पाठ्यचर्या संरचना के दार्शनिक आधार |प्रगतिवाद दार्शनिक आधार |Philosophical Foundations of Curriculum Design

 पाठ्यचर्या संरचना के दार्शनिक आधार, प्रगतिवाद दार्शनिक आधार

पाठ्यचर्या संरचना के दार्शनिक आधार |प्रगतिवाद दार्शनिक आधार |Philosophical Foundations of Curriculum Design
 

पाठ्यचर्या संरचना के दार्शनिक आधार प्रस्तावना 

शिक्षा हमारे जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। कहा जाता है कि शिक्षा के अभाव में मनुष्य निरा पशु ही है। मनुष्य में मानवीय गुणों का सही अर्थों में विकास शिक्षा के द्वारा ही होता है। शिक्षा को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जाता है; औपचारिक, अनौपचारिक तथा निरौपचारिक अनौपचारिक शिक्षा को तो नियोजित नहीं किया जा सकता परन्तु औपचारिक एवं निरौपचारिक शिक्षा नियोजित की जा सकती है और इन दोनों अभिकरणों के लिए पाठ्यचर्या की महती आवश्यकता है । जहाँ गुणों के निर्माण के लिए शिक्षा आधार के रूप में कार्य करती है वहीँ पाठ्यचर्या शिक्षा के लिए मील के पत्थर के समान कार्य करती है। प्रस्तुत पाठ में हम पाठ्यचर्या निर्माण के दार्शनिक आधार का अध्ययन करेंगे जिसमें प्रगतिवाद, पदार्थवाद, पुनर्संरचनावाद दर्शन के अनुसार पाठ्यचर्या के स्वरुप का अध्ययन किया जाएगा और अन्त में पाठ्यचर्या और मूल्यों के मध्य के अन्तर्सम्बन्धों पर प्रकाश डाला जाएगा


पाठ्यचर्या निर्माण के आधार रूप में दर्शन 

किसी भी पाठ्यचर्या के निर्माण के पीछे विभिन्न उद्देश्य होते हैं जिनकी प्राप्ति हेतु पाठ्यचर्या विकसित की जाती है । यह पाठ्यचर्या सदैव ही अपने समाज की मान्यताओं, धारणाओं, विश्वासों, विचारों और मांग पर आधारित होती है। यहाँ अपने समाज से आशय स्थान विशेष, तात्कालिक स्थिति एवं परिस्थितियों से है । देशकाल एवं आवश्यकताओं के अनुरूप ही पाठयचर्या भी परिवर्तित होता रहता है। यह माना जाता है कि यदि समाज में परिवर्तन लाना है तो शिक्षा में, और उसमें भी मुख्य रूप से पाठ्यचर्या में परिवर्तन लाया जाए, परिवर्तन स्वतः हो जाएगा । पर इसके साथ ही साथ सामाजिक स्थितियों एवं समाज की मांग में जिस प्रकार का परिवर्तन होगा पाठ्यचर्या भी उसी प्रकार से परिवर्तित होगा क्योंकि पूर्व में यह स्पष्ट किया गया जा चुका है कि पाठयचर्या सदैव समाज की आवश्यकताओं और सामाजिक उद्देश्यों पर आधारित होता है। इसके साथ ही सामाजिक दशायें, देशकाल एवं स्थान विशेष अपने नागरिकों के दर्शन को भी प्रभावित करते हैं और वहीं दूसरी तरफ दर्शन से स्थान विशेष का समाज प्रभावित भी होता है। पाठ्यचर्या के निर्माण के पीछे कई आधार हैं जो पाठ्यचर्या में सम्मिलित हो विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के संतुलित निर्माण हेतु नींव का कार्य करते हैं। पाठयचर्या निर्माण के विभिन्न मुख्य आधार इस प्रकार हैं;

 

पाठ्यचर्या निर्माण के दार्शनिक आधार 

पाठ्यचर्या निर्माण के मनोवैज्ञानिक आधार 

पाठ्यचर्या निर्माण के सामाजिक आधार 

पाठयचर्या निर्माण के सांस्कृतिक आधार

 

पाठ्यचर्या निर्माण के पीछे दर्शन एक बल के रूप में कार्य करता है जो पाठ्यचर्या में दार्शनिक तथ्यों का समावेश करते हुए शिक्षा के सर्वोत्तम एवं उत्कृष्ट लक्ष्यों की ओर मानव को अग्रसर करता है । ज़ैस (1976) के पाठ्यचर्या के उदारवादी सिद्धांत के अनुसार पाठ्यचर्या निर्माण में क्या, क्यों, कैसे और कौन; ये चार पायों के रूप में हैं। वास्तव में में दर्शन की शुरुआत भी इन्हीं प्रश्नों से ही माना जाता है । दार्शनिक या कोई भी दर्शन चाहे वह भारतीय दर्शन हो अथया पाश्चात्य दर्शन, इन्हीं क्या, क्यों, कैसे और कौन प्रश्नों के उत्तर से जुड़े हैं। सदियों से दार्शनिक मनुष्य का अस्तित्व, नैतिकता, अच्छाई, सत्य, सुंदरता से सम्बंधित प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं ताकि वह मानव को मिल रहे कष्टों का निवारण कर सके। कुछ दर्शनों में यह निवारण सांसारिक कष्टों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा से है वहीं कुछ दर्शनों में संसार में जीवन यापन करते मुए मनुष्य शरीर को मिलने वाले कष्टों को दूर करने से है। सभी दर्शन मानव अस्तित्व से सम्बंधित जिन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं, वे हैं;

 

मैं कौन हूँ 

मैं क्या हूँ 

मैं कहाँ से आया हूँ 

मृत्यु के उपरांत मैं कहाँ जाऊंगा 

मृत्यु क्या है? 

जीवन क्या है? 

आत्मा का अस्तित्व क्या है? 

सत्य क्या है? 

किसी भी चीज को या असत्य कहने का आधार क्या है? 

जीवन का अर्थ क्या है 

• हम किस प्रकार जान सकते हैं कि हम क्या जानते हैं? 

मनुष्य के रूप में जन्म लेने के पीछे विशेष क्या है? 

सही या गलत; अच्छा या बुरा के पीछे कौन से आधार हैं? 

नैतिक क्या है? 

सुन्दरता क्या है?

 

मनुष्य विवेक का प्राणी माना जाता है। ये सभी प्रश्न मनुष्य के ही मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं और दर्शन की उत्पत्ति भी मनुष्य के द्वारा इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के प्रयास से ही मानी गयी है स्वयं एवं इस विश्व कि उत्पत्ति एवं अस्तित्व को लेकर मनुष्य प्रारंभ से ही जिज्ञासु रहा है और कभी प्रयोगों एवं खोजों के माध्यम से तो कभी चिंतन-मनन के द्वारा प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है । अतएव दर्शन की उत्पत्ति का आधार भी मानव का विवेक अथवा ज्ञान माना जाता है। यदि शब्दों के अर्थ के रूप में देखा जाए तो Philosophy शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द “philos” (प्रेम) and “sophia" (ज्ञान) से हुयी है जिसका अर्थ ज्ञान से प्रेम या ज्ञान के प्रति प्रेम है.. वहीँ यदि दर्शन शब्द की उत्पत्ति की व्याख्या की जाए तो दर्शन शब्द दृ धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना यहाँ देखने का अर्थ सामान्य रूप से देखना नहीं बल्कि विवेक से किसी चीज को देखना । वस्तु से जुड़े उस सत्य को भी देखने की शक्ति जो आँखों से नहीं बल्कि विवेक से ही देखी और समझी जा सकती है। इस प्रकार भारतीय या पाश्चात्य कोई भी दर्शन हो, का आधार ज्ञान या विवेक ही है ।

 

दर्शन हमारे व्यक्तिगत विश्वासों और मूल्यों पर निर्भर करता है. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि दर्शन हमारा अपना दृष्टिकोण है की हम अपने आस-पास की दुनिया को किस रूप में और किस प्रकार से देखते हैं और इसके साथ ही हमारे आस-पास की इन चीजों में हम किसे अपने अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं. दार्शनिक तथ्यों ने सदैव समाज और विद्यालयों को प्रभावित किया है अतः पाठ्यचर्या निर्माण के अंतर्गत दार्शनिक आधार का अध्ययन अतिमहत्वपूर्ण हो जाता है. एच.टी. जॉनसन ने अपनी पुस्तक 'फाउंडेशन ऑफ़ एजुकेशन' में दर्शन को जीवन की आधारभूत समस्याओं का उत्तर प्राप्त करने तथा मनुष्य के जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए किए जा रहे अध्ययन के में परिभाषित किया है. शिक्षा प्राप्त करने का भी मुख्य उद्देश्य जीवन की आधारभूत समस्याओं का निवारण एवं मनुष्य जीवन को सार्थकता प्रदान करना है. पाठ्यचर्या निर्माण से पहले निर्माणकर्ताओं को मानव जीवन से सम्बंधित उद्देश्यों की स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए अन्यथा पाठ्यचर्या के उद्देश्य भी अस्पष्ट होंगे

 

इसके साथ ही उन्हें समाज के विश्वासों, मान्यताओं और मूल्यों का भी स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए. प्रस्तुत इकाई में जिन मुख्य दार्शनिक आधारों का अध्ययन किया जाएगा वे इस प्रकार से हैं;

 

I. प्रगतिवाद 

II. पदार्थवाद 

III. पुनर्संरचनावाद

 

पाठ्यचर्या संरचना का प्रगतिवाद दार्शनिक आधार 

प्रगतिवाद शिक्षा बालकेंद्रित लक्ष्यों और पाठ्यचर्या से सम्बंधित मत है जो शिक्षा की सत्ता को उसके चले आ रहे रूप में मानने से इनकार करती है और इसके साथ इस पर बल देता है कि किसी भी शिक्षा व्यवस्था का केन्द्र बालक होना चाहिए। शिक्षा बालक को इस प्रयोजन के साथ दी जाती है कि बालक का वर्तमान एवं भावी जीवन सुखमय बन सके। तो यदि शिक्षा बालक के अनुरूप नहीं होगी तो बालक शिक्षा में किस प्रकार रूचि ले पाएंगे और रूचि के अभाव में किसी भी व्यक्ति को शिक्षित करना एवं शिक्षा से जुड़े लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव है। प्रगतिवाद वह दार्शनिक मत या विश्वास है जिसका मानना है कि शिक्षा को वास्तविक जीवन पर आधारित होना चाहिए। विद्यालय बालक को उनके भावी जीवन के लिए तैयार करने के कारखाने हैं। बालक भावी जीवन में आ सकने वाली समस्याओं के निवारण की रणनीतियों को विद्यालय में सीखते हैं। मनुष्य अपनी मूल प्रकृति से सामाजिक होता है और बालक विद्यालय में समाज के लिए ही तैयार होता है कि किस प्रकार उसे समाज में रहते हुए जीवन का निर्वाह करना है, एक सक्रिय सदस्य के रूप में समाज के विकास में योगदान करना है। समाज में सहज एवं सरल रूप से रहने के लिए शिक्षा को भी इस प्रकार का होना चाहिए कि वह समाज से जुडी हुयी हो। साथ ही साथ बालकों को ऐसी शिक्षा मिले उनके भविष्य में आ सकने वाली समस्याओं के निवारण के लिए बालक को सामर्थ्यवान बना सके। इन परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं को ध्यानगत रखते हुए प्रगतिवादियों का मानना है कि बालक को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में शिक्षा देना चाहिए क्योंकि मनुष्य वास्तविक परिस्थितियों में सबसे अच्छी तरह से सीखता है। वहीं बालक केन्द्रित प्रगतिवादियों का मानना है कि बालक स्वभाव से जिज्ञासु होता है (रूसो की मान्यता भी इस सम्बन्ध में ऐसी ही थी) अतः बच्चों को सीखने के लिए छोड़ देना चाहिए जिससे वे स्वयं की युक्तियों से सीख सकें । इसके सम्बन्ध में रोजेर्स का विचार है कि शिक्षक को विद्यार्थियों को सिखाने हेतु एक सहज निर्देशक के रूप में होना चाहिए इस प्रकार प्रगतिशील पाठ्यचर्या के अंतर्गत शिक्षण किसी प्राधिकरण के अधीन नहीं होता है और पाठ्यचर्या का निर्धारण प्रत्येक बालक की प्रकृति के आधार पर उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप होता है।

 

प्रगतिवादी विचारकों में रूसो (1712-1788) और जॉन डीवी (1859-1952) का नाम उल्लेखनीय है। दोनों ही बाल-केन्द्रित शिक्षा के पक्षधर रहे हैं और उनके विचारों में प्रगतिवादी शिक्षा का समावेश मिलता है वैसे तो रूसो प्रकृतिवादी और डीवी प्रयोजनवादी शैक्षिक विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं पर दोनों ही शिक्षा की धुरी में बालक को रखते हैं अतः दोनों ही अलग- अलग दार्शनिक विचारधारा के होने के बावजूद भी प्रगतिवादी विचारधारा के समर्थक माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य समर्थकों में पेस्टोलोजी, फ्रोबेल एवं मेरिया मोंटेसरी इत्यादि का नाम आता है।

 

शिक्षा की क्षेत्र में हुए प्रगतिशील आन्दोलन के फलस्वरूप अमेरिकी विद्यालयों में पाठ्यचर्या के परिवर्तन की मांग हुयी । इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप पाठ्यचर्या को और अधिक व्यापक बनाया गया जिससे शिक्षा छात्रों के लिए उनके रूचि के अनुकूल एवं और भी प्रासंगिक बन सके । यद्यपि डीवी को प्रयोजनवाद के मुख्य दार्शनिक के रूप में जाना जाता है परन्तु प्रगतिवाद के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने शिक्षा के मनोविज्ञान, ज्ञानमीमांसा, मूल्य एवं लोकतंत्र जैसे विषयों पर व्यापक रूप से लिखा पर इसके साथ ही उनके द्वारा दिए गए शिक्षा के दर्शन ने प्रगतिवादी दर्शन की नींव रखी। वैसे देखा जाए तो प्रगतिवाद प्रयोजनवाद दोनों के ही शैक्षिक लक्ष्य समान हैं जहाँ बालक को समाज के लिए तैयार करने की बात की जाती है और इसके लिए उसे समाज की वास्तविक परिस्थितियों में शिक्षा देने की बात की जाती है।

 

प्रगतिवाद की वास्तविक शुरुआत 1886 में मानी जाती है जब जॉन डीवी यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे। अपने शैक्षिक विचारों के परीक्षण के लिए डीवी ने एक प्रयोगशाला स्कूल की स्थापना की। उनके लेखन एवं प्रयोगशाला विद्यालय में किए कार्य ने प्रगतिशील शिक्षा आन्दोलन के लिए मंच तैयार किया। 

 

डीवी का मत है कि शिक्षा का लक्ष्य समाज के युवाओं को वयस्क जीवन के लिए तैयार करना है डीवी लोकतंत्र का घोर समर्थक था. उसका मानना था कि लोकतंत्र की संकल्पना तभी फल-फूल और विकसित हो पायेगी जब शिक्षा शिक्षार्थियों को उनकी रूचि और क्षमताओं को महसूस कराने में सक्षम होगी. परिवर्तन का आधार शिक्षा है और जब शिक्षा का आधार लोकतान्त्रिक होगा तब समाज भी लोकतान्त्रिक हो जाएगा. इसके साथ ही प्रगतिवाद का मानना है कि विद्यार्थियों को समूह में सीखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि कुछ योग्यताएं एवं कौशल समूह में रह कर ही सीखे जा सकते हैं जैसे- सहकारिता की भावना, हम की भावना, सामुदायिकता और ऐसी समस्याओं का समाधान जो व्यक्तिगत रूप से नहीं किया जा सकता है. सामूहिक रूप से सामाजिक एवं बौद्धिक रूप से हुयी अंतःक्रिया समाज में व्याप्त वर्गगत और जातिगत भेदभाव रूपी के कृत्रिम अवरोधों को समाप्त कर सकती है (डीवी, 1920)। भारत जैसे देश में जहाँ जातिगत भेदभाव, वर्गगत अंतर एवं धर्मगत विद्वेष सदा से ही समाज में रहे हैं एवं समाज के लोगों के मध्य अंतर को ख़त्म करने के लिए सरकार के द्वारा अनेक प्रभावी कदम समय-समय पर उठाये जाते रहे हों वैसे देश में प्रगतिवादी शिक्षा व्यवस्था परमावश्यक है. डीवी ने शिक्षा को वृद्धि और प्रयोगात्मकता की ऐसी प्रक्रिया के रूप में व्याख्या की है जो विचारों और मस्तिष्क के अन्दर उत्पन्न होने वाले कार्य-कारण सम्बन्ध को समस्या-समाधान हेतु प्रयोग में लाती है। समस्या के समाधान के लिए विद्यार्थियों को इन पांच महत्वपूर्ण कदमों से परिचित होना चाहिए तथा इनका अनुपालन भी करना चाहिए।

 

समस्या से अवगत होना 

समस्या को परिभाषित करना 

 समस्या को हल करने के लिए का निर्माण करना 

परिकल्पनाओं का परीक्षण करना 

 समस्या के सर्वोत्तम समाधान का मूल्यांकन

 

ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को लगातार स्वयं प्रयोग करते रहना चाहिए। साथ ही शिक्षकों को भी मात्र अभ्यासों पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि उन क्रियाकलापों पर ध्यान देना चाहिए जो उनकी वास्तविक जीवन की स्थितियों से सम्बंधित हों। उनका मानना था कि शिक्षा क्रिया करके स्वयं सीखने से सम्बंधित होनी चाहिए ।

 

प्रगतिवादी शिक्षा में खोजपूर्ण सीखना को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। वे बच्चों को स्वयं ही खोज कर कुछ नया सिखाने पर बल देते हैं जो बच्चों को उनकी रूचि और जिज्ञासा के अनुसार 'खोजपूर्ण सीखने' की ओर ले जाती है। यह देखने के लिए की पाठ को पूर्ण और उचित रूप में स्वयं में समाहित कर लिया गया है अथवा नहीं यह जिम्मेदारी शिक्षक को दी जाती है कि इसका आकलन वह करे । प्रगतिवादी शिक्षा की शैक्षिक विचारधारा को जैसा रूसो इत्यादि शिक्षा से सम्बंधित अनुशंसा की है, को पूर्ण रूप से मनोविज्ञान पर आधारित माना जा सकता है।

 

हमारे भूत और भविष्य का ज्ञान वर्तमान के अनुभवों पर आधारित होता है जो स्वयं में वातावरण के साथ हुयी सभी अंतःक्रियाओं को समेटे हुए होता है। वर्तमान के अनुभवों के आधार पर ही भविष्य का निर्माण होता है। यह संरचित होता है जिसके द्वारा हम भविष्य की बाधाओं का अनुमान लगा सकते हैं एवं उससे बाहर आने का रास्ता ढूंढ सकते हैं। जैसे - इतिहास के अध्ययन के द्वारा हम उससे सम्बंधित अपनी समस्याओं को हल करने में सक्षम हो पाते हैं। वर्तमान में उपजी शैक्षिक समस्याओं का निवारण कर हम बेहतर कल बनाने की कल्पना करते हैं। इस विचारधारा ने डीवी के शैक्षिक सिद्धांतों पर अपना प्रभाव डाला। यद्यपि डीवी अमेरिका में प्रगतिवाद का संस्थापक नहीं था पर उसकी विचारधारा को प्रगतिवाद के निकट पाया जाता है जो कि यह मानती है कि समाज की समस्याओं के समाधान के लिए तथा समाज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आगे ले जाने के लिए शिक्षा एक माध्यम के रूप में प्रयोग में लायी जा सकती है और शिक्षा के अतिरिक्त अन्य कोई माध्यम नहीं है जो इन समस्याओं के हल के लिए कुंजी के रूप में कार्य कर सके। डीवी कुछ हद तक तो इस विचार को मानते हैं पर उसी समय शिक्षा को मात्र एक उपकरण के रूप में देखने को अस्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि शिक्षा मात्र इन समस्याओं का हल ढूंढने वाली या वैज्ञानिकता के विका का उपकरण नहीं है बल्कि मनुष्य में मनुष्यता का विकास के लिए एक अहम् माध्यम है जिसके अभाव में मनुष्य निरा पशु ही है।

 

प्रगतिवादी पाठ्यचर्या का स्वरुप

 

1. प्रगतिवादी प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञान के अध्ययन पर बल देते हैं। उनका मानना है की के लिए सबसे अधिक आवश्यक उनके आस-पास के वातावरण को जानना एवं सीखना है, वह चाहे प्राकृतिक वातावरण हो या सामाजिक. चूँकि बालक को अपना जीवन निर्वाह उसी समाज और प्रकृति में करना है अतः बालक के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक  और सामाजिक विज्ञान को सीखना ही है। इसके लिए वे पाठ्यचर्या में इन विषयों के समावेश पर विशेष बल देते हैं ।

 

2. प्रगतिवादी पाठ्यचर्या के अंतर्गत शिक्षक से यह अपेक्षा रखी जाती है कि अपने छात्रों को नए वैज्ञानिक खोजों, तकनीकों और सामाजिक परिवर्तनों का ज्ञान देते रहें। इसके लिए शिक्षकों को भी नवीन चीजों से परिचित होना चाहिए जिससे वे इस सम्बन्ध में छात्रों को जानकारी दे सकें

 

3. विद्यार्थियों के व्यक्तिगत अनुभवों को बढ़ाने के लिए उन्हें इस प्रकार से सिखाने की व्यवस्था करनी चाहिए कि नया दिया जाने वाला ज्ञान वर्तमान सामुदायिक जीवन से सम्बंधित हो क्योंकि व्यक्ति उन्हीं परिस्थितियों में अच्छी तरह और जल्दी सीखता है जो उसके वास्तविक जीवन से सम्बंधित हो अतएव पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जो बालक के वास्तविक जीवन से सम्बंधित हो और उनकी रूचि, योग्यताओं एवं अनुभवों पर आधारित हो ।

 

4. शिक्षकों को शिक्षण हेतु पाठ का आयोजन इस प्रकार करना चाहिए जिससे विद्यार्थियों में जिज्ञासा जागृत हो सके और इसके साथ ही वह विद्यार्थियों में उच्च स्तरीय चिंतन और ज्ञान का निर्माण कर सके। इसके लिए पाठ्यपुस्तकों में दिए ज्ञान को पढ़ने के साथ ही छात्रों को उसे कर के भी सीखना चाहिए । उदाहरणस्वरुप: फील्डस्ट्रिप विधि, जहाँ किसी जानकारी को छात्र पहले पुस्तक के माध्यम से प्राप्त करते हैं तत्पश्चात उसे प्राकृतिक वातावरण में समूह में सीखते हैं।

 

5. प्रगतिवादी शिक्षा विचारधारा के अनुसार पाठ्यचर्या एवं शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जो विद्यार्थियों के मध्य परस्पर अंतः क्रिया को प्रोत्साहित करे इसके लिए विचार विमर्श विधि को शिक्षण विधि के रूप में कक्षा में प्रयुक्त करने की सलाह दी जाती है। इसके साथ ही पाठ्यचर्या को सामाजिक मूल्यों जैसे सहयोग, सामंजस्य और सहनशीलता से सम्बंधित विभिन्न दृष्टिकोणों को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए.

 

6. प्रगतिवाद एक से अधिक विषयों को पढाये जाने पर बल देता है । प्रगतिवादियों का मानना है कि पाठ्यचर्या में मात्र एक ही विषय को न पढाया जाए। बालक को अपना जीवन जीने के लिए कई विषयों के अध्ययन की आवश्यकता होती है। मात्र एक विषय में पारंगत होकर बालक भविष्य में आने वाली सभी कठिनाइयों का सामना नहीं कर सकता जैसे- भाषा में ही कोई विद्यार्थी पारंगत हो तथा सामान्य गणितीय क्रियाओं से बिलकुल अनिभिज्ञ हो तो वह दैनिक जीवन में आने वाली गणितीय समस्याओं का निवारण भाषा के ज्ञान के माध्यम से नहीं कर सकता । इसके लिए गणित का ज्ञान आवश्यक है अतः शिक्षकों को मात्र एक ही विषय पर ध्यान केन्द्रित कर के नहीं रखना चाहिए बल्कि अन्य विषयों का भी अध्यापन करना चाहिए । इसके लिए सबसे उपयुक्त है की विषय को अन्य विषयों से सम्बंधित कर ज्ञान दिया जाए जिससे ज्ञान स्थायी हो और एक विषय में अर्जित ज्ञान को दूसरे विषय में और तद्पश्चात वास्तविक परिस्थितियों में प्रयोग में लाया जा सके।

 

7. विद्यार्थियों के समक्ष एक अधिक लोकतान्त्रिक पाठ्यचर्या को प्रस्तुत करना चाहिए जो लैंगिक, वर्गगत, धार्मिक, प्रजातीय, जातीय, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि से सम्बंधित विभिन्नताओं को पीछे छोड़ते हुए सभी नागरिकों की उपलब्धियों की सराहना कर सकें तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यताओं के अनुसार विकास का अवसर प्रदान कर सके। 8. औद्योगिक कला और गृह अर्थशास्त्र में अनुदेशन के द्वारा प्रगतिवादी विद्यालयी शिक्षा को रुचिपूर्ण और उपयोगी बनाने का प्रयास करते हैं। वे ऐसी शिक्षा पर बल देते हैं जहाँ शिक्षा एवं रुचिपूर्ण तरीके से दी जाती हो । प्रगतिवादी शिक्षा व्यवस्था के अनुसार व्यवहारिक रूप से घर कार्यस्थल एवं विद्यालय साथ मिलकर एक सतत और आनंदप्रद शिक्षा जो की जीवन से सम्बंधित हो, देनी चाहिए ।

 

9. कक्षा को जीवन्त होना चाहिए और इसके साथ ही पढाई जाने वाली चीजें रोचक होनी चाहिए । हमारी कक्षाएं नीरस और उबाऊ होती हैं जहाँ छात्रों को मात्र एक मशीने सैम अझते हुए पूरा दिन और पूरा सत्र मात्र कुछ सूचनाओं को भरने का प्रयास किया जाता है। ऐसे नीरस और उबाऊ ज्ञान को विद्यार्थी जल्दी भूलना चाहते हैं और भूल भी जाते हैं अतः शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि अतीत में सीखी हुयी चीजों को छात्र भविष्य में आसानी से पुनः स्मरित कर सकें । 

10. छात्रों को कक्षा में समस्याओं को समाधान वास्तविक परिस्थितियों से जोड़ कर सिखाना चाहिए. छात्र कक्षा में समस्याओं का समाधान करना इस प्रकार से करना सीख सकें कि कक्षा से बाहर जब वास्तविक परिस्थितियों में समस्याएं आएं तो वे उन समस्याओं का समाधान सहजता से कर सकें. इस प्रकार प्रगतिवादी पाठ्यचर्या में प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञान सम्बन्धी विषयों जैसे- भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, गृहविज्ञान, के समावेश पर विशेष बल दिया जाता है | शिक्षण विधियों में उन विधियों को स्वीकार किया जाता है जो समूह में तथा स्वयं करके सीखने को प्रोत्साहित करती हैं।

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