भारत में जाति व्यवस्था |जाति आधारित संगठनों का उदय |Rise of caste based organizations in India

 भारत में जाति व्यवस्था , जाति आधारित संगठनों का उदय

भारत में जाति व्यवस्था |जाति आधारित संगठनों का उदय |Rise of caste based organizations in India



भारत में जाति व्यवस्था को समझना

 

  • जाति को वंशानुगत अंतर्विवाही समूह में परिभाषित किया जा सकता है इसमें समान नाम, समान परंपरागत व्यवसाय, समान संस्कृति, गतिशीलता के मामने में कठोरता, पद की विशिष्टता के आधर पर सजातीय समुदाय बनता है। इस शब्द की उत्पत्ति स्पैनिष और पुर्तगीज के शब्द 'कास्टा' से हुई है, जिसका अर्थ है 'वंश' या 'नस्ल' या एक स्तरीकरण वाली व्यवस्था है। इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसकी जाति जिसमें उसके जन्म लिया हो से निर्धारित होता है ।

 

  • भारतीय जाति व्यवस्था को चार स्तरीय वर्ण व्यवस्था में वर्गीकृत किया गया है। वर्ण व्यवस्था ब्राह्मण में सबसे ऊपर है, ये पुजारी एवं विद्वान माने जाते थे। इसके नीचे क्षत्रिय हैं, जो कि शासक या सैनिक होते थे। उसके नीचे वैश्य आते हैं, जिसे हम बनिया या व्यापारी भी कहते है। सबसे नीचे शूद्र होते हैं जो मुख्य रूप से मजदूर, किसान, कामगार, और नौकर होते हैं। शुद्रों को वर्ण व्यवस्था के बाहर अछूत वर्ग होते थे जिनको वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा गया था | सभी वर्गों में अनेक जातियाँ और जाति एवं उप जाति होती है ।

 

  • भारत में जाति व्यवस्था में स्वतंत्रता के बाद एवं 19वीं सदी के बीच काफी बदलाव हुए हैं क्योंकि इस दौरान कई सामाजिक धार्मिक एवं विरोध आन्दोलन हुए थे। इन आन्दोलनों ने जनता के जाति व्यवस्था के दृष्टिकोण को परिवर्तित किया। इन आंदोलनों में सबसे प्रमुख थे ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल सोसाइटी आंदोलन |


  • विरोध आंदोलनों में ज्योति फूले का सत्य शोधक समाज आंदोलन (पूना), गैर-ब्राह्मण आंदोलन रामास्वामी नायकर, जिसे हम पेरियार के रूप में भी जानते थे, (मद्रास), तथा अस्पृश्यता के खिलाफ चलाया गया आंदोलन जिसका नेतृत्व डा. बी. आर. अंबेडकर एवं महात्मा गाँधी ने किया प्रमुख हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शहरीकरण, उद्योगीकरण, शिक्षा के प्रसार, सामाजिक-धार्मिक सुधार, पश्चिमीकरण इत्यादि ने भी जाति व्यवस्था के परिवर्तन में योगदान दिया।


  • इसके अलावा, संविधानिक प्रावधान जैसे मूल अधिकार (अनु. 14 15 16 एवं 17 ), तथा नीति निर्देशक सिद्धांतों ने जाति के सुधार में बड़ी भूमिका रही है। विशेषकर में शिक्षा ने लोगों को उदार, तार्किक, लोकतांत्रिक एवं व्यापक समझ का बनाया। इन सब कारकों ने जाति व्यवस्था से संबंधित कानूनों को सुगम बनाया परिणाम स्वरूप विभिन्न जातियों में ऊपर उठकर संबंध तथा सहयोग बढ़ा। अब जाति व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक नहीं है, व्यक्ति के व्यवसायिक कैरियर में अब जाति व्यवधान नहीं है। समकालीन समय में अंतर जातीय सामाजिक संबंधों में भी काफी बढ़ोतरी हुई है।

 

जाति आधारित संगठनों का उदय

 

  • जाति एवं लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था एक दूसरे के विरोधी मूल्यों के प्रतीक हैं। जाति स्तरीकरण पर आधारित है जिसमें व्यक्ति की पहचान उसकी जाति से होती है जिसमें उसने जन्म लिया हो। जबकि दूसरी तरफ लोकतांत्रिक व्यवस्था व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं समानता का समर्थन करती हैं, तथा इसमें कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। 


  • संविधान के अनुसार भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं का उदय हुआ, इसने भारतीय समाज को काफी परिवर्तित किया है। इसने राजनीति की प्रकृति को भी बदला है। रजनी कोठारी ने अपनी किताब, "कॉस्ट इन इंडियन पालिटिक्स में यह दलील दी कि भारत में जाति का राजनीतिकरण हो रहा है। 


  • जाति एवं राजनीति के बीच संबंध स्थापित हो गये है जिसने दोनों को बदल दिया है। इसके परिणामस्वरूप जाति का निरपेक्षीकरण हो रहा है। जाति का निरपेक्षीकरण का अर्थ है जाति अपनी परंपरागत भूमिका से हटकर नयी भूमिका में आ गयी है। इसके सिद्धांत अब बदल चुके है। इसने जातियों की धर्मनिरपेक्ष हितों की तरफ जाति को एकत्रित किया है। इससे जातियों के शासन सत्ता एवं रोजगार जैसे मुद्दों पर लामबंदी को बल मिला है। जाति के निरपेक्षीकरण से अंतर्राजातीय समझौतों और गठबंधनों के गठन में मदद मिली है।

 

  • जाति अब नयी भूमिका में आ गयी है। अब जातियों के आधार पर संगठनों का गठन हो रहा है। ये संगठन अपनी जातियों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों को उठा रहे हैं। अब जातिगत संगठन सरकार को अपनी माँग पूरी करने को विवष कर रहे हैं: जैसे, उनकी माँगें हैं शैक्षिक सुविधाऐं, भूमिका बंटवारा एवं मालिकाना, सरकारी नौकरियाँ, इत्यादि । वे अपनी माँगों को पूरा करने के लिए जन सभा करते हैं तथा सरकार को ज्ञापन देते हैं।

 

  • जातियाँ संगठन बनाकर जातियां अपने हितों को व्यक्त करते हैं। जातिवादी संगठन दो प्रकार के होते हैं: एक, जो संगठन विशेष जातियों से बने हैं, तथा दूसरा, विभिन्न जातियों के गठबंधन द्वारा बनाये गये संगठन, जिन्हें संघ कहा जाता है। अपने-अपने हितों को पूरा करने के लिये बनाए जाते हैं, चाहे शिक्षा की सुविधाऐं हों, भूमि पर मालिकाना हक हों, सरकारी नौकरियों इत्यादि के लिए एवं सामाजिक उत्थान के लिए। जातियों के संगठनों की उत्पत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हुई । प्रारंभिक स्तर पर जातिवादी संगठनों का मुख्य संबंध कमजोर वर्गों का प्रतिनिधित्व करना एवं उनकी आवाज बनना था। लेकिन उदारवादी लोकतंत्र एवं वयस्क मताधिकार में विस्तार के बाद उनकी माँग भी बढ़ने लगी, विशेषकर प्रशासन, शिक्षा एवं राजनीति में अपना प्रतिनिधित्व की माँगें । 

रूडोल्फ एण्ड रूडोल्फ के अनुसार जातिवादी संगठनों की भूमिका 

रूडोल्फ एण्ड रूडोल्फ ने भी जातिवादी संगठनों की भूमिका की समीक्षा इस प्रकार की है :-

  • "जातिवादी संगठनों का प्रयास था कि उनके सदस्यों का निर्वाचित कार्यालयों में चयन हो या राजनीतिक दलों के राजनीतिक दलों की गतिविधियों या अपने संगठन बने। वे ये प्रयत्न करते हैं कि राज्य मंत्रीमंडल में उनका प्रतिनिधित्व बढ़े और प्रशासनिक मषीनरी पर दबाव बनाकर अपनी जाति के उद्देश्यों को पूरा करते हैं। विशेषकर, कल्याणकारी, शैक्षिक एवं आर्थिक क्षेत्र में ।


  • जातिवादी संगठनों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्होंने अशिक्षित जनता को राजनीतिक तौर पर संगठित किया जिससे उन्हें राजनीतिक लोकतंत्र के मूल्यों एवं उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने में मदद मिली। इस रणनीति से उनकी स्थिति मजबूत हुई तथा उनकी माँगों को राजनीतिक व्यवस्था द्वारा पूरा करने एवं स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा।

जाति की प्रकृति में बदलाव 

जाति की प्रकृति में बदलाव का प्रमुख कारण है जाति एवं राजनीतिक संस्थाओं के बीच वार्तालाप का होना। रजनी कोठारी ने जाति एवं राजनीति के बीच तीन महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर जोर दिया। 

  • प्रथम बिन्दु है जाति का राजनीतिक भागीदारी के द्वारा धर्मनिरपेक्षीकरण इसने परंपरागत जाति के कठोर लक्षणों को तोड़ा, परंपरागत सामाजिक व्यवस्था को बदलने में योगदान दिया। इससे विभिन्न जातियों को एक दूसरे के साथ संलग्न होने तथा सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिला। 


  • दूसरा बिन्दु एकीकरण आयाम से संबंधित है। जाति व्यवस्था न केवल व्यक्तियों को अपनी जाति के आधार पर अलग करता है बल्कि उन्हें व्यवसाय एवं आर्थिक पहलू पर भी अलग करता है। इसी के साथ-साथ जाति व्यवस्था का आंतरिक ढाँचा भी है जिसमें छोटे समूह कार्य करते है। 


  • तीसरा बिन्दु चेतना से संबंधित है जहाँ जाति का राजनीति में प्रवेश चेतना के आधार पर होता है और इस प्रकार जाति का राजनीतिकरण हो जाता है। वोट के अधिकार ने भी दलितों के अंदर चेतना का भाव पैदा किया है तथा आरक्षण ने इन समुदाय को और अधिक मजबूत बनाया है।

जाति संगठनों एवं राजनीतिक दलों के बीच बातचीत का परिणाम

इस प्रकार जाति संगठनों एवं राजनीतिक दलों के बीच बातचीत का परिणाम को तीन नतीजों से लगाया जा सकता है:- 

  1. पहला, जाति सदस्य विशेषकर गरीब एवं शोषित वर्ग जो सदियों से अछूत माने जाते थे, उन्हें राजनीतिक लाभ मिला तथा वे चुनावी राजनीति में हिस्सा भी लेने लगे ताकि उनका हित पूरा हो सके। 
  2. दूसरा, जातिगत सदस्य कई राजनीतिक दलों में बंट जाते हैं। जिससे जाति बहुत कमजोर हो गई। 
  3. तीसरा संख्या के तौर पर अधिक से अधिक जातियों को निर्णय निर्माण संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिला और इसने परंपरागत रूप से प्रभावसाली जातियों के वर्चस्व को कमजोर किया।

जातिवादी संगठन और राजनीतिक दल 

  • सामान्य तौर पर जातिवादी संगठन राजनीतिक दलों से जुड़े हुए होते हैं। प्रायः जातियों एवं दलों के कार्यक्रम एवं गतिविधि आपस में जुड़े हुए होते हैं। 
  • चुनाव के समय जातिवादी संगठन सम्मेलन एवं पंचायत करते हैं, ताकि वे यह निर्णय कर सके कि वो किस पार्टी को वोट या समर्थन देंगे। सामान्यतया, वे उस पार्टी का समर्थन करते हैं जो उनके मुद्दों को उठाये जिनमें आम मुद्दों के साथ-साथ जाति विशेष के मुद्दे भी शामिल हैं। 

इसके तीन परिणाम हुए: 

  • एक, इससे विभिन्न जातियों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ती है
  • दो, इससे विभिन्न पार्टियों के बीच जातियों का समर्थन भी बंटा है और जाति की कठोरता को दूर किया है; और 
  • तीन, संख्यात्मक रूप से प्रभावशाली जातियों, दलितों एवं पिछड़ों को उच्च जातियों की तुलना में निर्णय प्रक्रिया में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला। इसने बड़ी जातियों के वर्चस्व को कमजोर किया गया है और इससे समावेश को बढ़ावा मिला है।


जाति संगठनों द्वारा उठाये गये मुद्दे

 

  • जाति संगठनों द्वारा उठाये गये मुद्दों में प्रमुख आत्म सम्मान, गौरव, मानव अधिकार, - न्याय, संसाधनों का बंटवारा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, और जाति के अंदर आंतरिक समस्याऐं इत्यादि होते हैं। 
  • दलित एवं अन्य पिछड़े वर्ग के संगठन वर्तमान में जारी आरक्षण को सही मानते हैं तथा वे इस निजि क्षेत्र में भी लागू करने की माँग कर रहे हैं। 
  • कुछ उच्च जातीय संगठन भी उच्च जातियों के लिए आरक्षण की माँग करते हैं। इसके जवाब में अभी हाल ही में 124वां संविधान में संशोधन करके आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई है जिसमें उच्च जातियाँ भी शामिल है।
  • रूडोल्फ एण्ड रूडोल्फ के अनुसार जाति संगठन जातियों को सशक्त बनाने में अपनी लोकतांत्रिक भूमिका निभा रहे हैं । यद्यपि, सभी जातियों ने अपने संगठन बना लिये हैं, लेकिन दलित एवं पिछड़े वर्गों के संगठन अपने वर्गों को सशक्त बनाने में अपनी भूमिका अधिक निभा रहे हैं। ये संगठन न केवल आंतरिक मतभेद एवं विवादों को सुलझाते हैं बल्कि, चुनावों में भी भागीदारी के लिए लोगों को संगठित करते हैं। कई प्रकार के मुद्दों को वे उठाते हैं जैसे, आत्म-सम्मान, जाति-आधारित हिंसा, उत्पीड़न, शारीरिक प्रताड़ना तथा मानव अधिकार जैसे मुद्दे भी शामिल हैं। इसके अलावा भी मुद्दे है जैसे आरक्षण, छूआछूत इत्यादि । ये सभी मानव अधिकार से जुड़े मुद्दे है क्योंकि यू.एन. मानव अधिकार की परिभाषा के अनुसार वे सभी अधिकार जो कि व्यक्ति से जुड़े हुए हों, मानव अधिकार की श्रेणी में आते हैं । 
  • जातिगत संगठन अपनी जाति के सदस्य जिन्होंने परीक्षा में उच्च स्थान प्राप्त किया था खेल एवं अन्य गतिविधि में नाम कमाया है उनको सम्मानित करते हैं। ये
  • संगठन इनके सम्मान में समारोह भी आयोजित करते हैं कई संगठन डा. अम्बेडकर के नाम पर भी बनाये गये है जिनका उद्देश्य अंबेडकर के विचारों को प्रसारित करना तथा सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देना है । 

विषय सूची 

भारत की राजनीति में नृजातीयता
भारत की राजनीति में धर्म 
राजनीति और भाषा
चुनावी राजनीति सोशल मीडिया की भूमिका
भारत में जाति और राजनीति
जाति और राजनीति में अंतःक्रिया , जाति के राजनीतिकरण की विशेषताएं
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका 

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