शंकराचार्य का शिक्षा दर्शन |शंकराचार्य के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य पाठ्यक्रम | Education Philosophy Shankaracharya

शंकराचार्य का  शिक्षा दर्शन

 

शंकराचार्य का शिक्षा दर्शन |शंकराचार्य के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य पाठ्यक्रम | Education Philosophy Shankaracharya

शंकराचार्य का शिक्षा दर्शन

परम्परागत भारतीय चिन्तन का चरम उत्कर्ष वेदान्त दर्शन है। इसके आदि प्रर्वतक शंकराचार्य थे। शंकराचार्य द्वारा उद्घाटित वेदान्त दर्शन अद्वैत वेदान्त कहलाता है। अद्वैत वेदान्त ने शिक्षा के अत्यन्त ही उच्च एवं पवित्र लक्ष्य रखे हैं। इसी लक्ष्य के अनुरूप पाठ्यक्रमशिक्षण विधि आदि की संस्तुति की गई है।

 

शंकराचार्य के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य

 

शंकराचार्य के अनुसार शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य विद्यार्थी को अज्ञान से मुक्त कर उसे ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाना है। जिससे वह विद्या एवं अविद्यासत्य एवं असत्य में अन्तर कर सके तथा स्वंय में निहित अनन्त ज्ञान तथा अनन्त शक्ति को पहचान सके। शिक्षा का कार्य विद्यार्थियों में विवेक ज्ञान का निरन्तर विकास करते हुए उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है ।

 

अविद्या या अज्ञान से तात्पर्य है इस भौतिक जगत को पूर्ण मान लेना और इसके पीछे निहित ब्रह्म - सत्ता को नहीं देख पाना । अपने शरीर को हम पूर्ण मान लेते हैं पर उसमें निहित आत्म शक्तिजो स्वयं ब्रह्म हैउसे नहीं पहचान पाते हैं। सृष्टि में दिख रही अनेकता एवं भिन्नता को तो स्वीकार कर लेते हैं पर उसके पीछे निहित एकता को महसूस नहीं कर पाते हैं । यही अविद्या हैअज्ञान है। शिक्षा इस अज्ञान को समाप्त कर मानव को जगत में ब्रह्म की सत्ता का भान कराता है। वस्तुतः वेदान्त के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ब्रह्म-साक्षात्कार है । ब्रह्म को जानने से व्यक्ति ब्रह्ममय हो जाता है। "ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति" ।

 

शंकराचार्य आत्मा और ब्रह्म को एक मानते हैं। सभी आत्माएँ उसी ब्रह्म का अंश होने के कारण एक हैं। हम सब में अनन्त शक्ति एवं अनन्त ज्ञान है। परन्तु अविद्या के कारण हम अपनी शक्ति एवं ज्ञान को जान नहीं पाते हैं । सही शिक्षा हमें अपनी अनन्त शक्ति एवं अनन्त ज्ञान के प्रति जागरूक करती है। सही विद्या हमारी मुक्ति का द्वार खोलती है । 'सा विद्या या विमुक्तयेविद्या वही है जो मुक्त करे।

 

मुक्ति को प्राप्ति के लिए मानव को चार सोपानों से गुजरना होता है। ये चार सोपान हैं-

 

(क) नित्य एवं अनित्य वस्तु विवेक- 

नित्य एवं अनित्य अर्थात् शाश्वत एवं अस्थायी पदार्थों के बीच विवेक पूर्ण अन्तर करने की क्षमता का विकास जैसे जगत् और ब्रह्मशरीर और आत्मासाधन और साध्य के मध्य अन्तर को समझ पाना ।

 

(ख) तृष्णा का त्याग - 

विवेकपूर्ण ज्ञान प्राप्ति के उपरांत मानव को लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही तरह के भोगों का त्याग कर देना चाहिए। इनसे पूर्ण विरक्ति का भाव विकसित होना चाहिए।

 

(ग) संयम - 

मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक मानव में संयम आवश्यक है । ये छः प्रकार के हैं (1) शम ( 2 ) दम (3) उपरति (4) तितिक्षा (5) समाधान और (6) श्रद्धा

 

शम से तात्पर्य है मन का संयम । दम का अर्थ है इन्द्रियों पर नियंत्रण । उपरति का तात्पर्य है निहित कर्मों का विधि- पूर्वक त्याग । तितिक्षा हमारे शरीर और मन को कष्ट सहन करने के योग्य बनाता है। समाधान का तात्पर्य है मन को श्रवणमनन एवं निदिध्यासन में लगाना । गुरू के वाक्यों में विश्वास रखना श्रद्धा है ।

 

(घ) मोक्ष की कामना - 

ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले को मोक्ष की कामना रखना एवं दृढ़ संकल्प रखना आवश्यक है। ज्ञान द्वारा ब्रह्मरूप में स्थित होना मोक्ष है। 

इन चार साधनों की प्राप्ति का साधन शिक्षा है और ये ही उत्तरोत्तर मानव को मुक्ति की ओर ले जाते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत यह संसार या शरीर नष्ट नहीं हो जाता है वरन् मिथ्या लगने लगता । यह सामाजिक- संसारिक दायित्वों का निर्वहन निर्लिप्त भाव से करता है। अनासक्ति भाव से कर्म करते हुए वह हर्ष एवं शोक से ऊपर हो जाता है। सत्कर्म उसका सहज स्वभाव बन जाता है। मुक्त आत्मा सभी प्राणियों में ब्रह्म का ही स्वरूप देखती है अतः वह भेदभाव से ऊपर उठ जाता है। 

शिक्षा मानव को पशुत्व के धरातल से उठाकर चिन्तन-प्रधान प्राणी बनाने की प्रक्रिया है । शिक्षा मानव को विवेक पर आधारित जीवन जीने की कला सिखाती है। यह मानव में प्रेमसहयोगसहानुभूतित्यागनिःस्वार्थ वृत्ति जैसे उदात्त मूल्यों का विकास करती है।

 

शंकराचार्य के अनुसार  पाठ्यक्रम

 

शंकराचार्य के अनुसार पाठ्यक्रम में उन सभी तत्वों का समावेश होना चाहिए जो प्रतिभासिक सत्ताव्यावहारिक सत्ता और परमार्थिक सत्ता के अन्तर्गत आते हैं।

 

प्रतिभासिक सत्ता में वे विषय आते हैं जो कुछ समय के लिए वास्तविक प्रतीत होते हैंकिन्तु वास्तविक जाग्रत अवस्था के अनुभवों से उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। स्वप्नभ्रम तथा कल्पना में होने वाले अनुभव इसके अन्तर्गत आते हैं।

 

व्यावहारिक सत्ता में वे वस्तुएँ आती हैं जो व्यावहारिक जगत में दिखाई देती हैं। ये वस्तुएँ या घटनाएँ नित्य हमारे व्यवहार में आती हैं। वे व्यवहार में सत्य हैं। अविद्या के नाश होने पर ये चीजें मिथ्या हो जाती हैं पर इसके पूर्व तो ये सत्य रहती हैं।

 

परमार्थिक सत्ता वास्तविक सत्ता है। वह शाश्वत और सत्य है । यह कभी भी बाधित नहीं होती है। इसके अन्तर्गत ब्रह्म-ज्ञान का समावेश किया जाता है। 


शंकराचार्य के अनुसार पाठ्यक्रम में वे सभी विषय होने चाहिए जो इन तीन तरह की सत्ताओं के अन्तर्गत आते हैं। उन्होंने प्रत्यक्ष संसारिक सत्ता को त्यागा नहीं। सारा भौतिक जगत हमारी इन्द्रियों के लिए सत्य है। आँख से देखी और कान से सुनी वस्तुओं की व्यावहारिक सत्ता संदेह से परे है। पर यही अंतिम ज्ञान नहीं है। सर्वोच्च ज्ञान तो ब्रह्म ज्ञान है। 

शंकराचार्य के अनुसार 

"वह संसारिक ज्ञानजिसमें जगत् को सब विषयों का मूल अथवा कारण माना जाता निश्चित ही सत्य है। जैसे कारण रूपी ब्रह्म की सत्ता त्रिकाल में रहती हैवैसे ही सत्तारूपेण जगत् भी सत्य रहता हैक्योंकि कारण-कार्य अभिन्न है । नाना रूपात्मक विषय सत्तारूपेण सत्य हैकिन्तु अपने विशेष रूप में असत्य है ।"

 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वेदान्त दृष्टि से पाठ्यक्रम को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:-

 

(i) परमार्थिक विषय या परा विद्या 

(ii) व्यावहारिक विषय या अपरा विद्या

 

परमार्थिक विषय के अन्तर्गत आत्मा एवं ब्रह्म का ज्ञान सम्मिलित किया जा सकता है। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्मतत्व ही वास्तविक एवं शाश्वत तत्व है। वही सत्य है। उसका ज्ञान आवश्यक है.  


व्यावहारिक विषय या अपरा विद्या के अन्तर्गत इस संसार को समझने तथा इसमें समायोजित होने के लिए उपयोगी ज्ञान का समावेश किया जाता है। अर्थात् इतिहासभूगोलअर्थशास्त्रविज्ञानवाणिज्यप्राविधिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए। पर विद्यार्थियों को यह अनुभूति अवश्य होनी चाहिए कि इस जगत् का मूल कारण ब्रह्म है तथा संसार में अर्थपूर्ण ढंग से जीने का तात्पर्य ब्रह्म-साक्षात्कार के लिए जीना है । अतः सर्वश्रेष्ठ ज्ञान ब्रह्म ज्ञान है। इसके उपरांत तर्क पर आधारित विषय जैसे गणिततर्कशास्त्रभौतिक शास्त्र आदि और अंत में भौतिक स्थूल चीजों का ज्ञान ।

 

शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने की विधि-

 

ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा जीवात्मा का स्वाभाविक गुण है। ज्ञान प्राप्त करने हेतु तीन पूर्वापेक्षायें हैं-

 

(ii) ज्ञाता अथवा प्रमातृ चैतन्य : अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने वाला वह चैतन्य जो अन्तःकरण की सहायता से ज्ञान प्राप्त करता है।

 

(iii) ज्ञान–प्रक्रिया या प्रमाण चैतन्य : इस प्रक्रिया में अन्तःकरण के रूपान्तरण द्वारा मानव पदार्थ को जानता है ।

 

(iv) ज्ञेय-पदार्थ या विषय चैतन्य: वह चैतन्य जो ज्ञान-प्राप्ति का विषय होता है।

 

शंकराचार्य के अनुसार परम चैतन्य ब्रह्म है। जब ब्रह्म ज्ञान हो जाता है तो ज्ञाताज्ञेय और ज्ञान- प्रक्रिया एक हो जाती है।

 

ज्ञान प्राप्ति के प्राथमिक स्रोत इन्द्रियाँ हैं। इन्हें बाह्यकरण कहा जाता है । इन्द्रियों द्वारा दी गई जानकारियों का विश्लेषणसामान्यीकरणबोधसंकल्पनिर्णय आदि कार्यों के लिए एक अधिक सूक्ष्म किन्तु प्रभावशाली उपकरण का प्रयोग किया जाता है - इसे अन्तःकरण कहते हैं । इन्द्रियों को हम देख सकते हैं पर अन्तःकरण को देख नहीं सकते। अन्तःकरण को प्रकाश आत्मा देती है - और इसी प्रकाश के कारण अन्तःकरण पदार्थों को पहचानता है।

 

ज्ञान प्राप्ति के स्रोत

 

शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान प्राप्ति करने के तीन स्रोत है:- प्रत्यक्षअनुमान तथा शब्द ।

 

प्रत्यक्ष स्रोत में इन्द्रियों द्वारा पदार्थ की सीधी चेतना होती है। पदार्थ एवं इन्द्रियों का वास्तव में सम्पर्क होता है और वह पदार्थ का संज्ञान करता है । यह संज्ञान दृष्टि-संज्ञानश्रवण - संज्ञानगंध - संज्ञानस्पर्श - संज्ञान या स्वाद - संज्ञान हो सकता है। सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन अध्यापन प्रत्यक्ष विधि के द्वारा ही किया जाता है। विज्ञान का आधार ही प्रत्यक्ष विधि है।

 

अनुमान का भी ज्ञान प्राप्ति में अत्यधिक महत्व है। हम किसी एक वस्तु के आधार पर दूसरी वस्तु के संदर्भ में ज्ञान प्राप्त करते हैं अथवा निर्णय लेते हैं। जैसे अगर पहाड़ पर धुआँ है तो हम विश्वास के साथ कह सकते है कि पहाड़ अग्निमय है। अर्थात् अतीत में अगर दो वस्तुओं को हमेशा साथ-साथ देखा जा सकता है तो कहा जा सकता है कि दोनों में व्याप्ति का सम्बन्ध है। वेदान्त के अनुसार व्याप्ति के अन्तर्गत आगमन एवं निगमन दोनों ही विधियाँ आती है। विज्ञानगणितसमाजशास्त्रतर्कशास्त्र आदि विषयों के अध्ययन–अध्यापन में आगमन एवं निगमन दोनों ही विधियों का बड़े स्तर पर प्रयोग किया जाता है।

 

शब्द या आगम वेदान्त दर्शन के अनुसार ज्ञान प्राप्ति का एक स्वतंत्र स्रोत है। सभी प्रकार का ज्ञान जीवन की छोटी सी अवधि में केवल प्रत्यक्ष प्रणाली द्वारा नहीं दिया सकता है। अनेक पीढ़ियों द्वारा शब्दों या आगमों के रूप में ज्ञान को संचित किया गया है। इसमें केवल वेद या धर्मशास्त्र ही नहीं आते वरन् वे सब ग्रन्थ हैं जिनमें दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए ज्ञान को सिद्धान्तों के रूप में संचित किया गया है। इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षाकृत स्थायी होता है।

 

तर्क ज्ञान के परीक्षण एवं प्राप्ति का एक प्रमुख साधन है। जब ज्ञान अनेक स्रोतों से प्राप्त किया जा रहा हो तो सही ज्ञान के प्राप्ति के लिए तर्क का प्रयोग आवश्यक है। आगम अथवा ग्रन्थों द्वारा प्राप्त ज्ञान का भी परीक्षण करना आवश्यक । तर्क द्वारा हम सत्य की तह तक पहुँचते है । शंकराचार्ये तर्क के द्वारा ही अपने विपक्षियों को पराजित कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करने में सफल रहे। आज के लोकतंत्रात्मक वैज्ञानिक युग में तर्क की शक्ति और आवश्यकता और बढ़ गई है ।

 

उपनिषदों में वर्णित ज्ञान प्राप्ति के तीन चरणों का वर्णन शंकराचार्य ने भी किया। ये तीन चरण हैं- श्रवणमनन एवं निदिध्यासन |

 

श्रवण से तात्पर्य गुरू के मुख से सुनकर ज्ञान का संचय करना । श्रवण के अन्तर्गत पठन को भी सम्मिलित किया जाता है। पुस्तकों में संचित ज्ञान का अध्ययन करनाज्ञान का सुनना या पढ़ना पर्याप्त नहीं है। उसके संदर्भ में मनन या विचार करना आवश्यक है। यानि ज्ञान को समझने के लिए युक्ति-युक्त ढंग से उसे परखना आवश्यक है। इस तरह से ज्ञान का सम्यक् अवबोध किया जा सकता है। जिन संप्रत्ययों का निर्माण हुआ है या जो अवबोध बन पाए हैं उन पर पुनः पुनः विचार करना आवश्यक है। साथ ही ऐसे ज्ञान को हम अपने व्यक्तित्व का अविभाज्य अंग बना लेते हैं और जीवन में इसका उपयोग करते हैं। इस सोपान को निदिध्यासन कहते हैं। इन तीनों सोपानों या स्तरों को प्राप्त किये बिना सही ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है।

 

अद्वैत वेदान्त की छात्र- संकल्पना

 

अद्वैत वेदान्त के अनुसार ब्रह्म और आत्मा में भिन्नता नहीं है। प्रत्येक में के रूप में उसी सर्वशक्तिमान ब्रह्म का निवास है । बालक अनन्त आत्मा छात्र शक्ति सम्पन्न है। छात्रों में दिख रही भिन्नता उनके कर्मों के कारण है। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से सब विद्यार्थी समान हैं और व्यावहारिक दृष्टि से उनमें भिन्नता हैं। जो अध्यापक अद्वैत विचारधारा को स्वीकार करता हैवह सभी छात्रों को समान दृष्टि से देखता है। उन सभी में वह एक आत्मा का दर्शन करता । विद्यालय में विभिन्न आयुधर्मवर्णजाति के बालक होते हैं। उनमें शारीरिकमानसिकबौद्धिक अन्तर हो सकता है पर इन सबमें एक ही ब्रह्म का वास है।

 

शंकराचार्य की दृष्टि में प्रत्येक बालक अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति का अक्षय भण्डार है। कर्मजनित फल के कारण उनमें भिन्नताएँ दिखती हैं। पर जैसे-जैसे विद्यार्थियों के बारे में शिक्षक का ज्ञान बढ़ता जाता हैवैसे-वैसे भिन्नताएँ कम होती जाती हैं। जब अध्यापक स्वंय पूर्णता की स्थिति को प्राप्त कर लेता है तब सभी भिन्नताएँ समाप्त हो जाती हैं और शेष रह जाती है एकता । लेकिन इस स्तर तक पहुँचने के लिए अध्यापक में आत्मानुभूति आवश्यक है। विद्यार्थी के व्यक्तित्व को अध्यापक द्वारा सम्मान मिलना चाहिए।

 

प्रत्येक विद्यार्थी के पास बुद्धि है और उसकी सहायता से वह निर्णय लेने में सक्षम होता है । अध्यापक को अपने निर्णय को छात्रों पर थोपना नहीं चाहिए वरन् छात्रों का ध्यान विभिन्न विकल्पों की ओर खींचना चाहिए ताकि विद्यार्थी स्वंय सही निर्णय लें। इसी प्रक्रिया के आधार पर छात्रों में स्वअनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है।

 

शंकराचार्य के अनुसार अध्यापक का कर्तव्य

 

शंकराचार्य की दृष्टि से गुरू के दो कार्य है : शिष्य को व्यावहारिक जीवन के लिए तैयार करना तथा उसे सद्ज्ञान देकर उसकी अध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना । वेदान्त का अध्यापक अपनी बात- 'तत्वमसि'  अर्थात् 'तू ही ब्रह्म हैकहकर प्रारम्भ करता । और छात्र को शिक्षा के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कराने में सफल होता है तो छात्र कह उठता है 'अहं ब्रह्मास्मियानि मैं ही ब्रह्म हूँ। ऐसा कार्य वही अध्यापक कर सकता है जिसने परम सत्ता की अनुभूति कर ली हो तथा स्वयं जीवन मुक्त । जो स्वंय अविद्या एवं माया से ग्रसित होकर बंधन में पड़ा होवह अपने विद्यार्थियों की अविद्या समाप्त नहीं कर सकता है।

 

विद्यार्थी के लिए अध्यापक का व्यक्तित्व हर दृष्टि से अनुकरणीय होता है। अतः अध्यापक का मनवचनकर्म और व्यवहार छात्रों के लिए अनुकरण के योग्य होना चाहिए। वेदान्त दर्शन का यह स्पष्ट मत है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरू का होना आवश्यक है। शंकराचार्य का कथन है कि "प्रत्येक विद्यार्थी को ऐसे अध्यापक से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जिसका मन स्वस्थ होजो संयमी हो तथा जिसमें अपने छात्रों के लिए स्नेह हो ।"

 

अद्वैत वेदान्त अध्यापक से यह अपेक्षा रखता है कि वह बालकों के व्यक्तित्व को सम्मान दे। उन्हें आत्मवत् समझेब्रह्म के समान आदरणीय माने। अध्यापक को क्रमशः भिन्नता में एकता देखने का प्रयास करना चाहिए। प्रारम्भ में हर विद्यार्थी एक दूसरे से भिन्न दिखता हैधीरे-धीरे वह छात्रों की समानता समूहगत देखने लगता । अन्ततः भिन्नताएँ समाप्त होने लगती है तथा उसे सभी विद्यार्थियों में एक ही शक्ति दिखने लगती है। प्रारम्भ में अध्यापक विद्यार्थी को शरीर से जानता है फिर जैसे-जैसे उसमें पूर्णता की स्थिति आती है वह उसकी आत्मा का दर्शन करने लगता है। फलस्वरूप उस तादात्म्य-स्थिति का अनुभव होने लगता है जो अविद्या की समाप्ति एवं ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।

 

शंकराचार्य के अनुसार अनुशासन की संकल्पना 

वेदान्त दर्शन में अत्यन्त ही उच्च स्तर के अनुशासन की कल्पना की गई है। अध्ययन को प्रभावशाली बनाने हेतु अनुशासन आवश्यक है- अनुशासन से तात्पर्य है मन पर संयम रख एकाग्रचित्त होना । बिना एकाग्रता के शिक्षा संभव नहीं है। एकाग्रता की स्थिति में इन्द्रियाँमनबुद्धि सब पर आत्मा का प्रभाव होता है। इस अवस्था मानव इच्छानुसार कार्य एवं व्यवहार कर सकता है । इन्द्रिय प्रलोभन या मानसिक विकार उसे प्रभावित नहीं कर पाते हैं। उसका व्यवहार सदाचार का उदाहरण बन जाता है।

 

बालक में अनुशासन की भावना दो माध्यमों से विकसित की जा सकती है। एक तो अध्यापक द्वारा स्वंय उच्च उदाहरण प्रस्तुत करने से और दूसरा ज्ञान से। श्रुतिस्मृति सदाचार का ज्ञान देते हैं और अध्यापक का व्यवहार सदाचार का उदाहरण प्रस्तुत करता है। शंकराचार्य की दृष्टि में अनुशासन केवल आत्मानुशासन हो सकता है- दंड का भय दिखाकर लादा गया अनुशासन नहीं ।

 

अद्वैत दर्शन से प्रभावित अध्यापक अपने छात्रों में ब्रह्म की छवि देखता है। उसे अपने विद्यार्थी में अनन्त शक्ति होने का विश्वास होता है। अतः वह अपने विद्यार्थी को शारीरिक दंड देने की नहीं सोचता न ही छात्रों को अनुशासित करने के लिए मानसिक प्रताड़ना का आश्रय होता है। अध्यापक को छात्र की संकल्प - शक्ति पर पूर्ण विश्वास होता है अतः वह उसे निर्णय लेने की स्वतंत्रता देता है। यही स्वतंत्रता छात्रों में विवेक को जन्म देता है और वे आत्म अनुशासन की परिधि में कार्य करते हैं।

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