सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति की असमानताएँ एवं समानताएँ (Differences and Similarities between Indus Civilization and Vedic Culture)

 

सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति में अंतर 

सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति की असमानताएँ एवं समानताएँ (Differences and Similarities between Indus Civilization and Vedic Culture)

सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति में अंतर  सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति की असमानताएँ एवं समानताएँ (Differences and Similarities between Indus Civilization and Vedic Culture)


 

सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति में आसमानताएं 


  • सामान्यतः वैदिक संस्कृति को सैन्धव सभ्यता के अनुवर्ती काल में विकसित माना जाता है।
  • वैदिक संस्कृति से तात्पर्य उस संस्कृति से है, जिसका निरूपण वैदिक साहित्य में मिलता है।
  • सैन्धव सभ्यता के उत्कर्ष काल के पश्चात वैदिक युग के आगमन के साथ एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ। इसमें नगरीय सभ्यता समाप्त हो गयी और बड़े ग्राम्यीकरण का आविर्भाव हुआ।
  • सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में वैदिक जन पशुचारण की अवस्था वाले समाज के सदस्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो कृषि कर्म से भी परिचित थे। कालान्तर में स्थाई रूप से बस जाने के साथ वे प्रमुख रूप से कृषि कार्य में संलग्न हो गये और उत्तर वैदिक काल के अन्तिम चरण में हम पुनः नगरीकरण होते हुए देखते हैं। 
  • इस प्रकार वैदिक संस्कृति एवं सैन्धव सभ्यता में कुछ आधारभूत असमानताओं को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की उपज माना जाता है। 
  • मार्शल और कुछ अन्य विद्वानों ने सैन्धव सभ्यता और वैदिक संस्कृति में परस्पर असमानताओं की चर्चा की है।
  • वैदिक संस्कृति एक ग्रामीण संस्कृति थी, ऋग्वेद में नगरों का उल्लेख नहीं मिलता। 
  • उत्तर वैदिक काल में नगरों का विकास हुआ, तत्कालीन साहित्य में काम्पिल कारपशव, कारोटी, कौशाम्बी, नैमिष आदि का उल्लेख मिलता है। परन्तु उक्त नगरों का विकास बहुत बाद में हुआ। इन नगरों को किसी योजनाबद्ध तरीके से विकसित किया गया, सड़कों का पूर्व से प्रावधान किया जाता था एवं समुचित प्रणाली व्यवस्था थी, इसका उल्लेख नहीं मिलता। 
  • इससे प्रतिध्वनि होता है कि वैदिक जनों को प्रारम्भ में नगर निर्माण योजना का अभिज्ञान नहीं हो पाया था। 
  • दूसरी ओर हम देखते हैं कि सैन्धव सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी। सैन्धव नगरों में प्रचलित प्रणाली व्यवस्था आधुनिक नगरों के समान थी। शहर वार्डों में विभक्त था। सड़कें बिछाने की कार्रवाही पूर्व से निष्पादित की जाती होगी। 
  • मार्शल ने दूसरी असमानता की चर्चा करते हुए लिखा है कि आर्य धातुओं में सोने तथा चांदी से परिचित थे। ऋग्वेद में स्वर्ण आभूषणों का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में 'अयस्' नामक धातु का विवरण आया है। विद्वानों की मान्यता है कि अयस् का अर्थ ताँबा है जिसे ठोक-पीटकर बढ़ाते हुए बर्तन बनाये जाते थे। 
  • अथर्ववेद में लोहे को श्याम अयस्" कहा गया है जबकि ताँबे को लाल (लोहित) अयस् की संज्ञा दी गई है। सीसा (लेड) को एक स्थान पर लोहा तथा सोना से भिन्न बताया गया है। काणे ने लिखा है कि वैदिक साहित्य में 'अयस्ताप' (अयस् को गर्म करने वाला) शब्द मिलता है। जबकि सैन्धव जन ताम्र एवं कांस्य के विभिन्न आयुधों तथा उपकरणों का निर्माण करना जानते थे, किन्तु लोहे से परिचित नहीं थे। 
  • आर्यों के जीवन में अश्व का बड़ा महत्त्व था। घोड़ा शक्ति एवं गति का प्रतीक होने के साथ-साथ अग्नि एवं सूर्य का प्रतीक था। आर्य जनों द्वारा लड़े जाने वाले युद्धों में प्रयुक्त रथ घोड़ों द्वारा खींचे जाते थे। सम्भवतः बोझा ढोने के लिए तथा हल खींचने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता था। किन्तु सैन्धव लोग अश्व से परिचित थे, इसके निश्चित प्रमाण नहीं मिलते।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त हड्डी का साक्ष्य ऊपरी स्तर से प्राप्त होने के कारण बहुत प्रमाणिक नहीं माना गया है। सुरकोटड़ा में भी घोड़े की हड्डियाँ मिली हैं किन्तु एक मात्र साक्ष्य के आधार पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार लोथल से प्राप्त एक मृणमूर्ति के विषय में यह नहीं स्वीकार किया गया हैं कि यह घोड़े का प्रतिरूप बनाई गई है। 
  • आलचिन दम्पत्ति की धारणा है कि प्राप्त अवशेषों के आधार पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता कि पूर्व हड़प्पा एवं हड़प्पा काल में घोड़े का उपयोग किया जाता था। वेदों में व्याघ्र का उल्लेख नहीं मिलता किन्तु सैन्धव मुद्राओं पर व्याघ्र का पर्याप्त मात्रा में अंकन देखा जाता है। 
  • मार्शल् एवं मैक्डॉनल आदि ने यह विचार व्यक्त किया है कि हाथी का उल्लेख ऋग्वेद में केवल दो स्थानों पर हुआ है एवं इसके लिए 'हस्ति मृग' शब्द का प्रयोग किया जाता था, जो अधिक परिचित पशु नहीं था।
  • प्रो. अविनाश चन्द्र दास ने यह प्रतिपादित किया है कि हाथी के लिए 'इभ' तथा 'वारण' शब्द का प्रयोग किया गया। अतः मार्शल के इस विचार से सहमति प्रकट नहीं की जा सकती है कि ऋग्वैदिक आर्य हाथी से अधिक परिचित नहीं थे। मोहनजोदड़ों के उत्खनन से एक मुद्रा प्राप्त हुई, जिसमें त्रिमुखी पुरुष आकृति अंकित है। पूर्व में जैसा उल्लेख किया गया है कि उक्त आकृति को शिव पशुपति का प्राग् रूप माना गया है। उक्त आकृति के दाँयीं ओर हाथी और बाघ तथा बाँयीं ओर गैंडा एवं महिष और आसन के नीचे दो हरिण दिखलाये गये हैं। इससे यह प्रतिभासित होता है कि सैन्धव उक्त सभी पशुओं से परिचित थे। 
  • आर्य गाय को विशेष आदर देते थे। ऋग्वेद के दशम् मण्डल का 19वाँ एवं 169वां सूक्त गायों की स्तुति में लिखे गये हैं। इनकी समृद्धि के लिए रुद्र, पर्जन्य, प्रजापति आदि देवताओं से प्रार्थना की गई। याज्ञिक अनुष्ठान के अवसर पर भी पुरोहित को दी जाने वाली दक्षिणा में मूलतः गाय ही दी जाती थी। 
  • दूसरी ओर सैन्धव स्थलों से प्राप्त मुद्राओं तथा अन्य कलाकृतियों से लगता है कि की विशेष महत्ता नहीं थी अर्थात् गाय की अपेक्षा वृषभ अधिक महत्त्वपूर्ण था। 
  • सैन्धव स्थलों से प्राप्त मुद्राओं में बैल की विभिन्न आकृतियों का अंकन मिलता है। कूबड़वाला बैल, छोटे सींग वाला बैल आदि यद्यपि हड़प्पा सभ्यता में बैल 'शिव-पशुपति' (प्राग् देव) से सम्बद्ध था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। 
  • विद्वानों की मान्यता है कि कुछ मुद्राओं पर अंकित छोटे सींग वाले बैल को क्रुद्ध मुद्रा में दिखाने का कारण यह हो सकता है कि सम्भवत: उसकी कल्पना एक संहारकारी देवता (शिव) के वाहन रूप में की गई हो। 

  • आर्य सम्भवतः मूर्ति पूजक नहीं थे, जबकि प्राप्त अवशेषों के आधार पर विद्वानों की मान्यता है कि सैन्धव लोग मूर्ति पूजक थे। यह भी कहा गया है कि सैन्धव लोग लिंग पूजा भी करते थे, परन्तु आर्यों में इसका अभाव ही नहीं था. बल्कि इसे घृणा की दृष्टि से देखा जाता था एवं शिश्न देव या लिंग पूजा की भर्त्सना की गई। प्रागार्यों को लिंग पूजक कहा गया।

 

  • सैन्धव स्थलों से प्रभूत संख्या में उपलब्ध नारी मूर्तियों से प्रतिभासित होता है कि सैन्धव देवताओं में मातृदेवी को विशिष्ट स्थान प्राप्त था। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त उक्त नारी मूर्तियों को मातृदेवी की संज्ञा प्रदान की गई है एवं इस आधार पर कुछ विद्वानों ने सैन्धव समाज को मातृसत्तात्मक होने की सम्भावना व्यक्त की है। इसके विपरीत हम देखते हैं कि आर्य जनों के लिए पुरुष देवता अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इन्द्र की स्तुति में लगभग 250 ऋचायें लिखी गई हैं, अर्थात् वेद की सम्पूर्ण ऋचाओं का चौथा भाग एकमात्र इन्द्र की स्तुति से भरा है। ऋग्वेद का सातवां मण्डल 'वरुण' की स्तुति में लिखा गया है। अन्य वैदिक देवों में सूर्य, विष्णु, अग्नि, सोम आदि प्रमुख हैं। ऋग्वेद में उषा, अदिति, पृथ्वी, सरस्वती आदि देवियों की स्तुति भी मिलती है परन्तु इन्हें अपेक्षाकृत कम महत्त्व दिया गया।

 

  • मार्शल ने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में अग्नि कुण्डों के अवशेषों का न मिलना इस तथ्य का प्रमाण माना है कि सैन्धव सभ्यता में यज्ञादि का प्रचलन नहीं रहा होगा। यद्यपि परवर्ती उत्खननों में अग्नि वेदियों के अवशेष प्राप्त हुई हैं।

 

  • कालीबंगा में एक चबूतरे पर कुएं के पास सात आयताकार अग्निवेदियां एक कतार में मिली हैं, इन्हें धार्मिक अनुष्ठान का प्रतीक माना जाता है। एच. डी. सांकालिया की मान्यता है कि सम्भवतः हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में भी ऐसे उदाहरण रहे होंगे, किन्तु प्रारम्भ में तीव्र गति से किये गये उत्खननों में उसकी पहचान नहीं हो पाई। तथापि सैन्धव लोग आर्यों की भांति यज्ञ विधान से परिचित थे, अभिलिखित साक्ष्य के अभाव में कुछ कहना कठिन है। किन्तु वैदिक काल में आर्य देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों का सम्पादन करते थे। यज्ञ को देवताओं की प्रशस्ति कहा गया है। यज्ञ से देवता बली होते हैं एवं देवताओं को यज्ञ के योग्य माना गया। 


  • सैन्धव स्थलों से प्राप्त मुद्राओं एवं उपकरणों से स्पष्ट होता है कि सैन्धव जन लेखन कला जानते थे। आर्यों के विषय में कुछ विद्वानों की मान्यता है कि उनकी भाषा संस्कृत थी, किन्तु लिपि का विकास बाद में हुआ अर्थात् आर्य लिखना नहीं जानते थे एवं अध्यापन मौखिक रूप से करते थे। दूसरी ओर अभी तक सैन्धव लिपि को पूरी तरह पढ़ा जाना संभव नहीं हो पाया है।

 

  • ऋग्वेद में दुर्गों का उल्लेख मिलता है। एक आर्येतर देश को सौ पुरों का भी विवरण आया है। वैदिक देव इन्द्र को 'पुरन्दर' अर्थात् दुर्गों या पुरों का भेदन करने वाला कहा गया है। इतिहासकारों का विचार है कि ऋग्वेद में विवेचित दुर्ग सैन्धव नगरों एवं दुर्गों की ओर संकेत है क्योंकि वैदिक जन दुर्ग निर्माण कला से अनभिज्ञ ही नहीं थे, बल्कि आर्यों ने नगरों का निर्माण करना भी बहुत बाद में प्रारम्भ किया।

 

  • प्रगार्यों के विषय में भी ऋग्वेद से पर्याप्त जानकारी मिलती है-आर्येतर लोगों को अपरिचित भाषा में बोलने वाला (मृद्धवाक्), वैदिक कर्मों से रहित (अर्कमन्), वैदिक दैवों को न मानने वाले (अद्वेयु), यज्ञों से शून्य (अयज्वन), धार्मिक विश्वास से रहित (अब्रह्मन) एवं व्रतों से रहित (अव्रत) कहा है।

 

  • आर्य विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण करते थे एवं अपनी रक्षा हेतु कवच (वर्म) बनाना भी जानते थे। परन्तु आर्यों के रक्षा साधन शिरस्त्राण और कवच आदि से सैन्धव लोग अनभिज्ञ थे। सैन्धव स्थलों के उत्खनन् से रक्षा सम्बन्धी कोई भी सामग्री प्राप्त नहीं हुई है।

 

उपरोक्त विवेचन से हम कह सकते हैं कि सैन्धव सभ्यता एवं वैदिक संस्कृति में ऐसे अनेक तथ्यों का उल्लेख किया जा सकता है जो दोनों प्रकालों एवं जीवन पद्धतियों को भिन्न सिद्ध करने में स्वतः सिद्ध प्रमाण है। 


सिन्धु सभ्यता और वैदिककालीन संस्कृति में समानताएं 


ऋग्वेद कालीन संस्कृति सैन्धव सभ्यता के पश्चात विकसित हुई और उसका विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ। यद्यपि इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता है कि संस्कृतियाँ पारस्परिक संघर्ष एवं समन्वय के परिणामस्वरूप समन्वित होकर नये रूप में सामने आती हैं।

 

 

समानताएँ – 

उपरोक्त असमानताओं के साथ-साथ कुछ समान दृष्टिकोण दोनों संस्कृतियों में पाये जाते हैं। उनका विवेचन करना युक्ति संगत होगा। 

  • 'पशुपति शिव' का अंकन सैन्धव मुद्राओं पर हुआ है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। ऋग्वेद में भी शिव अर्थात् रुद्र का वर्णन आया है। रुद्र की स्तुति में तीन मंत्र लिखे गये हैं। रुद्र को वन में निवास करने वाला जटाधारी तथा श्रेष्ठ भिषग कहा गया है। विद्वानों की मान्यता है कि सम्भवतः रुद्र की अवधारणा सैन्धव सभ्यता से ग्रहण की गई हो।

 

  • जैसा कि पूर्व में चर्चा की गई है कि मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि स्थलों से स्त्री मृणमूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, पुराविदों ने इन्हें मातृदेवी की मूर्तियाँ माना है। सैन्धव स्थलों से प्राप्त मुद्राओं पर अंकित स्त्री आकृतियों के धार्मिक महत्त्व के विषय में कोई संशय नहीं किया जा सकता।

 

  • प्राचीन कालीन देवों में आकाश तथा पृथ्वी की पूजा सबसे पहले प्रारम्भ हुई होगी। ऋग्वेद में भी पृथ्वी एक दैव्य रूप में वर्णित है। ऋग्वेद काल में सर्वाधिक महत्त्व देवी अदिति को दिया गया। अदिति को सबकी उत्पत्ति का कारण एवं समस्त जगत की जननी कहा गया है। यह तथ्य सैन्धव स्थल से प्राप्त मुहर के उस चित्रांकन की ओर संकेत करता है, जिसमें एक सर्वथा नग्न स्त्री को अपने दोनों पैरों को फैलाये उल्टा लेटे हुए दर्शाया गया है तथा इसके गर्भ से एक वृक्ष निकलता हुआ दिखाया गया है। मुहर के दूसरे पक्ष पर हाथ में हंसिया जैसी वस्तु लिए हुए एक पुरुष तथा भूमि पर बैठी दोनों हाथों को ऊपर उठाकर प्रणाम करती हुई स्त्री आकृति अंकित है। इस अंकन को देखकर सहज ही यह विचार उठता है कि यह चित्रांकन मातृ शक्ति का पृथ्वी माता के रूप में उपासना को इंगित करता है। सम्भव है कि वैदिक ऋषियों ने अदिति रूप में सर्व जगत की जननी एवं पृथ्वी की देवी रूप में उपासना का विचार सैन्धव सभ्यता से ग्रहण किया हो।

 

  • इसी प्रकार कालीबंगा के गढ़ी, टीले कोटडीजी के शहरी टीले पर चबूतरों पर अनियमित आकृति के गड्ढों को अग्नि पूजा का प्रतीक माना है। ऋग्वैदिक देवों में अग्नि को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। अग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी गई, उसे देवताओं की हवि पहुँचाने का माध्यम भी कहा गया है। इतना ही नहीं अग्नि को ज्ञान कर्म का प्रेरक एवं यशस्वी रूप में विवेचित किया गया है। इस तरह अग्नि का समान महत्त्व दोनों संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में देखा जाता है।

 

  • मोहनजोदड़ो-हड़प्पा आदि से अनेक कुओं एवं स्नानागार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पुराविदों की मान्यता है कि सैन्धव जनों में जल पूजा तथा नदी पूजा का प्रचलन था। घड़ियाल का अंकन भी नदी देवता का निरूपण माना गया। धार्मिक अवसरों पर सामूहिक स्नान का प्रावधान था और विद्वानों ने प्रसिद्ध स्नानागार को इसी रूप में विवेचित किया है। वैदिक ऋषि भी 'पर्जन्य' एवं 'आप' को जल देव के रूप में स्वीकार करते हैं। इन्द्र को भी वर्षा का देवता कहा है। सरस्वती नदी की देवी रूप में प्रार्थना की गई है।

 

  • सैन्धव स्थलों के उत्खनन से मिट्टी तथा प्रस्तर से बनी पशुओं की मूर्तियाँ मिली हैं। मुहरों पर भी विविध पशुओं का अंकन देखा जाता है महिष, चीता, वृषभ, हाथी, गेंडा, हरिण आदि सम्भवतः ये किसी न किसी रूप में पूजा के विषय रहे हों। ऋग्वेद में भेड़, बकरी, कुत्ता, बैल, मृग, सिंह, हाथी का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में स्वर्ण आभूषणों का वर्णन मिलता है। प्रमुख आभूषण हैं कान के कुण्डल (कर्ण शोभन), कंठे, नूपुर, हार, गले में मणियाँ आदि। इनमें से अधिकांश आभूषण सैन्धव जन भी उपयोग करते थे।

 

  • सैन्धव सभ्यता की अद्वितीय विशेषता रुई से वस्त्र बुनने की कला थी। ऋग्वेद कालीन आर्यों का भी यह एक सुपरिचित उद्योग था। ऋग्वेद में बुनकर को 'वाय' करघे को 'वेमन्', चरखी को 'तसर', ताने को ओतु एवं बाने को तन्तु कहा गया है।

 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सैन्धव सभ्यता एवं वैदिक संस्कृति में अनेक तथ्य समान रूप से देखने को मिलता है। सैन्धव सभ्यता की अनेक परम्परायें, धार्मिक अवधारणायें, वैदिक युग में देखने को मिलती हैं। दूसरी ओर उनके नगर नियोजन एवं वास्तु शिल्प कला को ग्रहण करने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। जहाँ वैचारिक आधार भूमि में निरन्तरता का आभास मिलता है, वहीं कलात्मक दृष्टि से इस प्रकार के प्रमाण का अभाव अभी भी रहस्यपूर्ण तथ्य बना हुआ है।


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