दतिया रियासत के प्रमुख राजा | Datiya Kingdom History in Hindi

दतिया रियासत राव रामचंद बुन्देला ( 1707 से 1736 ई.)

दतिया रियासत के प्रमुख राजा | Datiya Kingdom History in Hindi


 

दतिया रियासत राव रामचंद बुन्देला ( 1707 से 1736 ई.)

  • रामचन्द्र बुन्देला का जन्म दलपतराव की नौनेर वाली रानी चंद्रकुअरि से संवत् 1732 वि. (सन् 1645-76 ई.) को हुआ था। दलपतराव ने अपने जीवनकाल में ही रामचन्द्र को 'रामनगर' (चिरगाँवझाँसी के समीप) व अन्य पुत्रों में से पृथ्वी सिंह को 'सेंवढ़ा' (दतिया से 40 मी. उ.पू.)सभापति को बंगरा - खसीस (जि. जालौन) की जागीर दे दी थी। अपने पिता की भाँति रामचन्द्र भी शीघ्र ही मुगल सेवा में ले लिये गये थे और जुल्फकार खाँ के अधीन कार्य कर रहे थे। जब इन्हें ज्ञात हुआ कि दलपतराव अपने एक अन्य पुत्र भारतीचंद्रजो उसकी प्रिय रानी गुमानकुँअरि का पुत्र थाको अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता है तो वह अपने पिता के प्रति बगावत पर उतर आया किन्तु बादशाह औरंगजेब के हस्तक्षेप से वह अपने पिता के कोप से बच गया। उसने मराठों के विरूद्ध वीरता का परिचय देकर 500 जात - 400 सवार का मनसब प्राप्त कर लिया था उसे 'लौहगढ़ का किलेदार भी नियुक्त किया गया था .

 

  • 1696 ई. में रामचन्द्र ने पुनः अपने पिता के विरुद्ध बगावत कीकिन्तु दलपतराव के सख्त रवैये के कारण वह इस बार भी सफल न हो सका। फिर भी इसने माता की मृत्यु का आरोप अपने पिता पर लगाकर उसे संकट में डाल दिया था। जब जाँच द्वारा दलपतराव आरोप मुक्त हुए तब औरंगजेब ने रामचन्द्र को क्षमा कर दिया और उसे 'सतारा दुर्गका किलेदार बना दिया। जाजऊ के युद्ध में दलपतराव की मृत्यु के बाद उसके पुत्र भारतीचंद्र ने दतिया का शासन संभाल लिया। तब रामचन्द्र को निराश होकर बादशाह बहादुर शाह की शरण में जाना पड़ा किन्तु वहाँ से इसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। अब रामचन्द्र ने ओरछा नरेश उदोतसिंह की सहायता चाही। शीघ्र ही रामचंद्र ने भारतीचन्द्र को परास्त कर दतिया राज्य पर कब्जा कर लिया। बादशाह ने भी रामचन्द्र के शासन को मान्यता प्रदान की तथा उसे वही मनसब प्रदान किया जो उसके पिता का था। 1713 ई. में नये बादशाह फर्रुखसियर ने भी सम्मानसूचक तलवार व खिलअत देकर उसे मान्यता प्रदान की थी । 

 

  • बादशाह मुहम्मदशाह (1791-1740 ई.) द्वारा मुहम्मदखाँ बंगश को इलाहाबाद का सूबेदार बनाये जाने पर दतिया राज्य के लिए खतरा उत्पन्न हो गया क्योंकि दतिया के निकटवर्ती क्षेत्र ऐरच एवं कालपी के परगने उसके अधिकार में थे। बंगश के घोर विरोधी जयपुर के सवाई जयसिंह ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर ओरछा नरेश उदोतसिंहपन्ना नरेश छत्रसालदतिया नरेश रामचंद्र तथा चंदेरी नरेश दुर्जनसिंह को एकता के सूत्र में बांध दिया। फलतः इन बुंदेला राजाओं ने बंगश के चेले दिलेरखां को 15 मई, 1721 को मौधा (हमीरपुर से 8 मी. दक्षिण) नामक स्थान पर परास्त कर मौत के घाट उतार दिया। दिलेरखाँ की मृत्यु से दुखी मुहम्मदखाँ बंगश ने पन्ना राज्य के पूर्वी हिस्से पर अनवरत आक्रमण प्रारंभ किये तथा रामचन्द्र बुन्देला को 'उर्दू क्षेत्र' (उरई) (झाँसी से कालपी मार्ग पर 70 मील दूर स्थित ) का लालच देकर भी वह उसकी सहायता प्राप्त न कर सका। 18 राव रामचन्द्र ने 1732 ई. में बंगश के विरुद्ध जैतपुर के जगतराज को सहायता प्रदान की थी।

 

  • रामचन्द्र बुन्देला ने अपने जीवन के अंतिम दौर में मुगल वजीर कमरुद्दीन के साथ 'गाजीपुरव 'असोथरके जागीरदार भगवानदास खीची के विरुद्ध आक्रमण किया था। शीघ्र ही असोथर का किला रामचन्द्र के अधीन आ गया किन्तु खीची के साथ अंतिम रूप में आमने-सामने के युद्ध ई. में वह वीरगति को प्राप्त हुआ। वहीं कड़ा में रामचन्द्र की समाधि बनाई गई थी। रामचन्द्र बुन्देला को 25 वर्षीय शासन अवधि के दौरान अधिकतम 2000 जात 2000 सवार का मनसब मिला था। 

 

राजा इन्द्रजीत बुन्देला ( 1736 ई. से 1762 ई.) 

  • रामचन्द्र बुन्देला के पश्चात् इनके प्रपौत्र इन्द्रजीत दतिया के सिंहासन पर बैठे। इनका जन्म 1728 ई. में रामचन्द्र बुन्देला के पौत्र तथा रामसिंह के पुत्र गुमान सिंह के यहाँ हुआ था। रामचन्द्र बुन्देला के अपने ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह से अच्छे संबंध नहीं थेअतः रामसिंह झाँसी के समीप 'मेरीगाँव में रहने लगा थाजहाँ उसकी 1730 ई. में मृत्यु हो गई थी। इसी प्रकार इनके पुत्र गुमान सिंह भी 1728 में छोटी चेचक के कारण मृत्यु के शिकार हो गये थे। अतः रामचन्द्र की विधवा रानी सीताजू के संरक्षण में अल्पवयस्क बालक इन्द्रजीत को 1736 ई. में शासक बनाया गया 

 

  • जब इन्द्रजीत के उत्तराधिकार को उनके चाचा रघुनाथ सिंह (नदीगाँव के जागीरदार) ने चुनौती प्रदान की तो रानी सीताजू ने तत्काल ओरछा नरेश उदोतसिंह से सहायता माँगी। उदोतसिंह ने अपने युवा दीवान तथा सैन्य दल को 'नौनेशाह गूजर', जो समथर गद्दी के वंशज थेके सेनापतित्व में भेजा । इनके साथ लाला रघुवंशी कायस्थ तथा अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी भी थे। इन्होंने इन्द्रजीत के सिंहासन को निष्कंटक बनाया अतः प्रसन्न होकर इन्द्रजीत ने नौनेशाह गूजर को पाँच गाँव जागीर में दिये तथा 'राजधर' (इस नाम से दतिया में एक राजधर का बाजार था) की उपाधि प्रदान की। साथ ही इनके पुत्र मर्दन सिंह को समथर की किलेदारी प्रदान की। इन्द्रजीत की अल्पवयस्कता का लाभ उठाकर मालवा के सूबेदारों तथा मराठों ने दतिया का आर्थिक शोषण प्रारंभ किया। जब आजम-उल-लाह खाँ 1742 ई. में मालवा का सूबेदार नियुक्त हुआ तब उसने दतिया के राज्य पर दबिश देकर इन्द्रजीत से सात लाख रुपये वसूल किये थे।

 

  • सागर में मराठा सूबेदार गोविन्दबल्लाल खैर के निर्देश पर 1742 ई. में झाँसी सूबेदार नारोशंकर ने ( 1742 - 1756 ) दतिया पर आक्रमण कर दबोह तथा भांडेर के क्षेत्र छीन लिये। बाद में नारोशंकर ने इन्द्रजीत की संरक्षक दादी रानी सीताजू को बहन मान लिया था। फिर भी 1746 ई. में पीलाजी जाधव ने दतिया पर आक्रमण किया थाजिसका दतिया की बुंदेला सेना ने मुँहतोड़ जवाब दिया और मराठों के दांत खट्टे कर दिये। इस युद्ध में पीलाजी का भतीजा खाण्डेराव मारा गया था। मराठों के आक्रमण के फलस्वरूप दतिया के बालाजी में पहूज तट तक के क्षेत्र अम्बावाय एवं करहरा मराठों के हाथ में पहुँच गये। मराठा सरदार मल्हारराव होल्कररानोजी सिंधियाजराफा सिंधियाविट्ठल शिवदेव एवं नारोशंकर की लूट-खसोट से त्रस्त होकर रानी सीताजू व इन्द्रजीत ने 1747 ई. में ऐरच और करहरा के क्षेत्र स्थायी रूप से मराठों को दे दिये और सालाना चौथ का कौल कर किसी तरह मुक्ति पायी। सन् 1760 ई. में मुगल बादशाह शाहआलम (1759-1806 ई.) जब बुन्देलखण्ड की यात्रा पर थेतब दतिया के शासक इन्द्रजीत ओरछा के शासक सावंतसिंह के साथ उनसे मिलने हेतु 'बांदागयेजहाँ बादशाह ने इन्द्रजीत को राजा की उपाधि प्रदान की। उन्होंने इन्द्रजीत को 'तख्त-ए-रेवन' (छोटा सिंहासन)दो शाही पताकायें तथा 'अरबी बाजा' (मुगलिया बैंड) में दिया था।

 

  • इन्द्रजीत ने अपनी प्रथम सफलता सेंवढ़ा के विजयबहादुर या बहादुरजूजो रामचन्द्र बुन्देला के भतीजे तथा पृथ्वी सिंह के पुत्र थेके विरुद्ध प्राप्त की। बहादुरजू दतिया के शासक की अधीनता से मुक्त होना चाहते थेअतः देवीसिंह गूजर के नेतृत्व में सेंवढ़ा पर चढ़ाई की गई तथा बहादुरजू से सेंवढ़ा छोड़ने का आदेश दिया गया। मराठों ने अब सेंहुड़ा को अपनी महात्वाकांक्षा का केन्द्र बनाया तथा पृथ्वीसिंह की मृत्यु (1756 ई.) के बाद बहादुरजू के शासन को मान्यता देने के लिए 75000 रु. टीके के रूप में वसूल किये तथा एक लाख रु. सालाना चौथ वसूल की। पेशवा बालाजी बाजीराव ने सेंहुड़ा को झाँसी के सूबेदार नारोशकर के संरक्षण में कर दियाकिन्तु सेहुड़ा कभी भी मराठा राज्य के अंतर्गत न आ सका। सन् 1757 ई. में इन्दरगढ़ गाँव में राजा इन्द्रजीत का जाट राजा बदनसिंह से युद्ध हुआ जिसमें बदनसिंह पराजित हुआ |

 

राजा शत्रुजीत बुन्देला ( 1762-1801 ई.) 

  • सन् 1762 ई. में इन्द्रजीत की मृत्यु के पश्चात् इनके पुत्र शत्रुजीत गद्दी पर बैठे थे। इनका जन्म रानी चित्रकुँवर (सिरोल के धंधेरों की पुत्री) से हुआ था। इसके शासनकाल की प्रथम घटना ओरछा गद्दी के संघर्ष में भाग लेना थी। ओरछा के राजा हेतसिंह की 1768 ई. में मृत्यु के पश्चात् वहाँ उत्तराधिकार का संघर्ष प्रारंभ हो गया। राजा द्वारा गोद लिए गये पुत्र दूल्हाजू अथवा कुमार • विक्रमाजीत के दावे को राजा की विधवा ने चुनौती दीक्योंकि वह अपने भाई को सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। अतः इसकी शिकायत दतिया के राजा शत्रुजीत को की गईजिसने विक्रमाजीत की सहायता कर उसे गद्दी पर बिठाया तथा बदले में 17 गाँव प्राप्त किये। वर्ष 1791 ई. में टहरौली के जागीरदार पजन सिंह ने ओरछा पर अधिकार कर विक्रमाजीत को निर्वासित कर दियाअतः विक्रमाजीत एक बार पुनः शत्रुजीत की शरण में आयेअतः शत्रुजीत ने 'खेतसिंह भयादवालाके नेतृत्व में सैन्यदल भेजाजिसने अनाधिकार की चेष्टा करने वाले पजनसिंह को खदेड़ दिया तथा विक्रमाजीत को पुनः गद्दी पर आसीन किया। 

 

  • शत्रुजीत के शासनकाल में दतिया राज्य के चारों ओर मराठे आच्छादित थे। झाँसीजालौन और गुरसराय में इन्होंने अपनी सत्ता जमा ली थी। ग्वालियर के दौलतराव सिंधिया के असंतुष्ट सरदारों ने भी दतिया राज्य को अपना अखाड़ा बना लिया था। नारोशंकर के 1757 ई. मे वापस बुलाये जाने पर महादेवजी गोविन्द पंत को झाँसी का सूबेदार बनाया गया था। बाद में पेशवा विश्वासराव ने नारोशंकर को पुनः झाँसी का सूबेदार बना दियाजिसने झाँसी को एक स्वतंत्र राज्य में परिणित कर वहाँ 24 वर्ष शासन किया। इस अवधि में पड़ोसी बुन्देला शासक अपनी शक्ति खो रहे थे। जब नाना फड़नवीस ने अलीबहादुर (पेशवा बाजीराव व मस्तानी का पुत्र) को धसान नदी के पार बुन्देलखण्ड का शासन चलाने भेजा तो गुंसाई हिम्मतबहादुर भी इसके साथ था। ये दोनों महादजी सिंधिया से शत्रुता रखते थेअतः शत्रुजीत को अवसर मिला कि वह महादजी सिंधिया के विरुद्ध अलीबहादुर का समर्थन प्राप्त करें। जाट जवाहरसिंह ने 1767 ई. में काल्पी पर अधिकार करते हुए दतिया व स्योंढ़ा पर कर लगाया था तथा नरवर पुल तक बढ़ गया था। 1793 ई. में सिंधिया के निर्देश पर गोपालराव ने दतिया ने से राज्य पर आक्रमण किया थाकिन्तु शिवराव भाउ ने शत्रुजीत से सुलह कर ली थी। 1797 ई. में सिंधिया के निर्देशन में अम्बाजी इंगले ने आक्रमण कर इंदरगढ़ के समीप का कंजौल क्षेत्र छीन लिया था। 1800 ई. में बालाजीराव ने आक्रमण किया। दतिया से 30 किमी पश्चिम में विल्हारा में हुए युद्ध में शत्रुजीत की पराजय हुई थी । बालाजीराव अंबाजी इंगले का भाई था।

 

  • जब ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने अपने सरदार सरजेराव घाटगे के उकसाने पर अपनी विमाताओं (महादजी सिंधिया की विधवा रानियों) के साथ दुर्व्यवहार किया तो स्वामीभक्त सरदार लकवा दादा (लक्ष्मण अनन्त लाड़) के साथ यह बाईयाँ ग्वालियर छोड़कर चली गईं तथा दौलतराव को चुनौती प्रस्तुत की। लकवा दादा ने शत्रुजीत से शरण माँगीअतः उन्हें सेंवढ़ा के किले में ठहरा दिया गया। इस समय लकवा दादा के पास 3000 बुन्देला सैनिक, 6000 मराठा सैनिक एवं कर्नल डब्ल्यू. एच. टोन के नेतृत्व में 2000 हिन्दुस्तानी सिपाहियों के अलावा एक छोटा-सा (16 तोपे) तोपखाना भी था । जब दौलतराव सिंधिया ने अम्बाजी इंगले को सेंवढ़ा पर आक्रमण का आदेश दिया तो राजा शत्रुजीत अपने सैन्य दल के साथ सेंवढ़ा पहुँच गया। इसकी सेना में 300 पैदल, 2000 सवार तथा 6 तोपें थीं। इधर झाँसी के सूबेदार शिवराव भाऊ ने भी लकवा दादा के लिए 400 सवार तथा 2 लाख नगद भेजे थे। अम्बाजी के साथ भी 5000 सवार एवं हिन्दुस्तानी सिपाहियों की तीन ब्रिगेडें कर्नल पेड्रोजेम्स शेफर्ड एवं जोसेफ बेलासिस के नेतृत्व में थींबाद में शक्तिशाली फ्रेंच सेनापति पैंरों भी मई 1801 ई. में एक पैदल बटालियन तथा 2000 मुस्लिम सवारों सहित सेंवढ़ा पहुँच गया था। 23 3 मई 1801 को प्रारंभ हुए सेंवढ़ा के युद्ध में शत्रुजीत की सेना ने लकवा दादा की सेना की सहायता करते हुए चप्पे-चप्पे पर जमकर युद्ध लड़ा शत्रुजीत ने बाम भाग के कमांडर सिम्स को परास्त कर दिया थाकिन्तु पैंरों की यूरोपियन आधार पर प्रशिक्षित सेना के समक्ष वे ज्यादा समय तक टिक न सके तथा लकवा दादा व शत्रुजीत दोनों घायल हो गये। लकवा दादा तो किसी तरह विधवा बाईयों को लेकर दतिया की ओर निकल गयेकिन्तु शत्रुजीत बुरी तरह से घायल होने के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि दतिया की सेना के अदम्य शौर्य को देखकर फिर कभी पैरों ने दतिया की ओर आने का साहस नहीं किया तथा सिंधिया की सेनाए भी छिटपुट मुठभेड़ करती रहीं। शत्रुजीत की मृत्यु हो जाने के बाद नये राजा पारीक्षत ने युद्धोपरांत संधि की थी तथा सिंधिया राज्य को 15000/- रु. देना स्वीकार किया था।

 

राजा पारीछत बुन्देला ( 1801-1839 )  

  • शत्रुजीत बुन्देला तथा उसकी नौनेर वाली रानी आनन्दकुँअरि से एक पुत्र 'पारीछतका जन्म सम्भवतः 1770 ई. में हुआ थाक्योंकि 1835 ई. में कर्नल स्लीमेन ने उन्हें 65 वर्ष का बताया है। शत्रुजीत के बाद पारीछत दतिया के शासक हुए। पारीछत के शासनकाल की प्रथम घटना थी- ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया की माँग पर प्रतिवर्ष 15000 /- रु. की अदायगी की शर्त मानना । वर्ष 1801 में पारीछत ने भाण्डेर पर अधिकार कर लिया थ। पारीछत के शासनकाल में प्रारंम्भिक दौर में बुन्देलखण्ड से मराठों का प्रभुत्व घटने लगा थाक्योंकि पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ 31 दिसम्बर 1802 ई में 'बेसिन की संधिकर लीजिसके अनुसार बुन्देलखण्ड का हस्तांतरण अंग्रेजों को हो गया। इधर दौलतराव सिंधिया ने भी अंग्रेजों के साथ 'सुरजीअर्जुनगाँव की संधि कर ली थी। अंग्रेजों ने 36,16,000 /- रु. वार्षिक आय वाले बुन्देलखण्ड क्षेत्र की देखरेख के लिए कैप्टन जॉन बेली को गवर्नर जनरल का एजेन्ट नियुक्त कर दिया |

 

  • दम तोड़ती मराठा शक्ति को और आघात पहुँचाने की दृष्टि से बुन्देलखण्ड के सभी शासकों में अंग्रेजों के साथ संधि करने की होड़ लग गई। वैसे भी भारत के ब्रिटिश गर्वनर जनरल लार्ड वेलेजली ने सहायक संधि की परंपरा प्रारंभ करके भारत के देशी राज्यों को अंग्रेजों की ओर आकर्षित कर रखा था । दतिया नरेश पारीछत ने भी परिस्थितिवश अंग्रेजों से संधि करना उचित समझा और जब कैप्टन बैली नदीगाँव के प्रवास पर थे तब पारीछत उन्हें मुलाकात के लिए कुंजनघाट (नदीगाँव) पहुँचे तथा '15 मार्च 1804 ई.को अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। इस संधि की मुख्य शर्तें थीं .

 

1. राजा पारीछत अंग्रेज सरकार के प्रति आज्ञाकारी और निष्ठावान रहेगा। दोनों एक दूसरे के मित्र को मित्र तथा शत्रु को शत्रु समझेंगे और आपसी शत्रुओं एवं भगोड़ों को शरण नहीं देंगे।, 

2. अंग्रेजों के अधीन किसी अन्य शासक से विवाद उठने पर उसे राजा अंग्रेजी सरकार की मध्यस्थता के लिए प्रेषित करेगा और उसे स्वीकार करेंगा। 

3. भांडेर का जो इलाका गोहद के राजा को अंग्रेजी सरकार ने दिया हैउसमें वह किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा ।, 

4. जब भी राजा के प्रदेशों से लगे राज्यों में कोई अंग्रेजी अभियान होगा तो राजा अंग्रेजों की सेना में सम्मिलित होगा। अगर अंग्रेज अपने काम के लिए दतिया की सेना की सहायता लेंगे तो उसका खर्च अंग्रेज सरकार उठाएगी और अगर अंग्रेज सेना राजा के आग्रह पर उसके राज्य में उपद्रव दबाने आयेगा तो उसका खर्च राजा को देना होगा ।. 

5. राजा पारीक्षत वैसे अपनी सेनाओं के सेनापति रहेंगेकिन्तु यदि उनकी सेना अंग्रेजी सेना के साथ अभियान पर जायेंगी तो उसकी कमान अंग्रेजी सेना के सेनापति के हाथ रहेगी।, 

6. राजा बिना अंग्रेज सरकार की अनुमति के किसी भी अंग्रेजी अथवा यूरोपियन या किसी अन्य को अपनी सेवा में नहीं रखेगा। 

7. तक राजा अंग्रेजी सरकार के प्रति निष्ठावान रहेगातब तक वह अपने राज्य में पहले के परम्परागत अधिकारों का उसी तरह प्रयोग करता रहेगा। अंग्रेज सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी। 

8. राजा को अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में जो राज्य मिला हैउसके लिए उसके उत्तराधिकारियों और वंशजों के लिए पुष्टि की जाती है और अंग्रेजी सरकार उसके उपभोग में अपनी या अपने किसी मित्र की ओर से कोई बाधा नहीं डालेगी । 

9. अगर अम्बाजी इंगले राजा के प्रदेशों पर आक्रमण करेगातो अंग्रेज सरकार उसे रोकने के लिए हस्तक्षेप करेगी ।, 

10. अगर राजा के विरुद्ध कोई आरोप लगाएगातो अंग्रेजी सरकार उस आरोप को बिना सिद्ध हुए स्वीकार नहीं करेगी । 

उक्त संधि के साथ ही दतिया राज्य बुन्देलखण्ड के तीन संधि राज्यों में शामिल हो गया।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.