शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त दर्शन |शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त दर्शन |Shankaracharya Adwait Darshan

शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त दर्शन (Shankaracharya Adwait Darshan)

शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त दर्शन |शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त दर्शन |Shankaracharya Adwait Darshan


 

शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त दर्शन

आत्रेयवादरायणकश्यप आदि ऋषियों ने वेदान्त दर्शन के स्वरूप को निश्चित कर उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से की। शंकर के पूर्व वेदान्त के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपादक शंकराचार्य के गुरू के गुरू गौड़पाद थे। उन्होंने माण्डयूक्याकारिका नामक ग्रन्थ की रचना की। नाम से यह माण्डयूक्य उपनिषद का भाष्य प्रतीत होता है पर यह एक स्वतंत्र दार्शनिक ग्रन्थ है जिसमें वेदान्त दर्शन की व्याख्या है। शंकराचार्य द्वारा ब्रह्मसूत्र पर लिखा भाष्य शारीरिक भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। शंकर के कार्य पर परवर्ती विद्वानों- वाचस्पति मिश्रपद्मपादसुरेश्वर आदि ने भाष्य लिखे इन सभी कार्यों में वेदान्त का आधिकारिक प्रतिपादन शंकराचार्य के कार्य को ही माना जाता है।

 

जैसा कि स्पष्ट है शंकराचार्य ने किसी सर्वथा नये मत का प्रतिपादन नहीं किया। उपनिषदों में वर्णित 'ब्रह्मवादही उनके सिद्धान्त का आधार है। इस सिद्धान्त के अनुसार जीव एवं प्रकृति ब्रह्म का ही अंश है और ब्रह्म की ही सत्ता प्रकृति एवं जीव में भी प्रतिभासित हो रही है। जीव माया या अविद्या के कारण जीवन-मृत्यु के बन्धन में पड़ा है। मुक्ति के लिए कर्म या पूज की जगह सही ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। कर्म में लगने से फल तो भोगना ही पड़ता है। साथ ही कर्म में द्वैत भाव भी निहित है। इसमें शरीरसंसार एवं अन्य चीजें भी समाहित हैं।


शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त दर्शन 

शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त दर्शन के निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्त है:

 

1. ब्रह्म ही सत्य है

 

शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है अन्य सारे पदार्थ असत्य या मिथ्या हैं। यह जगत अनित्य एवं असत्य है क्योंकि वह निरन्तर परिवर्तनशील है। ब्रह्म का स्वरूप सत्चित् एवं आनन्दहै । ब्रह्म निर्गुण है- सभी आकारों से रहित । अविद्या के कारण उसे सगुण माना जाता है।

 

2. ब्रह्माण्ड ब्रह्म द्वारा निर्मित है

 

शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ही मूल तत्व है और इसके ही द्वारा ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। और उसी के द्वारा इसमें नित्य दृश्य एवं अदृश्य परिवर्तन होते रहते । ब्रह्म की वह शक्ति जिसके द्वारा वह ब्रह्माण्ड का निर्माण करता हैउसे शंकराचार्य ने 'मायाकहा है। समस्त जगत ब्रह्म का 'विवर्तहै । तत्व में यदि अतत्व का भान हो तो उसे विवर्त कहा जाता है। जगत का सम्पूर्ण आकार जल के ऊपर बुदबुदे के समान मिथ्या है। ब्रह्म जगत की रचनाक्रीड़ा या लीला के लिए करता है और स्वंय जगत के रूप में विवर्तित होता है।

 

3. ब्रह्म और आत्मा एक है

 

शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म और आत्मा भिन्न नहीं है। आत्मा से जीव शुद्ध रूप में चैतन्य एवं ब्रह्मस्वरूप है । मूलतः ब्रह्म और आत्मा में युक्त भेद नहीं है इसीलिए इसे "अद्वैत" कहा गया है । ब्रह्म की माया शक्ति के कारण आत्मा ब्रह्म से अलग दिखती है। माया या अविद्या का नाश होते ही दोनों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता है।

 

4. मानव अनन्त शक्ति एवं ज्ञान का स्रोत है

शंकराचार्य ने आत्मा को ब्रह्म का स्वरूप माना है। आत्मा भी ब्रह्म की ही तरह अनन्त शक्ति एवं ज्ञान का स्रोत है। वह सर्वज्ञसर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिशाली है। मानव माया जड़ित अज्ञान के कारण अपनी अनन्त शक्तियों को जान नहीं पाता है। अतः जीवन-मरण के बन्धन में पड़ा रहता है। जो मानव अपनी आत्मा को पहचान लेता है वह 'ब्रह्मस्वरूपहो जाता है।

 

5. मानव जीवन का लक्ष्य मुक्ति

 

मानव जीवन का लक्ष्य 'मुक्तिहै । संसारिक बन्धनों की समाप्ति से ही मुक्ति संभव है । मुक्ति का मार्ग ज्ञान है। शंकराचार्य ने मुक्ति की व्याख्या कई रूपों में की है। संसार की क्षण भंगुरता से परिचित हो जब मानव विरक्त हो जाता है और उसे सुख-दुख प्रभावित नहीं करता है तो उसे शंकर ने 'जीवन मुक्तकहा । जीवन - मुक्त व्यक्ति सभी प्राणियों में अपना ही स्वरूप देखता है। वह भेदभाव से ऊपर उठकर सत्कर्म में लगा रहता है वह आत्मा और ब्रह्म में भेद नहीं करता है। शंकराचार्य ने ऐसी मुक्ति को 'विदेह मुक्तिकहा । 'जीवन मुक्तिआनन्द देती है तो विदेह मुक्ति 'परमानन्द

 

6. मुक्ति का साधन ज्ञान है

 

'ज्ञानकी प्राप्ति को ही शंकराचार्य ने 'मुक्तिकहा है। ज्ञान के अभाव में मानव 'अविद्याया 'मायाके प्रभाव में रहता है और वह भौतिक जगत को ही सत्य मान बैठता है । जब जीव को सही ज्ञान प्राप्त होता है तो वह आत्मा एवं ब्रह्म के सही स्वरूप को जान पाता है और वह जीवन मुक्ति से विदेह मुक्ति तक पहुँच जाता है। वह कह उठता है 'अहं ब्रहस्मि'- मैं ब्रह्म हूँ।

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