राजपूतों का उदय से संबन्धित अवधारणा | भारत पूर्व-मध्यकालीन इतिहास |Rajput Origin theory in Hindi

 राजपूतों का उदय से संबन्धित अवधारणा

राजपूतों का उदय से संबन्धित अवधारणा | भारत पूर्व-मध्यकालीन इतिहास  |Rajput Origin theory in Hindi
 

भारत पूर्व-मध्यकालीन इतिहास  

  • इस आर्टिकल में हम मुख्यता भारत के पूर्व-मध्यकालीन इतिहास का अध्ययन करेंगे। यह एक ऐसा कालखंड है जिसे प्राचीन काल तथा मध्यकाल के बीच माना गया है, इसकी चारित्रिक पहचान दोनों से भिन्न मानी गई है, इसलिए इस समय काल को इंगित करने के लिए पूर्व-मध्यकाल के रूप में नवीन संज्ञा दी गई है। हालांकि पूर्व- मध्यकाल के रूप में कालखंड का वर्गीकरण करने से पहले, भारत के इतिहास लेखन में इस समय काल के इतिहास को हम प्राचीन काल में अथवा मध्यकाल में ही समेटते रहे। जैसे-जैसे इतिहास लेखन की शैली विकसित होती जा रही है हम विभिन्न विमर्शों और विचारधाराओं के अधीन इतिहास का पुनर्निर्माण होता हुआ पाएंगे। सामान्य रूप से कह सकते हैं कि इस काल खंड की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाएं इस प्रकार की नहीं थी कि उन्हें मध्यकालीन कहा जाए और ना तो वह पूर्णता प्राचीन व्यवस्थाओं सी थी।

 

  • पूर्व-मध्यकाल के रूप में भारतीय इतिहास को एक और काल खंड में वर्गीकृत करनाऔर इस काल को संक्रमणकाल के रूप में देखना, इसका तर्कसंभवतः यह है कि इतिहास में दीर्घकालीन प्रक्रियाओं के प्रभावों का अध्ययन समय-काल की निर्धारित इकाई में करना व समेटना वास्तविकता में अराजक और मुश्किल काम है। परिवर्तन, पतन और विकास कुछ भी अकस्मात ही किसी काल खंड की समयसीमा में बंध कर नहीं होता। इन प्रक्रियाओं की निरंतरता के लक्षण मानवीय समयसीमा के आरपार देखे जाते हैं। भारत के इतिहास का वर्गीकरण उसकी अपनी वास्तविकताओं के आधार पर होना चाहिए। इसलिए नवीन विमर्श, परिस्थितियों, नए इतिहास लेखन और नवीन शोध परिणाम के कारण समय-काल का भी नवीन रूपसे विभाजन संभव है।

 

  • भारत के इतिहास लेखन में 'पूर्व-मध्यकाल'को मुख्यता निम्न दृष्टिकोण से समझा गया हैं। प्रारंभिक विदेशी विद्वानों, औपनिवेशिक अधिकारियों और कुछ राष्ट्रवादी इतिहासकारों की दृष्टि में यह काल पतन और अंधकार का था। भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उत्पादन की पद्धति (mode of production) के आधार पर इसे सामंतवाद का काल माना है, जबसत्ता, समाज और अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति का सामंतीकरण हुआ। वहीं इतिहासकारों में यह मत सामान्य होता गया कि यह काल प्राचीन से मध्यकाल के बीच का संक्रमण काल रहा है, लेकिन भारतीय सामंतवाद की संकल्पना को नकारते हुए कई नए विचार सामने आए हैं, जिसके अनुरूप वह इस काल में राज्य निर्माण और विकास की बात पर बल देते हैं। इस इकाई में हम जिन विषयों का अध्ययन कर रहे हैं उनसे हम पूर्व-मध्यकाल की गतिशीलता को समझ पाएंगे। हम पहले राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न मतों का अध्ययन करेंगे, उसके बाद भारतीय सामंतवाद को लेकर इतिहासकारों के विभिन्न दृष्टिकोण की चर्चा करेंगे।

 

राजपूतों का उदय-  पृष्ठभूमि (Rajput Rise in Hindi) 

  • 'राजपूत' यह पद (term) कब और कैसे क्षत्रिय पद का प्रायबन गया यह ध्यान देने की बात है, इसका सटीकता से पता लगाना मुश्किल है। हालांकि यह कहा जा सकता है कि बारवीं शताब्दी तक राजपूत पद एक खास वंश या बहुत सारे वंशों को इंगित करने के लिए, एक सामूहिक पहचान के पद के रूप में चलन में आ गया था। इतिहासकारों ने इस पद के प्रयोग में आने और इसके अर्थ के आधार पर भी राजपूत उत्पत्ति को समझने का प्रयास किया है।

 

  • राजपूत पद के अर्थ को लेकर भी इतिहासकार एक मत नहीं हैं, एक मत के अनुसार यह केवल वैदिक क्षत्रिय और राजपुत्रों के लिए उपयोग होता था। राजपूत को देशी मूल का मानने वाले इतिहासकार जयनारायण असोपा का मानना है कि राजपूत पद कालांतर में वैदिक राजपुत्र, राजन्य या क्षत्रिय वर्ग के लिए ही उपयोग में आने लगा था। उनका मानना है कि राजपुत्र और राजन्य समानार्थक रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं। वह राजपूत को केवल क्षत्रिय के रूप में ही देखते प्रतीत होते हैं।

 

  • वहीं गौरीशंकर प्रसाद ओझा ने विभिन्न स्रोतों में राजपूत पद के प्रयोग का अर्थ निकलते हुए कहा है कि, यह शब्द विभिन्न अर्थों के रूप में प्रयोग हुआ है, कहीं रजा के पुत्रों के लिए तो कहीं सामंतों के पुत्रों के लिए, तो कहीं भू-स्वामियों के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है। कुछ इतिहासकारों ने राजपूतों के कुछ वंशों को ब्राह्मण कुल से उत्पन्न माना है, जैसे परमार वंश को ब्रह्म-क्षत्रिय माना गाया है, उनके अनुसार परमार मूलतः ब्राह्मण थे।

 

  • गुप्तोतर काल के साथ विभिन्न देशी और विदेशी जनजातियों का भारत में शक्तिशाली राजनीतिक प्रभाव तथा नए राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर हुई। साथ ही इस काल में नई सामाजिक एवं राजनीतिक पहचानो का निर्माण भी हुआ। अनेक स्थानीय राजपूत स्रोतों में तथा जनश्रुतियों के माध्यम से राजपूतों के क्षत्रिय धर्म, शक्ति, साहस और बलिदान का महिमामंडन किया गया है, इस बात पर बल दिया गया है कि उन्होंने उस समय के हिंदुस्तान में बढ़ रही इस्लामी शक्तियों (अरब और तुर्क) को कठोर चुनौती दी तथा हिन्दू धर्म रक्षक की भूमिका निभाई थी। वस्तुतः हमें राजपूतों के इस गुणगान को उनकी संप्रभुता के निर्माण के प्रयास के रूप में भी देखना चाहिए। 

  • राजपूतों की उत्पत्ति के विषय को लेकर इतिहासकारों के मध्य विवाद है, इसलिए राजपूतों का उदय कैसे हुआ इस पर अनेकों विचार सामने रखे गए हैं। इन विचारों को मूलतः निम्न प्रकार की संभावनाओं में प्रकट किया गया है। 

  • राजपूत देशी मूल के थे, वह वैदिक आर्य-क्षत्रिय थे। राजपूत सूर्य एवं चन्द्र वंशी थे। उनकी उत्पत्ति अग्निकुल/अग्निकुंडसे हुई थी।

 

 

राजपूतों की देशी उत्पत्ति का मत 

राजपूतों की उत्पत्ति को देशी मूल का मानने वाले लोगों के विचार का मुख्य आधार यह है कि, राजपूत अपने समय की सामाजिक व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण के ही थे तथा वह मूल रूप से भारत के ही निवासी थे, वह राजपूतों को प्राचीन आर्यों की संतान मानते हैं। वहीं कुछ लोग राजपूतों की उत्पत्ति को मिथकीय कथाओं से समझाने का प्रयास करते हैं। उपरोक्त मत वाले सभी लोग राजपूतों को कमोबेश देशी मूल का ही मानते हैंइसलिए इन के विचारों को हमने देशी उत्पत्ति के मत के अंतर्गत ही समझने का प्रयास किया है।

 

 राजपूतों का सूर्य एवं चंद्रवंशी होने का मतः 

  • बहुत सारे इतिहासकारों का मत है कि अपने आपको दिव्य, श्रेष्ठ और कुलीन दर्शाने के लिए राजपूतों ने अपनी प्रभावशाली वंशावली बनवाई तथा अपनी उत्पत्ति के संदर्भ में वह खुद को सूर्य और चन्द्र वंशी मानते हैं। वहीं डॉ ओझा ने ऐतिहासिक स्रोतों (अभिलेखों तथा ग्रंथों) के संदर्भ से राजपूतों को सूर्य और चन्द्र वंश का माना है, उदाहरण के लिए गुहिल एवं राठौर राजपूतों को सूर्यवंश से उत्पन्न तो भाटी और चन्द्रावती के चौहान राजपूतों को चंद्रवंशी माना है। इन प्रमाणों के आधार पर वह राजपूतों को प्राचीन क्षत्रिय के वंशज ही मानते हैं। कुमारपालचरित, वर्णरतनाकार और राजतरंगिणी जैसे स्रोतों में राजपूतों की जो सूचियाँ मिली है उनके आधार पर राजपूतों की 36 जातियां थी। इन सूचियों के आधार पर ही कुछ इतिहासकार इन्हें प्राचीन क्षत्रिय और सूर्य एवं चन्द्र वंश का मानते हैं, हालांकि इन अलग-अलग स्रोतों में दी गई यह सूचियाँ आपस में पूर्णतः मेल नहीं खाती हैं।

 

  • पंडित गौरी शंकर ओझा का मत है कि राजपूत पारंपरिक क्षत्रियों के ही वंशज हैं, राजपूत पद असल में संस्कृत शब्द राजपुत्र का ही अपभ्रंश है। इस शब्द का अर्थ है राजघराने का व्यक्ति, इसलिए राजपूत पुरानी क्षत्रिय वर्ण की जातियों के ही थे। वह कर्नल जेम्स टॉड की बातों का खंडन करते हुए कहते हैं किविदेशी जातियों और राजपूतों की वेशभूषा और रीति-रिवाजों में कोई समानता नहीं थी। राजपूत विदेशियों से इतने भिन्न थे कि उनको विदेशी साबित करना गलत होगा। सी.वी. वैद्य के अनुसार राजपूत वस्तुतः वैदिक आर्यों के ही वंशज थे, वैदिक आर्यों के अलावा कोई और इतने शौर्य से हिन्दू (वैदिक) परंपराओं की रक्षा हेतु नहीं लड़ सकता था, राजपूतों ने अरब और तुर्कों का सामना और विरोध इसलिए ही किया था।

 

  • दशरथ शर्मा का मानना है कि राजपूत जातियों ने विदेशी शक्तियों का प्रतिकार करने की प्रक्रिया के दौरान ही समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया, वह महत्व में तभी आए जब उन्होंने विदेशियों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, उनका मत है कि कुछ ब्राह्मण जातियों ने भी निज जन, समाज, संस्कृति और अपनी भूमि की रक्षा के लिए शस्त्र उठा लिए थे तथा क्षत्रिय धर्म का पालन किया। आर. सी. मजुमदार ने भी राजपूतों के संदर्भ में प्राचीन क्षत्रिय के मत को महत्व दिया है।

 

  • वहीं इस मत से विभेद रखते हुए कुछ इतिहासकारों का मानना है कि, इस प्रकार के प्राचीन क्षत्रिय वंशों से अपनी वंशावली को जोड़ कर राजपूतों ने खुद को क्षत्रिय साबित किया क्योंकिक्षत्रियों को राज्य करने का अधिकार था, तथा उन्होंने पौराणिक मान्यताओं के आधार पर अपनी शासन करने की राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक वैधता को स्थापित एवं प्रसारित करने का प्रयास किया। उनके लिए यह आवश्यक था क्योंकिसंभवतः वह शक्तिशाली राज्यों के निर्माण करने से पहले सामाजिक पहचान के धारक थे। खुद को सूर्य एवं चन्द्र वंशीय क्षत्रिय कुल से जोड़ कर उन्होंने अपनी राजनीतिक और सामाजिक पहचान बनाई। बी.डी. चट्टोपाध्या का मानना है कि 36 राजपूत जातियों की जो सूचियाँ हमें मिलती हैं, वह सभी स्रोतों में एक समान नहीं हैं और हम यह मान सकते है कि वंशावली और इस प्रकार की सूचियों के निर्माण और संकलन में छेड़छाड़ की गई है। उनका मानना है कि अपने गौरवशाली इतिहास की रचना करते हुए यह सामान्य प्रवृत्ति देखी जा सकती है कि राजपूत राज-वंशावलियों के निर्माण के समय बहुत सारे ऐसे शासकों को, जिनकी उत्पत्ति का काल और पीढ़ियों की कोई सूचना भी नहीं है, उन्हें भी उन्होंने ने अपनी वंशावलियों में स्थान दिया है। अर्थात् समय के साथ राजपूत शासकों ने अपने कुल को इन सूचियों से जोड़ लिया, उन्होंने अपनी वंशावलियों का निर्माण कर अपनी उत्पत्ति को प्रमुख वंश से जोड़ कर खुद के कुल को विशेष, प्रभावशाली, सिद्ध और ऐतिहासिक प्रमाणित करने का प्रयास किया। इसलिए अलग-अलग राजपूत जातियों की सूचियाँ अलग-अलग स्रोतों में कुछ हेरफेर के साथ वंश-क्रम की सूचना प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं।

 

राजपूतों का अग्निकुल/अग्नि कुंड से उत्पत्ति का मतः 

  • एक मिथक के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति उस अग्निकुंड अथवा यज्ञ से हुई जिसे गुरु वशिष्ठ ने अपनी कामधेनु गाय को पुनः प्राप्त करने के लिए किया था, क्योंकि विश्वामित्र ने कामधेनु गाय को हर लिया था अतः गुरु वशिष्ठने एक यज्ञ किया जिससे चार प्रमुख राजपूत जातियों (प्रतिहार, चाहमान, चौलुक्य और परमार ) की उत्पत्ति मानी गयी है। धीरे-धीरे यह कथा गोण हो गयी लेकिन कुछ बदलावों साथ यह मिथकीय विचार जन स्मृतियों में जीवंत रहा है। यह सामान्यता माना गया कि अग्नि कुल के राजपूतों का जन्म विशेष प्रयोजन के लिए हुआ, जब ब्राह्मण धर्म खतरे में था और क्षत्रियों का अकाल था तब एक यज्ञ के द्वारा उसकी अग्नि से राजपूतों का जन्म विशेष प्रयोजन के लिए हुआ था। कलियुग में मलेच्छोंका नाश करने के लिए इनका जन्म हुआ। चंदबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो में इस मिथक का वर्णन है, पृथवीराजरासो को ऐतिहासिक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करने वालों में बहुत सारे लोग इस मिथक को भी ऐतिहासिक घटना मानते हैं। यह माना जाता है कि राजस्थान के अबू पर्वत में हुए यज्ञ से चार प्रमुख राजपूत जातियों की उत्पत्ति हुई। क्योंकि इनकी उत्पत्ति अग्निकुंड अर्थात् यज्ञ की अग्नि से हुई तभी इनको अग्निकुल का माना जाता है। यह पहले ब्राह्मण थे और बाद में इन्होंने क्षत्रिय धर्म अपना लिया था।

 

  • इस मत को भी इतिहासकारों ने नाकारा है क्योंकि यह मत भी पौराणिक कथाओं पर आधारित है और वास्तविकता में यह संभव प्रतीत नहीं होता है। इसके विपरीत इतिहासकारों का तर्क है कि अग्नि अथवा यज्ञ द्वारा पवित्रीकरण/शुद्धि का अनुष्ठान संभव है, क्योंकि बहुत सारी राजपूत जातियां या तो विदेशी मूल की मानी गई हैं, या वह निम्न सामाजिक पृष्ठभूमि से उभर कर सामने आई हैं। हम जानते हैं की निम्न वर्ण और विदेशियों को वर्ण व्यवस्था में पवित्र नहीं माना गया है बल्कि उनको मलेच्छ इंगित किया गया है। इस लिए यह संभव है कि इस तरह के अग्निकुंड अथवा यज्ञ द्वारा शक्तिशाली लेकिन निम्न सामाजिक दर्जे वालों को अथवा विदेशियों को राजपूत जाति के रूप में पवित्र किया गया हो।

 

राजपूतों का उदय से संबन्धित विदेशी मूल का सिद्धांत 

  • भारतविद (Indologist) अंग्रेज़अधिकारी जेम्स टॉड, विलियम क्रूक और वि.ऐ. स्मिथ के अनुसार राजपूत सीथियन, शक, कुषाण और हूण इत्यादिबाहरी जनजातियों की ही वंशज हैं। इतिहासकार आर. जी. भंडारकर ने भी गुर्जर को विदेशी मूल का माना है और प्रतिहारों को वह गुर्जरों से उत्पन्नमानते हैं। हूणों की तरह गुर्जर भी विदेशी नस्ल के थे वह उत्तर-पश्चिम से भारत से आए और धीरे-धीरे वह भारत के आंतरिक भागों में विस्तार करते रहे जहाँ सदी के अंतराल में उन्होंने हिंदु धर्म और संस्कृति को अपना लिया। सर जेम्स कैम्पबेल (Sir James Campbell) की तरह भंडारकर ने भी गुर्जरों को खज़र (Khazar) मना है। खज़र यूरोप और एशिया के सीमांत क्षेत्रों में रहते थे।

 

  • लेकिन इस मत का विरोध करने वाले सी.वी. वैद्य का मानना है कि गुर्जर आर्य थे और वह भारत के थे। खज़र और गुर्जर शब्द की ध्वनि समानता के चलते लोगों ने गलत दिशा में बढ़ता हुए, गुर्जरों को खज़रों के रूप में एक ही मानना शुरू कर दिया। खज़र मूलतः व्यापार करते थे वहीं गुजर घुमक्कड़ पशुपालन करने वाले थे। विदेशी उत्पत्ति की विचारधारा को मानने वाले कर्नल जेम्स टॉड का मत था कि राजपूत और इन विदेशी जन- जातियों के रीती रिवाजों में समानता है। वह इस समानता के प्रतिबिंब के आधार पर उनका संबंध राजपूतों से जोड़ते हैं, जैसे यह विदेशी भी सूर्य के उपासक थे, उनके अनुसार सती प्रथा, अश्वमेध यज्ञ, शास्त्रों और घोड़ों की पूजा करने की रीत तथा दोनों की पौराणिक कथाओं में भी समानताएं हैं।

 

  • स्मिथ का विचार है कि शक, कुषाण गुर्जर व हुण जन जातियों का भारत में धार्मिक परिवर्तन हुआ है, इन्होंने भारत में अपने राज्य बना लिए थे, आगे चलकर इन्हीं से राजपूतों की उत्पत्ति हुई। अपनी राजनीतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का संवर्धन करने के लिए अपनी वंशावलियों को सूर्य एवं चन्द्र वंश से जोड़ लिया। विलियम क्रूक की बात से सहमत होकर स्मिथ का भी मानना है कि पृथवीराज रासो में जिस अग्नि द्वारा राजपूतों की उत्पत्ति बताई गयी है वह वास्तविकता में इन विदेशी जनजातियों का पवित्रीकरण कर समाज में विलय था।

 

  • इन जनजातियों को धीरे-धीरे मुख्यधारा में संकलित कर लिया गया और क्षत्रिय वर्ण का माना गया। इन विदेशी मूल की जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म को अपना लिया, अपनी सामाजिक पहचान को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने वंशावलियों का निर्माण कर खुद को सूर्य और चन्द्र वंश से जोड़ लिया। हलांकि विदेशी उत्पत्ति का मत रखने वाले इतिहासकार इस संभावना को निरस्तनहीं कर सकते कि कुछ राजपूत जातियां पूर्णता भारतीय मूल की ही थी।

 

  • वहीं राजपूतों के मिश्रित उत्पत्ति के विचार के अनुरूप यह अवधारणा भी रही है कि राजपूतों की उत्पत्ति दोनों विदेशी एवं देशी मूल के वंशजों से संभव है, विभिन्न विदेशी भारत आए और भारत में उनका सामाजिक- सांस्कृतिक विलय सुगमता से हो गया, साथ ही साथ इस काल में ब्राह्मण धर्म का भी विस्तार हुआ और बहुत सारी जनजातियों को मुख्य धरा में शामिल किया गया था, कई सारी देशी-विदेशी शक्तिशाली जनजातियों को राजपूत के रूप में मुख्यधारा के सामाजिक व्यवस्था में क्षत्रिय का स्थान प्राप्त हुआ, हालांकि बहुत सी अन्य जन-जातियों को निम्न वर्ग में ही समाहित किया गया था।

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