राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में लोक वित्त का महत्त्व | धन के वितरण में समानता लाने की विधियाँ | Role of Public Finance in Nation

 राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में लोक वित्त का महत्त्व 

 (Role of Public Finance in National  Economy)

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में लोक वित्त का महत्त्व | धन के वितरण में समानता लाने की  विधियाँ | Role of Public Finance in National



 राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में लोक वित्त का महत्त्व

  • वर्तमान समय में लोक वित्त का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। यद्यपि प्राचीन अर्थशास्त्रियों के अनुसार राज्य को प्रजा के कार्यों में कम-से-कम हस्तक्षेप करना चाहिए। एडम स्मिथ ने तो केवल सुरक्षापुलिस और शांति व्यवस्था आदि जैसे कार्यों में ही राजकीय हस्तक्षेप को आवश्यक बताया। इसी प्रकार व्यक्तियों द्वारा किया गया व्यय उत्पादक तथा सरकार द्वारा किया गया व्यय अनुत्पादक होता है। 19वीं शताब्दी में प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री वैगनर (Wagner) ने राज्य की बढ़ती हुई क्रियाओं का प्रतिपादन किया और तब से राज्य के कार्यों में तीव्रता से वृद्धि हुई है। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में विशेष रूप से 1930 की महामन्दी के कारण लोक वित्त को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया है। वर्तमान समय में राज्य को एक कल्याणकारी संस्था माना जाता है। निर्धनताआर्थिक विषमताव्यावसायिक उच्चावचन आदि परिस्थितियों के कारण मानव जीवन में राजकीय हस्तक्षेप को अपरिहार्य बना दिया है।

 

  • कार्ल मार्क्सजॉर्ज बर्नार्ड शॉ तथा सिडनी वेब ने व्यक्तिगत प्रयासों के स्थान पर राजकीय प्रयास व हस्तक्षेप को महत्व प्रदान किया है। लोक वित्त के अध्ययन के महत्व में वृद्धि का एक कारण यह भी है कि देश की सार्वजनिक वित्त व्यवस्था का प्रत्येक अंग पर प्रभाव पड़ता है। सार्वजनिक वित्त का कार्य सरकार के लिए केवल वित्त एकत्रित करना ही नहीं है- अब उसे सामाजिक न्याय दिलानेआर्थिक स्थिरता बनाये रखनेपूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त करने तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा देने का भी एक शक्तिशाली साधन समझा जाता है। विकासशील देशों के आर्थिक विकास में भी लोक वित्त का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः स्पष्ट है कि अब सरकार आर्थिक विषयों में अत्यधिक हस्तक्षेप करने लगी है।

 

हम लोक वित्त के महत्त्व का निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं-

 

1. साधनों के वितरण में महत्त्व, 

2. आय और सम्पत्ति के वितरण में महत्त्व, 

3. आर्थिक स्थिरता के संदर्भ में महत्त्व तथा 

4. आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में महत्त्व

 

1. साधनों के वितरण में महत्त्व (Importance of Public Finance in Allocation of Resources) 


साधनों के वितरण से आशय इनके सर्वश्रेष्ठ चुनाव से है जिससे स्पष्ट होता है कि समाज की भूमिश्रमपूँजीगत वस्तुओं व अन्य साधनों का किस प्रकार प्रयोग किया जाए किन वस्तुओं का उत्पादन कितनी मात्रा में किया जाए तथा उत्पादन की किन-किन रीतियों का प्रयोग किया जाएइत्यादि । प्रत्येक देश के पास निश्चित मात्रा में आर्थिक साधन उपलब्ध होते हैं। इनमें प्राकृतिक साधनजैसे- भूमिवनखनिज सम्पदा व शक्ति स्रोत आदि भी सम्मिलित किये जाते हैं। प्राकृतिक साधनों के विषय में यह उल्लेखनीय है कि इनकी उपलब्धि मात्र से ही किसी देश के आर्थिक विकास का स्तर ऊँचा नहीं हो जाता अपितु आर्थिक विकास हेतु इन साधनों का विदोहन भी आवश्यक है। इनके अतिरिक्त किसी देश के प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों के द्वारा कृषि उद्योगयातायात व व्यापार आदि आर्थिक क्रियाओं का संचालन होता है। यही देश की अर्थव्यवस्था के अंग हैं। इन्हीं पर सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था निर्भर करती है। स्पष्ट है कि आर्थिक क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य उपलब्ध साधनों का बुद्धिमतापूर्ण तरीके से उचित विदोहन करना है। इसका ज्ञान निम्न विवरण से भी हो सकता है -

 

(i) आर्थिक संरचना का विकास (Development of Economic Structure) 

सरकार अपनी बजट नीति द्वारा आर्थिक संरचना के विकास हेतु धन की व्यवस्था कर सकती है। इसके अन्तर्गत रेलवेविद्युतसड़क यातायातस्कूलअस्पतालबहुउद्देशीय योजनाओं आदि का विकास आता है। इसके अभाव में आर्थिक प्रगति व्यवस्थित रूप से नहीं हो सकती परन्तु इन योजनाओं पर बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है। परन्तु इसके शीघ्र व प्रत्यक्ष प्रतिफल की भी आशा नहीं की जा सकती। अतः व्यक्तिगत उद्यमी इस प्रकार के विनियोगों में रूचि नहीं रखते। अतः राज्य का कर्त्तव्य है कि वह आर्थिक संरचना के भार को वहन करेपूँजी निर्माण की दर को तीव्र करे व भार मितव्ययिताओं को उत्पन्न करे।

 

(ii) जनसंख्या वृद्धि की दर (Rate of Population Growth) -

द्रुत आर्थिक विकास तभी संभव हो सकता है। जब जनसंख्या वृद्धि दर की अपेक्षा रोजगार के अवसरों और आय में वृद्धि की दर बहुत अधिक हो। अतः सरकार अपनी राजकोषीय नीति में परिवार नियोजन पर अधिक महत्व देते हुए जनसंख्या को नियन्त्रित करती है।

 

(iii) पिछड़े क्षेत्रों का विकास ( Development of Backward Areas) – 

यदि पिछड़े क्षेत्रों में कर संबंधी छूटें एवं रियायतें प्रदान की जाएँ तो घने बसे क्षेत्रों में लगे आर्थिक साधनों को पिछड़े क्षेत्रों की ओर मोड़ा जा सकता है। इसमें जहाँ पिछड़े क्षेत्रों की उन्नति और विकास में सहायता मिलेगी वहाँ संतुलित आर्थिक विकास भी संभव हो सकेगा।

 

(iv) सार्वजनिक व निजी उद्योग का विकास (Development of Public and Private Industries) - 


वर्तमान समय में राज्य देश में सुदृढ़ औद्योगिक ढाँचा तैयार करने हेतु स्वयं आधारभूत उद्योगों की स्थापना व उनका विकास करता है। इसके अतिरिक्त सरकार व्यक्तिगत विनियोगों को भी अपनी राजस्व नीति द्वारा प्रोत्साहित कर सकती हैजैसे- (A) व्यक्तिगत उद्योगों पर कर भार कम करना (B) इनको विभिन्न औद्योगिक सुविधाएँ प्रदान करना, (C) व्यक्तिगत उद्योगों को सस्ती ऋण सुविधाएँ मिलना व इस हेतु विशिष्ट वितीय संस्थाएँ खोलना आदि।

 

(v) सामाजिक सुरक्षा संबंधी गतिविधियाँ (Social Security Activities) – 

अनेक विकसित देशों में क्रमिक सुरक्षाउदाहरणार्थ- स्वास्थ्य बीमाबेकारी बीमा योजनावृद्धावस्था पेन्शनमातृत्व लाभ आदि कार्यक्रमों पर बहुत बड़ी माा में सार्वजनिक व्यय किया जाता है जिसका अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उपलब्ध साधनों के पूर्ण उपयोग व उचित आवंटन के क्षेत्र में राजस्व का महत्वपूर्ण योगदान है।

 

2. आय और सम्पत्ति के वितरण में महत्त्व (Importance of Public Finance in Distribution of income and Wealth) - 

आज अधिकांश देशों में आय व सम्पत्ति के वितरण में असमानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं एक ओर तो कुछ मुट्ठी भर लोग धन से परिपूर्ण रहते हैं और अनेक विलासितापूर्ण कार्यों में अपनी आय का दुरूपयोग करते हैंजबकि दूसरी ओर जनसाधारण अथाह दरिद्रता व विपत्ति के नीचे दबे कराहते हैं। स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत यदि आर्थिक शक्तियों को नियन्त्रित न किया जाए तो आय व सम्पत्ति के वितरण की समस्या और भी गम्भीर हो जाती है। आय की असमानता नैतिकसामाजिक आर्थिक व राजनैतिक सभी दृष्टिकोणों से अवांछनीय है। धन के वितरण की असमानता को दूर करने से समाज को अधिकतम आर्थिक कल्याण प्राप्त हो सकेगा। आय की असमानता के कारण देश में उत्पादन का ढाँचा धनी वर्ग के अनुकूल हो जाता है। उत्पादन का अधिकांश भाग अनिवार्य आवश्यकताओं की वस्तुओं के बजाय विलासिता की वस्तुओं का होता है। अतः समाज को अधिकतम सामाजिक सन्तोष प्राप्त नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त आय की असमानता अन्ततः बेरोजगारी को जन्म देती हैजिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या के विशाल वर्ग के लिए आर्थिक असुरक्षा उत्पन्न हो जाती हैबचत व विनियोग का सन्तुलन सम्भव हनीं हो पाता और देश की अर्थव्यवस्था अनुकूलतम स्थिति में कार्य नहीं कर पाती। अब हमें यह अध्ययन करना होगा कि आय व सम्पत्ति के वितरण की विषमताओं को कम करने हेतु लोक वित्त कहाँ तक उपयोगी होगा। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री धन के वितरण के लिए करारोपण को सामान्यतः विरोध की दृष्टि से देखते थे। उनका कहना था कि करारोपण का एकमात्र उद्देश्य राज्य के लिए आय प्राप्त करना है। परन्तु वर्तमान समय में यह बात पूर्ण रूप से स्वीकार की जा रही है कि राजकोषीय नीतियाँ धन के वितरण की असमानताओं को दूर करने में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। सार्वजनिक व्यय द्वारा जहाँ गरीबों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाकर वितरण की विषमताओं में कमी की जा सकती है वहाँ करारोपण द्वारा धनी व्यक्तियों को आय का स्तर नीचा करके भी इस उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।


इस प्रकार आज धन के वितरण में वांछित समानता लाने की दो मुख्य विधियाँ हैं -

 

(i) सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) - 

यह आय को निर्धन व्यक्तियों के हित में पुनर्वितरित करने का साधन हो सकता है। यदि सरकार अपनी आय का अधिकतम भाग इस प्रकार व्यय करती है जिससे निर्धनों की अधिक सहायता होती है तो वास्तविक आयों में कम असमानता होगी। अतः सरकार को निम्न आय के लोगों पर अधिक व्यय करना चाहिए। इस विषय में सरकार को चाहिए कि वह - (अ) सामाजिक सेवाओंजैसे- निःशुल्क शिक्षाचिकित्सा व मकान की व्यवस्था आदि गरीबों के लिए करे। (ब) बेरोजगारीबीमारीवृद्धावस्था की कठिनाइयों से गरीबों की रक्षा करें। (स) सरकार द्वारा अनिवार्य वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हेतु विशेष आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए। (द) यदि सरकार अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के संतुलित विकास कार्यक्रम को शुरू कर दे तो यह नीति जीवन स्तर को ऊँचा उठाने और आय की असमानताओं को दूर करने में और भी सफल होगी।

 

(ii) करारोपण (Taxation) - 

करारोपण भी धन की असमानताओं को दूर करने का महत्वपूर्ण साधन है। सर्वप्रथम जर्मन अर्थशास्त्री वैगनर ने करारोपण के माध्यम से धन की असमानताओं को दूर करने का जोरदार समर्थन किया है। आय-कर (Income tax) वेतन और मजदूरियों में अंतर के कारण आय की असमानता को कम करता हैजबकि उत्तराधिकार कर (Inheritance Tax) विशेष रूप से सम्पत्तियों के अंतर के कारण उत्पन्न असमानताओं को कम करता है। अतः प्रगतिशील व प्रत्यक्ष करों के द्वारा अपेक्षाकृत धनी वर्ग के लोगों से निर्धन वर्ग की ओर धन का हस्तान्तरण किया जा सकता हैक्योंकि धनी व्यक्तियों से कर वसूल करके उसे ऐसी सामाजिक सेवाओं पर व्यय किया जा सकता है जिसका वास्तविक लाभ निर्धन वर्ग के लोगों को हो। यद्यपि सार्वजनिक व्यय और करारोपण साथ-साथ चलते हैंफिर भी धन के वितरण की असमानता को दूर करने में करारोपण का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि करारोपण केवल धनी व्यक्तियों की आय का स्तर नीचा करने के लिए ही आवश्यक नहीं है अपितु सरकारी व्यय के कार्यक्रमों के लिए धनराशि प्राप्त करने के लिए भी बहुत आवश्यक है। प्रगतिशील कर आय की असमानता को कम करते हैं जबकि प्रतिगामी कर आय की असमानता को बढ़ाते हैं उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राजस्व द्वारा आय और सम्पत्ति के समान वितरण की दिशा में जो प्रयास किये जाते हैं उनका बचत और विनियोग पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और देश की अर्थव्यवस्था को समुचित ढंग से विकसित करने में सहायता मिलती है तथा देश के आर्थिक व सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है।

 

(3) आर्थिक स्थिरता के सन्दर्भ में महत्त्व (Importance of Economic Stability)

आर्थिक स्थिरता का तात्पर्य उत्पादनरोजगार व मूल्य में होने वाले परिवर्तनों से है। उत्पादनरोजगार और मूल्यों में होने वाली वृद्धि देश की अर्थव्यवस्था के ऊपर जाने के प्रतीक माने जाते हैं। इसके विपरीत उत्पादन में कमीबेरोजगारी व मन्दी देश की अर्थव्यवस्था को मन्दी की ओर ले जाती है। अतः पूर्ण रोजगार अथवा आर्थिक स्थिरता हेतु लोक वित्त के महत्त्व की विवेचना हम इस प्रकार कर सकते हैं कि इसके द्वारा उत्पादनमूल्यों व रोजगार पर किस प्रकार प्रभाव डाला जा सकता है ताकि निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति हो सके ।

 

यहाँ पर पूर्ण रोजगार और मूल्य स्थिरता के अर्थों को समझना आवश्यक हो जाता है। सर विलियम बेवरिज के अनुसार, "रोजगार का विचार उस विशेष स्थिति की ओर संकेत करता है जिसमें बेकार व्यक्तियों की संख्या की तुलना में काम करने के लिए अधिक खाली स्थान प्राप्त होते हैं।" अमरीकी आर्थिक संघ के अनुसार, "पूर्ण रोजगार का अर्थ यह है कि उन सभी योग्यता प्राप्त व्यक्तियों को जो प्रचलित वेतन दरों पर काम चाहते हैंबिना अधिक विलम्ब हुए उत्पादक कार्यों में काम प्राप्त हो सके।" इसी प्रकार मूल्य स्थिरता का अर्थ यह है कि मूल्यों के सामान्य स्तर में तीव्र अल्पकालिक परिवर्तनों का न होना ।

 

प्रतिष्ठित अर्थशासित्रयों का यह मत था कि समाज में सदा पूर्ण रोजगार की स्थिति बनी रहती है। उनका यह विचार जे. बी. से के प्रसिद्ध कथन "पूर्ति स्वतः माँग की जननी होती है" पर आधारित था । अतः अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी या अत्युपादन हो ही नहीं सकता क्योंकि जो कुछ भी पैदा होता है उसका मुद्रा द्वारा विनिमय अवश्य हो जाता है लेकिन आधुनिक अर्थशासित्रयों ने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के उपरोक्त विचारों का जोरदार खण्डन किया है और यह स्पष्ट किया है कि देश में निजी उपक्रम के प्रयासों से ही सदा पूर्ण रोजगार की स्थिति नहीं पाई जाती। कीन्स के अनुसार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था मे सदा ही उतार-चढ़ाव आया करते हैं। कभी अतिपूर्ण रोजगार की स्थिति आती है तो कभी अपूर्ण रोजगार की स्थिति अगर किसी विशेष समय पूर्ण रोजगार की स्थिति पाई जाती है तो यह एक संयोग की ही बात होती है।

 

पूर्ण रोजगार और उससे सम्बन्धित तथ्य अर्थात् उत्पादन रोजगार एवं मूल्य को प्रभावित करने वाला एक आधारभूत तत्त्व प्रभावपूर्ण माँग समाज में होने वाले कुल उत्पादन के मूल्य को सूचित करती है। इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय उत्पादन का कुल मुल्य और उद्योगपतियों द्वारा माल की बिक्री से प्राप्त होने वाली आय में कोई अन्तर नहीं होता । अर्थात् कुल उत्पादन राष्ट्रीय आय के बराबर होता है। अतः उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक स्थिरता एक देश की अर्थव्यवस्था को काफी सीमा तक प्रभावित करती है।

 

4. आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में महत्त्व (Importance in Collection of resources for Economic Development) - 


आर्थिक विकास हेतु साधन जुटाने में लोक वित्त का क्या महत्त्व हैइसे हम निमन विवरण से स्पष्ट कर सकते हैं

 

(i) पूँजी निर्माण (Capital formation) - 

किसी देश के आर्थिक विकास में पूँजी निर्माण का केन्द्रीय महत्त्व होता है। वस्तुतः अर्द्धविकसित देशों में व्याप्त निर्धनता के उचित चक्र को विनियोग के बिन्दु से टाला जा सकता है और जिसके कारण अनुकूल परिवर्तनों की संभावना हो जाती है। अन्ततः लोक वित्त की कार्यवाहियों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि उपभोग व अन्य गैर विकास कार्यों की ओर से पूँजी निर्माण अर्थात् बचत व विनियोग की ओर साधनों का अन्तरण हो । सरकार पूँजी निर्माण में वृद्धि करने के लिए कई प्रकार से सहायता कर सकती है। डॉ० आर. एन. त्रिपाठी के अनुसारचूँकि अर्द्धविकसित देशों में बचत की दर अत्यन्त कम होती हैअतः इन देशों में बढ़ती हुई बचत दर प्राप्त करने हेतु ताकि विनियोग अधिक से अधिक होसरकार निम्नलिखित ढंग अपना सकती है -

 

(अ) प्रत्यक्ष भौतिक नियंत्रण, 

(स) सार्वजनिक उद्योगों से बचत प्राप्त करना, 

(ब) वर्तमान करों की दर में वृद्धि करना, 

(द) सार्वजनिक ऋण, 

(य) घाटे का बजट

 

(अ) प्रत्यक्ष भौतिक नियन्त्रण (Direct physical control) - 

यह विशिष्ट उपभोग व अनुत्पादक विनियोजन को घटाने में अत्यन्त प्रभावशाली होता है। यद्यपि अर्द्धविकसित देशों में उसका प्रशासन असुविधाजनक होता है फिर भी प्रत्यक्ष भौतिक नियंत्रण राजकोषीय नीति का आवश्यक अंग होता है।

 

(ब) वर्तमान करों की दर में वृद्धि (Increase in the rate of present taxes ) 

करों को लगाना तथा वर्तमान करों की दर में वृद्धि जो स्पष्ट रूप से प्रगतिशील भी कही जा सकती हैअपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। कर की रचना निम्न प्रकार से हो सकती है- (क) धनी वर्ग के उन साधनों को जो निष्क्रिय पड़े हों अथवा जिनका राशि की दृष्टि से लाभप्रद उपभोग न होता हो आय कर सम्पत्ति कर आदि लगाकर प्राप्त किया जा सकता हैसरकारी वस्तुओं पर कर लगाया जा सके जिनकी मांग बेलोच हो, (ख) कृषक वर्ग की बढ़ती आय में से कर लगा देना आवश्यक होता है। इस हेतु भूमि तथा अन्य प्रकार की सम्पत्तियों पर करारोपण किया जा सकता है।

 

(स) सार्वजनिक उद्योगों से बचत प्राप्त करना (To collect the savings from public enterprises) – 

विकासशील देशों में अधिक लागत के कारण उद्योगों में कम बचत प्राप्त होती है फिर भी यदि सार्वजनिक उद्योगों को दक्षता व कुशलता से चलाया जाये तो उनसे भी अतिरेक प्राप्त किया जा सकता है।

 

(द) सावतकने ऋण (Public debt ) 

ऐच्छिक बचत को सरकार ऋण के रूप में प्राप्त कर सकती है। लोगों की बचत को बढ़ाने के लिए सरकारी ऋण पत्र कर सुरक्षित साधन है। संस्थाएँ भी अपने धन को सरकारी ऋण-पत्रों में लगा सकती है। चूँकि अर्द्धविकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती हैइसलिए सार्वजनिक ऋणों का क्षेत्र अत्यधिक सीमित होता हैपरंतु इसका यह आशय नहीं है कि सार्वजनिक ऋण-पत्रों को क्रय करने हेतु देश में किसी प्रकार की बचत नहीं होती। इन देशों में लघु बचतों का विशेष महत्व होता है। वर्तमान समय में बहुत-सी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसेविश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ आदि भी विकासशील देशों को पर्याप्त ऋण प्रदान करती हैं।

 

(य) घाटे का बजट (Deficit Budget) - 

घाटे की वित्त व्यवस्था की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब कि सरकार करों व जनता से लिए जाने वाले ऋणों व आय के अन्य साधनों द्वारा जितना प्राप्त करती है उससे अधिक व्यय करती है। सरकार को घाटे की वित्त व्यवस्था का उपभोग सतर्कता के साथ करना चाहिए। इस विधि का अत्यधिक उपयोग अर्थव्यवस्था में स्फीतिजनक स्थितियाँ उत्पन्न करके अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर सकता है।

 

(ii) उत्पादन के स्वरूप में उत्पादन करके (Change in the production structure ) - 

सार्वजनिक क्षेत्र के लिए साधनों को गतिशील करने में राजकोषीय नीति बड़ी प्रेरक होती है। सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करके सरकार ऐसे उद्योगों का विस्तार कर सकती है जिन्हें वह राष्ट्रीय हित की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझती है। इसके साथ ही लोक वित्त सम्बन्धी कार्यवाहियों का उद्देश्य व्यक्तिगत विनियोग को वांछित दिशाओं की ओर गतिशील करने के लिए भी किया जा सकता है।

 

(iii) बेरोजगारी को दूर करना (To remove the unemployment ) - 

अल्प विकसित देशों में बेरोजगारी व अदृश्य बेरोजगारी की समस्याएँ बहुत विकट होती हैं। पूर्ण विकसित देशों में प्रायः एक अल्पकालीन समस्या होती है जो व्यापार - चक्रों के प्रभाव से उत्पन्न होती है । परन्तु विकासशील देशों में बेरोजगारी एक सर्वव्यापी समस्या होती हैजिसका समाधान एक दीर्घकालीन विकास नीति द्वारा ही हो सकता है। अतः देश में करारोपणसार्वजनिक व्यय व ऋण सम्बन्धी नीतियों के द्वारा विनियोग में वृद्धि करके रोजगार के अवसरों का विस्तार किया जा सकता है।

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