शून्य आधारित बजट | शून्यात्मक बजट प्रणाली की प्रक्रिया लाभ | Zero Base Budget (ZBB ) in Hindi

शून्य आधारित बजट (Zero Base Budget) (ZB. B. )

शून्य आधारित बजट | शून्यात्मक बजट प्रणाली की प्रक्रिया  लाभ | Zero Base Budget (ZBB ) in Hindi



शून्य आधारित बजट (Zero Base Budget) (ZB. B. ) 

  • निष्पादन अथवा कार्यक्रम बजट की भांति शून्य - आधारित बजट भी युक्ति प्रधान बजट होता है। उद्देश्य प्रबंधन [Management by Objectives (MBO ) ] की भांति इसे भी निजी क्षेत्र के लोक प्रशासन में अपनाया गया है जो अभी तक संयुक्त राज्य अमरीका तक ही सीमित रहा है यह एक उभरती हुई प्रक्रिया है जिसे अमरीका में विभिन्न प्रकार के औद्योगिक संगठन तथा राज्य और नगर की सरकारों ने अपनाया है। 1969 में ZBB का विकास एक कम्पनी में किया गया जिसका नाम था 'टैक्सास इन्स्ट्रूमेंटस (Texas Instruments) सरकार में प्रथम बार इसको जार्जिया के गवर्नर जिमी कार्टर (Gimmy Carter) ने 1973 के वित्तीय वर्ष के बजट तैयार करने के लिए अपनाया था । (जिमी कार्टर तत्पश्चात् संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति बने थे)। भारत में केन्द्रीय वित्त मंत्री वी. पी. सिंह ने संसद की सलाहकार समिति को बताया कि सरकार जीरो बेस बजट को पहले छोटे पैमाने पर 1986-87 में अपनाएगी और फिर 1987-88 में बजट बनाने में अपनाएगी। ZBB प्रक्रिया में किसी भी योजना के पक्ष में बजट में धन देने से पूर्व उसका आलोचनात्मक पुनरावलोकन किया जाता है। भारत तथा दूसरे देशों में परम्परागत बजट की प्रक्रिया के अधीन प्रथा यह है कि यह जाने बिना कि क्या अमुक योजना अच्छी चल रही है अथवा नहीं और क्या इसको जारी रखना उचित भी है अथवा नहींबढोत्तरी के आधार पर धन दे दिया जाता है। ZBB प्रक्रिया में योजना के प्रभावलक्ष्योंनिशानोंउपलब्धि के मानकोंमूल्यांकन और विभिन्न प्रकार की क्रिया संबंधी पारस्परिक तुलना से संबंधित भारी मात्रा में संख्यात्मक आंकडों की आवश्यकता होती है। भारत की स्थिति में ZBB की सहायता से सरकार बड़ी संख्या में ऐसी योजनाओं और उनसे संबंधित उपक्रमों को समाप्त कर सकती हैचाहे वे वार्षिक योजना में सम्मिलित की गई है अथवा नहींजबकि उनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है अथवा कर्मचारियों तथा अवसरंचना पर पूंजी लगाने के बावजूद भी यह प्रभावकारी ढंग से शुरू नहीं हो पाई। यदि इस प्रक्रिया को ठीक प्रकार लागू किया गया तो इससे केन्द्रीय सरकार के राजस्व खाते का घाटा 1981-82 में 294 करोड़ रु. से बढ़कर 1985-86 में लगभग 5,634 करोड़ बन गया।

 

  • गाई पीटर्स (Guy Peters) के अनुसार ZBB के पीछे सबसे मौलिक विचार यह है कि किसी भी विभाग या उपक्रम को प्रतिवर्ष शुरू से लेकर अपने समूचे बजट को उचित ठहराना होगा। इसके विपरीत परम्परागत अथवा बढ़ोत्तरी के बजट में यह कल्पना की जाती है कि बजट का एक आधार (पिछले वर्ष मंजूर किए गए धन की मात्रा) जो पक्का है और प्रश्न केवल ये है कि इसमें क्या बढ़त की जाए। ZBB की खोज इस समस्या का समाधान करने के लिए की गई। शून्य आधारित बजट प्रणाली का अर्थ (Meaning of Zero Base Budgeting) जीरो बेस बजटिंग की कई व्याख्याएं की जाती हैं। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हर चीज को बाहर फेंक दिया जाता है और फिर नए सिरे से हर वस्तु को प्रारम्भ से शुरू किया जाता है अथवा यह पहिए की फिर से खोज करना है। स्पष्टतः यह धारणा ठीक नहीं है। पीहर (Pyhrr) का कथन है कि व्यावहारिक शब्दावली में जीरो बेस बजटिंग का अर्थ सभी कार्यक्रमों का मूल्यांकन करना हैं। विकल्पों और कार्यक्रमों की उपलब्धि के मूल्यांकन पर कभी-कभी हमें फिर से पुनर्विचार करना होता है और एक कार्यक्रम को फिर से निर्देशित करना होता है। ऐसी स्थिति में जरूर हम हर वस्तु को बाहर फेंक देते हैं और पुनः फिर से प्रक्रिया शुरू करते हैं। किन्तु अधिकतर स्थितियों में कार्यक्रम जारी रहेंगे उनमें सुधारों और परिवर्तनों का समावेश कर लिया जाएगाक्योंकि अधिकतर कार्यक्रमों में विश्लेषण का केन्द्र - बिन्दु कार्यक्रमों की कुशलता और प्रभावकारिता के मूल्यांकन और विभिन्न स्तरों पर जो प्रयास किए जा रहे हैंउनकी प्राथमिकताओं और मूल्यांकन पर होगा।

 

जीरो बेस बजटिंग में जिन दो मूल प्रश्नों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता हैवे हैं : 

(1) क्या वर्तमान क्रियाएं कुशल तथा प्रभावकारी हैं ? 

(2) क्या वर्तमान क्रियाओं को समाप्त कर दिया जाए अथवा कम कर दिया जाएताकि उच्च प्राथमिकता वाले नए कार्यक्रमों को धन दिया जा सके अथवा वर्तमान बजट को कम कर दिया जाए। ZBB कार्य पद्धति में यह अनिवार्य है कि प्रत्येक संगठन अपने सभी कार्यक्रमों और क्रियाओं को चाहे वे चल रही हैं अथवा नई हैंव्यवस्थित ढंग से उन पर पुनर्विचार करे और उनका मूल्यांकन करेक्रियाओं पर पुनर्विचार उत्पादन अथवा उपलब्धि तथा लागत के आधार पर किया जाएताकि प्रबन्धकीय निर्णय करने पर बल दिया जा सकेसंख्योन्मुख बजट बन सके और विश्लेषण को बढ़ाया जा सके। ZBB एक दृष्टिकोण है। यह एक जड़ कार्यविधि नहीं है जिसको सभी संगठनों में समान रूप से लागू किया जा सके। इस प्रक्रिया को प्रत्येक संगठन की विशेष आवश्यकताओं के अनुकूल ढालना जरूरी होगा। किन्तु इस दृष्टिकोण के लिए चार मूल कदम हैं जो इस प्रकार हैं :

 

(i) निर्णय करने वाली इकाइयों की पहचान करना । 

(ii) निर्णय समूह" में प्रत्येक निर्णय इकाई का विश्लेषण करना  

(iii) सभी निर्णय समूहों का मूल्यांकन तथा श्रेणीकरण करनाताकि खर्चे के लिए प्रार्थना की जा सके । 

(iv) विस्तृत परिचालन बजट तैयार करना जिनमें वह निर्णय-समूह प्रतिबिम्बित हों जिनको बजट के खर्चे में स्वीकृति दे दी गई है। संगठन में प्रत्येक बजट इकाई को विभिन्न स्तरों के वित्तीय बंटवारे के लिए आकस्मिकताओं का विकार करना होगा। वित्तीय बंटवारे का अधिकतम मूल स्तर बचे रहने का न्यूनतम खर्च(जिसे सर्वाइवल पैकेज कहते हैं) होगा अर्थात् वित्तीय बंटवारे का वह न्यूनतम स्तर जो संगठन के जीवित रहने के लिए और अपनी मौलिक सेवाओं को उपलब्ध कराने के लिए चाहिए संगठन की इकाइयों को यह भी पूछा जा सकता है कि यदि उनके बजटों में 5 अथवा 10% की कटौती कर दी जाए तो वह क्या करेंगे और अपनी सेवाओं के वर्तमान स्तरों को बनाए रखने के लिए उन्हें कितनी आवश्यकता है।

 

शून्यात्मक बजट प्रणाली की प्रक्रिया (Process of Zero Base Budgeting)

 

शून्यात्मक बजट प्रणाली की प्रक्रिया के कई सोपान हैं। इसका कार्यान्वयन सोपानों के निष्पादन के क्रम में होता है। यह सोपान इस प्रकार हैं :

 

(1) विभागीय इकाइयों का समेकन, 

(2) विभागीय उद्देश्यों तथा लक्ष्यों का अभिप्रेषण, 

(3) निर्णय घटकों की सरंचना तथा विकास, 

( 4 ) वरीयता क्रम का निर्धारण, 

( 5 ) शीर्षस्थ - प्रबन्धन स्तर पर विचार विमर्श, 

(6) अन्तिम वरीयता क्रम निर्धारण एवं स्वीकृति, 

(7) वित्तीयन

 

किसी भी संगठन में इस प्रणाली को लागू करने के लिए विभागीय प्रखण्डों को इकाइयों के रूप में समेकित किया जाता है। इस प्रखण्ड के प्रधान का दायित्व सम्बन्धित इकाई के आर्थिक कार्यकलापों से सम्बन्धित प्रारूप तैयार करना होता है। इकाई के आर्थिक प्रारूप का निर्धारण संगठन में व्यावसायिक उद्देश्यों तथा निर्धारित लक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। शीर्षस्थ प्रबन्धनसंगठन के उद्देश्य तथा वार्षिक बजट के लक्ष्यों की प्रत्येक इकाई को सचित करता है। प्रत्येक इकाई का प्रधान अपनी आवश्यकतानुसार निर्णय लेता है कि प्रत्येक गतिविधि का आर्थिक प्रारूप क्या होगा इस गतिविधि से सम्बन्धित प्रारूप को "निर्णय घटक" कहा जाता है। हर घटक की संगठन की उपयोगिता के अनुसार लागत लाभ तथा निष्पादन शैली के सन्दर्भ में समीक्षा की जाती है। इसे निर्णय घटकों का विकास कहा जाता है। फिर निर्णय घटकों को संगठन की आवश्यकता तथा अन्य पक्षों के अनुसार वरीयता क्रम प्रदान किया जाता हैतदुपरान्त इन्हें शीर्षस्थ प्रबन्धन को विचारार्थ अग्रसारित किया जाता है। इस स्तर पर अभीष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु इकाई प्रधान से विचार विमर्श किया जाता है। इसके पश्चात पुनः सभी घटकों को संगठन स्तर पर वरीयता क्रम प्रदान किया जाता हैतत्पश्चात् संगठन के उपलब्ध आर्थिक संसाधनों की क्षमता के अनुसार वरीयता प्राप्त घटकों का वित्तीय अनुमोदन तथा अन्तिम रूप से वित्तीय किया जाता है।

 
शून्यात्मक बजट प्रणाली से लाभ (
Merits of Z.B.B.)

 

शून्यात्मक बजट प्रणाली की अपनी कुछ विशेषताएँ हैंजिसकी वजह से इसे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्थापित किया जा रहा है। इस प्रणाली में बजट प्रक्रिया पूर्णतया वरीयता विश्लेषण पर आधारित है। इसमें संगठन या राष्ट्रों के उद्देश्यों तथा सामयिक आवश्यकताओं को पूर्ण महत्व प्रदान किया जाता है। दूसरे शब्दों में इस प्रणाली में राष्ट्रीय अभीष्ट लक्ष्यों का पूर्ण समावेश रहता है।

 

दूसरेइस प्रणाली में नियोजन तथा बजट निष्पादन में कारणगत सम्बन्ध होता है। प्रस्तावित नियोजन का मूल्यांकनविश्लेषण तथा उपयोगिता ही बजट का स्वरूप निर्धारित करती है।

 

तीसरेइस प्रणाली में निर्णय घटकों की संरचना तथा विकास लागत तथा लाभ के विश्लेषण के आधार पर की जाती है। यदि कोई कार्यकलापसंगठन के उद्देश्यों के अनुसार निश्चित लागत के लिए अपेक्षित लाभ नहीं प्रदान करता है तो उसे अनुत्पादक समझा जाता है। इस प्रकार यह प्रणाली वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है।

 

चौथेइसकी निष्पादन प्रक्रिया में सभी स्तर के अधिकारी सम्मिलित रहते हैं जिसे प्रत्येक स्तर पर कर्तव्य बोध का वातावरण बना रहता है। इसके अतिरिक्त नैतिकता भी प्रत्येक स्तर पर दायित्व निर्वाह में प्रेरणा देती है। निष्क्रिय साधन भी सक्रियता प्राप्त करते हैं।

 

पांचवेंइस प्रणाली द्वारा बजट निष्पादन में पर्याप्त समायोजनशीलता रहती हैं यदि किसी कारणवश संगठन के आर्थिक संसाधनों में कमी के कारण वित्तीय व्यवस्था प्रतिकूल हो जाती है अथवा वित्त में सापेक्ष कमी हो जाती है तो क्रम वरीयता प्राप्त "निर्णयघटकों को बजट प्रक्रिया से पृथक कर दिया जाता है। इससे न तो संगठन के उद्देश्यों पर प्रभाव पड़ता है और न ही संगठन की कार्य क्षमता पर इस प्रकार यह प्रणाली वैज्ञानिकता पर आधारित है तथा साधारण परिस्थितियों में वास्तविकता के काफी समीप होने की विशिष्टता रखती है।

 

भारत में शून्यात्मक बजट प्रणाली अपनाने की कठिनाइयाँ 

(Problems in Adoption of Z.B.B. in India)

 

भारतीय परिवेश में शून्यात्मक बजट प्रणाली के निष्पादन में कुछ मूलभूत अवरोधक तत्वों का आभास होता है। यह तत्व ही प्रणाली की सफलता का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। सर्वप्रथम कठिनाई भारतीय अर्थव्यवस्था में व्याप्त प्रशासन की निष्क्रियता ही परिलक्षित होगीहमारे प्रशासक स्वयं कार्य करने में विश्वास कम करते हैं दायित्व अन्तरण के फलस्वरूपलिपिक वर्ग की "बुद्धिमत्ता का शिकार यह प्रणाली भी हो सकती हैजिस प्रकार 1968-69 में निष्पादन बजट प्रणाली का तिरस्कार किया गयाउसी प्रकार यह सम्भव है कि प्रशासक वर्ग इसका प्रत्यक्ष विरोध करे अथवा इसे असफलता के द्वार तक पहुंचा दे। दूसरे भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन में कर्मचारी संघों तथा परम्परावादी राजनीतिज्ञों का अमूल्य सहयोग हैकर्मचारियों में काम न करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। संघ के नेताओं का परम उद्देश्य संगठन को अगतिशील बनाना है. भारतीय उद्योगों में कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी का विरोध जिस प्रकार नेताओं ने किया हैउससे इस प्रणाली की सफलता पर प्रश्न चिह्न लगता प्रतीत होता है। यद्यपि परम्परावादी राजनीतिज्ञों का युग समाप्तप्राय है तथापि कुछ सीमा तक उनकी आलोचना का शिकार होना निश्चित ही है। तीसरेइस प्रणाली में क्षमतावानबुद्धिमान तथा अनुभवी अधिकारियों की ही आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां ऐसे अधिकारियों की कमी हैपरन्तु जिस प्रकार जातिवादपक्षपात के कारण जिम्मेदार पदों पर अक्षम अधिकारी नियुक्त किये जाते हैंउससे यह प्रणाली अप्रभावित नहीं रह सकती है। वित्त सम्बन्धी मामलों में गैर वित्तीय भूमिका के अधिकारियों की नियुक्ति इसका स्पष्ट प्रमाण है।

 

चौथेइस प्रणाली में आरम्भिक स्तर पर सम्प्रेषणसूचनाओं तथा आँकड़ों से सम्बन्धित कार्य अधिक होता है। भारतीय परिवेश में निम्न सम्प्रेषण व्यवस्था सूचनाओं के संकलन तथा आँकड़ों के तथ्यपरक विश्लेषण में व्याप्त अक्षमताइस प्रणाली की सफलता में मूलभूत रूप से बाधक सिद्ध होगी। आँकड़ों का संकलन इस प्रकार किया जाता है कि वास्तविकता पर पर्दा पड जाये।

 

पाँचवेंभारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रहण क्षमता (Adaptability) की कमी हैकिसी भी तकनीकी ज्ञान को सम्पूर्ण रूप से समाहित करनाएक ही प्रयास में सम्भव नहीं हैप्राथमिक स्तर पर प्रखर विरोध होता है। वित्त मन्त्रालय द्वारा घोषित आदेश के अनुसार इसका पूर्णरूपेण उपयोग 1987-88 के बजट में किया गया। जबकि प्रत्येक स्तर पर नियुक्त दायित्वपूर्ण पदों के अधिकारियों को इसका समुचित ज्ञान भी नहीं हैजिससे वे इस प्रणाली के कार्यान्वयन में स्वयं बाधक सिद्ध होंगे।

 

सुझाव (Suggestions)

 

यदि भारत सरकार वास्तव में परम्परागत प्रणाली का परित्याग करने के लिए तैयार हैतो हमें अपनी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने पड़ेंगे अन्यथा इस उद्घोषणा का भी वही परिणामहोगा जो 1968-1969 में निष्पादन बजट प्रणाली का हुआ था। इस दिशा में निम्नलिखित प्रयास करने होंगे।

 

(1) सर्वप्रथम भारतीय नौकरशाहीराजनीतिज्ञों तथा कर्मचारी संघों के नेताओं की मानसिकता को पूर्णतया परिवर्तित करना होगा। यद्यपि राजनीतिज्ञों की मानसिकता काफी परिवर्तित हो रही हैफिर भी नौकरशाही व कर्मचारी संघों के बदलने में काफी श्रम करना पड़ेगाइस दिशा में सरकार को प्रणाली से सम्बन्धित प्रचार व प्रसार करना चाहिए।

 

(2) सरकार को चाहिए कि देश में ऐसे बजट विशेषज्ञों का एक कैडर तैयार करे जो प्रत्येक स्तर पर नियुक्त अधिकारी को प्रशिक्षित कर सकें। उचित होगा कि सरकार उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन करेजिसमें ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्रीवित्त विशेषज्ञ एवं प्रबन्धकों का प्रतिनिधित्व हो

 

(3) सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों की बागडोर प्रशासकों की जगह विशेषज्ञों को सौंपी जानी चाहिएजिससे वे सरकार के उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में उपक्रमों की व्यावसायिकता के आधार पर प्रबन्धन कर सकेंअधिकतर सरकारी उपक्रमों के घाटे में रहने के परोक्ष में यही कारण है।

 

(4) प्रत्येक इकाई स्तर पर बजट विशेषज्ञोंप्रबन्धकों तथा टेक्नोक्रेट्स की एक समिति का गठन किया जायेइस समिति का स्वरूप इकाई के व्यवसाय पर निर्भर होना चाहिए।

 

(5) अधिक उपयुक्त तो यह होगा कि सरकार योजना आयोग की पद्धति पर "बजट आयोग" व "मूल्य आयोग" की स्थापना करेजिसमें राष्ट्र के लब्धप्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियोंप्रबन्धकोंवैज्ञानिकों को सम्बद्ध किया जाये। सरकार को इन आयोग की सलाह पर ही बजट निष्पादन तथा "मूल्य निर्धारण सम्बधी निर्णय लेने चाहिए। इससे सरकार को जन विरोध तथा अनावश्यक कठिनाइयों से दो चार नहीं होना पड़ेगाक्योंकि हमारे देश में जब भी मूल्य वृद्धि होती है तो जन आन्दोलनों द्वारा आपूरित क्षति होती हैदूसरे सरकार की लोकप्रियता भी कम होती है।

 

( 6 ) इस प्रणाली के निष्पादन की दिशा में आवश्यक वातावरण बनाया जाये। इसे कई अंशों में लागू किया जाये । एक साथ लागू करने से अनियमिततायें होंगीजिससे बजट अपने उद्देश्य में विफल हो सकता हैप्रारम्भ में कुछ सरकारी उपक्रमों में इसे लागू किया जाये ।

 

(7) प्रत्येक स्तर पर कम्प्यूटरों का समुचित प्रयोग किया जाये। इससे आँकड़ो के विश्लेषणसूचनाओं के द्रुतगामी सम्प्रेषण में काफी सुविधा होगीदूसरे बजट प्रक्रिया में समय ही बहुत कम लगेगा ।

 

इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होगा कि सरकार को इस दिशा में दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिए कि वह किसी भी दबाव में इसका परित्याग नहीं करेगीतभी इसका समुचित लाभ हमारी व्यवस्था में परिलक्षित होगा ।

 

नियन्त्रण ( Control)

 

वित्त मंत्रालय द्वारा अनुमानों की समीक्षा (Scrutiny of Estimates by the Finance Ministry) जब अनुमान सभी विभागों से वित्त मंत्रालय में पहुंच जाते हैंतब वहां उनकी समीक्षा और छानबीन होती है। वहां पर्याप्त संशोधन होता है। तदनन्तर वे एकत्रित किये जाते हैं और उनके योगों के आधार पर भारत सरकार के बजट का एक रूप तैयार होता है। हम पहले ही कह चुके हैं कि वित्त मंत्रालय की पूर्व अनुमति बिना अनुमानों में व्ययों की वृद्धि नहीं की जा सकती। यदि कोई प्रशासकीय मंत्रालय किसी व्यय को अनिवार्य रूप से बढ़ाना चाहता हैपरन्तु वित्त मंत्रालय उनको अस्वीकार कर देता हैतो वह विषय मंत्रिमंडल के समक्ष उपस्थित किया जाता है। कैबिनेट को उस पर अपना निर्णय देना पड़ता हैपरन्तु प्रायः वह वित्त मंत्री के ही पक्ष में होता है। कैबिनेट को वैधानिक अधिकार है कि वह वित्त मंत्री की बात न मानेपरन्तु व्यवहार में ऐसा होता नहींवित्त मंत्री की बात नहीं टाली जाती। वित्त मंत्रालय की इतनी महिमा क्यों हैउसकी अन्य मंत्रालयों के अनुमानों पर नियंत्रण करने का अधिकार क्यों दिया जाता है ? इसके कारण मुख्यतया दो हैं

 

पहला कारण यह है कि वित्त मंत्रालय व्यय करने वाला विभाग नहीं है। वह इस स्थिति में हैं कि कर देने वाली जनता के हितों की रक्षा कर सके।

 दूसरा कारण यह है कि दूसरे सभी विभागों के खर्च के लिए उसी को धन की व्यवस्था करनी पड़ती है।

 

अतः यह उचित ही है कि उसको यह कहने का अधिकार हो कि अमुक व्यय न किया जाये ।

 

वित्त मंत्रालय प्रस्तुत अनुमानों की छानबीन वित्तीय दृष्टि से करता है। दूसरे शब्दों मेंउसको यह मालूम हैं कि उपलब्ध धन कितना है। साथ ही किफायत करते हुए उसको यह देखना पड़ता है कि कहीं धन की कमी न पड़ जाये। वह यह नहीं देखता कि अन्य मंत्रालयों की नीति क्या है। उसको केवल यह देखना पड़ता है कि उसकी वित्तीय मांगें परी की जा सकती हैं या नहीं।

 

किस दक्षता में वित्त मंत्रालय छानबीन करता हैयह देखने के लिए उसकी वह कार्यवाही देखनी चाहिए जो वह व्यय के नये प्रस्तावों पर करता है। यदि कोई नयी सामाजिक योजना या कोई नये प्रसार का प्रस्ताव होता है तो उसके ऊपर वह अनेक प्रश्न करता है। जैसे

 

क्या यह प्रस्तावित योजना वास्तव में आवश्यक हैयदि आवश्यक है तो अब तक इसके बिना कैसे काम चला हैंआज यह क्यों उठायी गई हैअन्यत्र क्या होता हैक्या ऐसी सेवा कहीं और हैइस पर व्यय कितना आयेगा वह धन कहां से आयेगाकहां से कटौती की जाये कि इसके लिए धन उपलब्ध हो सकेक्या यह संभव नहीं है कि आगे चलकर इसकी आवश्यकता ही न रहेआदि आदि। बजट के ऊपर जो नियंत्रण भारत में वित्त मंत्रालय लगाता हैवहीं ब्रिटेन में कोष विभाग ( Treasury ) लगाता है और अमेरिका में 'बजट ब्यूरो (Bureau of Budget) लगाता है।

 

वित्त मंत्रालय द्वारा अनुमानों पर नियंत्रण की आलोचना 

(Criticism of Finance Ministry's Control Over Estimates)

 

वित्त मंत्रालय के उपर्युक्त नियंत्रण की इधर हाल के वर्षों में तीव्र आलोचना हुई है। पहली बात यह कही जा सकती है कि उक्त नियंत्रण उस युग का अवशेष है। जब शासन कल्याण का नहींशांति और व्यवस्था का साधन था और देश की आर्थिक समृद्धि का उत्तरदायित्व जनता और समाज का था। सरकार को जो भूमि आदि से कर मिलता थाउसको वह बड़ी सावधानी से खर्च करती थी। प्रशासन के खर्चे से सदा किफायत की जाती थी। यहीं सरकारी बजट का मूल मंत्र था। आज स्थिति बदल गयी है। सरकार सार्वजनिक कल्याण के लिए उत्तरदायी है।

 

अतः मुख्य मन्तव्य व्ययों में किफायत करना न होकर लाभप्रद कार्यों में धन लगाना होना चाहिए। परन्तुआज भी वित्त मंत्रालय प्रायः नई योजनाओं के लिए बार-बार इंकार ही करता रहता है। इससे प्रगति में अवरोध होता है। दूसरा विचार यह है कि वित्त मंत्रालय का अन्य मंत्रालयों पर नियंत्रण उचित एवं नैतिक नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता कि वित्त मंत्रालय के अधिकारी कभी गलती नहीं कर सकतेया वे जो कहते हैंवह ठीक ही कहते हैं। जहां करोड़ों रुपयों का एक सीमित अवधि के भीतर व्यय करने की समस्या उठती हैवहां से सीधी और मोटी अक्ल से ही काम लेते हैं और नहीं कह देना आसान समझते हैं। यह स्वाभाविक भी है। परिणाम यह होता है कि प्रस्तावित अनुमान स्वीकृत कर लिया जाता हैया सीधे-सीधे अस्वीकृत हो जाता है। बहुधा ऐसा होता है कि अधिकारी दूरदर्शिता नहीं बरत पाते और आज की छोटी सी बचत के लिए कल के बड़े लाभ को छोड़ देते हैं। परम्परागत बड़े व्ययों को पास कर देते हैंपरन्तु किसी छोटे से नये प्रस्ताव पर अड़ जाते हैं। एक आलोचना की यह टिप्पणी की जाती हैं कि यदि राजकोष से कुछ हजार पौंड मांगे जाते हैं तो वह इंकार कर देता हैपरन्तु यदि लाखों की मांग की जाये तो वह मान ली जाती है। तीसरी आलोचना यह है कि समकक्ष वित्त मंत्रालय का अन्य मंत्रालयों पर नियंत्रण उचित नहीं है। उसके लिए अधिक अच्छा यह होगा कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक अन्तर्विभागीय समिति स्थापित की जाये।

 

ये आलोचनाएं निःसार नहीं हैं। परन्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि बजट को संतुलित करने के लिए नियंत्रण का होना आवश्यक हैवह वित्त मंत्रालय करे या राजकोष विभाग। इसके अतिरिक्त सभी विभागों में सहकारिता भी आवश्यक है। उसको देखने और लागू करने के लिए भी उक्त शक्ति की आवश्यकता हैअन्यथा अनियमभ्रमअपव्यय आदि की संभावना बनी रहेगी।

 

अपनाने में आने वाली कठिनाइयां (Problems in a Adoption) किसी भी देश की आर्थिक क्रियाओं की दिशा को निर्धारित करने में सरकार की बजट नीति का प्रमुख हाथ रहता है। बजट में आय और व्यय के अनुमान लगाये जाते हैं तथा व्ययों को पूर्ण करने हेतु विभिन्न प्रकार की पद्धतियों एवं साधनों को उपयोग में लाया जाता है। बजट शब्द फ्रेंच शब्द बजटे (Budgette) से लिया गया है जिसका आशय एक छोटे थैले से है। इस प्रकार बजट सरकार की आय एवं व्ययों का एक वार्षिक विवरण है। बजट को स्वीकृत करने के लिए विधन - मंडल के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।

 

भारतीय बजट में (1) गत वर्ष के वास्तविक आय एवं व्यय (2) चालू वर्ष के आय एवं व्यय संबंधी स्वीकृत अनुमान, (3) चालू वर्ष एवं पिछले वर्ष के वास्तविक आय-व्यय संबंधी आंकड़े, (4) भावी वर्ष के बजट अनुमानतथा (5) चालू वर्ष के दुहराये हुए आय-व्यय अनुमान प्रस्तुत किए जाते हैं। वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से प्रारम्भ होकर 31 मार्च को प्रतिवर्ष समाप्त होता है। किसी भी देश की आर्थिक क्रियाओं को निर्धारित करने में सरकार की बजट नीति का प्रमुख हाथ रहता है। बजट नीति में सरकार की आय व्यय तथा ऋण संबंधी नीतियों को सम्मिलित किया जाता है। बजट के द्वारा एक देश की सही आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

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