बुंदेलखंड के इतिहास में नारियों की दशा | Women in the history of Bundelkhand

बुंदेलखंड के इतिहास में नारियों की दशा 

बुंदेलखंड के इतिहास में नारियों की दशा | Women in the history of Bundelkhand


बुंदेलखंड के इतिहास में नारियों की दशा 

  • यह सत्य है कि बुंदेलखंड भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में सामाजिक रूप से विशेष नहीं थाफिर भी यहां की स्त्रियों को जागरूक माना गया है। राजपरिवार की स्त्रियाँ शासन-प्रशासन में अपने राजा को न केवल सहयोग देती थीं बल्कि आवश्यकता पड़ने पर तलवार हाथ में उठाकर शत्रुओं को धूल चटाने के लिये युद्ध के मैदान में आ डटती थी। इसलिये कहा जाता है कि बुंदेली समाज में स्त्रियों की दशा दयनीय नहीं थी। बुंदेलखंड के टीकमगढ़दतियापन्नाछतरपुर एवं समथर राज्यों में यदा-कदा सुयोग्य प्रशासिकाओं की उपस्थिति का उल्लेख मिलता है।  इन प्रभावशाली नारियों ने अपने काल में अपनी सूझबूझ एवं विवेक से इतिहास में अपनी ऐसी छाप छोड़ी कि उनके विरोधियों अपने दाँतों तले उंगली दबानी पड़ी। यह भी उल्लेखनीय है कि बुंदेला रानियों एवं महारानियों में कई विदुषी महिलाएं थींजिन्हें साहित्य विशेषतः काव्य रचना में रुचि थी और उन्होंने इस क्षेत्र में सृजन के माध्यम से काफी नाम कमाया था। दतिया राज्य की बख्तकुँअरि इसी श्रेणी में रखी जा सकती हैं।

 

  • उच्च वर्ग की स्त्रियों की तुलना में मध्यम एवं निम्न वर्ग की स्त्रियों की दशा निश्चित रूप से उन्नत नहीं थी। स्त्रियों को जन्म से मृत्यु तक अपने माता-पितापति और पुत्रों के और उनके अभाव में किन्हीं रिश्तेदारों के संरक्षण में रहना पड़ता था। कन्या का जन्म परिवार के लिए दुख का कारण होता था। बाल-विवाह की प्रथा सभी वर्गों में प्रचलित थी। पतिव्रत धर्म को सर्वाधिक महत्व दिया जाता था। पति-प्रेम की पराकाष्ठा सती होना समझा जाता था। क्षत्रियों में जौहर की आम प्रथा थी। बुंदेलखण्ड में स्थान-स्थान पर सती चौरा और सती स्तंभ पाये जाते हैं। विधवा को समाज में उपेक्षित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। वह न अच्छे वस्त्र धारण कर सकती थीं और न आभूषण पहन सकती थीं। उसे उत्सव-समारोहों तथा बाग-बगीचों में जाना भी वर्जित था। बाँझ का जीवन भी ताने सुनते ही बीतता था। समाज में स्त्रियों से संबंधित समस्त प्रकार की बुराईयों एवं कुप्रथायें मौजूद थीं बाल विवाहबहुविवाहपर्दाप्रथाबेमेल विवाहसतीप्रथाजौहर प्रथावेश्यावृतिरण्डी अथवा नचनी आदि ऐसी अनेकों कुप्रथायें थींजिन्हें तत्कालीन बुंदेला स्त्रियों को सामना करना पड़ा। यदि कोई व्यक्ति विध ावा स्त्री से विवाह करता था अथवा कोई नारी अपने पति को त्याग कर अन्य पुरुष से विवाह स्थापित करती थी तो ऐसे परिवारों को वर्णसंकर एवं जातिद्रोही करार देकर समाज से निष्कासित कर दिया जाता था। हालाँकि मध्य एवं निम्न वर्ग की स्त्रियों पर विवाह से संबंधित विशेष बंधन नहीं थे। समाज में प्रचलित सती प्रथा को उच्च वर्ग का संरक्षण प्राप्त था। स्त्रियाँ सभी तरह से अपने स्वामी के अध् तीन रहती थीं। उनकी सेवा करना और उनकी इच्छा के अनुकूल कार्य करना उनका परम धर्म माना जाता था। अपने पतियों के चरण स्पर्श कर उनके चरण पखार कर उन्हें पोंछनामुँह धुलानाबीजना (पंखा) झलनापान का बीड़ा देनाउनके लिए श्रृंगार करनामन बहलाव के लिये गायन-वादन-नृत्य करना अथवा उसकी व्यवस्था करना आदि पत्नियों के आदर्श कार्य समझे जाते थे। किसी स्थिति में वे पति की आज्ञा के विपरीत कार्य नहीं कर सकती थीं। यहाँ तक कि वन उपवनों की सैर भी पति से आज्ञा लेकर ही जा सकती थीं। 
  • स्त्रियों के लिए पति ही परमेश्वर था। वह चाहे कैसा भी हो उसका साथ निभाना और उसकी तन-मन लगा कर सेवा करना ही पत्नी के लिए मुक्ति का मार्ग समझा जाता था। बुंदेली समाज इस काल के अन्य पुरुष प्रधान समाजों से अलग नहीं था और उसमें स्त्रियों की स्थिति सभी दृष्टि से हीन थी। तब भी पुरुष बहुविवाह कर सकते थेजबकि स्त्रियों को एक पतिव्रती होने के उपदेश दिये जाते थे। परन्तु हर स्थिति में पति न रहने पर पत्नी की स्थिति बिना जल के मछली के समान हो जाती थी।

 

  • उच्च तीन वर्णों में घूँघट निकालने की प्रथा थी। पर निम्न और व्यावसायिक वर्ग की स्त्रियों में इस प्रथा का प्रचलन कम अथवा उतना नहीं था क्योंकि अपने दैनिक सेवा कार्यों के लिए इसमें उन्हें असुविधा होती थी। इन निम्न वर्गों में जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है नाइन या खवासिनमालिनतमेलिनपनिहारिनआदि आती थीं। गणिकावेश्यापातुरियाँ और नटनियाँ पुरूष वर्ग की काम-पिपासा और निम्न स्तर की रुचियों को संतुष्ट करती थीं। ये सद्गृहस्थिनों की गृहस्थी के लिए सदैव ही खतरा बनीं रहती थीं। इसलिए उन्हें समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता था।

 

  • गणिकावेश्या और पातुरिया नाच-गाकर पुरूषों का मनोरंजन करती थीं और अपने शरीर को अर्पित कर उनकी कामाग्नि शांत करती थीं। इसकी वे भरपूर कीमत भी वसूल करती थीं। तीन श्रेष्ठ वर्णों क्षत्रियब्राह्मणऔर वैश्यों की स्त्रियों में से थोड़ी बहुत की घरेलू शिक्षा जरूर ही होती रही होगी। यह सामान्य शिक्षा-दीक्षा धार्मिकसाहित्यिक विशेषकर पौराणिक कथा कहानियों पर आधारित रही होंगी। रानियों के पढ़ने और पढ़ाये जाने का उल्लेख विभिन्न समकालीन ग्रंथों में प्राप्त होता हैं। फिर भी ऐसी शिक्षित स्त्रियों का प्रतिशत भी नगण्य रहा होगा। तमाम बंधनो एवं अनपढ़ होने के बावजूद ये स्त्रियों अपने घरों में सुरक्षित तथा सुखी थीं। मध्यम एवं निम्न वर्ग की स्त्रियाँ भी उच्च वर्ग की स्त्रियों की भाँति वीरता एवं साहस का प्रदर्शन करती थीं। 

 

 बुंदेलखंड के इतिहास में रहन-सहन और खानपान 

  • बुंदेलखंड अंचल के निवासियों का रहन-सहन अत्यन्त सादगी भरा था। यहाँ के लोगों के घर कच्चे होते थे। कुछ समृद्ध लोग पक्की हवेलियों में रहा करते थेजबकि कुछ लोगो के घर बाहर से पक्के किंतु अंदर से कच्चे होते थे। मकानों की संरचना प्रायः एक जैसी होती थी। सबसे आगे वाले कमरे को पौरउसके बाद तथा आँगन के बीच वाले कमरे को मचकौरिया या मझारिया कहते थे। एक कमरा रसोई के लिये होता था। एक कमरे में पूजा की जाती थी अथवा कमरे में एक अल्मारी बनाई जाती थीजहाँ देवी-देवताओं की मूर्तियों एवं पूजन सामग्री रखी जाती थी। मकान के बीच में एक ऑगन होता थाजिसमें एक तुलसी बिरवा अथवा घरुआ बनाया जाता थाजिस पर घर के लोग नहाने के बाद जल चढ़ाते थे तथा उसकी परिकमा लगाते थे। हवेलियों में एक कमरा टकसार के रूप में होता थाजिसमें रोकड़ अथवा मूल्यवान संपति रखी जाती थी। घरों में प्रायः शौचालय बनाने की परंपरा नहीं थी और लोग शौच हेतु बस्ती अथवा गाँव से बाहर जाते थे। यद्यपि धनी एवं सम्पन्न वर्ग के घरों में शौचालय अवश्य बनाये जाते थे। घरों के समीप एक चौंपयारी बखरी बनायी जाती थीजिसका उपयोग पशुओं के बॉधने अथवा उनके चारे आदि के लिये होता था। कच्चे मकानों एवं बखरियों की छतें खपरैलों से ढंकी होती थी ।

 

  • बुंदेलखंड की आम जनता निर्धन थीअतः उनका खानपान भी सरल एवं सादा होता था। रोटी के साथ अचार अथवा प्याज अथवा नमक की डली होती थी। कहीं-कहीं तो यह स्थिति थी कि लोग महुआ के फूलबेर और सत्तू खाकर अपना जीवनयापन करते थे।

 

  • समाज के उच्च वर्ग के लोग विभिन्न प्रकार के व्यंजनों का लुत्फ उठाते थे। इन परिवारों में सुबह का नाश्ता गर्म जलेबी और लड्डुओं से होता था। वे बासी पूड़ियों को अचार के साथ भी खाते थे। इनके यहां जिसे कच्चा भोजन कहा जाता थाउसमें समूंदीकालौनीमाड़ेबरापछयावरकंकढ़ीभातमगौरापापरकचरियागोरसफुलकाहिंगोराऑवरियागकरियाँ मुंसेलागुलगुला आदि व्यंजन बनते थे। समूंदी को तो विवाह अथवा विशिष्ट अवसरों पर भी बड़े महत्व के साथ परोसा जाता था। इसमें चॉवलचने की दालबेसन की कढ़ीबरामगौरापापरखींचलाकचरियाँमठा की मिर्चचावल की तली हुई बढ़ीकालॉनीबूराशक्करफुलकारोटी अथवा माड़े परोसे जाते थे। उड़द की दाल को पीस कर पूड़ी की तरह बेलकर तेल में सेक कर बरा तैयार किया जाता था। यह आधुनिक दही बड़े का एक रूप था। गकरियों गेहूँ एवं चने के मिश्रित अनाज को छिलके सहित पीसकर बने आटे से तैयार होती थी। गुलगुला एक मीठा व्यंजन थाजो गेहूं के आटे और गुड़ के घोल को पतला करके मेवा डालकर बनाया जाता था। लप्सी भी एक मीठा व्यंजन थाजो गेहूं के आटे का हलुआ बनाकर उसमें मेवा डालकर बनाया जाता था ।  यहां के लोग जब बाहर काम करने के लिये जाते थे तो गेहूं के आटे की बाटियों सेंक कर अपने साथ ले जाते थेजो उन्हें कई दिनों तक भोजन की चिंता से मुक्त कर देते थे। इन बाटियों को अचार के साथ अथवा नमक के पानी के साथ खाया जाता था।

 

वस्त्र और आभूषण 

  • बुंदेलखंड की वेशभूषा के विषय में यहां की साहित्यिक कृतियों और ओड़छा-दतिया के मुहल्लों आदि के भित्ति चित्रों तथा वसली चित्रों से जानकारी प्राप्त होती है। महिलाओं के मुख्य वस्त्र बांड़साड़ीलहंगा-लुंगड़ाकंचुकीऔर ओढ़नी होती थी जबकि मुसलमान महिलाओं तथा नर्तकियों में चूड़ीदार पायजामाकुर्ताओढ़नीबुर्का आदि का प्रचलन था। बांड़ एक प्रकार का एक बड़ा घाघरा होता थाजिस पर समृद्ध परिवारों द्वारा सोने एवं चॉदी के गोटे और जरी का काम कराया जाता था। कुर्मी बाहुल्य क्षेत्रों में आज भी बॉड़ चोलीचुनरियालम्बी आस्तीन वाले ब्लाउज पहनने की परंपरा है। श्रमिक महिलायें कॉछ वाली धोती पहनती थीं। पुरुष वर्ग द्वारा साफापगड़ीअंगोछाबंडीमिरजईफतुई कमीजकुर्ता धोती आदि वस्त्रों के पहनने का उल्लेख प्राप्त होता है। वर्ग और आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्र कीमती और सस्ती सामग्री से बने होते थे। उनमें जो एक बात सभी से सामान्य रूप में पाई जाती थीवह थी रंगों का चुनांव। प्रायः कपड़ों को घर में गाढ़े रंग में रंगा जाता था। 

 

  • बुंदेलखंड में प्रतिकूल आर्थिक स्थिति होने के बावजूद भी यहां का जनमानस श्रृंगार एवं आभूषण के प्रति अपना प्रेम रखता था। मंजनउबटनस्नान के पश्चात् अंगरागतेल-फुलेलसुगंधियों का प्रयोगवेणी गुहनासधवाओं का मांग में सिंदूर भरनाआंखों में अंजन या काजल लगानामस्तक पर केसर कपूर युक्त चंदन लगानाकपोलों पर चंदन चर्चित रूपांकनओठों पर लाली अथवा ओठों की लाली के लिए पान खाना और पाँवों में नाखनों में महावर लगानानये वस्त्र धारण कर गुलाब जल छिड़कना।"

 

  • शारीरिक स्वच्छता और उपरोक्त प्रसाधनों के पश्चात् आभूषणों की बारी आती थी जिनके बिना सधवा कुलवधुओं का सोलह श्रृंगार अधूरा रहता था। ये आभूषण थेपैरों में बिछियानूरअनौटेबांकें और पैजानियांकटि में क्षुद्र घंटिकाकिंकणीहाथों में चूड़ियाँकंकण पहुँचीलाल की पहुँचीवलय उंगलियों में मुंदरिया अथवा अंगूठियाँग्ले में कठलाकंठ श्रीचंपक-कलीहारकंठमालगजमोतिन का हारखुटिलामुक्ताहारबनमालामोतीमालामणिमय हारकानों में कर्णफूलनाक में नक मोतीनक बेसरमाथे पर सोने का तिलकजड़ाऊ टीकाबेंदी-बेंदाशीश फूलमांग फूलवेणी फूलमोती पिरोई हुई मांग आदि। इन आभूषणों में सोनेचाँदीहीरे-जवाहरातों आदि का स्थिति और पदानुसार प्रयोग होता था। उपरोक्त सभी प्रसाधन और वस्त्राभूषण सम्मिलित रूप से बुंदेलखण्ड की उच्च श्रेणीय कुल वधुओं के सोलह श्रृंगार में आते थे। स्त्रियों एवं पुरुषों द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों की संख्या सैकड़ों में होती थी। परिवार में बच्चों के लिये भी आभूषणों की व्यवस्था रहती थी। उन्हें पैरों में चूड़ापैजनियाँतोड़ाकमर में करधौनीडोराहाथ में कड़ाकान में बारी एवं लौंग पहनाये जाने का प्रचलन था। 

 

अनेक स्त्री-पुरुषों द्वारा अपनी सुंदरता बढ़ाये जाने के लिये गोदना गुदवाने का प्रचलन समाज में था। कई आदिवासियों में यह परंपरा बड़े पैमाने पर थी। यद्यपि गुदना गुदवाना एक कष्टसाध्य उपक्रम थातथापि स्त्रियाँ गुदना गुदवाने से परहेज नहीं करती थीं। गुदना गुदवाने के मूल में सौंदर्य तो उद्देश्य था हीइससे माना जाता था कि जादू-टोने से बचाव होता है। प्रजनन शक्ति में वृद्धि होती है। यह विश्वास भी रहता था कि चूँकि मृत्यु के समय शरीर पर से सारे आभूषण उतार लिये जाते हैअतः केवल गुदना ही आभूषण के रूप में शरीर के साथ जाता है। पुरुषों द्वारा कोई विशेष प्रकार का गुदना तो नहीं गुदवाया जाता थाकेवल कुछ चिंह अथवा देवी-देवताओं की मूर्तियाँ गुदवायी जाती थीं। जबकि स्त्रियाँ अपने शरीर पर धार्मिक प्रतीक चिंहप्राकृतिक प्रतीक चिंहपशुपक्षीफूल आदि की आकृतियोंस्वयं अथवा पति अथवा अपने इष्ट का नामकुआँतीर अथवा अन्य शस्त्र-अस्त्रों के चिंह गुदवाती थीं। गुदना गोदने वाली स्त्री को गुदनारी कहा जाता था।

 

बुंदेलखंड के इतिहास तीज-त्यौहार अथवा उत्सव 

  • बुंदेलखण्ड में पर्वउत्सव व्रत और पूजन यहाँ की विशिष्ट संस्कृति को निरूपित करते है। अनेक देवी-देवताग्राम्य देवताकुल देवता आदि पूजना यहाँ की परंपराओं में शामिल है। यहाँ के - तीज-त्यौहार हर माह और ऋतु में वर्ष भर चलते रहते थे। समकालीन ग्रंथों में चैत्र से फाल्गुन तक के बारह महीनों के मौसम और छः ऋतुओं ग्रीष्मवर्षाशरदहेमंतशिशिर तथा बसंत - की विशेषताओं का वर्णन प्राप्त होता हैं। इन्हीं विवरणों में बुंदेलखण्ड में चैतवैशाख और जेठ की गर्मी और असाढ़सावनभादों की वर्षा का उल्लेख करते हुए आश्विन में पितरों को पिंडदान और नवदुर्गा के अनुष्ठान की भी चर्चा की गई हैं। दशहरे में हथियारों की पूजा होती थीं। 22 दीवाली और कार्तिक के बाद के 2-3 महीनों की ठंड के पश्चात् बसंत और फागुन में होली की मौज मस्ती में लोग डूब जाते थे। इस अंचल में नारी पूजा का बड़ा महत्व था। घर में बहुओं की पूजा कुनघुसूं पूनों परबेटियों की उपासना हरी-जोत पूजा परमौं की पूजा नवरात्र पर की जाती थी। कृषि कार्य के आधार पर हरायतें पर्वगाय-बछड़ों की पूजापति के लिये करवाचौथ आदि उत्सव यहाँ मनाये जाते थे। बुंदेलखंड अंचल में जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाने वाले त्यौहार होलीदीवालीरक्षाबंधनषिवरात्रिबसंत पंचमीमकर संक्रांतिनवरात्रिदशहरा आदि धूमधाम से मनाये जाते थेवहीं अनेकानेक स्थानीय त्यौहार भी यहाँ की संस्कृति में सम्मिलित थे। इन त्यौहारों में गनगौरजवारेशीतला आठेंआसमाईकुनघुसूंसाउनतीजकन्हैया आठेंतीजाभुजरियोंनाग पाँचेंहरछठमोर छठसन्ताउन सातेंडोल ग्यारसगड़ा लैनी आठेंसुआटाबुढ़वा मंगल, शरद पूनोंभैया दोजइच्छा नौमींदेवठानभंवरात आदि उत्सव शामिल थे। रेम्बल्स एंड रीकलेक्शंस में कर्नल स्लीमन ने बुंदेलखंड में तुलसी पूजा का विशेष उल्लेख किया है।

 

  • स्त्रियाँ अपने परिवार की मंगल कामना तथा अनिष्ट के निवारण के लिये अनेक प्रकार की सुहागलें करती थीं। इनमें केवल सौभाग्यशाली स्त्रियाँ ही भाग लेती थी। इन सुहागलों में गौरड्यांहुर्रइयांसंकटादसारानीपुरखनबीजासेन की सुहागलें मनाई जाती थीं। सोमवती अमावस्या का यहाँ विशेष महत्व था। इस दिन स्त्रियाँ ऐसे पीपल की पूजा करती थींजिसके नीचे शिवलिंग स्थापित हों। इस क्षेत्र में मलमास अथवा अधिमास को भी मनाया जाता था। पूरे महीने कच्ची काली मिट्टी के शिवलिंग बनाकर प्रतिदिन उनकी पूजा की जाती थी। इसी प्रकार सत्यनारायण की कथा कराकर अपनी मनोकामना पूर्ण होने की कामना की जाती थी। माघ महीने के अंतिम रविवार को यहाँ सूर्यपूजा की जाती थी। यह सभी परंपरायें आज भी बुंदेली जनमानस में वैसी ही प्रचलित हैं। 

 

 बुंदेलखंड के इतिहास में नारियों की शिक्षा 

  • बुंदेलखंड के शासकों के द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय योजना प्रस्तावित नहीं थीक्योंकि शिक्षा मूलतः सामाजिक दायित्व मानी जाती थीइसकी व्यवस्था समाज के व्यक्तिवैयक्तिक या जातिगत ढंग से की जाती थीं। शिक्षण कार्य मंदिरों या पाण्डे के घर और मस्जिदों में अथवा मौलवी के घर पर संचालित किया जाता था। उस काल में शिक्षा का पाठ्यक्रम धर्मकर्मनीति दर्शनगणितज्योतिष देवनागरीसंस्कृतफारसीअरबीउर्दू आदि विषयों एवं भाषाओं का अध्यापन किया जाता था। बुंदेला राज्यों में परंपरागत और प्रशासकीय शिक्षा ब्राह्मणों और कायस्थों के हाथों में केन्द्रित थी। इन दोनों की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिताओं द्वारा उन्हें दी जाती थी और बाद में उनके गुरुओं द्वारा। कभी-कभी पिता अपनी विद्वता के कारण स्वयं ही गुरु बन जाते थे। इसलिए पिता और गुरु का दर्जा एक समान ही समझा जाता था। श्री हरिराम व्यास के पिता समोखन शुक्ल केशवदास के पिता काशीनाथ और उनके पिता कृष्णदत्त तथा अक्षर अनन्य के पिता मानसाह ऐसे ही पिता-गुरु की श्रेणी में आते थे। इनके सिवा दीक्षा गुरु भी होते थेजो ज्ञान प्राप्ति के सहायक होते थे और उन्हें पिता जैसा ही बल्कि उनसे भी अधिक सम्मान दिया जाता था। उदाहरण के लिए श्री हरिराम व्यास के दीक्षा गुरु श्री हितहरिवंश थे। बुंदेला राजा भी ब्राह्मणों से गुरु-दीक्षा लेते थे और उन्हें अनुदान वृत्तियाँपादारघआदि लगा देते थे। ओड़छा के राजा मधुकरशाह ने श्री हरिराम व्यास सेउनके पुत्र इंद्रजीत सिंह ने केशवदास मिश्र से सेंवढ़ा के अधिपति पृथ्वीसिंह ने अक्षर अनन्य को गुरुवत् ही मानते हुए श्री विजयसखी से दीक्षा ली थी। पन्ना के महाराजा छत्रसाल बुंदेला धामी गुरु स्वामी प्राणनाथ को गुरुवत् ही मानते थे। प्रायः सभी बुंदेला राजा पढ़े-लिखे होते थे। राजकाज में और अपनी साहित्यिक अभिरूचियों की संतुष्टि हेतु वे भरसक विद्याध्ययन को प्रोत्साहन देते थे। इसमें ब्राह्मण और कायस्थ उनके प्रमुख सहयोगी थे। जो ब्राह्मण वेदों और पुराणों का अधिकता से अध्ययन और प्रचार कर प्रबुद्ध गुरुओं की श्रेणी में आ जाते थेउन्हें व्यास कहा जाने लगता था और अगर वे शिष्य भी स्वीकार करने लगे तो गोस्वामी कहलाने लगते थे। ये सभी पेदपुराणव्याकरणमंत्र प्रयोगपिंगल ज्ञान सहित काव्य रचनाज्योतिषगणितधर्मशास्त्रदर्शनशास्त्र आदि का अध्ययन करते कराते थे। शिक्षा के मुख्य विषय यही थे। वैद्य वैद्यक और तत्संबंधी रसायनों और जड़ी-बूटियों का विरासत में पाया ज्ञान रखते थे। ये हिन्दी और संस्कृत में निष्णात होते थे।

 

  • बुंदेला राज्यों में कायस्थ मुख्य रूप से बुंदेलों के प्रशासन से जुड़े होने और मुगल काल में हसबुलहुक्मोंफरमानोंके पठन पाठन तथा फारसी में शाही दरबारों में उनके प्रत्युत्तर लिखने के कार्य से जुड़े होने के कारण हिंदी के साथ ही उर्दूफारसी के भी अच्छे ज्ञाता बन गये थे। बुंदेले राज्यों से खबरेंसमाचारसंस्मरणपत्र लिखनेदरख्वास्त लिखनेमालगुजारी के कागजात तैयार करने आदि में वे सदा व्यस्त रहते थे। बुद्धिजीवी होने के नाते उन्हें संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान होता था। उदाहरण के लिए कायस्थ संत कवि अक्षर अनन्य संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और उन्होंने वेद पुराणों का गहन अध्ययन किया था। उनकी रचनाओं में हिन्दी के साथ ही उर्दू-फारसी के शब्दोंमुहावरों और अभिव्यक्तियों का प्रयोग होने से स्पष्ट है कि उन्हें उर्दू-फारसी की भी अच्छी जानकारी थी। कागजकलमस्याही आदि का प्रयोग पहले से ही चला आ रहा था और सुलेख लिपिकार मान्यता प्राप्त करने लगे थे।

 

  • बुंदेली समाज में तीसरे महत्वपूर्ण वर्ग वैश्यों की शिक्षा हिसाब-किताब रखने और बहीखाता तैयार करने से संबंधित रहती थी। यह उनके पिताओं द्वारा ही अधिक दी जाती थी। ब्राह्मण और उनके द्वारा चलाई जाने वाली पाठशालाएँ भी इसमें योग देती थीं। वैश्य अपने बही-खातों में मोड़ी लिपि का प्रयोग करते थे। मजदूरकुशल मजदूरकारीगर और दूसरी तरह के दस्तकार आदि वर्गों में साक्षरता का लगभग अभाव था। ये अपनी रोटी-रोजी आपसी सहयोग और स्वयं से श्रेष्ठ व्यक्ति के नीचे काम करके तथा उससे सीख कर चलाते थे। उनके धंधे वंशानुगत होते थे जैसे लुहारकुम्हारतंवेरेसुनार आदि अपने पुत्रपौत्रों को अपने-अपने धंधों में प्रशिक्षित करते थे। वह 'चेलेभी बनाते थे। चेलों का संबंध अपने उस्तादों से गुरू-शिष्य जैसा प्रगाढ़ और स्नेहयुक्त एवं सम्मानप्रद होता था। अंग्रेजों ने बुंदेलखंड अँचल में शिक्षा के विकास के लिये लोगों को प्रोत्साहन देकर अशासकीय प्रयत्नों के माध् यम से अॅग्रेजी स्कूल प्रारंभ करवाये।

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