ओरछा रियासत [बुंदेलखण्ड (1732 - 1818 ई.)] Orchha Riyasat State Details in Hindi

ओरछा रियासत

ओरछा रियासत  [बुंदेलखण्ड (1732 - 1818 ई.)] Orchha Riyasat State Details in Hindi

 

ओरछा रियासत  (Orchha Riyasat State Details in Hindi)

  • पहाड़सिंह ने अपना उत्तराधिकारी अपने ज्येष्ठ पुत्र सुजानसिंह को नियुक्त किया था। उसने मुगलों के प्रसिद्ध उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब के विरूद्ध शाही सेना की ओर से भाग लिया था । पहाड़सिंह ने भी अपने पूर्वजों की भाँति मुगलों की लगातार सेवा की और दक्षिण में मुगल अभियानों के दौरान ही 1673 ई. उसकी मृत्यु हो गयी। सुजानसिंह के पश्चात् इंद्रमणि ( 1673-1675 ). जसवंतसिंह (1675-1687 ), भगवतसिंह (1687-1688) आदि बुंदेला शासक ओरछा की राजगद्दी पर बैठे, किंतु ये शासक कहीं से भी योग्य प्रशासक सिद्ध नहीं हुये और इसी कारण वे अधिक समय तक शासन नहीं कर सके।'

 

उदोत सिंह (1689-1736 ई.) : 

  • राजा भगवंतसिंह अल्पायु मृत्यु को प्राप्त हुआ, अतः ओरछा की राजगद्दी के लिए बड़ागाँव जागीर से के प्रपौत्र तथा प्रतापसिंह के पुत्र उदोतसिंह (1689-1736 ई.) को गोद लिया गया। इस समय उदोतसिंह मोहनगढ़ परगने के अंतर्गत आने वाली जागीर बनगाँव का जागीरदार था । उदोतसिंह को मुगल बादशाह बहादुरशाह (1707-1712 ई.) ने उनकी सेवाओं के बदले में 3500 पैदल एवं 1500 सवार का मनसब प्रदान किया था। राजा उदोतसिंह ने 1708 ई. में मराठा पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा बुंदेलखण्ड पर आक्रमण करने के मंसूबे को विफल कर उन्हें काफी पीछे धकेल दिया. था। वर्ष 1710 ई. में उदोतसिंह मुगलों की और सिखों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये लाहौर गये थे।

 

  • उदोतसिंह ओरछा की केंद्रीय बुंदेला सत्ता के प्रधान होने के नाते अत्यधिक प्रभावशाली सिद्ध हो रहे थे तथा मुगल शासन द्वारा बुंदेलखण्ड में विभिन्न क्षेत्रीय मुद्दों का समाधान निकालने के लिये उनकी सेवायें ली गई थी। चाहे वह चंदेरी के उत्तराधिकार का प्रश्न हो अथवा दतिया रियासत में दलपति राव की मृत्यु के उपरांत उत्पन्न हुआ राजगद्दी का विवाद हो, उदोत सिंह ने इन विवादों को अपने कौशल से निराकृत करने का प्रयास किया था। जब दतिया नरेश रामचंद्र की मृत्यु होने पर पुनः दतिया में इंद्रजीत एवं उनके चाचाओं के मध्य सत्ता संघर्ष हुआ, तब पुनः उदोतसिंह ने इस विवाद में हस्तक्षेप कर मामले को सुलझाया था।

 

  • पन्ना के महाराजा छत्रसाल उदोतसिंह के समकालीन थे। इस समय छत्रसाल द्वारा बुंदेलखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में लूटपाट एवं अराजक गतिविधियाँ संचालित की जा रही थीं, जिससे न केवल केंद्रीय मुगल सत्ता उनसे असंतुष्ट थी, अपितु स्थानीय बुंदेला राजवंशी शासक भी नाराज थे। मुगल बादशाह फर्रुखसियर (1713-1719 ई.) ने काल्पी सरकार के ऐरच एवं भाँडेर परगनों को फर्रुखाबाद के मुगल सूबेदार मुहम्मद खाँ बंगश को सौंप दिया। पन्ना के छत्रसाल ने इन इलाकों में अपनी दबिश बरकरार रखी तथा जैतपुर से अपनी गतिविधियों को संचालित करने लगे। अतः बंगश ने छत्रसाल की नकेल कसने के लिये उनकी घेराबंदी की तथा उनके खिलाफ शाही अभियान चलाया। छत्रसाल ने बंगश की ताकत को देखते हुए तथा स्थानीय स्तर पर कोई सहायता न मिलते देख गैर क्षेत्रीय शक्ति मराठों के साथ एक समझौता किया और उन्हें अपने राज्य का तीसरा हिस्सा देने का वायदा कर उससे बंगश के खिलाफ सहायता प्राप्त की। इसी समझौते में छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपना दत्तक पुत्र भी स्वीकार किया। यद्यपि मराठों की सहायता से छत्रसाल ने बंगश को तो मौधा के युद्ध में परास्त कर दिया, किंतु उसे अपने राज्य का एक बड़ा भाग मराठों को सौंपना पड़ा और इसके परिणामस्वरूप बुंदेलखण्ड में मराठों का हस्तक्षेप प्रारंभ हो गया तथा उनकी महत्वाकाँक्षायें बढ़ती चली गयी। उन्होंने ओरछा एवं दतिया की बुंदेला रियासतों पर आधिपत्य जमाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया ।

 

  • ऐसे ही प्रयासों के फलस्वरूप मराठा सेनानायक मल्हारराव होल्कर के साथ हुए युद्ध में ओरछा नरेश उदोतसिंह की मृत्यु हुई। हालाँकि अभिलेखों में उदोतसिंह का नाम अगोटासिंह दिया गया है। S यद्यपि उदोतसिंह का शासनकाल 47 वर्ष का था तथा वे 17 परगनों के 1926 गाँवों, जिनकी वार्षिक आय 2533207 रूपये थी, के स्वामी थे, किंतु इस दीर्घ अवधि में उन्हें प्रायः अपने राज्य में तथा राज्य की सीमाओं पर अराजक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और इस वजह से वह अपने राज्य में शांति स्थापित करने में ही व्यस्त रहा। फिर भी उसने अपनी राजधानी ओरछा में एक उद्यान उदोत निवास बाग, एक बाजार उदोतगंज, एक मंदिर आनंद मंदिर तथा ओरछा के समीप स्थित बरूआसागर नामक स्थान पर एक विशाल तालाब उदोतसागर का निर्माण करवाया था।

 

पृथ्वी सिंह (1736-1753) : 

  • पृथ्वी सिंह मराठों द्वारा बुंदेलखण्ड में मचायी जा रही उथल-पुथल के दौरान अपने पिता उदोतसिंह की मृत्यु के पश्चात् ओरछा राज्य की गद्दी पर विराजमान हुए थे। इनके शासनकाल के दौरान झाँसी के सूबेदार नारोशंकर (नारायण शंकर) ने 1742 ई. में ओरछा पर आक्रमण किया था। इन्होंने ओरछा से पिछोर, करहरा, मोंठ, गरौठा, मऊरानीपुर, गढ़बई, झाँसी एवं सागर को छीन लिया तथा झाँसी को अपना मुख्यालय बनाया और यहीं से बुंदेलखण्ड के अन्य क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य जमाने के लिये सैन्य गतिविधियाँ संचालित करने लगे। पृथ्वीसिंह को न केवल मराठों की शक्ति का सामना करना पड़ रहा था, अपितु स्थानीय गिरि, गुसाँई, गूजर एवं खँगारों की असंतुष्ट गतिविधियों को भी झेलना पड़ा था।' पृथ्वीसिंह ने ओरछा के समीप पृथ्वीपुर नामक दुर्ग का निर्माण कराया था । इस दुर्ग के इर्द-गिर्द ही पृथ्वीपुर नामक कस्बे का विकास हुआ।

 

सावंत सिंह (1753-1765 ) : 

  • चूँकि पृथ्वी सिंह के पुत्र गंधर्व सिंह की मृत्यु युवावस्था में ही हो गई थी, अतः पृथ्वीसिंह ने अपना उत्तराधिकारी गंधर्वसिंह के पुत्र सावंतसिंह को बनाया। इनके शासनकाल में मुगल बादशाह आलमशाह अथवा शाहआलम रीवा से लौटते समय ओरछा आये थे तथा यहाँ दरबार लगाया था। इसी दरबार में मुगल बादशाह ने सावंतसिंह को 'महेन्द्र' की उपाधि प्रदान की थी, जो भविष्य में ओरछा के राजाओं के लिये विरूद् के रूप में काम आई। सावंतसिंह के काल में भी बुंदेलखण्ड विशेषतः ओरछा राज्य को मराठों ने अपनी गतिविधियों से आक्रांत कर दिया था। पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय ने मराठों में निराशा का भाव उत्पन्न कर दिया, अतः वे व्याकुल होकर बुंदेलखण्ड में सैन्य गतिविधियों में लिप्त हो गये और उन्होंने झाँसी में राजेन्द्र गुंसाई को अपदस्थ कर दिया, दतिया से दबोह का क्षेत्र छीन लिया, निवाड़ी पर आक्रमण कर वहाँ स्थित दुर्ग को ध्वस्त कर दिया। 10 झाँसी अब मराठों का एक ठिकाना बन गया सावंतसिंह के निःसंतान मृत्यु को प्राप्त होने पर ओरछा की राजगद्दी पर पुनः उत्तराधिकार का प्रश्न उत्पन्न हो गया।

 

  • ओरछा राज्य में यह स्थिति लगभग ग्यारह वर्ष तक रही और राज्य को कोई सुदृढ़ शासक प्राप्त नहीं हो सका। यह बात इस तथ्य से पुष्ट होती है कि इस अल्प अवधि में इस राज्य को पाँच शासक मिले और राज्य के अंदर सिमरा, जीरोन, टहरौली, पलेरा, देवराहा, मोहनगढ़ आदि जागीरों के जागीरदारों ने अपनी विद्रोही गतिविधियों से अराजकता का वातावरण बना रखा था। दिवंगत सावंतसिंह की महारानी महेन्द्र रानी द्वारा उदोतसिंह के एक अन्य नाती हेत सिंह को गोद लिया गया किंतु हेत सिंह ने दो वर्ष के शासन के बाद राजदरबार के षडयंत्रों से तंग आकर दतिया राजदरबार में शरण प्राप्त की। इसके पश्चात् ओरछा की गद्दी पर पाँच वर्ष के लिये पजन सिंह आये, जो टेहरी के जागीरदार पहाड़सिंह के वंशज थे। इन्होंने भी सन्यास धारणकर ओरछा राजगद्दी को त्याग दिया। अब महेन्द्र महारानी ने मोहनगढ़ के जागीरदार अमरेश के पुत्र तथा उदोतसिंह के प्रपौत्र मानसिंह को गोद लिया तथा 1772 ई. में उसे गद्दी पर बिठाया। मानसिंह का भी महारानी के साथ सामंजस्य नहीं बैठ सका और 1775 ई. में वह गद्दी त्याग कर लिधौरा में रहने लगे। मानसिंह के उत्तराधिकारी भारतीचंद्र हुये। ये भी उदोत सिंह के प्रपौत्र तथा जगतराय के पुत्र थे। भारतीचंद्र भी दुर्भाग्य से एक वर्ष बाद मृत्यु को प्राप्त हो गये। 

 

विक्रमाजीत सिंह (1776–1817) : 

  • भारतीचंद्र की मृत्यु के बाद ओरछा की गद्दी पर उसका छोटा भाई विक्रमाजीत विजय बहादुर आया । एक लंबे अंतराल के बाद ओरछा को एक स्थायी शासक की खोज पूरी हुई। इस समय ओरछा एवं आस-पास के क्षेत्रों में क्षेत्रीय ताकतों ने अराजकता का वातावरण निर्मित कर रखा था। इस परिस्थिति में भी विक्रमाजीत ने लगभग 41 वर्ष तक शासन किया और ये ही ओरछा रियासत के पहले शासक थे, जिन्होंने ओरछा रियासत की सुरक्षा के प्रति चिंतित होते हुए अंग्रेजों के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। विक्रमाजीत सिंह ने राज्य में अराजकता के वातावरण से निजात पाने के लिये सर्वप्रथम एक ठोस निर्णय लेते हुए 1783 ई. में ओरछा रियासत की राजधानी ओरछा के स्थान पर टेहरी को बनाया जो सफल सिद्ध हुआ । क्योंकि ओरछा नरेश कृष्ण भक्त थे, अतः उन्होंने टेहरी को कृष्ण के एक अन्य नाम टीकम के आधार पर 1785 ई. में टीकमगढ़ नाम प्रदान किया। विक्रमाजीत सिंह ने ओरछा राज्य की सैन्य व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिये झाँसी निवासी माखन खाँ को राज्य के सेनापति अर्थात् का पद सौंपा। माखन खाँ ने राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था बनाने के लिये विद्रोहियों के विरूद्ध कार्यवाही की, सिमरा, जीरोन, टहरौली, पलेरा, देवराहा, मोहनगढ़ आदि क्षेत्रों में अराजक तत्वों का सफाया हो गया।

 

इधर 1799 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जरनल बनकर आये लार्ड वेलेजली ने युद्ध के स्थान पर भारत में स्थित देशी रियासतों को सहायक संधियों के कंपनी के प्रभाव क्षेत्र में लाने की नीति का संचालन किया, जिसके फलस्वरूप बुंदेलखण्ड में भी अंग्रेजों का प्रवेश हुआ और यहाँ की रियासतें अंग्रेजों के साथ मित्रता स्थापित कर अवांछित मराठों के विरूद्ध अपनी स्थिति में सुधार करने में सफल रहीं। बुंदेलखण्ड में अंग्रेजों की उपस्थिति को ओरछा से पहले दतिया रियासत द्वारा स्वीकार कर उनसे संधि कर ली थी। इसी से प्रेरणा लेकर ओरछा नरेश विक्रमाजीत सिंह ने भी ओरछा रियासत को मराठों के आतंक से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से अंग्रेजों की ओर हाथ आगे बढ़ाने का निर्णय लिया और दोनों पक्षों के मध्य 23 दिसम्बर 1812 को एक सुरक्षा संधि हो गई। संधि पर ओरछा राज्य की ओर से दुक्कन लाल तथा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से जॉन वॉकर ने हस्ताक्षर किये। 

ओरछा संधि में निम्नलिखित व्यवस्थायें की गई -  

1. ओरछा का राज्य उसके महाराजा विक्रमाजीत सिंह तथा उनके वंशज उत्तराधिकारियों के आधिपत्य में बनाये रखने के लिये ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार वचनबद्ध है ।, 

2. ओरछा राज्य एवं कंपनी सरकार एक-दूसरे के मित्र होंगे तथा दोनों एक-दूसरे के मित्र को मित्र तथा शत्रु को शत्रु मानेंगे। 

3. कंपनी सरकार ओरछा राज्य की बाह्य आक्रमण से सुरक्षा करेगी। 

4. ओरछा राज्य पूर्णतः कर मुक्त राज्य रहेगा। 

5. ओरछा राज्य से कंपनी सरकार की सेना के गुजरने पर राजा कोई आपत्ति नहीं करेगा। 

6. ओरछा राज्य के बाह्य विवादों में कंपनी सरकार का निर्णय अंतिम होगा तथा ओरछा महाराजा को मान्य होगा। 

7. ओरछा महाराजा अपने राज्य के अंतर्गत आने वाले घाटों एवं राजमार्गों की सुरक्षा करेंगे। 

8. ओरछा महाराजा किसी भी गैर अंग्रेज अथवा यूरोपियन को बिना कंपनी सरकार की अनुमति के अपने राजदरबार में सेवा पर नहीं रखेगा। 


  • ओरछा राज्य तथा कंपनी सरकार के मध्य हुई इस संधि को तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो एवं उसकी काउन्सिल ने 8 जनवरी, 1813 को मान्यता प्रदान की। 14 इस संधि के बाद हालाँकि ओरछा राज्य पर मराठा दबाव कम हो गया था । तरीचर के समीप स्थिति पुतरीखेरा गाँव, जो कि दतिया राज्य के अंतर्गत आता था, में बाघाट के जागीरदार गंधर्व सिंह द्वारा आग लगाये जाने पर दतिया राज्य की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया तथा गंधर्व सिंह के दो सौ सैनिकों को मार गिराया। इस स्थिति में बाघाट के जागीरदार की सहायता के लिये ओरछा की सेना पहुँच गई और दोनों राज्यों में 4 मई, 1816 को युद्ध छिड़ गया, जो बाघाट का युद्ध कहलाता है। दोनों ही राज्य कंपनी सरकार के मित्र एवं संधि राज्य थे, अतः कंपनी सरकार तुरंत हरकत में आई और उसके पॉलिटिकल एजेंट ने हस्तक्षेप करते हुए पंचाट दिया कि बाघाट एवं पुतरीखेरा दोनों क्षेत्र ओरछा राज्य के अंतर्गत् आते है, इसलिए उनपर ओरछा राज्य का आधिपत्य रहेगा। अंततः युद्ध विराम हो गया तथा दतिया की सेनायें अपनी सीमा में लौट गई।

 

  • विक्रमाजीत सिंह ने अपने शासनकाल में कई दुर्गो, गढ़ियों, तालाबों, उद्यानों, मंदिरों, सार्वजनिक इमारतों का निर्माण करवाया था। उनके शासनकाल में मराठों एवं पिण्डारियों से सुरक्षा के लिये चंद्रपुरा, बम्हौरी, रामगढ़, बल्देवगढ़, पुरूषोत्तमगढ़, अस्टौन, बड़ागाँव, मजना आदि स्थानों पर दुर्गों एवं गढ़ियों का निर्माण करवाया गया। उन्होंने बल्देवगढ़ दुर्ग के साथ बल्दाऊजी का मंदिर तथा एक विशाल तालाब बनवाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी राजधानी टीकमगढ़ में विभिन्न प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था के लिये तोपखाना, बग्घीखाना, गाड़ीखाना नामक सार्वजनिक महत्व की इमारतें बनवाई। इसी प्रकार जुगलनिवास पैलेस भी उनके काल में ही निर्मित हुआ । टीकमगढ़ के नजरबाग तथा जानकी बाग नामक उद्यान इस काल के स्थापत्य के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। 

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