नैतिक तर्क का अर्थ | नैतिक तर्क प्रक्रिया, कार्य या भूमिका | Meaning of moral reasoning in Hindi

 नैतिक तर्क का अर्थ | नैतिक तर्क प्रक्रिया, कार्य या भूमिका

नैतिक तर्क का अर्थ | नैतिक तर्क प्रक्रिया, कार्य या भूमिका | Meaning of moral reasoning in Hindi


विषयसूची 

  • नैतिक तर्क का अर्थ  
  • नैतिक तर्क की प्रक्रिया
  • नैतिक तर्क के कार्य या भूमिका
  • नैतिक तर्क और कानून


नैतिक तर्क का अर्थ 

  • सामान्य तार्किकता का आशय उपलब्ध तथ्यों के आधार पर सर्वाधिक उपयुक्त तथ्य पर पहुँचना है, जबकि नीति शास्त्र या नैतिकता का आशय मानव व्यवहार के सही और गलत से है। इस तरह नैतिक तर्क का अर्थ होगा मानव जीवन के लिए सही और गलत के संदर्भ में उपयुक्त नैतिक विकल्पों का विकास करना। इस प्रक्रिया में नैतिकता के तत्व जैसे- ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, जवाबदेयता, कार्य के प्रति प्रतिबद्ध, खुलापन और गैर भेदभाव वाला व्यवहार आदि मार्गदर्शन करते हैं।

 

  • प्रत्येक व्यक्ति के अपने मूल्य होते हैं जो कि उसने समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान बनाये हैं लेकिन इन व्यक्तिगत मूल्यों में स्वार्थ, अहम, नियमों का उल्लंघन, स्वप्रमाणी करण में जैसे मूल्य भी शामिल होते हैं और जब व्यक्ति इन मूल्यों के आधार पर निर्णय करता है तो उससे समाज को नुकसान पहुँचता है लेकिन व्यक्तिगत हितों को जरूर फायदा पहुँचता है।

 

  • एक लोकसेवक के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि वह व्यक्तिगत हित को स्थापित करने वाले मूल्यों की जगह सार्वजनिक हित को बढ़ावा देने वाले विकल्पों का चयन करे और इस प्रक्रिया में नैतिक तर्क उसका मार्गदर्शन करते है।

 

 नैतिक तर्क की प्रक्रिया

नैतिक तर्क की प्रक्रिया नैतिक तर्क की प्रक्रिया में निम्नलिखित तर्कों का पालन किया जाना चाहिए।

 

  • सही और गलत आचरण का निर्धारण नैतिक तर्क विकास की प्रक्रिया में प्रथम चरण समाज में उससे संबंधित सही और गलत की अवधारणा का पता करना शामिल है। इससे हमें पता चलता है कि समाज में किसी विशेष विषय में कौन सी अवधारणा प्रचलित है और उसे सही-गलत का दर्जा प्राप्त है।


  • उपर्युक्त तर्कों का नैतिकता से तुलना नैतिक तर्क की प्रक्रिया के प्रथम चरण में ज्ञात किये गये सही और गलत आचरण की नैतिकता के तत्वों जैसे ईमानदारीसत्यनिष्ठा, खुलापन, गैर भेदभाव आदि से तुलना की जाती है। इस प्रक्रिया में हमें नैतिक रूप से स्वीकार्य तर्क प्राप्त होते हैं।

 

  • स्वीकार्य तर्कों या विकल्पों का अंगीकरण- इस चरण में नैतिक रूप से समाज में स्वीकार्य विकल्पों का चयन किया जाता है और यहीं पर नैतिक तर्क की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। यदि एक ही नैतिक विकल्प उपलब्ध हो तो ऐसा न होने की स्थिति में नैतिक दुविधा उत्पन्न हो जाती है।

 

नैतिक तर्क के कार्य या भूमिका

  • वर्तमान समय के समाज में कई चुनौतियोंरिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक दायित्वों में कमी, चारित्रिक गिरावट, नियम उल्लंघन की प्रवृत्ति आदि का सामना कर रहा है। इस संदर्भ में नैतिक तर्क की यह भूमिका है कि यह हमें समाज को ज्यादा फायदा पहुंचाने वाले विकल्पों और समाज के लिए हानिकारक विकल्पों को पहचानने में मदद करता है। 
  • इसी की सहायता से लोक सेवक अपनी कार्य और जिम्मेदारियों को बेहतर तरीके से निष्पादित कर सकते हैं। साथ ही एक आम व्यक्ति के लिए भी इसकी इतनी ही उपयोगिता है। इससे सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करना अधिक सुविधाजनक बन जाता है तथा समाज में शांति, सौहार्द और समानता निर्माण करने में सहायता मिलती हैं।

 

  • नैतिक तर्क और व्यक्तिगत अधिकार जहाँ नैतिक तर्क समाज में सार्वजनिक सुख को बढ़ावा देता है वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत अधिकार व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक है।

 

  • प्रत्येक सभ्य समाज में इन दोनों के बेहतर संतुलन की आवश्यकता होती है लेकिन कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है जिससे कि नैतिक तर्क और व्यक्तिगत अधिकारों में संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। इस दशा में सार्वजानिक हित के लिये और सामूहिक शुभ को बढ़ावा देने के लिये व्यक्तिगत अधिकारों को छोड़ा जाना चाहिए।

 

नैतिक तर्क और कानून

 

  • कानून का सामान्य अर्थ है राज्य द्वारा अधिरोपित वे मान्यताएं जिनके उल्लंघन से समाज में अव्यवस्था या अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है। इसीलिये इनका पालन अनिवार्य एवं उल्लंघन दंडनीय बनाया जाता है। नैतिकता के कई पहलू ऐसे हैं, जिनका कानून की परिभाषा से संघर्ष हो सकता हैं और इन दशाओं में कानून का अनुपालन किया जाना चाहिए।


कानून और नैतिक तर्क में किसे वरीयता दी जाए 

  • यह प्रश्न अवश्य उठता है कि जब कानून और नैतिक तर्क दोनों का ही उद्देश्य सार्वजनिक हित को बढ़ावा देना है। तो फिर कानून को ही क्यों वरीयता दी जाए और इसका जवाब है कानून जहाँ प्रक्रियागत समानता स्थापित करता है वहीं नैतिक तर्क में समय देशकाल के हिसाब से परिवर्तन हो सकता है। और सिर्फ नैतिक तर्क को वरीयता देने से हर बार नये निर्णय समाज के हित में नहीं लिये जाने की संभावना रहती है। इसीलिए कानून को वरीयता की जानी चाहिए।

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