यूरोपीय इतिहास लेखन के सामान्य लक्षण | General Characteristics of European Historiography

यूरोपीय इतिहास लेखन के सामान्य लक्षण

General Characteristics of European Historiography

यूरोपीय इतिहास लेखन के सामान्य लक्षण General Characteristics of European Historiography


 

  • इस आर्टिकल में इतिहास लेखन के सामान्य लक्षणों की विवेचना करेंगे. सबसे महत्वपूर्ण लक्षण के रूप में कुछेक अपवादों को छोड़कर संपूर्ण यूरोपीय इतिहास लेखन में साम्राज्यवादी विचारधारा की मौजूदगी को आसानी से पहचाना जा सकता है. भले ही प्राच्यवादियों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति रुचिसहानुभूति एवं प्रशंसा का प्रदर्शन किया थापरंतु समकालीन भारत को पतित बताया. इसप्रकार कम्पनी राज को उचित ठहराने की कोशिश की गई. उपयोगितावादियों  ने तो संपूर्ण भारतीय इतिहास को ही ख़ारिज कर दिया. जहाँ मिल ने तथाकथित हिन्दू राज को निन्दनीय एवं निकृष्ट बतायावहीं ईलियट ने तथाकथित मुस्लिम शासनकाल को अपनी आलोचना का मुख्य पात्र बनाया. 


  • उपयोगितावादियों के निष्कर्ष उनके विचार से उदार निरंकुशता पर आधारित साम्राज्यवाद को उचित ठहराने के प्रयास मात्र ही थे. उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों या आरम्भिक बीसवीं शताब्दी के यूरोपीय इतिहासकारों ने उभरते राष्ट्रीय आन्दोलन की या तो अनदेखी की या तीखी आलोचना की. उनके अनुसार राष्ट्रीय आन्दोलन अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त अभिजात वर्ग का संघर्ष था जो सत्ता में भागीदारी के अधिक अवसर के लिये चलाया जा रहा था. इसप्रकार इसका साम्राज्यवाद से कोई वैचारिक अथवा आर्थिक अंतर्विरोध नही था. कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहास लेखन में इस मत को और भी तर्कसंगत एवं तथ्यपरक ढंग से पुष्ट करने का प्रयास किया. इसप्रकार यूरोपीय इतिहास लेखन अंतत: भारत मे ब्रिटिश राज के वर्चस्व को बनाए रखने के वैचारिक प्रयास ही थे.

 

  • एक अन्य महत्वपूर्ण लक्षण के रूप में यूरोपीय इतिहास लेखन ने भारत में आधुनिक इतिहास लेखन की नीव डाली. कुछेक शुरुआती अध्ययनों को छोड़कर इन इतिहासकारों नें मूल स्रोतों के आधार पर इतिहास लिखने की परम्परा का शुभारम्भ किया. भारत को समझने के प्रयास में प्राच्यवादियों में संस्कृत के मूल ग्रंथो का बड़े पैमाने पर अनुवाद कर डाला. एल्फिंसटनईलिय और स्मिथ ने मूल भारतीय स्रोतों का प्रयोग करके ही अपने ग्रंथ लिखे. डफ और टाड ने मराठा एवं राजपूत जैसे क्षेत्रीय स्रोतों को खोज निकाला. कालांतर में क्षेत्रीय स्रोतों को प्रकाश में लाने का कार्य कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों ने भी बड़े पैमाने पर किया. इसप्रकार भारतीय इतिहास-लेखन एवं पुनर्लेखन के लिये काफ़ी सामग्री सामने आ गयी. कालांतर में राष्ट्रवादी एवं • मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसी सामग्री का प्रयोग कर यूरोपीय इतिहास लेखन की अनेक मान्यताओं को चुनौती दी.

 

यूरोपीय इतिहास लेखन के प्रभाव

 

  • फिर भी यूरोपीय इतिहास-लेखन के भारतीय इतिहास लेखन पर पड़े दुष्परिणामों को कम करके नहीं आंका जा सकता. यूरोपीय इतिहासकारों की अनेक स्थापनाओं ने भारतीयों के मस्तिष्क पर दूरगामी परिणाम छोड़ा. प्राच्यवादियों की स्थापनाओं ने भारतीयों को अपने विलुप्त अतीत के प्रति केवल जागरुक ही नहीं किया अपितु उनमें प्राचीन भारत की उपलब्धियों के लिये गौरव की एक भावना भी भर दी. जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में इसने बंगाली पुनर्जागरण को प्रभावित कियावहीं इसी शताब्दी के अंत में उभरते हिन्दू राष्ट्रवाद के दंभ को पोषित किया. उपयोगितावादी तथा दूसरे साम्राज्यवादी यूरोपीय इतिहासकारों नें पूर्व औपनिवेशिक भारत के इतिहास को साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दू एवं मुस्लिम कालों मे विभाजित कर दिया. बाद के राष्ट्रवादी इतिहासकारों में भी यूरोपीय इतिहास लेखन की इन विकृतियों को सहज ही स्वीकार कर लिया.


  • हिन्दू साम्प्रदायिक इतिहासकारों ने इन इतिहासों के आधार पर भारत की गुलामीं को पीछे ले जाकर दिल्ली सल्तनत की स्थापना से जोड़कर देखा. भारत की आज़ादी की लड़ाई को हज़ार वर्षों की दासता से मुक्ति का संघर्ष बताया जाने लगा. दूसरी ओर मुस्लिम साम्प्रदायिक इतिहासकारों ने प्राचीन भारत की तमाम उपलब्धियों को तुच्छता की दृष्टि से देखा. भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना को ही सभ्यता एवं संस्कृति के आरम्भ का हेतू बताया गया. इसप्रकार यूरोपीय इतिहास लेखन का साम्राज्यवादी लक्ष्य सम्प्रदायवादियों के हाथों पुष्पित पल्लवित होता रहा. यूरोपीय इतिहासकारों मे मुग़ल-राजपूत तथा मुग़ल मराठा संघर्षों को हिन्दू-मुस्लिम संघर्षों की भाँति पेश किया. 


  • सबसे महत्वपूर्ण यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण की अनदेखी करना था. इसप्रकार भारतीय दासता के मूल लक्षण को ही नज़रअन्दाज़ किया गया. हलांकियूरोपीय इतिहास लेखन को केवल साम्राज्यवादी इतिहास लेखन कह कर ख़ारिज नही किया जा सकता. कुछ लेखक तो साम्राज्यवाद के आलोचक भी थे. यहाँ हम जार्ज ऑरवेल के लेखों तथा एडवर्ड थाम्पसन एवं जी. टी. गैरेट के इतिहास (राईज़ एंड फ़ुलफ़िलमेंट ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया, 1934) को साम्राज्यवादी लेखन के अपवाद के रूप में देख सकते हैंफिर भीयूरोपीय इतिहास लेखन का अधिकांश भाग साम्राज्यवादी ही था.

 


इतिहास लेखन सारांश

 

  • इतिहास लेखन के यूरोपीय मत को यूरोपीय इतिहास लेखन या विचारधारा के आधार पर साम्राज्यवादी अथवा औपनिवेशिक इतिहास लेखन भी कहा जाता है. हालांकि सभी यूरोपीय इतिहासकार साम्राज्यवादी विचारधारा के नहीं थे. फिर भी साम्राज्यवाद इस इतिहास लेखन की मूल विचारधारा रही है. उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में आधुनिक इतिहास लेखन का आरम्भ हुआ. लियोपोल्ड वॉन रैंकलार्ड एक्टन तथा उनके अनुयायी इसके प्रथम वाहक बने । 


  • भारत पर यूरोपीय इतिहास लेखन का आरम्भ अट्ठारहवीं सदी के अंत में प्राच्यवादी (Orientalist) विद्वानों के लेखों द्वारा हुआ. उपयोगितावादी (Utilitarian) विचारधारा उन्नीसवीं शताब्दी के ब्रिटेन में उपस्थित उदारवादी (Liberalism) विचारधारा का ही विस्तार थी. आर्थिक जगत में यह विचारधारा एडम स्मिथ के मुक्त बाज़ार के सिद्धांत में अभिव्यक्त हुयी. परंतु इसका दार्शनिक आधार प्रसिद्ध विद्वान जेरेमीं बेंथम ने दिया. 


  • बेंथम के अनुयायी एवं मित्र उपयोगितावादी जेम्स मिल का मानना था कि भारतीय संस्कृति पतित है तथा भारत के उद्धार की एकमात्र आशा तर्क- बुद्धिवाद के आधार पर निर्मित कठोर कानूनों से ही संभव है. जहाँ प्राच्यवादियों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की प्रशंसा की थीवहीं उपयोगितावादियों ने उसकी तीखी आलोचना की. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक मिल के इतिहास की आलोचना होने लगी थी. यूरोपीय इतिहासकारों ने अब भारतीय इतिहास को भारतीय स्रोतों के आधार पर लिखने का बीड़ा उठायापरंतु उनमें साम्राज्यवादी विचारधारा स्पष्ट पहचाना जा सकता है. 


  • भारत का संपूर्ण इतिहास पाठ्यपुस्तक के रूप में लिखने की श्रृंखला का अगला अध्याय विंसेंट ए. स्मिथ की कृतियों के माध्यम से सामने आया. स्मिथ को आरम्भिक बीसवीं शताब्दी के भारत का सबसे प्रभावशाली इतिहासकार माना जा सकता है. 1960 के दशक में जॉन गैलाघर एवं उनके छात्र अनिल सील के अध्ययनों में कैम्ब्रिज स्कूल की आधारशिला रखी. गैलाघर के पर्यवेक्षण में अनिल सील द्वारा किया गया शोध अध्ययन इमरजेंस ऑफ इंडियन नेशनलिज़्म (1968) के नाम से प्रकाशित हुआ. अनिल सील द्वारा किया गया किया गया राष्ट्रीय आन्दोलन का यह विश्लेषण कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों के लिये दिशा निर्देशक सा बन गया. 


  • जॉन गैलाघरअनिल सील एवं गार्डन जॉनसन द्वारा 1973 में संयुक्त रूप से संपादित लोकॅलिटीप्रॉविंस एंड नेशन : एसेज़ आन इंडियन पॉलिटिक्स 1870 1940 नामक ग्रंथ ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के संबन्ध में कुछेक एकदम नयी अवधारणाओं को जन्म दिया. 1980 तक कैम्ब्रिज स्कूल के साम्राज्यवादी इतिहास लेखन का अंत हो चुका थापरंतु इसकी कुछ अवधारणाओं को लगभग इसी समय सबअल्टर्न के नाम से आरम्भ हुए एक नये इतिहास - लेखन ने आत्मसात कर लिया. हांलाकिसबअल्टर्न अध्ययन एकदम भिन्न प्रकार का इतिहास लेखन था तथा इसका कैम्ब्रिज इतिहास लेखन से कोई प्रत्यक्ष संबन्ध नही था. कालांतर में क्षेत्रीय स्रोतों को प्रकाश में लाने का कार्य कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों ने भी बड़े पैमाने पर किया. 


  • कालांतर में राष्ट्रवादी एवं मार्क्सवादी इतिहासकारों ने यूरोपीय इतिहास लेखन की अनेक मान्यताओं को चुनौती दी. फिर भी यूरोपीय इतिहास लेखन के भारतीय इतिहास-लेखन पर पड़े दुष्परिणामों को कम करके नहीं आंका जा सकता. यूरोपीय इतिहासकारों की अनेक स्थापनाओं ने भारतीयों के मस्तिष्क पर दूरगामी परिणाम छोड़ा. प्राच्यवादियों की स्थापनाओं ने भारतीयों को अपने विलुप्त अतीत के प्रति केवल जागरुक ही नहीं किया अपितु उनमें प्राचीन भारत की उपलब्धियों के लिये गौरव की एक भावना भी भर दी.

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