श्री अरविन्द का जीवन-वृत्त (जीवन परिचय ) |श्री अरविन्द के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम | Shri Arvind Biography in Hindi

श्री अरविन्द का जीवन-वृत्त (जीवन परिचय ) Shri Arvind Biography in Hindi

श्री अरविन्द का जीवन-वृत्त (जीवन परिचय ) |श्री अरविन्द के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम | Shri Arvind Biography in Hindi

श्री अरविन्द के बारे में सामान्य परिचय 


औपनिवेशिक शासन की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत माँ ने जिन महापुरूषों को जन्म दिया उनमें श्री अरविन्द प्रमुख थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। श्री अरविन्द एक महान लेखक, गंभीर विचारक, ओजस्वी पत्रकार, सफल राजनेता, सिद्ध द्रष्टा एवं विलक्षण योगी थे। इन सभी रूपों में उन्होंने परतंत्र राष्ट्र के स्वाभिमान को बढ़ाया। वस्तुतः श्री अरविन्द वैदिक काल से चली आ रही ऋषि परम्परा के उज्ज्वल कड़ी थे। विद्वानों ने उनके दर्शन को उपनिषदों के दर्शन के समकक्ष माना है। उन्हें उपनिषदों के भाष्यकार नहीं, स्वंय उपनिषदिक सत्य का द्रष्टा माना गया है। उन्होंने पाण्डिचेरी आश्रम में आजीवन योग और शिक्षा में सर्वथा अभिनव प्रयोग करते हुए उन्हें आधुनिक युग के अनुकूल बनाने का महती कार्य किया । 


श्री अरविन्द का जीवन-वृत्त (जीवन परिचय ) Shri Arvind Biography in Hindi

 

  • उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में औपनिवेशिक शासन अपनी शक्ति के चरम पर पहुँच चुका था । राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारत पराजित महसूस कर रहा था। इसी समय बौद्धिक रूप से समर्थ भारतीयों में भारत के पुनर्जागरण की लालसा तीव्र हो रही थी। वे भारत की गौरवशाली परम्परा के आधार पर एक समर्थ, शक्तिशाली एवं स्वशासी देश की कल्पना करने लगे थे। इसी राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक द्वंद के दौर में महर्षि अरविन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उनके जीवन-वृत्त में इस द्वन्दात्मक राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेश को आसानी से देखा जा सकता है. 

 

  • श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता में हुआ था। वे तीन भाईयों में कनिष्ठ थे। उनके पिता कृष्णधन घोष एक प्रसिद्ध चिकित्सक थे। उन्होंने इंग्लैंड में चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया था। वे पाश्चात्य संस्कृति को श्रेष्ठ मानते थे और उसी रंग में रंगे हुए थे। उनकी माता श्रीमती स्वणलता देवी प्रसिद्ध राष्ट्रवादी राजनारायण बोस की पुत्री थी । अरविन्द के पिता ने प्रारम्भ से यह प्रयास किया कि उनके बच्चों पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव न पड़े- वे पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप पलें बढ़ें। अतः उन्होंने बाल्यवस्था में ही अरविन्द को दार्जिलिंग के आइरिश ईसाई स्कूल, लॉरेटो कान्वेन्ट में प्रवेश दिलाया जहाँ अधिकांशतः अंग्रेजों के बच्चे थे। जब अरविन्द केवल सात वर्ष के ही थे तो उनके पिता ने उन्हें दोनों भाईयों सहित इंग्लैंड में श्रीमती ड्रेवेट के संरक्षण में आचार-विचार और शिक्षा ग्रहण करने के लिए छोड़ दिया। 18850 में अरविन्द का प्रवेश लन्दन के प्रसिद्ध सेन्टपॉल स्कूल में कराया गया। पाँच वर्ष की अल्पअवधि में ही उन्होंने पाश्चात्य शास्त्रीय भाषाओं- ग्रीक और लैटिन में दक्षता प्राप्त कर ली। साथ ही यूरोप की आधुनिक भाषाओं अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालियन, जर्मन और स्पेनिश का भी उन्होंने अध्ययन किया । इतनी भाषाओं पर अधिकार कोई अत्यन्त ही कुशाग्र बुद्धि का छात्र कर सकता है।

 

  • 18890 में उन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ अध्ययन के दौरान उन्होंने आई०सी०एस० की परीक्षा की तैयारी की । आई०सी०एस० की नौकरी को अधिक सम्मान प्राप्त था वस्तुतः भारत में ये सर्वोच्च नौकरशाह होते थे। और इसमें प्रायः अंग्रेज ही सफल होते थे। इस परीक्षा में अरविन्द ने ग्यारहवां स्थान प्राप्त कर उल्लेखनीय सफलता पाई। पिता का स्वप्न तो पूरा हो रहा था पर पुत्र को अंग्रेजों की दासता स्वीकार नहीं थी । अतः वे जानबूझ कर घुड़सवार की परीक्षा में अनुपस्थित रहे- इस तरह से उन्होंने आई०सी०एस० की नौकरी का स्वेच्छा से त्याग कर दिया।

 

  • अरविन्द विद्यार्थी जीवन से ही भारत की परतंत्रता को अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण मानते थे। स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत राजनीतिक संस्थाओं 'इंडियन मजलिस' तथा 'द लौटस एण्ड डैगर के सम्पर्क में इंग्लैंड में आये। इंग्लैंड के प्रभुत्व के विरूद्ध संघर्ष कर रहे आयरिश स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अरविन्द को उत्कट देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत कर दिया।

 

  • 1893 में भारत लौटने पर अरविन्द ने बड़ौदा के उदार एवं प्रगतिशील महाराजा सयाजीराव के यहाँ तेरह वर्षों तक विभिन्न प्रशासनिक एवं अकादमिक पदों पर कार्य किया। इस दौरान उन्होंने बंगला एवं संस्कृत का गहन अध्ययन किया। उन्होंने कालिदास एवं भर्तृहरि के कार्यों का अंग्रेजी में अनुवाद किया । उपनिषदों, पुराणों और भारतीय दर्शन के अध्ययन ने उनके मानस को गहराई से प्रभावित किया। वे अपनी स्थिति के बारे में लिखते है "मुझमें तीन तरह के पागलपन हैं- प्रथम, मैं मानता हूँ कि सारी सम्पत्ति प्रभु की है और उसे प्रभु के कार्य में लगाना चाहिए। दूसरा पागलपन यह है कि चाहे जैसा हो, मैं भगवान का साक्षात् दर्शन करना चाहता हूँ और तीसरा पागलपन यह है कि मैं अपने देश की नदियों, पहाड़ों, भूमि एवं जंगलों को एक भौगोलिक सत्तामात्र नहीं मानता। मैं इसे माता मानता हूँ और इसकी पूजा करता हूँ।"

 

  • 1901 में अरविन्द का विवाह मृणालिनी देवी से हुआ । अरविन्द का जीवन अब भी योगी की तरह सादगी पूर्ण रहा। बंगाल में बढ़ती राष्ट्रीयता की भावना को दबाने के लिए 1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। पूरे भारत और विशेषकर बंगाल में अंग्रेजी सरकार के इस कदम का उग्र विरोध हुआ। अरविन्द बंगाल लौट आए और सक्रिय राजनीति में कूद पड़े । स्वदेशी आन्दोलन और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में अरविन्द ने अहम भूमिका निभाई। कर्क पैदा करने वाली औपनिवेशिक शिक्षा के विकल्प के रूप में राष्ट्रवादी भारतीयों ने कलकत्ता में "नेशनल कौंसिल ऑफ एजुकेशन " का गठन किया। श्री अरविन्द एक राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्राचार्य बने । विपिन चन्द्र पाल द्वारा शुरू की गयी राष्ट्रीय पत्रिका वन्दे मातरम् के सम्पादक श्री अरविन्द नियुक्त किए गए। इनके सम्पादकत्व में वन्दे मातरम राष्ट्रीय पुनरूत्थान एवं क्रान्तिकारी विचारों का सर्वप्रमुख वाहक बन गया । साथ ही 'युगान्तर' जैसी क्रान्तिकारी विचारधारा की पत्रिकाओं में भी वे लगातार अपने ओजस्वी विचार रख रहे थे। इसी दौरान उन्होंने स्वंय अंग्रेजी में 'कर्मयोगिन नामक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन प्रारम्भ किया। बाद में बंगला भाषा में 'धर्म' नामक साप्ताहिक का सम्पादन एवं प्रकाशन किया। अब श्री अरविन्द की ख्याति पूरे देश में एक अग्रणी राजनेता और प्रखर विचारक के रूप में होने लगी। स्वतंत्रता सेनानी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते थे । 1908 में मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस द्वारा अंग्रेजों पर बम फेंके जाने वाले मामले में श्री अरविन्द को भी गिरफ्तार कर लिया गया। 1909 में जेल से रिहा हुए। कर्मयोगिन में प्रकाशित एक लेख के आधार पर अरविन्द पर राजद्रोह के मुकदमे की तैयारी होने लगी। इस दौरान वे राजनीति से सन्यास लेकर पहले चन्द्रनगर फिर पाण्डिचेरी चले गए। पाण्डिचेरी अब उनकी कर्मभूमि एवं तपोभूमि बन गई।

 

  • 1910 से 1917 तक सार्वजनिक जीवन का पूर्णतः त्याग कर अरविन्द गम्भीर साधना में लीन रहे । फ्रांस में जन्मी मीरा रिचार्ड 1914 में श्री अरविन्द के सम्पर्क में आई। 1920 से आश्रम उन्हीं की देख रेख में आगे बढ़ता गया । उन्हें 'श्री माँ' के नाम से पुकारा जाने लगा। उन्हीं के सुझाव पर श्री अरविन्द ने 'आर्य' नामक एक मासिक पत्रिका निकालना प्रारम्भ किया। इसमें अरविन्द के प्रमुख कार्यों का प्रकाशन हुआ । पाण्डिचेरी में अरविन्द के साथ अनेक उपासक, साधक एवं उनके अनुगामी रहने लगे। 19260 में अरविन्द आश्रम की स्थापना की गई। अरविन्द पाण्डिचेरी में चार दशक तक सर्वांग योग की साधना में रत रहे। इस महायोगी ने 5 दिसम्बर, 1950 को रात्रि में चिर समाधि ले ली।

 

श्री अरविन्द का जीवन-वृत्त की रचनाएं 

  • महर्षि अरविन्द एक महान लेखक थे। उनकी पहली पुस्तक कविता-संग्रह थी जो सन् 1995 में प्रकाशित हुई और अंतिम कृति 'सावित्री' थी जो 1950 में प्रकाशित हुई। उन्होंने कविताओं एवं नाटकों के अतिरिक्त धर्म, अध्यात्म, योग, संस्कृति एवं समाज पर अनेक पुस्तकों एवं निबन्धों को लिखा। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं दि लाइफ डिवाइन, दि सिन्थिसि ऑफ योग, एसेज ऑन दि गीता, दि फाउन्डेशन्स ऑफ इन्डियन कल्चर, दि फ्यूचर पोयट्री, दि ह्यूमन साइकिल, दि आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी, सावित्री आदि ।

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