भारतीय इतिहास एवं इतिहास लेखन का औपनिवेशिक मत |Colonial view of Indian History and Historiography

 

भारतीय इतिहास एवं इतिहास लेखन का औपनिवेशिक मत
 इतिहास लेखन के यूरोपीय मत का अर्थ 
भारतीय इतिहास एवं इतिहास लेखन का औपनिवेशिक मत  इतिहास लेखन के यूरोपीय मत का अर्थ

इतिहास लेखन के यूरोपीय मत का अर्थ 

  • सर्वप्रथम हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि इतिहास लेखन के यूरोपीय मत से हम क्या समझते हैं. मूलतः इतिहास लेखन की वह परम्परा जो औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा आरम्भ की गयी, और जिसका मुख्य लक्ष्य भारत में ब्रिटिश शासन की उपस्थिति को तर्कसंगत ठहराना था, , को इतिहास लेखन का यूरोपीय मत कहा जाता है।

 

  • सामान्यत: इतिहास लेखन के यूरोपीय मत को यूरोपीय इतिहास लेखन या विचारधारा के आधार पर साम्राज्यवादी अथवा औपनिवेशिक इतिहास लेखन भी कहा जाता है. हलांकि सभी यूरोपीय इतिहासकार साम्राज्यवादी विचारधारा के नहीं थे. फिर भी साम्राज्यवाद इस इतिहास लेखन की मूल विचारधारा रही है।

 

  • यूरोपीय साम्राज्यवादी इतिहास लेखन की नवीन प्रवृत्ति को हम कैम्ब्रिज स्कूल के नाम से भी जानते हैं. आगे हम यूरोपीय इतिहास लेखन की विभिन्न प्रवृत्तियों तथा उनके लक्षणों की पृथक पृथक तथा सामूहिक रूप से चर्चा करेंगे.

 

यूरोपीय इतिहास लेखन एवं आधुनिक इतिहास लेखन में संबन्ध

European Historiography and Modern Historiography

 

  • यूरोपीय इतिहास-लेखन वास्तव में आधुनिक इतिहास लेखन की परम्परा के साथ-साथ आरम्भ हुआ. भारत में जिस परम्परागत इतिहास लेखन का प्रचलन था उसमें तिथियों तथा तथ्यों पर अधिक ध्यान नही दिया जाता था. उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में आधुनिक इतिहास लेखन का आरम्भ हुआ. इस समय लियोपोल्ड वॉन रैंक ने प्राथमिक स्रोतों के आधार पर इतिहास लिखने पर बल दिया. उनका विश्वास था कि समकालीन तथ्यों की रोशनी में ऐतिहासिक सत्य को पुनः प्राप्त किया जा सकता है. 
  • लार्ड एक्टन तथा उनके अनुनायियों नें मूल स्रोतों के आधार पर इतिहास को पुनर्गठित करने की जोरदार वकालत की. फलस्वरूप यूरोप सहित पूरी दुनिया में राष्ट्रीय अभिलेखागारों की स्थापना की जाने लगी ताकि, मूल स्रोतों को एकत्रितकर उनका अध्ययन किया जा सके. भारत सहित उपनिवेशों में भी अभिलेखागारों, संग्राहालयों, पुस्तकालयों और पुरातत्व विभागों की स्थापना का यही प्राथमिक उद्देश्य था. फिर भी अनेक यूरोपीय इतिहासकारों ने अक्सर या तो तथ्यों को नज़रअंदाज़ किया या समूचित रूप से उनका प्रयोग ही नही किया. आगे हम यूरोपीय इतिहास लेखन की मूल प्रवृत्तियों एवं उसके प्रमुख इतिहासकारों की चर्चा करेंगे.

 

प्राच्यवादियों द्वारा भारतीय अतीत की खोज
Exploration of Indian Past By Orientalists

 

  • भारत पर यूरोपीय इतिहास लेखन का आरम्भ अट्ठारहवीं सदी के अंत में प्राच्यवादी (Orientalist) विद्वानों के लेखों द्वारा हुआ. प्राच्यवादियों ने उत्सुकता एक असीम भारतीय अतीत की खोज आरम्भ की. परन्तु, क्रमबद्ध तथ्यों के अभाव ने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक पुर्नलेखन को बाधित किया. 
  • रॉबर्ट ऑर्मे अपनी रचनाओं में मुगल, मराठा या ब्रिटिश शासनकाल की ही चर्चा कर सके थे. अत: प्रख्यात प्राच्यविदों विल्किन्स तथा विलियम जोंस ने प्राचीन साहित्यिक एवं विधि की संस्कृत कृतियों के अनुवाद किये ताकि प्राचीन भारत के बारे में जाना जा सके. चार्ल्स विल्किन्स ने भगवतगीता तथा हितोपदेश का अनुवाद किया. 
  • विलियम जोंस की साहित्यिक अभिरुचि उनके बहुप्रसिद्ध अनुवाद शकुंतला से अभिव्यक्त हुयी. फिर भी, जोंस का मुख्य उद्देश्य प्राचीन हिन्दू विधि-ग्रंथों का अनुवाद करना था. इसके लिये उन्होंने पहले प्राच्यविदों में संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता विल्किन्स से अनुरोध भी किया था.
  • विल्किन्स के रुचि ना दिखाने पर जोंस ने स्वयं संस्कृत सीखी और मनुस्मृति का अंग्रेज़ी अनुवाद किया. प्राचीन हिन्दू विधि-ग्रंथों का अनुवाद आरम्भिक कम्पनी राज के साम्राज्यवादी उद्देश्यों से जुड़ा हुआ था. इसका एक घोषित लक्ष्य हिन्दू पंडितों द्वारा विधि की मनमानी व्याख्याओं से मुक्ति पाना था. 
  • जोंस ने विधि की व्याख्या के लिये पूरी तरह पंडितों या मौलवियों पर निरभरता को एक ख़तरे की भाँति देखा. उन्होंने अंग्रेज़ प्रशासकों को भारत में प्रचलित शास्त्रीय भाषाएँ - फ़ारसी एवं संस्कृत सीखने के लिये प्रेरित किया. इसी उद्देश्य से जोंस ने भारत आने से पूर्व ही फ़ारसी व्याकरण की एक पुस्तक भी लिखी थी. 
  • जोंस की सबसे प्रभावकारी खोज संस्कृत का समीकरण यूरोप की महान भाषाओं लेटिन तथा ग्रीक से करना था. उन्होंने संस्कृत, लेटिन, ग्रीक आदि को एक पूर्वकालीन भारोपीय भाषा की संतान बताया, जो अब लुप्त हो चुकी थी. उनका यह विचार एक उच्च, श्वेतवर्णीय एवं शासक आर्य प्रजाति के सिद्धांत से जुड़ा हुआ था. इसप्रकार यह विचार भारत में अंग्रेज़ों के शासन की उपस्थिति को जायज ठहराता था. फिर भी, प्राच्यवादियों की खोजों ने भारतीय इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में ला दिये. 
  • जोंस ने ग्रीक विवरणों में उल्लिखित सैंड्रोकोटस का समीकरण संस्कृत स्रोतों में वर्णित चंद्रगुप्त से किया. चूकिं ग्रीक स्रोतों में सेल्यूकस के साथ चंद्रगुप्त के युद्ध एवं संधि की तिथियाँ दी गयीं थी, अत: पहली बार प्राचीन भारतीय इतिहास में मौर्यकाल के आरम्भ का कालनिर्धारण संभव हो सका. 
  • प्राचीन भारतीय इतिहास को प्रकाश में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका एक अन्य प्राच्यविद जेम्स प्रिंसेप ने अदा की. उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में उन्होंने अभिलेखों की प्राचीन ब्राह्मी लिपि को सफलतापूर्वक पढ़ लिया. इससे न केवल मौर्यकालीन महान शासक अशोक, बल्कि पालि ग्रंथों में लिखित बौद्ध धर्म का इतिहास भी सामने आ गया. इन प्रारम्भिक उपलब्धियों के बावजूद प्राच्यविद भारत का क्रमबद्ध ऐतिहासिक विवरण नहीं दे सके और यह कार्य उनके वैचारिक विरोधियों उपयोगितावादियों के ज़िम्मे आया.


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