एकात्म मानववाद अन्तर्विरोध से परे एक ऐसी व्यवस्था को उजागर करता है जिसमें राष्ट्रीयता, मानवता, विश्व शांति की स्थापना करके व्यक्ति परिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है। 


एकात्म मानववाद की विशेषताएँ

 

  • एकात्म मानववाद का आधार सहयोग सहिष्णुता और सकारात्मक मानिसकता है; 
  • इसका स्त्रोत भारतीय दर्शन है 
  • व्यक्ति की आवश्यकताओं का तवय विस्तृत है जो केवल शारीरक व भौतिक आवश्यताओं तक ही सीमित नहीं है। 
  • व्यक्ति की संरचना शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा से हुई। इन चार तत्त्वों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये 
  • व्यक्ति चार पुरुषार्थ करता है; 
  • चार पुरुषार्थों का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास और पूर्ण समष्टि का विकास; यह दोनों एक-दूसरे के पूरक 
  • यह वाद व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और अन्तराष्ट्रीय हितों में विरोध (टकराव) नहीं देखता;

 

दीनदयाल उपाध्याय का निधन

 

19 दिसम्बर 1967 को दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। 

11 फरवरी 1968 की सुबह मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल का निष्प्राण शरीर पाया गया। इसे सुनकर पूरा देश दुःख में डूब गया। इस महान नेता के श्रद्धांजलि देने के लिए राजेन्द्र प्रसाद मार्ग पर भीड़ उमड़ पड़ी।

उन्हें 12 फरवरी 1968 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन, प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी और मोरारजी देसाई द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई। आज तक उनकी मृत्यु एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। 


दीनदयाल उपाध्याय एक एकात्म मानववाद का निष्कर्ष

 

  • पंडित दीनदयाल उपाध्याय उन्हीं क्षेत्रों में सरकार की भागीदारी की बात करते  हैं जिन क्षेत्रों में समाज अथवा निजी क्षेत्र जोखिम नहीं लेते। 
  • आज पचास साल बाद हमारी व्यवस्था समाजवादी नीतियों के चक्रव्यूह में ऐसे उलझ चुकी है कि उसमें से इसे निकलना अथवा निकलने की सोचना भी बेहद कठिन नज़र आता है। ऐसी समाजवाद और साम्यवाद जैसी नीतियाँ भारत के लिए अव्यावहारिक हैं, यह बात पंडित दीनदयाल जी पचास साल पहले बता गए थे, जो आज सच साबित हो रही है। 
  • हम राज्य और सरकार के प्रति दिन-प्रतिदिन इतने आश्रित होते जा रहे हैं कि कल को अपने मुँह में निवाला डालने के लिए भी हम सरकार से अपेक्षा करेंगे। 
  • सामाजिक पंगुता के इस खतरे से बचने के लिए हमें दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन पर ही लौटना होगा। मानव कल्याण का वही रास्ता शेष है। 
  • पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत में लोकतन्त्र के उन विचारकों में से एक है, जिन्होंने इसके उदार और भारतीय स्वरूप को गढ़ा है।


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