सरंजाम भााही द्वारा
मध्यप्रदेश में रियासतों की स्थापना -
मालवांचल का भाग जहाँ से पुनः मराठा सत्ता का
विस्तार किया गया वह शिवाजी के स्वराज्य व्यवस्था से भिन्न स्वरूप लिये हुए थी।
शिवाजी अपने राज्य के सैनिक व प्रशासनिक सर्वेसर्वा थे किन्तु राजाराम के युग में
खोये हुए प्रदेशों की प्राप्ति के लिए पुनः सरंजाम दिये गये। शासक द्वारा अपनी
सत्ता को संरक्षण के लिए प्रथमतः मंत्रियों तथा सेना नायकों में विभाजित किया।
उनका कर्तव्य था कि वह सेना को संगठित करें व उन्हें पोषित भी करें। दूसरे, इस सेना के सहयोग
से वे विजित क्षेत्र को सुदृढ़ व संगठित रखें तथा नवीन विजय कार्य भी करें। तीसरे, इसके उपलक्ष्य
में प्राप्त धन का कुछ भाग अपने व्यय हेतु वे रख सकते थे।
इस प्रकार इस व्यवस्था से
प्राप्त भाग को सरंजाम व प्राप्तकर्ता 'सरंजामदार' कहलाता था तथा, वह क्षेत्र 'दौलत' कहा जाता था। मध्यप्रदेश में इस व्यवस्था के द्वारा ही
मराठा शासन का आरंभ हुआ था।
'सरंजाम' शब्द मूल फारसी भाषा में देखा जा सकता है। जिसका अर्थ था
किसी क्षेत्र पर अधिपत्यबनाऐ रखने या सेना के लिए
आवश्यक साजो-सामान व धन आदि सम्मिलित कर, प्राप्त अधिकार 'संरजाम' प्राप्ति माना जाता था। यह निजी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा
जाता था। इसे सैनिक प्रशासकीय या धार्मिक व्यवस्था हेतु भी अता किया जाता था।
सरंजामदार की आधीनता सुनिश्चित की जाती थी जो जागीरदारी व्यवस्था में नहीं था।
पेशवा के अधिकारियों की सनदों का प्रायः प्रतिवर्ष नवीनीकरण किया जाता था।
सरंजामदार अपने अधीनस्थों को अपने आधीन 'सरंजाम' में से पुनः सरंजाम देते थे। सरंजाम बदले जा सकते थे तथा
जप्त भी किये जा सकते थे।
मुस्लिम शासन में 'इक्तादार' शासक को सैनिक सहायता देने को बाध्य था परन्तु सरंजामदार
सैनिक सहयोग के साथ नवीन प्रदेश विजित भी करता था जिसे 'मुलुखगिरी' कहा जाता था।
भविष्य में इस व्यवस्था ने स्थायी रूप धारण कर लिया। यहाँ तक कि गैरसैनिक
अधिकारियों को भी सरंजाम दिये जाने लगे।
'स्वराज्य' को अब 'साम्राज्य' में परिवर्तित करने हेतु प्रदेशों की विजय (मुलुखगिरी) एक
महत्वपूर्ण उद्देश्य बन चुका था। अब उत्तर भारत, मालवांचल, बुंदेलखण्ड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश गुजरात में विजय हेतु यह एक विशाल रूप प्राप्त
कर चुकी व्यवस्था थी। मध्यप्रदेश के मालवांचल में शिंदे होलकर, पवार, गुजरात में
गायकवाड़, दक्षिण में
पटवर्धन परिवारों को ऐसे ही सरंजाम अता किये गये थे। इसके तहत निर्मित सेना उनके
प्रति स्वामिभक्ति का भाव रखती थी और अन्य व्यवस्था उनके एजेंट्स करते थे।
उल्लेखनीय तत्व यह है कि
पेशवा स्वयं को मालवा का 'सूबेदार' मानता था व इसके
सतत मल्हारराव होल्कर, राणोंजी शिंदे, तुकोजी, जीवाजी व
आनन्दराव पवार को सरंजामशाही की सनदें पेशवा द्वारा दी गई थीं और छत्रपति ने इसको 'स्वीकृति' दी थी। यदि 'गद्दी' में परिवर्तन भी
किया जाता तो 'खिलअत' पेशवा द्वारा
प्रदान की जाती थी।
मालेराव होल्कर, महादजी शिंदे, तुकोजी होल्कर
प्रथक को ऐसे नियुक्ति आदेश पेशवा द्वारा प्रदान किये गये थे न कि छत्रपति द्वारा।
अर्थात् उनकी स्वामिभक्ति पेशवा के प्रति थी। वे पुणे दरबार से आदेश प्राप्त करते
थे।
इस प्रकार सरंजाम छत्रपति
द्वारा व पेशवा द्वारा भी प्रदत्त किये गये थे। पेशवा द्वारा दिये गये सरंजाम उसकी
विजयों को दृढ़ करने हेतु थे। यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पेशवा मराठा छत्रपति
का प्रधानमंत्री होकर भी उत्तरी भारत के सम्बन्ध में की गई सन्धियाँ पेशवा के
हस्ताक्षर से की गई थीं। उत्तर में की गईं विजयों के लिए शिंदे, होल्कर देवास व
धार के पवारों को छत्रपति शाहू द्वारा सीधे तौर पर कोई आदेश नहीं दिये गये थे।
सरंजामदार द्वारा उसके अधीनस्थों को जागीरें भी दी जाती थी। दूसरा महत्वपूर्ण
बिन्दु यह था कि मालवा, गुजरात या उत्तरी
भारत में शाहू द्वारा नियुक्त अन्य सरंजामदार पेशवा को कई बार सहयोग नहीं देते थे।
जैसे दाभाड़े जो सेनापति था अमात्य, मंत्री, प्रतिनिधि आदि गुजरात, मालवा, बुंदेलखण्ड या
राजस्थान में अपनी सेनाएँ नहीं भेजते थे। यहाँ तक कि आगामी वर्षों में
पानीपत के तृतीय युद्ध में भी पेशवा के सरंजामदार ही दिखाई देते हैं। संक्षेप में, इन क्षेत्रों में मराठा
गतिविधियाँ पेशवा की निजी गतिविधियाँ सी बन गई थी। छत्रपति मात्र अपनी स्वीकृति प्रदान करता था।
एक अन्य तथ्य है कि भारत में अन्यत्र कहीं भी केवल पेशवा द्वारा विजयें की गई (कुछ अपवाद छोड़कर)
क्योंकि बाजीराव के समय से ही प्रधानमंत्री (पेशवा) होने का दायित्व समझकर पेशवा द्वारा विजय
कार्य व राज्य की विस्तार नीति अपनाई गई। शनैः शनैः शाहू (छत्रपति) के निधन के पश्चात् तो
सांगोला संधि ई. 1750 के बाद पेशवा
मराठा साम्राजय का सर्वेसर्वा बन गया था।
सरंजामदार होल्कर, शिंदे, पवार पटवर्धन आदि
अपने, राज्यों में
प्रशासन भी देखते थे व सैन्य सहयोग का वचन भी देते थे।
सरंजाम अता होने पर पेशवा
को 'नजर' भेंट की जाती थी।
सरंजाम अता होने पर सरंजामदार की सैन्यशक्ति निश्चित की जाती थी। तथा उसे किसी भी
पड़ौसी शक्ति से वह संधि या युद्ध बगैर अनुमति के नहीं कर सकता था। सरंजामदार की
संपत्ति पर झगड़ा होने पर केन्द्र सरकार का निर्णय अंतिम माना जाता था।
केन्द्रीय सरकार की
अनुमति व सहमति से ही सरंजाम का उत्तराधिकारी नियुक्त होता था। सरंजामी क्षेत्र एक
की मृत्यु के पश्चात् किसी अन्य को भी दिये जा सकते थे। सरंजामों को जप्त किया जा
सकता था। होल्कर व शिंदेजी की आपसी लड़ाई पर व पानीपत में महादजी शिंदे की
गतिविधियों पर संदेह होने पर ऐसा आदेश दिया गया था।
टॉड ने इस व्यवस्था के
लिए 'सैनिक' गणतंत्र शब्द का
उपयोग किया है। यह राज्य व्यवस्था न तो राजतंत्र था न सामंतवादी व्यवस्था न
प्रजातंत्र परन्तु कोई भी योग्य सैनिक अपने सामाजिक या आर्थिक स्थिति नहीं वरन्
सैनिक या प्रशासकीय योग्यता के बल पर सरदार व सरंजामदार बन सकता था। मल्हारराव
होल्कर व राणोंजी शिंदे इस तर्क की पुष्टि करने वाले प्रमाण हैं।
मध्यप्रदेश के इतिहास में
मराठों की विज़यों से 18 वीं सदी के
प्रथम दशकों में परिवर्तन परिलक्षित हुआ। पूर्व की मुगल व्यवस्था मराठों के आगमन
से समाप्त हुई थी। यहाँ के सरंजामदारों होल्कर शिंदे, पवारों द्वारा
इसे स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। प्रथमतः आरंभिक अभियानों 1690-1720 ई. तक मराठों ने
मुगल सत्ता की जड़ें हिला दीं थीं। दूसरे, 1722 से 1728 ई. तक वे यहाँ दृढ़ता से पैर जमा सके। 1724-25 के दौर में
पेशवा द्वारा चौथ वसूली के लिए अधिकारी कमाविसदार, दीवान आदि नियुक्त किये गये।
इस प्रकार लम्बे समय तक
इस प्रदेश में रहने से इस क्षेत्र से ये सेनापति अच्छी तरह से परिचित हो गये थे।
यहाँ की जनता यहाँ की राजनीति, आर्थिक स्थिति से ये लोग वाकिफ थे। उदाजी व कंठाजी कदम
बांडे को नियंत्रित करने हेतु राणोंजी शिंदे को उज्जैन में मुत्तलिक (प्रतिनिधि)
नियुक्त किया गया जो मालवा सूबा की राजधानी थी। 1732-36 ई. के मध्य यहाँ मराठा शासन स्थापित हो. गया था। 1732 ई. में तो
प्रदेश विभाजन हेतु सनदें जारी हो ही चुकीं थीं। इसके परिणामस्वरूप अब ये
सरंजामदार अपने-अपने क्षेत्र में व्यवस्था बनाये रखनें में रुचि लेने लगे।
मालवांचल में प्रशासनिक
व्यवस्था
यहाँ अधिकारी यथा दीवान, मजुमदार, फडणीस, सबनीस, चित्रणीस
देशपांडे, कमाविसदार आदि की
नियुक्ति केन्द्रीय शासन द्वारा की जाती थी। जैसे गंगाधर चंद्रचूड़ होल्कर राज्य
में और नारोशंकर पेशवा द्वारा नियुक्त थे। रामचन्द्रबाबा शेणवी (सुखठकर) शिंदे के
पास पेशवा के दीवान थे। पलशीकर होल्कर राज्य में (खासगीस) पद पर थे व शिवाजी शंकर, पवारों के
क्षेत्र में नियुक्त थे। अहिल्याबाई के समय विठ्ठल शामराज (देशपांडे) भी केन्द्र
द्वारा नियुक्त अधिकारी था।
ये अधिकारी केन्द्र शासन
के कार्यों को भी देखते थे। सरंजामदारों के अपने अधिकारी भी थे। कोटा में कुछ
क्षेत्रों पर द्वैध नियंत्रण था उसकी व्यवस्था हेतु भी ऐसे ही अधिकारी नियुक्त थे।
देवास के पवार राज्य हेतु पत्र प्राप्त हुआ है कि कृष्णाजी पवार व जीवाजी पवार
यांचे सरंजाभास सरकार च्या आसाम्या पेशगी पासुन आहेन 1. गणेश खंडेराव
मजुमदार 2. चिमणाजी गंगाधर
सबनीस वगैर। - वेतन - यद्यपि सरंजामदार अपने स्वयं द्वारा भी अधिकारियों की
नियुक्ति करते थे। सैन्याधिकारी को वेतन के स्थान पर भूमि या क्षेत्र देने की
व्यवस्था की जाती थी। परन्तु वित्त वसूली आदि करने वाले कमाविसदार व कर्मचारियों
को सेवा गारंटी हेतु अग्रिम धन की पेशगी भी की जाती थी। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए
कई पत्र शिंदे होल्कर व पवारों के दफ्तर में प्राप्त साधनों में पाये गये हैं।
सरंजामदारों को युद्धभूमि
पर अपनी उपस्थिति देनी पड़ती थी। महादजी शिंदे द्वारा 31 जुलाई 1789 ई. को मथुरा से
पेशवा को कृष्णाजी पवार (देवास का प्रशासक) के संबंध में स्पष्टीकरण देते हुए एक
पत्र लिखा गया था। और यह कि कृष्णाजी पवार सेना सहित सेवा में थे किन्तु उनकी माता
से भेंट करने के लिए बारह वर्ष हो चुके थे अतः अपनी सेना यहाँ छोड़कर वे देवास गये
हैं। उनके अधिकारी यहाँ मौजूद हैं। उनसे गहरी छानबीन की जा चुकी है।
अर्थात सेना व प्रशासन पर
केन्द्रीय नियंत्रण परवर्ती युग में भी पूर्ण था क्योंकि उक्त पत्र 1792 ई. का है। फिर भी यहाँ उल्लेखनीय है
कि परवर्तित युग में जब केन्द्रीय व्यवस्था में पेशवा का पद ही समाप्त हो गया व
मराठा राजमंडल व्यवस्था समाप्त हो गई तब भी सरंजामदारों / रियासतों में कोई
प्रशासकीय संकट उपस्थित नहीं हुआ और वे स्वतंत्र सत्ताधारी शासकों के रूप में
कार्य करने लगे थे।
यह शासक जिनके गद्दी /
मसनद पर आरूढ़ होने के लिए केन्द्रीय सत्ता अधिकृत थी अब स्वतंत्र शासन के साथ
बाहरी शक्तियों से समझौते व हस्ताक्षरित कर सकते थे। स्वयं मल्हाराव ने एक पत्र
में लिखा था कि राजपूताना,
टोंडा, पावागढ की समस्या
हल करके वह डुंगरपुर जाएगा व वहां संधि हस्ताखर करने के पश्चात् वह उदयपुर जाएगा।
प्रशासन के क्षेत्र में
सरंजामदार स्थानीय प्रशासन व न्याय भी देखते थे वे धार्मिक अनुदान भी देते थे।
अधिकारियों की नियुक्ति करते थे। सैनिकों की भर्ती करते थे।
निर्माण कार्यों हेतु धन
व्यय करते थे तथा इनके प्रशासनिक विभागों में देवस्थान व धर्मदाय विभाग भी थे।
यहाँ उल्लेखनीय है कि पुणे दरबार से नियुक्ति हेतु सनद व 'खिलत' की प्राप्ति की जाती थी परन्तु
एक बार यह सनद प्राप्त होने के पश्चात 'मसनद' पर विराजमान होने पर वे स्वतंत्र शासक के समान कार्य करते
थे। वे अपनी मुद्रा व 'मोर्तब' भी उपयोग में
लाते थे क्योंकि उनके पत्रों में शीर्ष पर उनकी 'मुद्रा' होती थी व अंत में 'मोर्तब सुद' लिखा रहता था।
यद्यपि कई बार सरंजाम
जब्त भी किये जाते थे। जैसा कि एक पत्र में तुकोजी पवार द्वारा 1801-02 ई. में शिकायत
पत्र लिखा गया था। बाजीराव द्वितीय के काल में ही होल्कर व शिंदे के सरंजामों हेतु
आदेश पारित हुए जो इंदौर के युद्ध के पश्चात् बाजीराव द्वितीय द्वारा कृष्णराव
होल्कर को लिखा गया था व जिस पर 15 साबान की तिथि अंकित है। किन्तु यह एक पतनशील केन्द्रीय
व्यवस्था द्वारा किया गया नाहक प्रयास रहा होगा क्योंकि व्यवहारिक दृष्टि से
सरंजामशाही द्वारा ही स्वराज्य के बाहरी प्रदेशों में स्वतंत्र मराठा रियासतें
अस्तित्व में विशेषकर 19 वीं सदी में
प्रथम दशक तक आ चुकी थीं और अब ये सरंजामी जागीरें वंश परंपरागत हो चुकी थीं।
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