19 vi sadi ke samajik dharmik sudhar andolan |19 वीं शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन

19 वीं शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन

19 वीं शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन

19वीं शताब्दी के भारतीय समाज में अनेक कुरीतियाँ विद्यमान थीं। तत्कालीन हिन्दू समाज में जाति प्रथा के बंधन कठोर हो गए थे। छुआछूत की भावना विद्यमान थी। सती प्रथा एवं बाल हतया का प्रचलन थां समाज में अंध विश्वास व रूढि़वादिता व्याप्त थी। मूर्ति पजा व धर्म से संबंधित कर्मकाण्ड की प्राधनता थी। सौभाग्य से इसी समय अनेक महान विभूतियों यथा- राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महादेव गोविन्द रानाडे आदि का ध्यान समाज में व्याप्त  इन दोषों की ओर गया। अतः इन्होंने समाज में व्याप्त दोषों को दूर करने का बीड़ा उठाया। परिणामस्वरूप सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आंदोलनों की बाढ़ सी आ गई। इन महान् सुधारकों के नेतृत्व में अनेकानेक धार्मिक सामाजिक सुधार आंदोलन हुए।

ब्रह्म समाज Bhramh Samaj

20 अगस्त 1828 ई. में महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने अपने सतत् प्रयासों से सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या वध को लॉर्ड विलियम बैंटिंक के सहयोग से बंद कराया। विधवा विवाह को प्रोत्साहन देने की दिशा में कार्य किया। 1830 ई. में समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता में बाधक नियमों के विरूद्ध सफल आंदोलन चलाया। देश के पुनरूत्थान के लिए अंग्रेजी शिक्षा को आवश्यक समझते थे। अतः उन्होंने कलकत्ता में एक कॉलेज की स्थापना की, जो प्रेसीडेंसी कॉलेज बन गया। वे एकेश्वरवादी थे। 27 सितम्बर 1833 में बिस्टल में उनकी मृत्यु के पश्चात ब्रह्म समाज का नेतृत्व देवेन्द्रनाथ टैगोर ने संभाला। 1857 ई. में केश्वचन्द्र भी इसक सदस्य हो गए किन्तु टैगोरे से मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने बह्म समाज ऑफ इंडिया की स्थापना की। बाद में इसमें भी दो दल बन गए एक केशव चन्द्र सेन का समर्थक तथा दूसरा विरोधी । इस प्रकार ब्रह्म समाज तीन शाखाओं में विभक्त हो गया।

ब्रह्म समाज के उद्देश्य

1- एकेश्वरवाद में विश्वास, सृष्टि की रचना व संरक्षण वही करता है जो सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापक है। उसकी कृपा से ही मोक्ष संभव है।

2- ईश्वर को कोई आकार नहीं है अतः अवतारवाद झूठा है।

3- प्रार्थना में विश्वास आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है।

4- कर्मफल में विश्वास

5- जीवात्मा अमर है।

6- सत्य के अन्वेषण में विश्वास।

7- मूर्तिपूजा व्यर्थ है।

8- जाति प्रथा, छुआछूत समाप्त होनी चाहिए।

9- बाल विवाह, सती प्रथा पर रोक लगे और विधवा विवाह का प्रचार होना चाहिए।

प्रार्थना समाज Prarthna Samaj

ब्रह्म समाज के प्रभाव से प्रभावित होकर डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग द्वारा सन् 1867 ई. में प्रार्थना समाज की स्थापना की गई। महाराष्ट्र में महादेव रानाडे एवं गोपाल भण्डारकर इसके मुख्य स्तंभ थे। इसके अतिरक्त केशवचन्द्र सेन, नवीन चन्द्र राय, पी.सी. मजूमदार, बाबू महेन्द्र नाथ बोस तथा नारायण चन्द्रवरकर जैसे महान ब्रह्म समाज के सदस्यों ने अपने सतत् प्रयासों से इस संस्था को एक मजबूत एवं उन्नत आधार प्रदान किया। महान देशभक्त गोविंद रानाडे ने तो अपना संपूर्ण जीवन इस संस्था को सफल बनाने में ही व्यतीत कर दिया।

प्रार्थना समाज के सिद्धांत

1- विवेकपूर्ण उपासना करना।

2- जाति प्रथा का बहिष्कार करना।

3- विधवा विवाह का प्रोत्साहन करना।

4- बाल विवाह का बहिष्कार करना।

5- स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देना।

6- अन्य सामाजिक सुधार यथा श्रम-जीवियों को शिक्षित बनाना, अछूतो का उद्धार करना आदि।

आर्य समाज Aarya Samaj

19वीं शताब्दी के महान सुधारकों में स्वामी दयानंद सरस्वती प्रमुख थे। उनका जन्म 1824 ई. में काठियावाड़ में एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मूलशंकर थासत्यार्थ प्रकाशके माध्यम से उन्होंने अपने विचार अभिव्यक्त किए। धर्माें की तुलनात्मक विवेचना की उनकी दृष्टि में वैदिकधम्र ही सर्वश्रेष्ठ था। इसलिए उन्होंने वेदों  की तरफ लौटोका नारा दिया। उन्होंने 10 अप्रैल 1875 ई. को बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने भारत में बढ़ते हुए ईसाइयत के प्रभव को रोकने का प्रयास किया। 1883 ई. में स्वामी दयानंद सरस्वत की मृत्यु हो गई। सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों में आर्य समाज को अत्याधिक सफलता प्राप्त हुई।

आर्य समाज के प्रमुख सिद्धांत

1- ईश्वर एक है- ईश्वर की उपासना का मूर्ति पूजा से कोई संबंध नहीं है।

2- वेदवाक्य ईश्वर वचन हैं-सत्य हैं।

3- वेद धर्म आवागमन के सिद्धांत को मानता है।

4- मोक्ष का अर्थ  आवागमन से मुक्ति। यह मुक्ति ईश्वर की कृपा से ही संभव है।

5- ईश्वर सच्चिदानंद, निराकारी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान तथा दयावान है। वह अजर अमर है वह अजन्मा है उसकी उपासना ही उचित है।

6- वेदों का अध्ययन,मनन तथा अनुशीलन श्रेयस्कर है क्योंकि वेद ही सत्य शिक्षा तथा ज्ञान का भंडार हैं।

7- कार्य को औचित्य की कसौटी पर ही कसकर रखना चाहिए।

8- समाज का उद्देश्य मान जाति की शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करके मानव समाज का कल्याण करना है।

9- सत्य को ग्रहण करना व असत्य का त्याग करना चाहिए।

10- अविद्या का नाश तथा विद्या का प्रचार करना चाहिए।

11- व्यक्ति के साथ उसे गुणों के अनुरूप प्रेम तथा न्याय का व्यवहार करना चाहिए।

12- समाज की उन्नति को अपनी उन्नति समझना चाहिए, अर्थात् व्यक्ति का हित ही समाज का हित है।

13- व्यक्ति को आचरण की स्वतंत्रता व्यक्तिगत क्षेत्र में होनी चाहिए, किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में लोक कल्याण को सर्वोपरि मानना चाहिए। सार्वजनिक हित के समक्ष व्यक्तिगत हित का महत्व नहीं है।

आर्यसमाज ने भारत में एक नवीन चेतना का सूत्रपात किया, जिससे हिन्दुओं के आत्मसम्मान में वृद्धि हुई। इस संस्था ने शुद्धिमार्ग को जन्म दिया तथा छुआछूत मिटाने की दिशा में प्रयास किया।

रामकृष्ण मिशन Ramkrishna Mission

स्वामी विवेकानंद महान विचारक स्वामी रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्यों में से एक थे। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 ई. को कलकत्ता के एक सभ्य परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र दत्त था। प्रारंभ में वे तो नास्तिक थे, किन्तु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में रहकर आस्तिक हो गए। 1886 ई. में उन्होंने सन्यास ले लिया। धर्म व दर्शन का अनुशीलन कर वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया। 1892 ई. में दक्षिण में धर्म प्रचार किया। 1893 ई. में शिकागो में हुए धर्म सम्मेलन में भाग लिया तथा अमरीका में हिन्दू धर्म का प्रचार किया। 1887 ई. में रामकृष्ण ऐसोसिएशन की स्थापना की। किन्तु किन्हीं कारणों से वह चल नहीं सकी। 1897 ई. में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। समाज सेवा के क्षेत्र में संस्था ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वामी विवेकानंद के प्रयासों के परिणाम स्वरूप हिन्दुओं में आत्मविश्वास जाग्रत हुआ। साथ ही उन्हें इस बात का भी ज्ञान हुआ कि अपने अध्यात्म एवं दर्शन के बल पर ही वे विजयी हो सकते हैं। 1902 ई. में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु हो गई।

रामकृष्ण मिशन की प्रमुख शिक्षाएँ

1- प्रत्येक धर्म सच्च व श्रेष्ठ है, अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए।

2- ईश्वर निराकर व सर्वव्यापी है।

3- हिन्दू-सभ्यता अति प्राचीन, शिवमय एवं सुंदर हे उसने पहले भी विश्व का मार्गदर्शन किया है तथा भविष्य में भी मार्ग दर्शन करेगी।

4- प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह यूरोपियन प्रभाव से अपनी सभ्यता व संस्कृति की रक्षा करे।

थियोसॉफिकल सोसायटी

थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना एक रूसी महिला मेडम एच.पी. व्लेवटस्की तथा एक अमरीकन सैनिक अधिकारी एस.एस. अल्काट द्वारा 1875 ई. में अमरीका स्थित न्यूयार्क में की गई इसके पश्चात ये लोग भारत आए। भारत में इन्होंने 1882 ई. में मद्रास के निकट अडयार में थियोसाफिकल सोसायटी के केन्द्र को स्थापित किया। भारत में एक आयरिश महिला एनी बेसेण्ट इस सोसायटी की अध्यक्ष बनी। उन्होंने अपना पूर्ण जीवन सोसायटी के उद्देश्यों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया।

इस सोसायटी का उद्देश्य समन्वयवादी था। संस्था के अनुयायी धर्माें के महत्व को स्वीकार करते थे, किन्तु हिन्दू धर्म को ये सर्वश्रेष्ठ मानते थे। नस्ल, धर्म, भाषा, लिंग, जाति आदि के भेदभाव को इस संस्था के अनुयायी स्वीकार नहीं करते । इस संस्था का मुख्य उद्देश्य प्राचीन हिन्दुवाद को पुनः स्थापित करना था।

युवा बंगाल आंदोलन Yuva Bangal Aandolan

19वीं शताब्दी से तीसरे दशक के अंतिम वर्षों में एक एंग्लो-इंडियन हेनरी विलियम डेराजियो के नेतृत्व में बंगाल में युवा बंगाल आंदोलन हुआ। इस आंदोलन में स्वतत्रता, समानता तथा सत्य से प्रेम करने का आह्वान किया गया। इस आंदोलन के अनुयायी क्रांतिकारी सच्चे देशभक्त थे। आंदोलनकारियों द्वारा नारी शिक्षा, समानता, ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में संशोधन, प्रेस की स्वतंत्रता, भारतीय मजदूरों के प्रति न्याय, किसानों का शोषण न करने की माँग की गई। यह आंदोलन बहुत व्यापक न हो सक, किन्तु इस आंदोलन से प्रेरित होकर बंबई में यंग बंबई आंदोलन तथा मद्रास में यंग मद्रास आंदोलन चलाया गया।

वहाबी आंदोलन Vahabi Aandolan

18वीं शताब्दी के प्रथम भाग में अरब निवासी अब्दुल वहाब के नेतृत्व में वहाबी आंदोलन हुआ। इस आंदोलन ने इस्लाम की पवित्रता, ईश्वर की एकता मनुष्य की समानता पर विशेष बल दिया। भारत में इस आंदोलन का प्रचार-प्रसार रायबरेली के सैयद अहमद ने किया।

अलीगढ़ आंदोलन Aligarh Aandolan

इस आंदोलन के प्रवर्तक सर सैयद अहमद खां थे। इस आंदोलन का मुख्य केन्द्र एंग्लो ओरिण्टल कॉलेज था। जिसकी स्थापना सर सैयद अहमद खाँ ने अलीगढ़ में की थी। यह आंदोलन मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाने में सहायक हुआ।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर

ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जन्म 1820 ई. में हुआ था। आपकी गणना महान समाज सुधारकों मे की जाती है। उन्होंने अपने सतत् प्रयासों से 1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह कानून बनवाया7 दिसम्बर 1856 ई. में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की देख-रेख में पहला कानूनी विधवा विवाह सम्पन्न हुआ। उन्होंने बाल विवाह एवं बहु-विवाह का घोर विरोध किया, नारी शिक्षा का समर्थन किया। उन्होंने 25 बालिका स्कूलों की स्थापना की।

सिख धर्म सुधार आंदोलन Sikh Dharm Sudhar Aandolan

19वीं शताब्दी के अंत में अमृतसर में खालसा कॉलेस की स्थापना से इस आंदोलन का प्रांरभ हुआ। इसके पश्चात 1920 ई. में अकाली आंदोलन प्रारंभ हुआ। इन आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य सिख धर्म में सधार तथा सिख गुरूद्वारों के प्रबंध को स्वच्छ बनाना था। 1922 ई. में सरकार ने शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक समिति नामक एक्ट पारित किया। इस एक्ट का प्रयोग सिखों में भ्रष्ट महंतो को गुरूद्वारों से बाहर निकालने के लिया किया जाता था।



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1 comment:

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