पाठ्यचर्या संरचना पदार्थवाद दार्शनिक आधार |Curriculum Structure Essential-ism Philosophical Foundations

पाठ्यचर्या संरचनापदार्थवाद दार्शनिक आधार

पाठ्यचर्या संरचना पदार्थवाद दार्शनिक आधार |Curriculum Structure Materialism Philosophical Foundations
 

पाठ्यचर्या संरचनापदार्थवाद दार्शनिक आधार

पदार्थवाद या Essentialism की उत्पत्ति Essential शब्द से हुयी है जिसका अर्थ बुनियादी चीजें या मुख्य चीजें हैं। पदार्थवाद एक परम्परावादी तथा रुढ़िवादी दर्शन है । इस दर्शन के मूल में आदर्शवाद एवं यथार्थवाद दोनों की अवधारणाएँ सन्निहित हैं। पदार्थवाद विश्व में शक्ति के स्रोत और प्रभुत्व से सम्बंधित एक प्राचीन सिद्धांत है जिसका मानना है कि प्रकृति का जटिल नियम प्रकृति में पाए जाने वाली प्रत्येक वस्तु में स्वयं ही आतंरिक रूप से है। इन नियमों को बाह्य रूप से इन वस्तुओं पर आरोपित करने की आवश्यकता नहीं है। अतः पदार्थवादी चीजों को उसी रूप में स्वीकार करते हैं जिस रूप में वे हैं। वे चीजों को इस रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते कि वे ईश्वर द्वारा बनायीं हुयी हैं अथवा प्रकृति प्रदत्त हैं । पदार्थवाद की नवीन विचारधारा भी कुछ हद तक प्राचीन विचारधारा से मिलती है। प्राचीन विचारधारा के ही समान पदार्थवाद की नयी विचारधारा भी पदार्थ को उसके वास्तविक रूप में स्वीकार करने पर बल देते हैं। वे पदार्थ के उसके अस्तित्व और स्वरुप के पीछे प्रकृति के नियम को मानते हैं वे इस प्रकार के प्रत्येक नियम को अस्वीकार करते हैं जो नियम बाह्य रूप से उसके स्वरुप का निर्धारण करे। वे नियम स्वीकार्य नहीं हैं जो यह आरोपित करें कि वास्तु को कैसा होना चाहिए प्रकृति ने स्वयं ही प्रत्येक वस्तु का रूप तय करके रखा है। प्रत्येक वस्तु में प्रकृति एवं उसकी शक्ति निहित हैं। प्राचीन विचारधारा जो यहीं तक रुक जाती है वहीँ नवीन विचारधारा प्राचीन विचारधारा के उलट विश्व की आधुनिक वैज्ञानिक समझ की तत्वमीमांसा भी है । पदार्थवाद का 'प्रकृति के नियमसे सम्बंधित सिद्धांत 'Divine Command’ सिद्धांत से पूर्णरूपेण अलग है । 'Divine Command ' सिद्धांत के अनुसार प्रकृति का नियम वस्तुओं को ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। प्राकृतिक विश्व की प्रत्येक चीज ईश्वर के द्वारा आदेशित है। डेका एवं न्यूटन ने प्रकृति के नियम को इसी रूप में स्वीकार किया है। इसके अनुसार वस्तुएं प्रकृति के नियमानुसार क्रिया करने को बाध्य हैं क्योंकि इन वस्तुओं की अपनी कोई शक्ति नहीं है । केवल आध्यात्मिक चीजें जैसे- ईश्वरदेवदूत या मनुष्य मानव मस्तिष्क इस प्रकार होते हैं कि वे इच्छित रूप में कार्य कर सकें। वे शक्ति के वास्तविक स्रोत के रूप में हैं।

 

अठारहवीं शताब्दी में 'Divine Command' का नया रूप विकसित हुआ जिसमें प्राकृति दार्शनिकों ने ईश्वर को सभी कार्यों एवं शक्तियों का स्रोत मानाने के स्थान पर प्राकृतिक क्रियाओं के लिए प्रकृति के बल को उत्तरदायी माना ।

 

यदि पदार्थवाद की शैक्षिक दर्शन के रूप में व्याख्या की जाए तो पदार्थवाद एक ऐसा वाद है जो विद्यार्थियों में शैक्षणिक ज्ञान एवं चारित्रिक विकास को बुनियादी या अनिवार्य रूप से बीजारोपित करने देता है शैक्षिक दर्शन के रूप में पदार्थवाद 1930 के दशक में प्रचलित हुआ. इस दशक में पदार्थवाद को प्रचलित करने का मुख्य श्रेय विलियम बेगले को है. 40 के दशक में यह दर्शन अंधकार में रहा । तद्पश्चात 1950 के दशक में आर्थर बेस्टर और एडमिरल रिकओवर ने इसे पुनः प्रकाश में ले आए। पदार्थवाद के मुख्य दार्शनिकों में डेकार्तेन्यूटनह्यूमलॉककांट इत्यादि आते हैं। जब अमेरिकी विद्यालयों में पदार्थवाद को शैक्षिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया तो इसे एक कठोर दर्शन कहते हुए आलोचना की गयी । साथ ही यह भी कहा गया की इस दर्शन को विद्यालयों में लागू करना अत्यन्त कठिन है। 1957 में जब सोवियत यूनियन के द्वारा स्पूतनिक का प्रक्षेपण हुआ तब यह घटना अमेरिका के शैक्षणिक हलकों में दहशत का कारण बन गयी। क्योंकि अमेरिकियों द्वारा यह महसूस किया गया कि तकनीकी प्रगति में अमेरिका सोवियत यूनियन से बहुत पीछे छूट गया है। इसने अमेरिकी शिक्षाविदों को यह सोचने पर विवश किया की किस प्रकार से इस तकनीकी पिछड़ेपन को पाटा जा सकता है। शिक्षाविदों ने शिक्षा पर पुनर्विचार किया और यहीं से वास्तविक रूप में पदार्थवाद का जन्म हुआ ।

 

चूँकि पदार्थवाद का जन्म का आधार ही वैज्ञानिकता है। अतः पदार्थवाद विज्ञान और वैज्ञानिकता को पाठ्यचर्या में शामिल करने पर विशेष बल देता है। पदार्थवाद ने विज्ञान के महत्व को विश्व के समक्ष रखने का प्रयास किया तथा कहा कि दुनिया को वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से समझ प्रयास करना चाहिए । विश्व के विषय में आवश्यक और महत्वपूर्ण ज्ञान प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है अतः वे पाठ्यचर्या में दर्शन शास्त्रधर्मकला जैसे गैर- वैज्ञानिक विषयों के स्थान पर प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों को रखने पर अधिक जोर दिया ।

 

प्रगतिवादियों का मानना है कि आज के युग में प्रगति के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक विषयों की अधिक आवश्यकता है।

 

पदार्थवाद एक रुढ़िवादी दर्शन है जिसका मानना है कि विद्यालयों को समाज के पुनर्निर्माण का प्रयास नहीं करना चाहिए बल्कि इसके स्थान पर उन पारंपरिक नैतिक मूल्यों एवं विवेक को बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए जो विद्यार्थियों को आधुनिक नागरिक बनाने में मदद करते हों । पदार्थवादियों का विचार है कि शिक्षक को पारंपरिक सद्गुणों से युक्त होना चाहिए। शिक्षकों में पारंपरिक गुणों के होने की अनुशंसा की कई हैवे हैं- सत्ता के प्रति सम्मान का भावकर्तव्यों के प्रति निष्ठाअन्य व्यक्तियों की वैयक्तिकता का सम्मानतथा व्यावहारिकता ।

 

पदार्थवादी पाठ्यचर्या का स्वरुप 

पदार्थवादी दर्शन के अनुसार पाठ्यचर्या में निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए;

 1. पदार्थवाद पाठ्यचर्या में वैज्ञानिक विषयों का समावेश करने पर बल देता है । इस प्रकार पदार्थवादी पाठ्यचर्या के मुख्य विषयों में गणितप्राकृतिक विज्ञानइतिहासविदेशी भाषायेंऔर साहित्य को स्थान दिया गया है। गणित और विज्ञान तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति के लिए आवश्यक हैं वहीँ इतिहास का अध्ययन अपने देश के इतिहास के साथ अन्य देशों का इतिहास वहां के परंपरागत मूल्यों के साथ-साथ इसका भी ज्ञान देते हैं कि देश ने किस प्रकार और कहाँ तक प्रगति की है। विदेशी भाषाओं का अध्ययन देश विशेष के साहित्य के साथ- साथ वहां की पुस्तकों में निहित ज्ञान को प्राप्त करने में मदद करता है।

 

2. पदार्थवादी व्यायसायिकजीवन- समायोजन से सम्बंधित तथा इस प्रकार के अन्य विषयों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित करने को अस्वीकार करते हैं । वे मुख्य रूप से विज्ञान जैसे विषयों पर बल देते हैं तथा पाठ्यचर्या में उन्हीं का समावेश करने की बात करते हैं ।

 

3. प्राथमिक स्तर पर छात्रों को लिखनेपढ़ने और गणित (3 Rs) में निपुणता प्राप्त करने सम्बन्धी शिक्षा दी जाती है क्योंकि आगामी शिक्षा हेतु वे आधार का कार्य करते हैं। पदार्थवादियों को मानना है कि जब तक विद्यार्थी कोई भी विषय जिसकी शिक्षा वे ग्रहण कर रहे हों उसमे पूर्ण ज्ञान एवं निपुणता प्राप्त करके ही वे अगली कक्षा में जाएँ

 

4. जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि पदार्थवाद को विद्यालयों में लागू करने के पीछे यह कह आलोचना की गयी थी की पदार्थवादी पाठ्यचर्या शैक्षणिक रूप से अत्यन्त कठोर है । वास्तव में मंद गति से सीखनेवालों के साथ ही साथ तीव्र गति से भी सीखनेवालों के लिए भी समान रूप से ही कठोर है पदार्थवाद छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं जैसे- योग्यताओं और रूचि को नज़रअंदाज करते हुए सभी को एक समान विषय को पढ़ाने की वकालत करता है । इस प्रकार यह तेज़ और कमजोर दोनों प्रकार के छात्रों के लिए समस्या का विषय बन जाता है।

 

5. सभी के लिए समान पाठ्यचर्या की बात करते हुए भी सीखने की मात्रा में अंतर की बात करता है कि छात्रों को कितना सीखना है यह उनकी योग्यता के अनुसार तय किया जा सकता है।

 

6. पदार्थवादी छात्रों के लिए चुनौतीपूर्ण पाठ्यचर्या की माँग करते हैं जिससे छात्र वास्तविक जीवन में मिल सकने वाली समस्याओं का समाधान करने में सामर्थ्यवान हो सकें। इस हेतु वे लम्बे विद्यालयी दिनलम्बे शैक्षणिक साल एवं ऐसी पाठ्यपुस्तकों की वकालत करते हैं जो छात्रों के लिए चुनौतीपूर्ण हों ।

 

7. पदार्थवादी पाठ्यचर्या में शिक्षक को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । उनके अनुसार ऐसी कक्षाओं का आयोजन करना चाहिए जिसमें मुख्य भूमिका शिक्षक की हो । कक्षायें शिक्षक इर्द-गिर्द होनी चाहिए। पदार्थवादी शिक्षक को छात्रों के लिए एक role model के रूप में मानते । जो छात्रों को मात्र बौद्धिक और नैतिक ज्ञान ही न दे बल्कि ज्ञान देने के साथ-साथ उनका बौद्धिक और नैतिक रूप से पथ-प्रदर्शन भी कर सके। उन्हें मात्र ज्ञान का प्राणी बनने में ही मदद न करे बल्कि चारित्रिक रूप से सामर्थ्यवान भी बनाए ।

 

8. चूँकि पदार्थवादी शिक्षण प्रक्रिया को शिक्षक केन्द्रित मानते हैं अतः यह निर्णय लेने का कार्य भी शिक्षकों को दिया जाता है कि वे इस बात का निर्णय करें की विद्यार्थियों को सीखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है । पर इसके साथ ही शिक्षकों के लिए यह आवश्यक है कि वे थोड़ा ध्यान छात्रों की रुचियों का भी रखें क्योंकि रूचि के अभाव में छात्र विषय पर कम ध्यान देंगे फलस्वरूप विषय के अध्ययन में समय अधिक लगेगा ।

 

9. पदार्थवादी पाठ्यचर्या में सभी छात्रों की वैयक्तिक भिन्नताओं को दरकिनार करते हुए हर छात्र के लिए समान पाठ्यचर्या प्रस्तावित की जाती है अतः प्रगति के मूल्यांकन की प्रक्रिया में भी उपलब्धि परीक्षणों में व्यक्तिगत रूप से किसी छात्र की उपलब्धि पर ध्यान देने के स्थान पर कक्षा के मध्यमान पर विशेष ध्यान देते हैं ।

 

10. पदार्थवादी विद्यालयों में अनुशासन हेतु विशेष अनुशंसा की जाती है । वास्तव में क्रमबद्ध रूप से सीखने के लिए विद्यालय में अनुशासन का होना अनिवार्य है । विद्यार्थियों को विद्यालय तथा विद्यालय से बाहर प्रत्येक स्थान पर सत्ता का सम्मान करना चाहिए।

 

11. विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान होना चाहिए जिससे सही रूप में संस्कृति का हस्तांतरण अगली पीढ़ी को हो सके। इसके लिए कक्षाओं में विद्यार्थियों को सांस्कृतिक रूप से साक्षर होने की शिक्षा दी जाती है जो लोगोंघटनाओंविचारों एवं संस्थाओं के कार्यसाधक ज्ञान को लिए होता है ।

 

12. शिक्षकों का सुशिक्षित एवं परिपक्व होना अत्यावश्यक है। शिक्षकों को अपने विषय का पारंगत होने के साथ-साथ उस ज्ञान को विद्यार्थियों में हस्तांतरित करने की योग्यता होनी चाहिए ।

 

13. पदार्थवादी विद्यार्थियों में इस प्रकार से शिक्षा को बीजारोपित करने पर बल देते हैं की विद्यालय छोड़ने के पश्चात् भी वे न केवल बुनियादी ज्ञान और कौशल के अधिकारी बल्कि अनुशासित और व्यवहारिक ज्ञान के अधिकारी भी बने रहें जिससे वे सीखे गए ज्ञान का प्रयोग वास्तविक दुनिया एवं परिस्थितियों में कर सकें।

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