Ujjain ke mahan raja vikramaditya ka itihas | राजा विक्रमादित्य का इतिहास | Maharaja Vikramaditya history

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राजा विक्रमादित्य का इतिहास


विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। विक्रमादित्य का अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है। उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। भविष्य पुराण व आईने अकबरी के अनुसार विक्रमादित्य परमार वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी ।
महाराजा विक्रमादित्य के जन्म को लेकर अलग अलग इतिहासकारों की अलग- अलग मान्यताएं हैं. फिर भी ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म 102 ई पू के आस पास हुआ था
विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2288 वर्ष पूर्व हुए थे।
इनकी माता सौम्यदर्शना  एवं पिता गंधर्वसेन थे, इनकी बहन का नाम  मैनावती था एवं  भर्तृहरि इनके भाई थे, विक्रमादित्य की पांच पत्नियां थी, मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी। उनकी दो पुत्र विक्रमचरित और विनयपाल और दो पुत्रियां प्रियंगुमंजरी (विद्योत्तमा) और वसुंधरा थीं
मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था, एवं मालवा पर शक लगातार हमले कर रहे थे । भर्तृहरि ने वैराग्य धारण करने हेतु अपना राज्य त्याग दिया तब विक्रमादित्य ने राज्य की बागडोर अपने हाथों मे ली एवं ईसा पूर्व 57-58 में शको को अपने शासन क्षेत्र से बहार खदेड़ दिया। शकों पर प्राप्त विजय की याद में विक्रम संवत का प्रारंभ किया गया। शकों पर विजय के बाद विक्रमादित्य ने अपने राज्य का विस्तार करना प्रारंभ किया।  विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्ति कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलायां , उन्होंने अपनी सेना का फिर से गठन किया मान्यताओं के अनुसार उनकी सेना उस समय की विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बई गई थी, जिसने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति कर एक छत्र शासन को कायम किया।
महाराजा विक्रमादित्य के बारे मे विस्तृत वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है, प्राचीन अरब साहित्य में भी इनका वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब और मिस्र तक फैला था । विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'सायर उल ओकुल' में किया है। 
तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब.ए.सुल्तानिया में यह पुस्तक है। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि विक्रमादित्य एक दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था।

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उज्जैन के रूद्रसागर में स्थापित सम्राट विक्रमादित्य की  प्रतिमा।


कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार 14 ई के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के निःसंतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय ;ईसापूर्व पहली शताब्दीद्ध में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।
राजा विक्रम का संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक कहानियां भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
महाराजा विक्रमादित्य के ही दरबार में नवरत्नों को रखने की परंपरा प्रारंभ की जिसे अकबर ने भी अपनाया था।

महाराजा विक्रमादित्य के नौ रत्न

धन्वंतरि  - वैद्य। इतिहास में दो धन्वंतरियों का वर्णन आता है। प्रथम वाराणसी के क्षत्रिय राजा दिवोदास और द्वितीय वैद्य परिवार के धन्वंतरि। विक्रमयुगीन धन्वंतरि अन्य व्यक्ति थे।


क्षपणक - जैन साधुओं के लिए क्षपणक नाम का प्रयोग करते थे। दिगम्बर जैन साधु नग्न क्षपणक कहे जाते थे। मुद्राराक्षस में भी क्षपणक के वेश में गुप्तचरों की स्‍थिति कही गई है।

अमरसिंह -अभिलेखो के अनुसार ये एक विद्वान व्यक्ति थे एवं राजा के सचिव थे। अमरसिंह ने उज्जयिनी में काव्यकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। संस्कृत का सर्वप्रथम कोश अमरसिंह का 'नामलिंगानुशासन' है, जो उपलब्ध है तथा 'अमरकोश' के नाम से प्रसिद्ध है। 'अमरकोश' में कालिदास के नाम का उल्लेख आता है।

शंकु - शंकु को विद्वान मंत्रवादिन, कुछ विद्वान रसाचार्य और कुछ विद्वान इन्हें ज्योतिषी मानते हैं।

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उज्जैन में स्थापित  सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्नोें की  प्रतिमाएं।


बेताल भट्ट - धर्माचार्य , प्राचीनकाल में भट्ट अथवा भट्टारक, उपाधि पंडितों की होती थी। वेताल भट्ट से तात्पर्य है भूत.प्रेत.पिशाच साधना में प्रवीण व्यक्ति। प्रो. भट्टाचार्य के मत से संभवतः वेताल भट्ट ही 'वेताल पञ्चविंशतिका' नामक ग्रंथ के कर्ता रहे होंगे। वेताल भट्ट उज्जयिनी के श्मशान और विक्रमादित्य के साहसिक कृत्यों से परिचित थे। संभवतः इसलिए उन्होंने 'वेताल पञ्चविंशतिका' नामक कथा ग्रंथ की रचना की।

घटखर्पर - कवि, इनके चरित दो लघुकाव्य उपलब्ध हैं प्रथम  काव्य घटखर्पर काव्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह दूत-काव्य है। इसमें मेघ के द्वारा संदेश भेजा गया है। यह 22 पद्यों का सुंदर काव्य है, जो संयोग श्रृंगार से ओत-प्रोत है।  दूसरा काव्य नीतिसार माना जाता है। इसमें 21 श्लोकों में नीति का सुंदर विवेचन किया गया है।

कालिदास  - हाकवि कालिदास विक्रमादित्य की सभा के प्रमुख रत्न माने जाते हैं। प्राय: समस्त प्राचीन मनीषियों ने कालिदास की अंत:करण से अर्चना की है। कालिदास का समय अद्यावधि विद्वानों के विवाद का विषय बना है। दीर्घकाल के विमर्श के पश्चात इस संबंध में दो ही मत शेष हैं जिनमें प्रथम मत है प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व का तथा द्वितीय मत है चतुर्थ शताब्दी ईस्वी सन् का। प्रथम शती के पक्ष में विद्वानों का बहुमत है।

वराहमिहिर -पंडित सूर्यनारायण व्यास के अनुसार राजा विक्रमादित्य की सभा में वराहमिहिर नामक ज्योतिष के प्रकांड पंडित भी शामिल थे। राहमिहिर ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने ज्योतिष विषयक अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। वे ग्रंथ हैं- वृहत्संहिता, वृहज्जातक, समाससंहिता, लघुजातक, पञ्चसिद्धांतिका, विवाह-पटल, योगयात्रा, वृहत्यात्रा, लघुयात्रा।

वररुचि  - वररुचि ने 'पत्रकौमुदी' नामक काव्य की रचना की। इन्होंने 'विद्यासुंदर' नामक एक अन्य काव्य भी लिखा। इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था। जब ये 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे। एक समय व्याडि और इन्द्रदत्त नामक विद्वान इनके यहां आए। व्याडि ने प्रातिशाख्य का पाठ किया। इन्होंने इसे वैसे का वैसा ही दुहरा दिया। व्याडि इनसे बहुत प्रभावित हुए और इन्हें पाटलिपुत्र ले गए। वहां इन्होंने शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की।
सम्राज विक्रमादित्य के शौर्य की गाथाओं के चारों ओर फैलने के बाद अन्य सम्राटों को भी यह उपाधि दी जाने लगी या उनके द्वारा धारण की जाने लगी।इनमें कुछ प्रमुख सम्राट निम्न हैं श्रीहर्ष, शूद्रक, हेमचंद्र 'हेमू', चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि।
राजा विक्रमादित्य की गौरव गाथाएं
बृहत्कथा, बैताल पच्चीसी ,सिंहासन बत्तीसी आदि में विक्रमादित्य के बारे में विभिन्न कहानियां है।
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