भारत में जन आन्दोलनों का उदय, प्रकृति कारण एवं उद्देश्य | प्रमुख जन आन्दोलन | Bharat Ke Pramukh Jan Aandolan

 भारत में जन आन्दोलनों का उदय, प्रकृति कारण एवं उद्देश्य 

भारत में जन आन्दोलनों का उदय, प्रकृति कारण एवं उद्देश्य | प्रमुख जन आन्दोलन | Bharat Ke Pramukh Jan Aandolan



जन आन्दोलनों का उदय

  • हमारे लोकतंत्र की नींव ही जन आंदोलन के बीच पनपी है। 19वीं और 20वीं सदी के आरम्भिक वर्षों में भारत में किसान आंदोलन, सामाजिक आंदोलन, राजनैतिक आंदोलन और अन्य कई पर्यावरण सम्बन्धी आंदोलन अपने अधिकारों की मांग के लिए दिनों-दिन बढ़ते जा रहे थे। इसमें न केवल निम्न वर्गीय लोग ही शामिल हुए अपितु मध्यम वर्गीय एवं उच्च वर्गीय लोगों ने भी इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया और आंदोलनों द्वारा अपने अधिकारों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया।

 

भारत के प्रमुख जन आन्दोलन


चिपको आंदोलन

 

  • सत्तर के दषक में बांजों के साथ हिम पुत्रियों की लरकार, वन नीति बदले सरकार, वन जागे वनवासी जागे। रैंणी गांव चमोली के जंगलों में गूंजे ये नारे आज भी सुनाई दे रहे हैं। 
  • इस आंदोलन की शुरूआत 1972 से शुरू वनों की अंधाधुंध एवं अवैध कटाई को रोकने के मुद्दे से 1974 में चमोली जिले में गोपेश्वर नामक स्थान पर एक 23 वर्षीय विधवा महिला गौरा देवी द्वारा की गयी थी। 
  • इस आंदोलन के तहत वृक्षों की सुरक्षा के लिए ग्रामीणवासियों द्वारा वृक्षों को पकड़कर चिपक जाया जाता था। इसी कारण इसका नाम चिपको आंदोलन पड़ गया। 
  • चिपको आंदोलनकारी महिलाओं 1977 में एक नारा दिया गया जो काफी प्रसिद्ध हुआ। वह नारा था "क्या है इस जंगल के उपकार मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार" । 
  • चिपको आंदोलन को अपने शिखर पर पहुंचाने में पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा और चण्डी प्रसाद भट्ट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में इस आंदोलन का कार्यक्षेत्र समग्र रूप से पर्यावरण की रक्षा हो गया तथा सुन्दर लाल बहुगुणा जी ने "हिमालय बचाओ, देश बचाओ" का नारा दिया।

 

दल आधारित आंदोलन

 

  • जन आंदोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आंदोलनों के रूप में उभर कर सामने आते हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक दौर में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी चितंन-मंथन चला, जिससे अनेक स्वतंत्र सामाजिक आंदोलनों का जन्म हुआ जैसे-जाति प्रथा विरोधी आंदोलन किसान सभा आंदोलन और मजदूर संगठनों के आंदोलन। ये आंदोलन 20वीं सदी के शुरूआती दशकों में अस्तित्व में आए।

 

  • कुछ ऐसे आंदोलन जो आजादी के बाद भी चलते रहे, मुम्बई, कोलकाता और कानपुर जैसे बड़े शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आंदोलन का बड़ा जोर था। सभी बड़ी पार्टियों ने इस तबके के मजदूरों को लामबंद करने के लिए अपने-अपने मजदूर संगठन बनाये। आजादी के बाद के शुरूआती सालों में आंध्र प्रदेष के तेलंगाना क्षेत्र के किसान कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में लामबंद हुए। इन्होंने काश्तकारों के बीच जमीन के पुनर्वितरण की मांग की।

 

  • आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा बिहार के कुछ भागों में किसान तथा खेतीहर मजदूरों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में अपना विरोध जारी रखा।

 

राजनीतिक दलों से स्वतंत्र आंदोलन

 

दलित पैंथर्स

 

  • जनमानस की दृष्टि में दलित शब्द भारतीय समाज के वंचित वर्ग की जातियों-उपजातियों की सामुदायिक पहचान के रूप में भले ही जाना जाता हो लेकिन ऐतिहासिक सच तो यह है कि दलित विमर्श एवं साहित्य के संदर्भ में दलित शब्द स्वयं में चेतना का प्रतिरूप है। 
  • भारत में सत्तर के दशक के शुरूआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें ज्यादातर शहर की झुग्गी बस्तियों में पलकर बड़े हुए इस समुदाय ने हमारे समाज में लम्बे समय तक - क्रूरतापूर्ण जातिगत अन्याय को भुगता है।

 

  • दलित समुदाय को उनकी पहचान दिलाने के लिए डा० भीमराव अम्बेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1924 में डा० भीमराव अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया । दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में दलित पैंथर मुम्बई, महाराष्ट्र में 1972 में गठित एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन है, जिसने बाद में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। नामदेव ढसाल राजा ढाले व अरूण कांबले इसके आरंभिक व प्रमुख नेताओं में हैं। इसका गठन अफ्रीकी अमेरिकी ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया।

 

  • महाराष्ट्र के विभिन्न इलाकों पर बढ़ रहे अत्याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की अन्य मुख्य गतिविधि थी। सरकार ने दलितों पर हो रहे अत्याचारों एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद-17 की अवहेलना के परिणामस्वरूप 1989 में एक व्यापक कानून बनाया। इस कानून के अन्तर्गत दलितों पर अत्याचार करने वालों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान किया गया। 


  • दलित पैंथर्स का विचारात्मक अजेंडा जाति प्रथा को समाप्त करना तथा भूमिहीन गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन खड़ा करना था। अन्ततः बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी एम्पलाईज फेडरेशन (बामसेफ) ने दलित पैंथर्स की अवनति से उत्पन्न रिक्त स्थान की पूर्ति की।

 

भारतीय किसान यूनियन (बी०के०यू०)

 

  • सत्तर के दशक से भारतीय समाज में कई तरह के असंतोष पैदा हुए। समाज के निम्न तबके के लोगों का सरकार व राजनीतिक दलों से मनमुटाव चलता रहा। अस्सी के दशक का कृषक इसका एक उदाहरण है, जब अपेक्षाकृत धनी किसानों ने सरकार की नीतियों का विरोध किया।

 

  • आंदोलन का उदय 1988 के जनवरी में उत्तर प्रदेश के एक शहर मेरठ से लगभग 20000 किसान जमा हुए। ये किसान सरकार द्वारा बिजली की दर में की गई बढ़ोत्तरी का विरोध कर रहे थे। किसान जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी मांग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धरना था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गांवों से निरन्तर राशन- पानी मिलता रहा। धरने पर बैठे किसान, बी0के0यू0 के सदस्य थे। बी0के0यू0 पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों का एक अग्रणी संगठन था।

 

  • सरकार द्वारा 1990 के दशक में अपनाई गई उदारीकरण की नीति के परिणामस्वरूप भारतीय किसान यूनियन ने भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण से नकदी फसल के बाजार को हुई हानि को दूर करने के लिए गन्ने और गेहूं के सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोत्तरी करने, कृषि उत्पादों के अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने, समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करने, किसानों के बकाया कर्ज माफ करने तथा किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की मांग की।

 

  • ऐसी मांगे देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठाई। महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आंदोलन को इंडिया की ताकतों (शहरी औद्योगिक क्षेत्र), 'भारत' (ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया।

 

भारतीय किसान यूनियन की विशेषताऐं

 

  • सरकार पर अपनी मांगों को मानने के लिए दबाव डालने में बी०के०यू० ने रैली, धरना प्रदर्शन और जेल भरो अभियान का सहारा लिया। इन कार्यवाहियों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उसके आस-पास के इलाके के गांवों के हजारों किसानों ने भाग लिया। देश की राजधानी दिल्ली में भी बी०के०यू० ने रैली का आयोजन किया। इस संगठन ने जातिगत समुदायों को आर्थिक मसले पर एकजुट करने के लिए जाति-पंचायत की परम्परागत संस्था का उपयोग किया। 1990 के दशक के शुरूआती सालों तक बी०के०यू० ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा लेकिन वर्तमान में यह राजनीति में दबाव समूह के रूप में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहा है। 

 

असम आंदोलन

 

  • सन् 1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन बाहरी लोगों के खिलाफ चले आंदोलनों का सबसे अच्छा उदाहरण है। असमी लोगों को संदेह था कि बांग्लादेश से आकर बहुत से मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन में यह भावना थी कि इन बाहरी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी। असम में तेल, चाय और कोयला जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहां की जनता का मानना था कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा। 

 

  • 1979 में ऑल असम स्टूडेण्ट्स यूनियन (आसू - AASU ) ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोलन चलाया। 'आसू' एक छात्र संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनैतिक दल से नहीं था 'आसू' का आंदोलन अवैध प्रवासी बंगाली और अन्य लोगों के दबदबे तथा मतदाता सूची में लाखों अप्रवासियों के नाम दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन की मांग थी कि 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए। इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन मिला आंदोलन के दौरान हिंसक और त्रासद घटनाएँ भी हुई। बहुत से लोगों को जान गँवानी पड़ी और धन सम्पत्ति का नुकसान हुआ। आंदोलन के दौरान रेलगाड़ियों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधन कारखाने की तेल आपूर्ति को रोकने की कोशिश की गई।

 

  • कुछ सालों के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने 'आसू के नेताओं से बातचीत की। इसके परिणामस्वरूप 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते के अन्तर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं उनकी पहचान की जाएगी ओर उन्हें वापस भेजा जाएगा। 
  • आंदोलन की कामयाबी के बाद 'आसू' और असमगण संग्राम परिषद ने साथ मिलकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम 'असम गण परिषद' रखा गया। असम गण परिषद 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि विदेशी लोगों की समस्या को सुलझा लिया जाएगा और एक स्वर्णिम असम का निर्माण किया जाएगा।

 

रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या -

 

  • म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। म्यांमार में एक अनुमान के मुताबिक 10 लाख लोग रोहिंग्या मुसलमान हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि वे मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। सरकार ने इन्हें नागरिकता देने इंकार कर दिया है हालांकि ये म्यांमार में पीढ़ियों से रह रहे हैं। रखाइन स्टेट में 2012 से सांप्रदायिक हिंसा जारी है। इस हिंसा में बड़ी संख्या में लोगों की जानें गई हैं और एक लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान आज भी जर्जर कैंपों में रह रहे हैं। रोहिंग्या मुसलमानों को व्यापक पैमाने पर भेदभाव और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है। अतः ये अपने लिए एक सुरक्षित देश की तलाश में भारत के पूर्वोत्तर इलाकों की तरफ बढ़ते जा रहे हैं अतः पूर्वोत्तर में वर्तमान में यह एक बड़ी समस्या का रूप लेती जा रही है। सरकार इस क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर विशेष नियम भी बना रही है।

 

भारत के प्रमुख किसान आंदोलन

 

भारत में प्राचीनकाल से ही विदेशी आक्रमण होते रहे हैं तथा संपूर्ण मध्यकाल में मुस्लिम शासकों एवं विदेशियों का शासन भी रहा, लेकिन कृषकों पर अत्याचार के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने समय-समय पर भूराजस्व की विभिन्न प्रणालियां आरम्भ की। जिसने कृषकों ने निरन्तर बढ़ते हुए लगान एवं जमीन से बेदखली की घटनाओं को अंजाम दिया, जिसे देखते हुए कृषकों ने विभिन्न मुद्दों पर आंदोलन करना प्रारम्भ कर दिया। जो निम्न प्रकार से हैं

 

1 - नील विद्रोह (1859-60 )

 

  • 1957 के विद्रोह के पश्चात् प्रथम संगठित विद्रोह बंगाल में नील की खेती करने वाले किसानों द्वारा हुआ। अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के रैयतों से भूमि लेकर बिना पैसा दिये ही रैयतों को नील की खेती करने के लिए विवश करते थे, जबकि किसान अपनी उपजाऊ जमीन पर चावल की खेती करना चाहते थे। इस आंदोलन की शुरूआत 1859 में बंगाल के नादिया जिले के गोविन्दपुर गांव में दिगम्बर विश्वास व विष्णु विश्वास ने किया।

 

  • दीनबंधु मित्र ने अपनी पुस्तक नील दर्पण में इसका उल्लेख किया है। हिन्दू पैट्रियाट के सम्पादक हरीश चन्द्र मुखर्जी ने नील आंदोलन के संदर्भ में कार्य किये ।किसानों की एकजुटता के कारण 1860 के अंत तक बंगाल में नील की खेती पूरी तरह से बंद कर दी गयी।

 

2- तिभागा आंदोलन (1946-50 )

 

  • यह आंदोलन बंगाल में ही केंद्रित था। इसकी शुरूआत त्रिपुरा के हसनाबाद से हुई। यहां से यह बंगाल में नोवाखली तक फैल गया। इस आंदोलन के प्रमुख नेता कम्पाराम सिंह एवं भवन सिंह थे। इस आंदोलन में बटाईदार किसानों ने निर्णय किया कि वे फसल का 2/3 हिस्सा लेंगे और जमींदारों को 1/3 हिस्सा ही देंगे। बंटवारे की इसी अनुपात के कारण इसे तिभागा आंदोलन कहते हैं। सितम्बर 1946 को बंगाल के प्रांतीय किसान सभा ने तिभागा संबंधी प्लाउड कमीशन की सिफारिश को लागू करने के लिए इस आंदोलन को शुरू किया था।

 

3- चम्पारन में नील सत्याग्रह (1917)

 

  • भारत में महात्मा गांधी के नेतृत्व में किया गया प्रथम किसान सत्याग्रह चम्पारन सत्याग्रह था। महात्मा गांधी ने अपना प्रथम सत्याग्रह का प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में उस कानून के विरूद्ध किया जिसके अंतर्गत प्रत्येक भारतीय को पंजीकरण प्रमाण पत्र लेना जरूरी था। चम्पारन (बिहार) का मामला बहुत पुराना था। 19वीं सदी के आरम्भ में गोरे बगान मालिक जिस व्यवस्था के अंतर्गत किसानों से नील की खेती करवाते थे, उसे तिनकठिया प्रणाली कहते थे। इसके अंतर्गत किसानों को अपनी जमीन के 3 / 20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था।

 

  • 19वीं सदी के अंतिम दिनों में जर्मनी में कृत्रिम रासायनिक नील के आविष्कार के फलस्वरूप प्राकृतिक नील की मांग बाजार में कम हो गयी। इसके चलते चम्पारन के यूरोपीय बागान मालिक नील की खेती बंद करने के लिए मजबूर हो गए। 19160 में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान चम्पारन के एक किसान राजकुमार शुक्ल ने महात्मा गांधी को चम्पारन आने के लिए आमंत्रित किया। अंत में सरकार ने विवश होकर किसानों की स्थिति का सर्वेक्षण करने के लिए चम्पारन एग्रेरियन कमेटी का गठन किया जिसमें महात्मा गांधी स्वयं एक सदस्य थे। इस कमेटी की सलाह पर सरकार ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त कर दिया और किसानों से अवैध रूप से वसूले गए धन का 25 प्रतिशत भाग वापस कर दिया।

 

4- बारदोली सत्याग्रह (1928)

 

  • गुजरात का बारदोली सत्याग्रह पूरे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सबसे संगठित, व्यापक व सफल कृषक आंदोलन था। कालिपराज (काले लोग) बारदोली तालुका की एक जनजाति थी जिसकी स्थिति दयनीय थी। हाली पद्धति ( बंधवा मजदूरी) के अंतर्गत उन्हें उच्च जातियों के यहां पुश्तैनी मजदूर के रूप में कार्य करना पड़ता था। कुंवरजी मेहता व केशवजी गणेश ने कालिपराज साहित्य का सृजन किया तथा हॉली पद्धति के विरुद्ध आवाज उठायी। 1929 के बाद हर वर्ष कालिपराज सम्मेलन का आयोजन होने लगा। 1927 में आयोजित कालिपराज सम्मेलन के अध्यक्ष महात्मा गांधी थे।


  • महात्मा गांधी ने कालिपराज का नाम बदलकर रानीपराज (जंगल के वासी) कर दिया। महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई ने अपनी पुस्तक 'स्टोरी ऑफ बारदोली' में कालिपराजों को अहिंसक, निश्छल और कानून मानने वाला कहा है। बारदोली सत्याग्रह के समय भारत के वायसराय लार्ड इरविन थे। बल्लभ भाई पटेल ने 4 फरवरी 1928 को बारदोली किसान सत्याग्रह का नेतृत्व संभाला। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बल्लभ भाई पटेल स्वतंत्र भारत के प्रथम उप- प्रधानमंत्री बने । महिलाओं ने भी इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बारदोली सत्याग्रह के दौरान यहां की महिलाओं की ओर से महात्मा गांधी ने बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि प्रदान की।

 

ताड़ी विरोधी आंदोलन

 

  • आंध्र प्रदेश की महिलाओं ने अपने आस-पड़ोस में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी को लेकर एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन छेड़ा। वर्ष 1992 के सितम्बर और अक्टूबर माह में इस क्षेत्र की महिलाओं ने शराब माफियाओं के खिलाफ इंकलाब छेड़ दिया। इस आंदोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्य में ताड़ी विरोधी आंदोलन के रूप में जाना जाने लगा।

 

आंदोलन का उदय

 

  • आंध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के एक दूर-दराज के गांव दुबरगंटा में 1990 के शुरुआती दौर में महिलाओं के बीच प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाऐं घर के पुरूषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने की शिकायतें करती थी। ग्रामीणों पुरूषों को शराब की गहरी लत लग चुकी थी इसके चलते वे शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर हो चुके थे। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो रही थी, खराबखोरी के बढ़ने से कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था। पुरूष अपने काम से गैर हाजिर रहने लगे। शराब के ठेकेदार मदिरा व्यापार पर एकाधिकार बनाये रखने के लिए अपराधों में व्यस्त थे। शराबखोरी से सबसे ज्यादा दिक्कत महिलाओं को हो रही थी। इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। परिवार में तनाव और मारपीट का माहौल बनने लगा।

 

  • नेल्लौर में महिलाऐं ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आई और उन्होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। यह खबर तेजी से पूरे इलाके में फैल गयी और करीब 5000 गांवों की महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। प्रतिबंध संबंधी एक प्रस्ताव को पास कर इसे जिला कलेक्टर को भेजा गया। इस तरह के विरोध को देखते हुए नेल्लौर जिले में ताड़ी की नीलामी 17 बार रद्द हुई। नेल्लौर जिले का यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।

 

ताड़ी विरोधी आंदोलन के निम्नलिखित उद्देश्य -

 

1- महिलाओं का शारीरिक व मानसिक शोषण रोकना। 

2- पुरुषों में शराब की आदत छुड़ाना । 

3- आर्थिक स्थिति में सुधार करना । 

4- महिलाओं में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना। 

5- बेरोजगारी को दूर करना । 

6- राजनीति व अपराध के बीच के सम्बन्ध को समाप्त करना । 

7- लैंगिक असमानता को दूर करना।

 
ताड़ी विरोधी आंदोलन की कड़ियां

 

  • ताड़ी विरोधी आंदोलन का नारा था- "ताड़ी की बिक्री बंद करो। लेकिन इस साधारण नारे ने क्षेत्र के व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों तथा महिलाओं के जीवन को प्रभावित किया। ताड़ी व्यवसाय को लेकर अपराध और राजनीति के बीच एक गहरा नाता बन गया था।

 

  • राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से काफी राजस्व की प्राप्ति होती थी इसलिए वह इस पर प्रतिबंध नहीं लगा रही थी। स्थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दे को अपने आंदोलन में उठाना शुरू किया। वे घरेलू हिंसा के मुद्दे पर भी खुले तौर पर चर्चा करने लगी। आंदोलन ने पहली बार महिलाओं को घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर बोलने का मौका दिया।

 

  • इस तरह ताड़ी विरोधी आंदोलन महिला आंदोलन का एक हिस्सा बन गया। इससे पहले घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा कार्यस्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ काम करने वाले महिला समूह आमतौर पर शहरी मध्यमवर्गीय महिलाओं के बीच ही सक्रिय थे और यह बात पूरे देश पर भी लागू होती थी लेकिन धीरे-धीरे इस तरह के अभियानों ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में व्यापक जागरूकता पैदा हुई।

 

  • भारत सरकार द्वारा महिलाओं की स्थिति को और सुदृढ़ करने के लिए भारतीय संविधान के 73 वें और 74वें संविधान संशोधन 1992-93 के अन्तर्गत स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण की व्यवस्था भी की गयी है। इस प्रकार की व्यवस्था को राज्यों की विधानसभाओं तथा संसद में भी लागू करने की मांग की जा रही है। संसद में इस आशय का एक संशोधन विधेयक भी पेश किया जा चुका है।

 

नर्मदा बचाओ आंदोलन

 

  • नर्मदा नदी मध्य प्रदेश से निकलकर महाराष्ट्र और गुजरात में प्रवेश कर अरब सागर में गिरती है। भारत के मध्य भाग में स्थित नर्मना घाटी में विकास परियोजनाओं के तहत मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े 135 मध्यम और 300 छोटे बांध बनाने का प्रस्ताव रखा गया है। गुजरात के सरदार सरोवर और मध्य प्रदेश के नर्मदा सागर बांध के रूप में दो सबसे बड़ी और बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया है। नर्मदा के बचाव में 'नर्मदा बचाओ आंदोलन चला। इस आंदोलन ने बांधों के निर्माण का विरोध किया। सरदार सरोवर परियोजना के अन्तर्गत एक बहु-उद्देश्यीय विशाल बांध बनाने का प्रस्ताव है।

 

  • बांध समर्थकों का कहना है कि इसके निर्माण से गुजरात के एक बहुत बड़े हिस्से सहित तीन पड़ोसी राज्यों में पीने के पानी, सिंचाई और बिजली के उत्पादन की सुविधा मुहैया कराई जा सकेगी जिससे कृषि की उपज में गुणात्मक वृद्धि होगी। बांध की उपयोगिता इस बात से भी जोड़कर देखी जा रही थी कि इससे बाढ़ और सूखे की आपदाओं पर अंकुश लगाया जा सकेगा। सरदार सरोवर बांध के निर्माण से सम्बन्धित राज्यों के गरीब 245 गांव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे। अतः प्रभावित गांवों के करीब ढ़ाई लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सबसे पहले स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उठाया। इन गतिविधियों को एक आंदोलन का रूप 1988-89 में मिला जब कई स्थानीय स्वयंसेवी संगठनों ने इसे नर्मदा बचाओ आंदोलन का रूप दिया। नर्मदा बचाओं आंदोलन से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों में मेधा पाटेकर, बाबा आम्टे, सुन्दर लाल बहुगुणा आदि थे। 

 


बांध के फायदे

 

  • प्रधानमंत्री ने नर्मदा नदी पर बनने वाली सरदार सरोवर बांध का लोकार्पण करते हुए कहा कि यह महत्वाकांक्षी परियोजना नए भारत के निर्माण में करोड़ों भारतीयों के लिए प्रेरणा का काम करेगी। 
  • यह बांध आधुनिक इंजीनियरिंग विशेषज्ञों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय होगा, साथ ही यह देश की ताकत का प्रतीक भी बनेगा। 
  • इस बांध परियोजना से मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के करोड़ों किसानों का भाग्य बदलेगा और कृषि और सिंचाई के लिए वरदान साबित होगा। 
  • इस बांध की ऊँचाई को 138.68 मीटर तक बढ़ाया गया है ताकि बिजली उत्पन्न की जा सके। 5- गुजरात क्षेत्र में सिंचाई और जल संकट को देखते हुए नर्मदा नदी पर बांध की परिकल्पना की गई थी।


बांध के विरोध का कारण

 

  • भारत के चार राज्यों के लिए महत्वपूर्ण सरदार सरोवर परियोजना का नर्मदा बचाओ आंदोलन वर्ष 1985 से विरोध कर रहा है। आर्थिक और राजनीतिक विषयों के अलावा इस मुद्दे की कई परतें हैं, जिनमें इस क्षेत्र के गरीबों और आदिवासियों के पुनर्वास और वन भूमि का विषय प्रमुख मुद्दा है।

 

  • नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा इस बांध के विरोध का प्रमुख कारण इसकी ऊँचाई है, जिससे इस क्षेत्र के हजारों हेक्टेयर वन भूमि के जलमग्न होने का खतरा है।


  • बताया जाता है कि जब भी इस बांध की ऊँचाई बढ़ाई गई है, तब हजारों लोगों को इसके आस-पास से विस्थापित होना पड़ा है तथा उनकी भूमि और आजीविका भी छिनी है।

 

  • इस बांध की ऊँचाई बढ़ाए जाने से मध्य प्रदेश के 192 गांव और एक नगर डूब क्षेत्र मे आ रहे हैं। इसके चलते 40 हजार परिवारों को अपने घर, गांव छोड़ने पड़ेंगे।
  • इस आंदोलन की नेता मेधा पाटेकर का आरोप है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद भी बांध प्रभावितों को न तो मुआवजा दिया गया है और न ही उनका बेहतर पुनर्वास किया गया है। उसके बाजजूद बांध का जलस्तर बढ़ाया गया। 
  • नर्मदा बचाओ आंदोलनकारियों की मांग थी कि जलस्तर को बढ़ने से रोका जाए तथा पहले पुनर्वास हो फिर उसके बाद विस्थापन ।
  • आधिकारिक ऑकड़ों के अनुसार इस बांध के बनने से मध्य प्रदेश के चार जिलों के लगभग 23,614 परिवार प्रभावित हुए थे

 

द्रविड़ आंदोलन

 

  • द्रविड़ आंदोलन भारत के क्षेत्रीय आंदोलनों में सबसे शक्तिशाली आंदोलन था । भारतीय राजनीति में यह आंदोलन क्षेत्रीयता वादी भावनाओं की सर्वप्रथम और सबसे प्रबल अभिव्यक्ति था। इस आंदोलन के नेता वर्ग के एक हिस्से की आकांक्षा एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र बनाने की थी। पर आंदोलन ने कभी सशस्त्र संघर्ष की राह नहीं अपनाई। नेतृत्व ने अपनी मांग आगे बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बहसों और चुनावी मंच का ही प्रयोग किया। द्रविड़ आंदोलन की बागडोर तमिल समाज सुधारक ई०वी०रामास्वामी नायकर (पेरियार उपनाम) के हाथों में थी। इस आंदोलन से एक राजनीतिक संगठन 'द्रविड़ कणगम' का जन्म हुआ। यह संगठन ब्राह्मणों के वर्चस्व का विरोध करता था तथा उत्तर भारत के राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक प्रभुत्व को नकारते हुए क्षेत्रीय गौरव की प्रतिष्ठा पर जोर देता था ।

 

  • प्रारम्भ में द्रविड़ आंदोलन समग्र दक्षिण भारतीय संदर्भ में अपनी बात रखता था लेकिन अन्य दक्षिणी राज्यों से समर्थन न मिलने के कारण यह आंदोलन धीरे-धीरे तमिलनाडू तक ही सिमट कर रह गया। बाद में द्रविड़ कणगम दो भागों में बंट गया और आंदोलन की समूची राजनीतिक विरासत 'द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के पाले में केन्द्रित हो गई।

 

सन् 1953-54 की अवधि में डी०एम०के० ने तीन सूत्री आंदोलन के साथ राजनीति में कदम रखा। आंदोलन की तीन मांगें थी


1- कल्लाकुडी नामक रेलवे स्टेशन का नया नाम डालमियापुरम निरस्त किया जाए और स्टेशन का मूल नाम बहाल किया जाए। संगठन की यह मांग उत्तर भारतीय आर्थिक प्रतीकों के प्रति उसके विरोध को प्रकट करती थी।

 

2- स्कूली पाठ्यक्रम में तमिल संस्कृति के इतिहास को अधिक महत्व देने की थी तथा 

3- तीसरी मांग राज्य सरकार के शिल्प कर्म शिक्षा कार्यक्रम को लेकर थी। कालांतर में यह आंदोलन विभिन्न राजनीतिक दलों के संगठन के रूप में परिवर्तित हो गया।


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