संचारी रोग ( संक्रामक रोग) | Communicable disease in Hindi

संचारी रोग ( संक्रामक रोग) (Communicable disease)

संचारी रोग क्या होते हैं ?

संचारी रोग ( संक्रामक रोग) | Communicable disease in Hindi


 

संचारी रोग क्या होते हैं ?

  • ऐसे रोग जो एक रोगग्रस्त व्यक्ति से दूसरे स्वस्थ व्यक्ति में दूषित भोजनजल या संपर्क या कीटनाशकोंजानवरों आदि के कारण फैलते हैं संचारी रोग कहलाते हैं। ये विभिन्न कारकों (रोगजनकों) द्वारा फैलते हैं।

 

1 विषाणुओं द्वारा उत्पन्न रोग

 

छोटी माता (Chicken pox ) 

  • रोगजनक छोटी माता विषाणु (Voricilla-वोरिसेला) 
  • संचारण का तरीका : संपर्क या खुरण्ड (पपड़ी) द्वारा 
  • उद्भवन अवधि: 12-20 दिन

 

छोटी माता (Chicken pox ) के लक्षण 

(i) ज्वरसिरदर्द व क्षुधा ह्रास (भूखा न लगना) 

(ii) पीठ व छाती में गहरे लाल रंग के दाने (पित्तिका) जो पूरे शरीर में फैल जाते हैं। बाद में ये दाने पुटिकाओं (एक प्रकार का छोटा फफोला) में बदल जाते हैं। 

(iii) कुछ दिनों बाद फफोले सूखने लग जाते हैं और खुरण्ड (पपड़ियाँ) बन जाते हैं। (iv) ये खुरण्ड गिरने लगते हैं (संक्रमण संक्रामी अवस्था)

 

छोटी माता (Chicken pox )  के  रोकथाम व उपचार 

अब तक छोटी माता का कोई टीका उपलब्ध नहीं है। लेकिन निम्न प्रकार की सावधानियाँ बरती जानी चाहिए : 

(i) रोगी को अलग (isopetion - पृथक्करण) रखना चाहिये । 

(ii) वस्त्रबर्तन आदि सामग्रियां जो रोगी द्वारा प्रयोग में ली गयी उन्हें जीवाणुरहित (जर्मरहित) किया जाना चाहिये। 

(iii) गिरे हुये खुरण्ड जमा करके जला दिये जाने चाहिये।

 

छोटी माता के एक आक्रमण के परिणामस्वरूप इस रोग के ठीक हो जाने वाले व्यक्ति में इस रोग के प्रति जीवनपर्यन्त प्रतिरक्षा क्षमता बनी रहती है।

 

2. खसरा (Measles ) 

रोगजनक : विषाणु (रुबेओला Rubeola)

संचारण की विधि:वायु द्वारा

 उद्भवन अवधि: 3-5 दिन

 

खसरा के लक्षण

 

(i) सर्दी-जुकाम 

(ii) मुँह व गले में सफेद छोटे-छोटे चकते बन जाना। 

(iii) शरीर में छोटे-छोटे दानों (पित्तिकाओं) का दिखाई देने लगना। 


खसरा से रोकथाम व उपचार

 

(i) रोगी को अलग रखना चाहिये। 

(ii) स्वच्छता बनाये रखनी चाहिये। 

(iii) प्रतिजैविक (ऐंटीबायोटिक) दवाएँ देने से केवल द्वितीयक संक्रमण को रोका जा सकता है जो खसरे से पीड़ित व्यक्ति को आसानी से हो सकता है।

 

3. पोलियो मेरूरज्जु शोथ (Poliomylitis= पोलियो )

 यह शब्द Polio + myel (os) + itis से बना है। myelos /मज्जा को कहा जाता है तथा itis = शोथ है। (सामान्यत: शोथ को 'सूजन' (swelling) समझा जाता है लेकिन यह अंग्रेजी शब्द inflammation का पर्याय है जिसमें सूजन सहित चार अन्य लक्षण सम्मिलित हैं।

 

रोगजनक :पोलियो विषाणु (Polio virus) 

संचारण विधि : विषाणु शरीर के अन्दर भोजन या जल द्वारा प्रवेश करता है।

उद्भवन अवधि: 7-14 दिन

 

पोलयो के लक्षण

 

(i) विषाणु आंत्र कोशिकाओं में गुणन कर संख्या वृद्धि करता है और वहाँ से रक्त द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है। 

(ii) यह मस्तिष्क व तंत्रिकाओं को क्षति पहुँचाता है व बच्चों में पक्षाघात (लकवा) पैदा कर देता है। 

(iii) गरदन कड़ी / सख्त हो जाती हैज्वर हो जाता है और सिर ढुलकने लगता है।

 

पोलियो रोकथाम व उपचार

 

  • पोलियो वैक्सीन ड्रॉप (मुँह द्वारा पोलियो टीका बूंद-आरेल पोलियो वैक्सीन OPV) एक निश्चित अंतराल पर बच्चों को दिया जाता है। हमारे देश में बच्चों को पोलियो वैक्सीन देने के लिये पल्स पोलियो अभियान कार्यक्रम का आयोजन अखिल भारतीय स्तर किया गया है। अब भारत पोलियो घोषित हो चुका

 

4. रेबीज (Rabies)

 

रोगजनक रेबीज विषाणु (Rabies virus) 

संचारण विधि : रेविड कुत्ता द्वारा काटे जाने से। 

उद्भवन अवधि: 10 दिन से 13 माह तक जोकि काटे गये स्थान की केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क व मेरू रज्जु) के बीच की दूरी पर निर्भर करता है।

 

रेबीज के लक्षण

 

(i) तेज सिर दर्द व उच्च ज्वर (बुखार)

(ii) गले व वक्ष (छाती) की माँसपेशियां का कष्टदायक संकुचन 

(iii) घुटन व पानी से भय (जलभीति- hydrophobia-hydro जल + phobia डरभीति) व इसके परिणामस्वरूप मृत्यु

 

4 रेबीज रोकथाम व उपचार

 

(i) कुत्तों का अनिवार्य प्रतिरक्षीकरण 

(ii) रेबीज़ से ग्रस्त पशुओं को मार देना 

(iii) रेबीज़ से ग्रस्त पशु द्वारा काटे गये व्यक्ति को ऐंटीरेबीज इंजेक्शन लगाना या मौखिक (मुंह द्वारा) खुराक देना।

 

5. यकृत शोथ (Hepatitis - hepat (os) यकृत +itis शोथ) 

रोगजनक: यकृत शोथ का विषाणु (Hepatitis B virus) 

संचारण विधि : मुख्यतया दूषित जल द्वारा 

उद्भवन अवधि : सामान्यतया 15-160 दिन

 

यकृत शोध के लक्षण

 

(i) शरीर में दर्द 

(ii) भूख न लगना व उबकाई (मिचली) आना 

(iii) आँखों व त्वचा में पीलापनमूत्र का रंग गहरा पीला (पित्त वर्णकों के कारण) 

(iv) यकृत का बढ़ जाना

 

यकृत शोध के रोकथाम व उपचार

 

(i) हेपेटाइटिस वैक्सीन अब भारतवर्ष में उपलब्ध है। 

(ii) उचित स्वच्छता बनाए रखना। 

(iii) अधिक वसायुक्त भोजन का त्याग किया जाना चाहिये।

 

6. इन्फ्लूएंजा (Influenza)

 

  • इन्फ्लूएंजा इतालवी भाषा का शब्द है और इसे सामान्तया 'फ्लूनाम से भी जाना जाता है। यह रोग श्वसन पथ को संक्रमित करने वाले विषाणुओं के कारण होता है। सामान्य सर्दी जुकाम की अपेक्षा इन्फ्लूएंजा ज्वर अधिक गंभीर बीमारी है। 


कारण

  • इन्फ्लूएंजा ज्वर एक विषाणु के कारण होता है जो हमारे शरीर की कोशिकाओं में आक्रमण करता है । इसके परिणामस्वरूप अनेक प्रभाव पड़ते हैं जो विषाणु के स्ट्रेन (प्रभेद यानी प्रकार) पर निर्भर करता है।

 

  • फ्लू विषाणु के अनेक प्रभेद (स्ट्रेन) हैं। विषाणुओं में सदैव उत्परिवर्तन होता रहता है और अनेकों प्रभेद (स्ट्रेन) बनते रहते हैं। इस लगातार परिवर्तन के परिणामस्वरूप इसके परपोषी विषाणु प्रतिरक्षण तंत्र से बचे रहते हैं। दुर्भाग्यवश किसी एक स्ट्रेन के प्रति जो प्रतिरक्षा (जो उद्भासन या प्रतिरक्षीकरण द्वारा प्रदत्त किया जाता है) है वह अन्य प्रभेदों को प्रतिरक्षा प्रदान नहीं करती। फ्लू विषाणु से संक्रमित व्यक्ति उस विषाणु के ऐंटीबॉडी विकसित करता है। विषाणु के परिवर्तित हो जाने सेऐंटीबॉडी परिवर्तित विषाणु को नहीं पहचान पाते हैं और फ्लू हो सकता है (परिवर्तित या उत्परिवर्तित विषाणु के कारण)

 

इन्फ्लूएंजा के लक्षण

 

फ्लू के विशेष लक्षण निम्नवत् हैं :

 

(i) ज्वर ( सामान्यतया 100°F से 103°F वयस्कों में और बच्चों में इससे भी अधिक) 

(ii) श्वसन पथ के संक्रमण के लक्षण जैसे खाँसीगलव्रण (गलदाह यानी गला में जख्म)नाक का बहनासिरदर्दमाँसपेशियों में दर्द व अत्यधिक थकान। 


यद्यपि फ्लू के साथ कभी-कभी मिचलीउल्टी (वमन) व दस्त की शिकायत होती है। आमाशय या आँत संबंधी लक्षण मुश्किल से सुस्पष्ट होते हैं। 

फ्लू से संक्रमित बहुत से लोग 1 से 2 सप्ताह में पूर्णतया स्वस्थ हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोगों में गंभीर व जीवन के लिये खतरनाक जटिलताऐं विकसित हो जाती हैं जैसे निमोनिया |

फ्लू  नियंत्रण व उपचार

 

(i) एंफ्लूएंजा के कारण होने वाली बीमारी को या उससे होने वाली मृत्यु को काफी हद तक वार्षिक फ्लू टीकाकरण द्वारा रोका जा सकता है। फ्लू टीका उन लोगों के लिये विशेष रूप से बताया जाता हैं जो चिरकारी (क्रॉनिक) बीमारियों जैसे हृदय रोगफेफड़े व यकृत के रोगमधुमेह व गंभीर अरक्तता से पीड़ित हैं और इनमें इस रोग के जटिल हो जाने की संभावना बहुत अधिक है।

 (ii) फ्लू से पीड़ित व्यक्तियों को क्या करना चाहिए 

 

  • पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ लेना चाहिये।
  • चिकित्सक द्वारा बताए लक्षणों में राहत प्रदान करने वाली दवाएं लेनी चाहिये जैसे दबाइयां सदा ही डाक्टर की सलाह से लें। 
  • पैरासिटामॉलएस्पिरिन (16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये नहीं) या आइब्युप्रोफेन उपचार के लिये शीघ्र चिकित्सक का परामर्श लें।

 

7. डेंगू (Dengue)

 

डेंगू स्पेनी भाषा का शब्द है जो स्वाहिली भाषा ( अफ्रीका के एक भाग) से आया है। डेंगू विषाणु द्वारा उत्पन्न एक तीव्र ज्वर है। सामान्यतः यह दो प्रकार का होता है

 

(i) डेंगू ज्वर (Dengue fever ) 

(ii) रक्तस्रावी डेंगू ज्वर (Dengue hemorrhhagic fever ) 


डेंगू ज्वर के लक्षण हैं: 

  • अचानक उच्च ज्वर का होना काफी तेज सरदर्दनेत्रों के पश्च भाग में और पेशियों तथा जोड़ों (संधियों) हड्डियों में तेज दर्द होने के कारण इसे 'हड्डी तोड़बुखार भी कहा जाता है ।

 

डेंगू रक्तस्रावी ज्वर एक तीव्र संक्रामक विषाणु रोग है। यह डेंगू ज्वर की अग्रवर्ती अवस्था है। प्रारम्भिक अवस्था में इसके अभिलक्षण ज्वरसिरदर्दआँखों में दर्दजोड़ों व माँसपेशियों में दर्दउसके पश्चात् रक्तस्राव के लक्षणत्वचा में लाल छोटे-छोटे चकत्तेनाक व मसूडों से रक्तस्राव है।

 

डेंगू कैसे फैलता है ?

 

  • डेंगू एक संक्रमित ईडीज ईजिप्टाई मच्छर (Aedes aeggpti) के काटने से फैलता है। जब मच्छर एक संक्रमित व्यक्ति को काटता है और उसके बाद एक स्वस्थ व्यक्ति को काटता है तो रोग का संचरण होता है। ऐसा करने में यह स्वस्थ व्यक्ति में विषाणुयुक्त रक्त संचरित करता है और व्यक्ति डेंगू से संक्रमित हो जाता है। रोग का प्रथम लक्षण संक्रमित काट के लगभग 5 से 7 दिनों के बाद प्रकट होता है।

 

  • ईडीज मच्छर घर के अन्दर कमरोंअलमारीशौचखानों व अन्य अंधेरे स्थानों पर रहता है। यह दिन में क्रियाशील होता है। बाहर यह ठंडे व छायादार जगहों पर पाया जाता है। मादा मच्छर रूकें ( कूलरोंटायरोंखाली बाल्टियों) शहरों या गावों में घर के आसपास या अन्य स्थानों पर अंडे देती है। इन अंडों से 10 दिन में वयस्क मच्छर उत्पन्न हो जाते हैं।

 

डेंगू उद्भवन अवधि : 

  • डेंगू विषाणु के वाहक मच्छर के काटने के समय से औसतन 4 से 6 दिन में लक्षण दिखायी पड़ते हैं। इनका परास उसे 14 दिन तक हो सकता है।

 

डेंगू का निदान 

  • रक्त परीक्षण द्वारा डेंगू वायरस के प्रतिपिंडों का पता लगाकर निदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त संक्रमित व्यक्ति में रक्त बिम्बाणुओं की संख्या में भी भारी गिरावट (कमी) जा आती हैं।

 

डेंगू ज्वर के लक्षण

 

(i) अकस्मात उच्च ज्वर (104° 105°F फारेनहाइट- 40° C) जोकि 4-5 दिन तक बना रहता है। 

(ii) तेज सिरदर्द विशेषकर माथे में 

(iii) हड्डियों/जोड़ों तथा पेशियों में दर्दशरीर में दर्द 

(iv) आँखों के पीछे दर्द जो आँखों की गति के साथ और अधिक हो होता है। 

(v) उबकाई (मिचली) व उल्टी (वमन) आना

 

रक्तस्रावी डेंगू ज्वर के लक्षण

 

इसमें डेंगू के सभी लक्षणों के अतिरिक्त अन्य लक्षण भी पाये जाते हैं जैसे

 

(i) पेट (उदर) में लगातार तेज दर्द 

(ii) त्वचा में दादोरा (चकत्ते छोटे-छोटे दानें) 

(iii) नाकमुंह व आंतरिक अंगों से रक्तस्राव 

(iv) रक्त या बिना रक्त की लगातार उल्टियाँ 

(v) आंतरिक रक्तस्राव के कारण काला मल 

(vi) अत्यधिक प्यास ( मुंह का सूखना) 

(vii) पीलीठंडी त्वचाकमजोरी

 

डेंगू रोकथाम

 

डेंगू ज्वर को फैलने से रोकने के लिए निम्न तरीकों से बचाव किया जा सकता है।

 

(i) किसी भी स्थान पर 72 घंटे से अधिक जल को न रुकने दें ताकि मच्छर पैदा न होने पाएं। 

(ii) जलाशयों जैसे तालाबों और कुंओं आदि जहां जल संगृहित किया जाता है वहां इसके मच्छर के प्रजनन को रोकें यानी मच्छर न पनपने दें।

(iii) बेकारफेंके हुए पुराने पहियोंबोतलों आदि को नष्ट कर दें जिससे इनमें वर्षा का पानी जमा न होने पाये।

(iv) मच्छर प्रतिकर्षकों (रिपेलैन्ट दूर भगाने की दवाईयां ) का प्रयोग करें व अपने शरीर को ढककर रखें। 

(v) मच्छरदानी (मसहरी) लगाकर ही सोयें। 

(vi) उषाकाल व गोधूलि के समय घर के बाहर की गतिविधियां कम करें क्योंकि ये मच्छर इस अवधि में सर्वाधिक सक्रिय होते हैं । 

(vii) डेंगू ज्वर से पीड़ित रोगियों को कम से कम 5 दिन तक अलग रखना चाहिये। 

(Viii) डेंगू ज्वर से किसी के पीड़ित का सन्देह होने पर निकटतम स्वास्थ्य केन्द्र को सूचित करें।

 

डेंगू व रक्तस्रावी डेंगू ज्वर का उपचार

 

  • डेंगू ज्वर का कोई विशेष उपचार नहीं है। डेंगू से पीड़ित व्यक्ति को आराम करना चाहिये व बड़ी मात्रा में तरल पदार्थ पीने चाहिये। रक्तस्रावी डेंगू ज्वर का उपचार शरीर के नष्ट हुए तरलों के प्रतिस्थापन (पुनः तरह लेने) से होता है। कुछ रोगियों में रक्तस्राव रोकने के लिये खून चढ़ाने (रक्ताधान blood transfusion) की आवश्यकता होती है।

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